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Story Transcript

अटलजी की किवताएं

अिरन कुमार शक् ु ला द्वारा संकिलत

अटल िबहारी वाजपेई

Copyright © Atal Bihari Vajpayee All Rights Reserved. ISBN 978-1-63997-016-2 This book has been published with all efforts taken to make the material error-free after the consent of the author. However, the author and the publisher do not assume and hereby disclaim any liability to any party for any loss, damage, or disruption caused by errors or omissions, whether such errors or omissions result from negligence, accident, or any other cause. While every effort has been made to avoid any mistake or omission, this publication is being sold on the condition and understanding that neither the author nor the publishers or printers would be liable in any manner to any person by reason of any mistake or omission in this publication or for any action taken or omitted to be taken or advice rendered or accepted on the basis of this work. For any defect in printing or binding the publishers will be liable only to replace the defective copy by another copy of this work then available.

शर्द्धेय अटल िबहारी वाजपेई को समिपर्त। किव, नेता और भारत रत्न

कर्म-सच ू ी 1. गीत नया गाता हँू

1

2. भारत जमीन का टुकड़ा नहीं

2

3. मौत से ठन गई

3

4. पिरचय

5

5. आज िसन्धु में ज्वार उठा है

8

6. आओ िफर से िदया जलाएँ

12

7. उनकी याद करें

13

8. आए िजस-िजस की िहम्मत हो

15

9. पहचान

17

10. पड़ोसी से

20

11. कदम िमलाकर चलना होगा

22

12. कण्ठ-कण्ठ में एक राग है

24

13. किव आज सन ु ा वह गान रे

26

14. पन ु ः चमकेगा िदनकर

29

15. स्वतंतर्ता िदवस की पक ु ार

30

16. सत्ता

32

17. मंितर्पद तभी सफल है

34

18. बजेगी रण की भेरी

35

19. कौरव कौन, कौन पांडव

36

20. झुक नहीं सकते

37

21. जीवन बीत चला

38

22. मैंने जन्म नहीं मांगा था

39

• v •

कर्म-सच ू ी 23. दे खो हम बढ़ते ही जाते

40

24. न दै न्यं न पलायनम ्

42

25. हरी हरी दब ू पर

44

26. खन ू क्यों सफेद हो गया?

46

27. क्षमा करो बापू ! तम ु हमको

47

28. एक बरस बीत गया

48

29. मनाली मत जइयो

49

अटलजी का पिरचय

51

संकलनकतार् का पिरचय

61

• vi •

1. गीत नया गाता हँू बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं

टूटता ितिलस्म आज सच से भय खाता हंू गीत नहीं गाता हंू .. लगी कुछ ऐसी नज़र िबखरा शीशे सा शहर अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हंू गीत नहीं गाता हंू …

पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रे खा फांद मिु क्त के क्षणों में बार बार बंध जाता हंू गीत नहीं गाता हंू गीत नया गाता हंू …

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर

झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात पर्ाची मे अरुिणम की रे ख दे ख पता हंू गीत नया गाता हंू … टूटे हुए सपनों की कौन सन ु े िससकी

अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर िठठकी हार नहीं मानंग ू ा, रार नहीं ठानंग ू ा, काल के कपाल पे िलखता िमटाता हंू गीत नया गाता हंू …

• 1 •

2. भारत जमीन का टुकड़ा नहीं भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्टर्परु ु ष है ।

िहमालय मस्तक है , कश्मीर िकरीट है , पंजाब और बंगाल दो िवशाल कंधे हैं।

पव ू ीर् और पिश्चमी घाट दो िवशाल जंघायें हैं।

कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है । यह चन्दन की भिू म है , अिभनन्दन की भिू म है , यह तपर्ण की भिू म है , यह अपर्ण की भिू म है । इसका कंकर-कंकर शंकर है , इसका िबन्द-ु िबन्द ु गंगाजल है । हम िजयेंगे तो इसके िलये मरें गे तो इसके िलये।

• 2 •

3. मौत से ठन गई ठन गई!

मौत से ठन गई!

