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महायोगी गोरखनाथ

महायोगी गोरखनाथ डॉ. फूलचंद प्रसाद गुप्त

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MAHAYOGI GORAKHNATH

by Dr. Phoolchand Prasad Gupta Published by PRABHAT PAPERBACKS 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-110002 ISBN 978-93-5322-618-3

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आशीर्वचन

वावतार, हठयोग-प्रवर्तक, महायोगी गुरु श्री गोरखनाथजी का लोकपावन चरित्र व्यक्ति-समाज-प्रेरक और उद्धारक है। हठयोग की सदानीरा में योगी-साधक अवगाहन कर अपने जीवन को कृत-कृत्य करते हैं और देव-दुर्लभ मानव शरीर के धारण की सार्थकता को सिद्ध करते हुए जीवन के परम उद्देश्य परम पुरुषार्थ को प्राप्त करते हैं। लोकमानस भी शिवगोरक्ष की अमरवाणी से प्रेरणा ग्रहण कर सद्गति के मार्ग का वरण करता रहा है। संस्कृत वाङ्मय के प्रकांड आचार्य और अनेक लोकभाषाओं में कविता कर आदि कवि के रूप में विश्वविश्रुत महायोगी गोरखनाथ ने अपने सद्साहित्य के माध्यम से मानव-समाज के आध्यात्मिक उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त किया है। महायोगी गुरु श्री गोरखनाथ के लोकपावन चरित्र के बहुआयामी उपदेश लोक-जीवन को अनुप्राणित करते हैं। गोरखनाथजी के जीवन-चरित और उनके लोक-संदेशों को लेकर डॉ. फूलचंद प्रसाद गुप्त की पुस्तक ‘महायोगी गोरखनाथ’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पाठक इसके माध्यम से महायोगी गोरखनाथ को जान समझ सकेंगे। इस पुस्तक के सफल प्रकाशन के लिए मेरी मंगलमयी शुभकामनाएँ और लेखक को बधाई। 22 मार्च, 2019

शुभेच्छु —महंत योगी आदित्यनाथ

अनुक्रम आशीर्वचन

1. महायोगी गोरखनाथ

5 9

2. गोरखबानी में गुरु महिमा

24

4. महायोगी गोरखनाथ और भोजपुरी

45

3. महायोगी गोरखनाथ का लोक-संदेश 5. महायोगी गोरखनाथ और संत कबीर

6. महायोगी गोरखनाथ—मकर संक्रांति पर्व और खिचड़ी मेला

33 62 76

भा

महायोगी गोरखनाथ

रत भगवान् के अवतरण की धरती है। इस धरती पर भगवान् राम, भगवान् कृष्ण और भगवान् शिव का प्राकट‍्य हुआ है। यह गौरव मात्र भारत की धरती को प्राप्त है। यह भगवान् की जन्मभूमि, कर्मभूमि और तपोभूमि है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार भगवान् इस धरती पर अवतरित होते रहे हैं। त्रेतायुग में भगवान् राम, द्वापर में भगवान् कृष्ण का अवतरण ‘परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्’ के लिए हुआ, वहीं भगवान् शिव महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ के रूप में जगत्-कल्याण के लिए चारों युगों में प्रकट हुए। शिवावतारी, नाथपंथ के प्रवर्तक और हठयोग के प्रणेता गुरु श्री गोरखनाथ की तपःस्थली होने का सौभाग्य गोरखपुर की धरती को प्राप्त है। एक बार गुरु गोरखनाथ समाधि में स्थित थे, जिसे देखकर माँ पार्वती ने भगवान् शिव से उनके विषय में पूछा, तो भगवान् शिव ने कहा— ‘‘अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत्। योगमार्ग प्रचाराय मयारूपमिदंधृतम्।।’’ अर्थात् ‘‘योग मार्ग से ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताने के लिए मैंने ही गोरख के रूप में अवतार लिया है।’’ इसीलिए इन्हें शिवावतारी कहा जाता है। गोरखनाथजी हठयोग के प्रचारक हैं। गोरखनाथजी सतयुग में पंजाब, त्रेतायुग में गोरखपुर, द्वापर युग में

