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Story Transcript

सौम्य मालवीय

घर एक नामुमककन जगह है (ककिता-संग्रह)

घर एक नामुमककन जगह है

सौम्य मालिी्य

ISBN : 978-81-948443-5-8 प्रकाशकः कहंद ्युगम सी-31, सेक्टर-20, नोएडा (उ.प्र.)-201301 फोन- +91-120-4374046 मुद्रक ः रेप्रो इंकड्या कलकम्टेड आिरण ः अकिंत्य मालिी्य पहला संसकरण ः 2021 मूल्य ः ₹150 © सौम्य मालिी्य Ghar Ek Namumkin Jagah Hai

A collection of poems by Saumya Malviya Published By

Hind Yugm C-31, Sector-20, Noida (UP)-201301 Phone : +91-120-4374046 Email : [email protected] Website : www.hindyugm.com First Edition : 2021 Price : ₹150

पल्लवी के लिए

ककिताओं से पहले ्ये ककिताएँ मेरी सारी कोकशशों के बाद भी, कक ऐसा न हो, ख़ुद को कलखा ले गई हैं। इसकलए ्ये बधाई की पात्र हैं और मैं इनहें अपने पास रोके रखूँ इसका मुझे कोई हक़ नहीं बनता। इनकी ककितातमक गुणित्ा के बारे में तो मुझे पता नहीं, पर मुझ पर इनके बड़े एहसान हैं। कजस दौर में ‘संिाद’ की ‘सुलभता’ की शत्त अपने-आप में सब कुछ बनती जा रही है और साकहत्य भी संिार के दा्यरे में खपता जा रहा है, इन ककिताओं ने मुझे ख़ुद अपनी भाषा में अजनबी हो पाने का सुख कद्या है। ्यह आप भी मानेंगे कक भाषा और कििारों का जादू तब असल अर्थों में िलता है जब संप्रेषण का दबाि न रह जाए। ्यह आपको अकेला नहीं करता बललक िमतककृत हो पाने के लगातार धुँधले पड़ते एहसास को जगा जाता है। मेरे कलए ्यह ककिताओं में कुछ-कुछ संभि हो पा्या है। एक और बात कक ्ये ‘अजनबीपन’ माकलकाने के एहसास को ख़तम करता है। कम-से-कम भाषा, कििार और अनुभूकत्यों की हक़दारी तो नहीं रह जाती। इससे अपने भीतर बोलती अन्यताओं को सुनने का रासता खुलता है। पररि्य-अपररि्य के धागों से बुनी हुई ्यह आपसदारी मेरे कलए बहुत क़ीमती है। ्यही िह भाि है जो मुझे अंततः ककिता कलखने तक ले आता है। इन ककिताओं के ज़रर्ये मेरे पाठक मुझसे संबोकधत तो हैं पर सार् ही मुझसे सितंत्र भी। ्ये बात मुझे बहुत सुकून देती है। पर ऐसा भी नहीं की कुछ संप्रेकषत नहीं होता। शा्यद ककिता के ‘होने’ का क्षण अपनी सांद्र