जझ ू ने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर िमलेंगे इसका वादा न था। रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा िज़न्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है ? दो पल भी नहीं, िज़न्दगी िसलिसला, आज कल की नहीं। मैं जी भर िजया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? तू दबे पाँव, चोरी-िछपे से न आ,

सामने वार कर, िफर मझ ु े आज़मा।

मौत से बेख़बर, िज़न्दगी का सफ़र,

शाम हर सरु मई, रात बंसी का स्वर। बात ऐसी नहीं िक कोई ग़म ही नहीं, ददर् अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। प्यार इतना परायों से मझ ु को िमला, न अपनों से बाक़ी है कोई िगला। हर चन ु ौती से दो हाथ मैंने िकये,

आंिधयों में जलाए हैं बझ ु ते िदए। आज झकझोरता तेज़ तफ़ ू ान है ,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है । • 3 •

अटलजी की किवताएं

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

दे ख तेवर तफ़ ू ाँ का, तेवरी तन गई। मौत से ठन गई।

• 4 •

4. पिरचय िहंद ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ मैं शंकर का वह कर्ोधानल कर सकता जगती क्षार क्षार।

डमरू की वह पर्लयध्विन हंू िजसमे नचता भीषण संहार। रणचंडी की अतप्ृ त प्यास, मैं दग ु ार् का उन्मत्त हास।

मैं यम की पर्लयंकर पक ु ार, जलते मरघट का धँआ ु धार। िफर अंतरतम की ज्वाला से, जगती मे आग लगा दं ू मैं। यिद धधक उठे जल, थल, अंबर, जड़, चेतन तो कैसा िवस्मय?

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ मैं आिद परु ु ष, िनभर्यता का वरदान िलये आया भू पर। पय पीकर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो िवष पीकर। अधरों की प्यास बझ ु ाई है , पी कर मैने वह आग पर्खर।

हो जाती दिु नया भस्मसात, िजसको पल भर में ही छूकर। भय से व्याकुल िफर दिु नया ने पर्ारं भ िकया मेरा पज ू न।

मैं नर, नारायण, नीलकण्ठ बन गया न इसमे कुछ संशय। िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ मैं अिखल िवश्व का गुरु महान, दे ता िवद्या का अमर दान।

मैने िदखलाया मिु क्तमागर्, मैने िसखलाया बर्ह्म ज्ञान। मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योित पर्खर।

मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?

मेरा स्वर नभ में घहर घहर, सागर के जल में छहर छहर। • 5 •

अटलजी की किवताएं

इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सौरभमय।

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ मैं तेजपन् ु ज तमलीन जगत में फैलाया मैने पर्काश।

जगती का रच करके िवनाश, कब चाहा है िनज का िवकास?

शरणागत की रक्षा की है , मैने अपना जीवन दे कर।

िवश्वास नही यिद आता तो साक्षी है इितहास अमर।

यिद आज दे हली के खण्डहर, सिदयों की िनदर्ा से जगकर। गंुजार उठे ऊंचे स्वर से ‘िहन्द ु की जय’ तो क्या िवस्मय?

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ दिु नया के वीराने पथ पर जब जब नर ने खाई ठोकर।

दो आँसू शेष बचा पाया जब जब मानव सब कुछ खोकर। मैं आया तभी दर्िवत होकर, मैं आया ज्ञान दीप लेकर। भल ू ा भटका मानव पथ पर चल िनकला सोते से जगकर। पथ के आवतोर्ं से थक कर, जो बैठ गया आधे पथ पर। उस नर को राह िदखाना ही मेरा सदै व का दृढिनश्चय।

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ मैने छाती का लहु िपला पाले िवदे श के क्षुिधत लाल। मझ ु को मानव में भेद नही, मेरा अन्तःस्थल वर िवशाल। जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का खल ु ा द्वार।

अपना सब कुछ हंू लट ु ा चक ु ा, िफर भी अक्षय है धनागार। मेरा हीरा पाकर ज्योितत परकीयों का वह राज मक ु ु ट। यिद इन चरणों पर झक ु जाए कल वह िकिरट तो क्या िवस्मय?