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द्वारका के आगे हरमुज में और कलयुग में काठियावाड़ गोरखमढ़ी में प्रादुर्भूत हुए। बंगाल में विश्वास किया जाता है कि गोरखनाथजी उसी प्रांत में प्रकट हुए थे। नेपाली परंपरा में बताया गया है कि गोरखनाथजी पंजाब से चलकर नेपाल गये थे। जब भगवान् विष्णु कमल में प्रकट हुए, तब श्री गुरु गोरखनाथ पाताल में तपस्या कर रहे थे। भगवान् विष्णु चारों ओर जल की समस्या से चिंतित होकर गुरु श्री गोरखनाथजी के पास सहायता के लिए गये। गुरु श्री गोरखनाथ ने उन्हें धूनी से विभूति दी, जिससे पृथ्वी की रचना हुई और सृष्टि का कार्य सुगम हो सका। भगवान् श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए गुरु श्री गोरखनाथजी को निमंत्रण भेजा गया था, परंतु तपस्या में लीन होने के कारण वे उपस्थित न हो सके। उन्होंने अपना आशीर्वाद भेजा था। भगवान् श्रीराम ने उनसे योग संबंधी उपदेश ग्रहण किया था। द्वापर में द्वारिका-हरमुज में अवतरित हुए, यही उनकी तपःस्थली रही। इसी स्थान पर रुक्मिणी और भगवान् कृष्ण के विवाह में उत्पन्न हो रहे विघ्न को दूर करने के लिए देवताओं के आग्रह पर गुरु श्री गोरखनाथ ने उपस्थित होकर विवाह सकुशल संपन्न करवाया। जब धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ का आयोजन हुआ, तब इस यज्ञ के लिए आमंत्रण देने महाबली भीम गुरु श्री गोरखनाथ की तपःस्थली गोरखपुर आए थे। उस समय गुरु श्री गोरखनाथ तपस्या में लीन थे। भीम को प्रतीक्षा करनी पड़ी। जहाँ पर महाबली भीम ने विश्राम किया, वहाँ सरोवर बन गया, जो आज भी श्री गोरखनाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित है। गुरु गोरखनाथजी ने अपने संदर्भ में कहा— पूरब देस पछाही घाटी, (जनम) लिष्या हमारा जोगं। गुरु हमारा नांवगर कहिए, भेटै भरम विरोगं।। इस छंद का अर्थ यद्यपि अध्यात्म से जुड़ा हुआ है, परंतु प्रथम चरण

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से अर्थ निकलता है कि गुरु श्री गोरखनाथजी का प्राकट‍्य पछाँह की घाटी में हुआ और उनके जीवन की तपःस्थली पूरब देश बना। एक बार गुरु मत्स्येंद्रनाथ भ्रमण करते हुए गोदावरी नदी के किनारे बसे चंद्रगिरि नामक गाँव में गये। वहाँ से भिक्षा माँगते हुए एक ब्राह्म‍‍ण ‍ के घर पहुँचे। ब्राह्म‍‍णी ने बड़े आदर के साथ उनकी झोली में भिक्षा डाल दी। ब्राह्म‍‍णी के मुख पर पातिव्रत्य का अपूर्व तेज था। उसे देखकर मत्स्येंद्रनाथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। परंतु साथ ही इस सती के चेहरे पर उदासी की एक क्षीण रेखा दिखाई पड़ी। जब इन्होंने इसका कारण पूछा, तब उस सती ने निस्‍संकोच भाव से बताया कि संतान न होने के कारण उसे संसार फीका जान पड़ता है। मत्स्येंद्रनाथ ने तुरंत झोली से थोड़ी सी भभूत निकाली और ब्राह्म‍‍णी के हाथ पर रखते हुए कहा—‘‘इसे खा लो। तुम्हें पुत्र होगा।’’ इतना कहकर वे तो चले गए। इधर एक पड़ोसिन ने जब यह बात सुनी, तब ब्राह्म‍‍णी को भभूत खाने से मना कर दिया। फलस्वरूप उसने उस राख को एक गड्ढे में फेंक दिया। बारह वर्ष बाद मत्स्येंद्रनाथ इधर पुनः आए और उन्होंने उसके द्वार पर जाकर अलख जगाया। ब्राह्म‍‍णी के बाहर आने पर उन्होंने कहा—‘‘अब तो तेरा बेटा बारह वर्ष का हो गया होगा। देखूँ तो वह कहाँ है?’’ यह सुनते ही वह स्‍त्री घबरा गई और उसने सारा हाल सच-सच बता दिया। मत्स्येंद्रनाथ उसे लेकर उस गड्ढे के पास गए और वहाँ भी अलख जगाया। आवाज सुनते ही बारह वर्ष का एक तेजपुंज बालक प्रकट हुआ और मत्स्येंद्रनाथ के चरणों में सिर रखकर प्रणाम करने लगा। यही बालक आगे चलकर गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मत्स्येंद्रनाथ ने उस समय से ही उस बालक को अपने साथ रखा और योग की पूरी शिक्षा दी। गुरूपदिष्ट मार्ग से गोरखनाथजी ने साधना पूरी की और स्वानुभव से योगमार्ग में और भी उन्नति की। नेपाल के लोग श्री गोरखनाथ को श्री पशुपतिनाथजी का अवतार मानते हैं। नेपाल के भोगमती, भातगाँव, मृगस्थली, औंधरा, स्वारीकोट और पिडयन