घ्टनातमकता के सार् इधर से उधर िला जाता हो। क्या पता! किर मेरे कलए ककिताएँ तो दरअसल िे घ्टनाएँ हैं जब आपने भाषा और जगत की ककसी महीन-सी गुतर्ी को सुलझाने के प्र्यास में एक उँगली का नाख़ून दूसरी के पोर पर गड़ा कल्या र्ा। ्यह बात ठीक-ठीक ककस तरह पढ़ने िाले तक पहुँिती है, मैं नहीं जानता! इन ककिताओं को आपसे साझा करते हुए मैं किसलािा कशमबोसका्त की तज़्त पर उन सबका शुक्रगुज़ार हँ जो ककिताएँ नहीं कलखते। ्यह सोिकर तो मुझे और भी ख़ुशी होती है कक शा्यद ्ये ककिताएँ कभी भी पढ़ी नहीं जाएँगी। बाज़ार की भाषा में कजसे ‘्टागगे्ट िग्त’ कहते हैं, िह इन ककिताओं का नहीं है। हो भी नहीं सकता। ्यह क्या ज़रूरी है कक लेखक और पाठक ककसी त्य मोिगे पर कमलें ही? बललक मुझे इस िीज़ पर भी किश्ास है कक कजस भाषा में लेखकों की गुमनामी की ‘संभािना’ नहीं रह जाती िह ख़तम होने के कगार पर है और उसे ख़तम हो जाना िाकहए। लोग ्यूँ ही कलखें, ्यूँ ही पढ़ें और ्यह िुसअते-सुख़न ्यूँ ही पनपे, इसी में साकहत्य की भलाई है। नज़मों का रूमान तो बाररश के पानी में अक्षरों के धुल जाने में छुपा होता है। कजन काग़ज़ों के ककनारे सीधे और तीखे होते हैं, उन पर आिेदन-पत्र ठीक लगते हैं, ककिताएँ नहीं और कजन कलफाफों पर पते कलखे होते हैं, उनके भीतर और िाहे जो भी हो, ककिताएँ तो नहीं हो सकतीं। किर अगर आप अपनी ककिताओं से ख़ुद ही बेगाने नहीं हुए तो िे पारदकश्तता के पदगे में ही रही आएँगी, रहस्य के आँगन में उनके कनकलने की संभािनाएँ कम हो जाएँगी। मैंने इन ककिताओं से लंबे सम्य तक कभी अपनापन, कभी बेगानगी महसूस की है। मैं इनहें अब भीतरबाहर िैले कोहरों पर रख देना िाहता हँ। शा्यद इनमें कनहाँ कोई खुली हुई, बेआिाज़ और जानी-पहिानी िीख़ आपको भी सुनाई दे। इनमें से कई ककिताएँ सामक्यक हैं, कजनका जनम तातकाकलक प्रकतकक्र्याओं को का्टने-छीलने के क्रम में हुआ। पर ककिताओं के सामक्यक होने का मतलब ्ये नहीं कक ककि भी सामक्यक हो। ककि

को अपनी रिना में प्रासंकगकता पैदा करने के कलए सि्यं कई सतरों पर अप्रासंकगक होना पड़ता है। मेरा मानना है कक समकालीनता के बहाि को कन्यंकत्रत करके ही रिना में समकालीन हुआ जा सकता है। शा्यद ककसी रिना की कमज़ोरी इस बात में भी छुपी होती है कक उसका रिनाकार ख़ुद को समकालीन बनाने का मोह नहीं छोड़ पाता। मुझे लगता है कक इस किप्या्त्य से पैदा हुआ तनाि आपको इन रिनाओं में भी कदखेगा। कहाँ इस पर िलते हुए मैं औंधे मुँह कगर पड़ा हँ और कहाँ बात कनभ गई है, ्ये आप त्य करें। आकख़र में, ककिता कलखना मेरे कलए आकख़री क़दम होता है। कजस हद तक ्टाला जा सके, मैं कलखने को ्टालता हँ। इस अर््त में मैं एक ररलक्टें्ट ककि हँ। इन ककिताओं को आपको सौंपते हुए बस इतनी उममीद कर सकता हँ कक जैसी रू-गदा्तनी मैंने इन नज़मों से की है िैसी आप न करेंगे। और अगर करें भी तो... कोई बात नहीं। कफलहाल, इतना ही। - सौम्य मालिी्य

ककिता-क्रम इंतज़ार लो मैं कलख रहा हँ एक प्रेम ककिता कशमीर (1) कशमीर (2) कोई तो काग़ज़ होगा तरक़ीब ग्यारह बजे आना माि्त सोकन्या गाँधी बदिलन लड़की अममा अमलतास झरता है कहो कुछ ्याद भाषा का ब्ाह्मण एक अजनबी की तरह किज्ान के महाप्र्योग ितनपरसत समुद्र: तीन कित्र िैल्लन रोकहत िेमुला के नाम कमस िूज़ी देखो कबक्ट्या ्ये दुकन्या है हे राम सीख

13 15 19 20 22 25 28 31 33 34 36 38 41 43 45 47 54 56 59 63 67 69 71 89

90 92 94 96 98 99 101 104 105 108 111 113 117 125 126 128 131 133 136 139 141 143 147 149 151 157 159