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ मैं वीरपतर् ु मेरी जननी के जगती में जौहर अपार।

अकबर के पतर् ु ों से पछ ू ो, क्या याद उन्हें मीनाबजार? • 6 •

अटल िबहारी वाजपेई

क्या याद उन्हें िचत्तौड़ दग ु र् में जलने वाली आग पर्खर?

जब हाय सहस्तर्ों माताएं, ितल ितल कर जल कर हो गई अमर।

वह बझ ु ने वाली आग नहीं रग रग में उसे समाए हंू । यिद कभी अचानक फूट पडे िवप्लव लेकर तो क्या िवस्मय?

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ होकर स्वतन्तर् मैने कब चाहा है कर लंू जग को गल ु ाम? मैने तो सदा िसखाया है करना अपने मन को गुलाम। गोपाल राम के नामों पर कब मैने अत्याचार िकए?

कब दिु नया को िहन्द ु करने घर घर में नरसंहार िकए? कोई बतलाए काबल ु में जाकर िकतनी मिस्जद तोडी?

भभ ू ाग नही, शत शत मानव के हृदय जीतने का िनश्चय।

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥ मैं एक िबन्द,ु पिरपण ू र् िसन्धु है यह मेरा िहन्द ु समाज। मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यिक्त और यह है समाज। इससे मैने पाया तन मन, इससे मैने पाया जीवन।

मेरा तो बस कतर्व्य यही, कर दं ू सब कुछ इसके अपर्ण। मैं तो समाज की थाती हंू , मै तो समाज का हंू सेवक। मैं तो समिष्ट के िलए व्यिष्ट का कर सकता बिलदान अभय।

िहन्द ु तन मन, िहन्द ु जीवन, रग रग िहन्द ु मेरा पिरचय॥

• 7 •

5. आज िसन्धु में ज्वार उठा है आज िसंधु में ज्वार उठा है ,

नगपित िफर ललकार उठा है , कुरुक्षेतर् के कण–कण से िफर, पांचजन्य हँुकार उठा है । शत–शत आघातों को सहकर, जीिवत िहंदस् ु थान हमारा,

जग के मस्तक पर रोली सा, शोिभत िहंदस् ु थान हमारा। दिु नयाँ का इितहास पछ ू ता, रोम कहाँ, यन ू ान कहाँ है ?

घर–घर में शभ ु अिग्न जलाता, वह उन्नत ईरान कहाँ है ?

दीप बझ ु े पिश्चमी गगन के,

व्याप्त हुआ बबर्र अँिधयारा, िकंतु चीर कर तम की छाती, चमका िहंदस् ु थान हमारा। हमने उर का स्नेह लट ु ाकर, पीिड़त ईरानी पाले हैं,

िनज जीवन की ज्योित जला, मानवता के दीपक बाले हैं। • 8 •

अटल िबहारी वाजपेई

जग को अमत ृ का घट दे कर,

हमने िवष का पान िकया था, मानवता के िलये हषर् से,

अिस्थ–वजर् का दान िदया था।

जब पिश्चम ने वन–फल खाकर, छाल पहनकर लाज बचाई,

तब भारत से साम गान का,

स्वािगर्क स्वर था िदया सन ु ाई। अज्ञानी मानव को हमने,

िदव्य ज्ञान का दान िदया था,

अम्बर के ललाट को चम ू ा, अतल िसंधु को छान िलया था। साक्षी है इितहास, पर्कृित का, तब से अनप ु म अिभनय होता, परू ब से उगता है सरू ज, पिश्चम के तम में लय होता।

िवश्व गगन पर अगिणत गौरव, के दीपक अब भी जलते हैं,

कोिट–कोिट नयनों में स्विणर्म, यग ु के शत–सपने पलते हैं।

िकन्तु आज पतर् ु ों के शोिणत से, रं िजत वसध ु ा की छाती,

टुकड़े-टुकड़े हुई िवभािजत, बिलदानी परु खों की थाती।

कण-कण पर शोिणत िबखरा है , पग-पग पर माथे की रोली,

इधर मनी सख ु की दीवाली, • 9 •

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