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गोरखनाथ

आदि कई स्थानों में उनके योगाश्रम हैं। आज भी नेपाल देश की मुद्रा पर एक ओर श्री-श्री गोरखनाथ लिखा रहता है। गोरखनाथजी के शिष्य होने के कारण ही नेपाली ‘गोरखा’ कहलाते हैं। गोरखपुर में श्री गोरखनाथजी ने तपस्या की थी, जहाँ उनका बहुत बड़ा मंदिर है, वहाँ नेपाल के लोग दर्शनपूजन के लिए आते हैं। गोरखनाथजी महाराज धर्म-प्रचार करते हुए एक बार ज्वाला देवी के यहाँ हिमाचल प्रदेश काँगड़ा पहुँचे। देवी ने उन्हें वहाँ ठहरने की प्रेरणा दी, इस पर श्रीनाथजी ने कहा कि आपके यहाँ तामसी पदार्थों का भोग लगता है, इसलिए हम यहाँ भोजन नहीं करेंगे। विशेष आग्रह पर गोरखनाथजी ने कहा कि आप चूल्हा जलाकर खिचड़ी के लिए जल गरम करने हेतु डिब्बी रख दें, मैं भिक्षा (खिचड़ी) माँगकर लाता हूँ। इस पर देवी ने खिचड़ी के लिए डिब्बी चढ़ा दी। खिचड़ी के लिए पानी आज भी गरम हो रहा है, किंतु गोरखनाथजी पुनः उस स्थान पर आज तक नहीं पहुँचे। वे भ्रमण करते हुए गोरखपुर पहुँच गए। यहाँ की हरीतिमा और रमणीयता पर मुग्ध होकर गोरखनाथजी ने यहाँ बैठकर तपस्या की। इस प्रकार उनकी यह साधनास्थली पवित्र तपोभूमि के रूप में विख्यात है। श्री गोरखनाथजी को यहाँ तपस्या करते हुए देखकर श्रद्धालुओं ने नाथजी के निवास के लिए यहीं पर एक कुटिया बना दी। गोरखनाथजी ने जिस स्थान पर तपस्या की, उसी स्थान पर उनका भव्य मंदिर निर्मित है, जो लाखों श्रद्धालुओं की श्रद्धा का केंद्र है। भगवती इरावती (राप्ती) के तट पर हरीतिमा और रमणीयता से मुग्ध होकर इस स्थान पर जब गोरखनाथजी महाराज साधना में लीन हुए तो धीरेधीरे उनकी साधना की बात फैलने लगी। बहुत से लोग उनके दर्शन और आशीर्वाद के लिए उमड़ पड़े। लोगों ने श्रीनाथजी के खप्पर में खिचड़ी भरना आरंभ किया। जिस मुहूर्त में खिचड़ी से खप्पर भरा जाने लगा, उस समय मकर संक्रांति पर्व का पुण्यकाल था। भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन में यह पर्व नवान्न-महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। लोग भोजन