हकग्तज़ नहीं! अन्नप्राशन दोहराि पररित्तन सर्ापत्य फी्टस िह दुख मेरा है, िह ककिता मेरी है क़कब्सतान इलमों बस करीं ओ ्यार फज़्त करो सुनो शाम ख़िाब-ख़िाब कुछ है जो बदल ग्या है किसमरण उममीद से नींद कभी-कभी एक छो्टी-सी मुलाक़ात ज्य श्ी राम स्टेशनरी झपकी घर एक नामुमककन जगह है िे आपात लसर्कत्याँ र्ीं ककतना आसान र्ा महामारी से मरना, काश...! माँ की लाश ्ये बदली दीिानी है आकसफा

इंतज़ार कुछ इस तरह उसने इंतज़ार का हुनर सीखा मानकसक रोकग्यों के िाड्ड में हर्कड़ी से बँधे हुए एक लोहे के पलंग से उसने घर िालों का मुद्दतों कक्या इंतज़ार तेज़ धूप में मुँह खोलकर उसने घं्टों कक्या जीभ के बरने का इंतज़ार उसने इंतज़ार का क्षेत्रिल मापा आ्यतन कनकाला बललक किककसत कक्या पूरा-का-पूरा इंतज़ार का कलन गकणत उसने इंतज़ार का इंतज़ार कक्या किर इंतज़ार के इंतज़ार का इंतज़ार किर, किर, और किर, और किर उसने अनंत श्ेकण्यों में कक्या इंतज़ार घर एक नामुमककन जगह है / 13

इस तरह इंतज़ार उसका सि-अनुभूत सत्य हो ग्या सम्य और काल से मुक्त इकतहास से कनरपेक्ष किर इंतज़ार के गहराते घनति के बल से िह कबखर ग्या किखंकडत होकर जहाँ-तहाँ िाँद की राख की तरह असपतालों, स्टेशनों, बस अड्ों में आप देख सकते हैं उसे इन जैसी तमाम जगहों पर इंतज़ार की ्योग मुद्राएँ करते और िीतराग भाि से देखते हुए इंतज़ार से व्यग्र िूहों की तरह बेिैन लोगों को कुछ इस तरह उसने इंतज़ार का हुनर सीखा के ख़ुद इंतज़ार हो ग्या आतमा के भीतरी ककिाड़ों तक!

सौम्य मालिी्य / 14

लो मैं कलख रहा हूँ एक प्ेम ककिता लो मैं कलख रहा हँ एक प्रेम ककिता इसमें प्रसतुत करूूँगा मैं प्रेम का िही आद्यकबंब हाँ िही ‘प्रो्टो्टाइप’ इससे इस बात की तसदीक़ होगी कक मैंने भी अपने पुरखों की तरह ही ््यार कक्या! शक की र्ोड़ी भी गुंजाइश जो रह जाए अगर तो कलम मेरी कक़मारख़ाने में उछाली जाए! सबसे पहले तो िुनूँगा मैं ककसी संसककृत काव्य-नाक्टका से तुमहारे कलए कोई सांगीकतक-सा नाम कक तुमहें पुकारना ही काव्य हो और एक समृद्ध परंपरा को आमंत्रण भी किर ्ये संबोधन मेरे आगामी संकलन के शीष्तक के कलए भी उप्युक्त रहेगा! (अब अगर कनुलरिया कहने पर कनु के रूप में मुझ पर इशारा जाता हो तो लनस्संदेह यह मेरा अलिरिेत नहीं।) घर एक नामुमककन जगह है / 15

सौम्य मालवीय

क�वताएँ

₹150

जन्म - 25 मई 1987, इलाहाबाद लंबे समय से जीवन, समाज, िवज्ञान, दशर्न और गिणत क� प्रमेय� को किवता क� आईने म� समझते-महसूसते हुए। िदल्ली स्क�ल ऑफ़ इकोनॉिमक्स से गिणत क� समाजशास्त्र पर शोध संपन्न। कई वष� तक िदल्ली िवश्विवद्यालय क� प्रित�ष्ठत कॉलेज� म� पढ़ाने क� बाद अब अहमदाबाद िवश्विवद्यालय क� स्क�ल ऑफ़ आट्सर् एंड साइ�सेज़ म� अध्यापन और नई शोध योजना� म� सिक्रय। संपक� ः स्थायी- ए-111, म�हदौरी कॉलोनी, इलाहाबाद -211004, उत्तर प्रदेश वतर्मान- बी-73, प्राइम प्लाज़ा, बोडकदेव, अहमदाबाद -380054, गुजरात मो - 9873994556 ईमेल- [email protected]

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