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के रूप में खिचड़ी ग्रहण करते हैं। इस तरह गोरखनाथजी के खप्पर को खिचड़ी से भरने का उपक्रम गोरखनाथ मंदिर में मकर संक्रांति पर्व पर ‘खिचड़ी महोत्सव’ और मेले के रूप में हुआ। गोरखनाथजी के खप्पर में अपार चावल-दाल की राशि भर दी गई, पर खप्पर खाली का खाली ही रह गया। यह अद्भुत और यौगिक चमत्कार था। मकर संक्रांति के पर्व पर लाखों श्रद्धालु महायोगी गुरु श्री गोरखनाथजी को खिचड़ी चढ़ाते हैं और गोरखनाथजी का दर्शन और आशीर्वाद पाते हैं। इस पर्व पर एक महीने का मेला भी लगता है। एक बार गोरखनाथजी ने अपने खप्पर में खिचड़ी बनाई। उन्होंने आसपास की जनता को भोजन के रूप में खिचड़ी का प्रसाद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया। अपार जन-समूह ने खिचड़ी का प्रसाद ग्रहण किया, पर खप्पर ज्यों-का-त्यों भरा रह गया। गोरखनाथजी की असीम योगसिद्धि से लोग चमत्कृत हो गये। इसके पूर्व भी गोरखनाथजी ने यौगिक चमत्कार प्रकट किया था। उन्होंने लोगों से कहा कि जिसकी जितनी इच्छा हो, हमारी तपःस्थली से अन्न ले जाएँ। प्रसाद समझकर लोगों ने अपने-अपने घर अन्न ले जाना आरंभ किया, पर उनका खप्पर खाली नहीं हुआ, अन्न का भंडार भरा रहा। गोरखनाथजी का यौगिक चमत्कार लोककल्याणकारक रहा। गुरु श्री गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ सिद्ध मत त्यागकर कदली देश में योगिनियों की माया में आसक्त होकर योग ज्ञान भूल गए थे। यह त्रिया राज्य था, जहाँ पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। उन्होंने अपने दो शिष्यों लंग और महालंग को लेकर कदली वन में प्रवेश किया। एक सरोवर के तट पर उन्होंने आसन लगाया। वहाँ एक कदली-नारी आई। गोरखनाथ को उससे पता लगा कि मत्स्येंद्रनाथजी महारानी मैनाकिनी के साथ सोलह सौ रमणियों द्वारा परिसेवित होकर विहार में तत्पर हैं। वहाँ योगी का प्रवेश निषिद्ध है। केवल नर्तकियाँ ही उस राजप्रासाद में प्रवेश कर सकती हैं। नर्तकी के वेश में गोरखनाथजी त्रिया राज्य में प्रविष्ट हुए। त्रिया राज्य की महारानी मैनाकिनी

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गोरखनाथ

मत्स्येंद्रनाथ के साथ रत्नसिंहासन पर रमणीय वेश में विराजमान थीं। जब नर्तकी कलिंगा ने अपना नृत्य आरंभ किया और गोरखनाथजी नर्तकी वेश में मर्दल पर थाप लगाते हुए अपने गुरुदेव का ध्यान अपनी मर्दली ध्वनि की ओर आकृष्ट किया तो मर्दल की ध्वनि से मत्स्येंद्रनाथजी को गोरखनाथजी का अभीष्ट समझने में एक भी क्षण नहीं लगा। मर्दल के शब्द निकले— ‘जाग मछंदर गोरख आया’। ‘हे गुरुदेव! आप महायोग-ज्ञान के स्वामी हैं। आपका कामिनी के रूप में आसक्त होना उचित नहीं है। आप इसका त्याग कीजिए। आप आत्मा के योगी हैं। मैं आपको नाथ साधना की सिद्धि का स्मरण दिलाता हूँ।’ महायोगी गोरखनाथजी ने अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ को संबोधित एवं सावधान कर त्रिया राज्य की भोगवृत्ति पर गुरु को विजय दिलाई और गुरु अपने प्रिय शिष्य के साथ त्रिया राज्य से बाहर हो गए। भगवान् शिव की नाभि से मत्स्येंद्रनाथ, हाड़ से हाड़िपा (जालंधरनाथ), कान से कान्हपा (कृष्णपाद) और जटा से गोरखनाथ की उत्पत्ति हुई। एक बार गौरी के मन में एक प्रश्न उठा कि शिव की मृत्यु कभी नहीं होती, जबकि उन्हें मृत्यु सदैव मिलती है। गौरी ने शिवजी से इसका रहस्य जानना चाहा। शिवजी ने गौरी के साथ क्षीर-सागर में सप्त शृंग पर एक डोंगी में बैठकर नीर में स्थित एक मत्स्य ने उस उपदेश का श्रवण किया। उसे एकाग्रचित्त होकर उपदेश श्रवण करते हुए देखकर शिव ने सोचा कि इस मत्स्य ने योगज्ञान का श्रवण कर लिया है। उन्होंने उस पर जल छिड़का। जल छिड़कने पर वह मत्स्य दिव्यकाय मत्स्येंद्र के रूप में प्रत्यक्ष हो गया। एक बार गिरिजा ने भगवान् शिव से आग्रह किया कि आप चौरासी नाथ सिद्धों मत्स्येंद्रनाथ, जालंधरनाथ, कृष्णपाद और गोरखनाथ को विवाह करके वंश चलाने की अनुमति दें। शिव ने कहा कि इन सिद्धों में नाम मात्र का भी काम विकार नहीं है। गौरी ने चारों सिद्धों की परीक्षा लेनी चाही। भगवान् शिव ने ध्यान बल से चारों सिद्धों का आह्व‍ान किया। देवी ने भुवन-

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मोहिनी का रूप धारण कर सिद्धों को अन्न परोसा। हाड़िपा ने उनके निवास में झाड़ू लगाने की मनोकामना की। कान्हपा ने सोचा कि ऐसी सुंदरी मेरी माता हो तो मैं इसकी गोद में बैठकर स्तनपान कर अपना वात्सल्य सफल करूँ। मत्स्येंद्रनाथ ने सोचा कि ऐसी सुंदरी मिले तो उसके साथ विहार करूँ। देवी ने उन्हें तत्काल शाप दिया कि जो तुमने योगज्ञान को क्षीर-सागर में भगवान् शिव से श्रवण किया है, उसे भूलकर तुम कुछ समय तक कदली देश में सोलह सौ सुंदरियों से सेवित महारानी के सौंदर्य जाल में आसक्त रहोगे। गिरिजा के शाप से ही वे कदली देश के त्रिया राज्य में रमणी-िवहार में आसक्त हुए थे। जहाँ से उन्हें उनके शिष्य गोरखनाथजी ने योग साधना का स्मरण कराकर रमणी राज्य से मुक्त कराया। गोरखपुर में श्री गोरखनाथजी का भव्य मंदिर उसी स्थान पर बना है, जहाँ पर महायोगी गुरु श्री गोरखनाथजी ने तपस्या की थी। यह मंदिर 52 एकड़ के सुविस्तृत क्षेत्र में स्थित है, जिसे प्राकृतिक सौंदर्य प्राप्त है। नाथपंथ के महान् प्रवर्तक गुरु श्री गोरखनाथ की तपोभूमि होने के कारण यह मंदिर नाथ-योगियों, सिद्धों, साधु-महात्माओं एवं गृहस्थों के लिए श्रद्धास्पद केंद्र है। मंदिर की मुख्य वेदी पर शिवावतार अमरकाय गुरु श्री गोरखनाथजी महाराज की श्वेत संगमरमर की दिव्य मूर्ति साधनावस्था में प्रतिष्ठित है। इस दिव्य मूर्ति का दर्शन कर भक्त श्रद्धा से गोरखनाथजी के चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। गोरखनाथ मंदिर के गर्भगृह में गोरखनाथजी की चरण-पादुकाओं की प्रतिमूर्ति भावांकित हैं, जिनकी विधिवत् पूजा होती है। प्रातःकाल घंटोंनगाड़ों और तुमुल ध्वनि के साथ श्री गोरखनाथजी की पूजा विधि-िवधान से प्रारंभ हो जाती है। मध्याह्न‍ में पुनः श्रीनाथजी की पूजा होती है। सायंकाल भी निर्धारित समय में पूजा-आरती होती है। जिस समय यहाँ पूजा का विश्राम होता है, ठीक उसी समय दांग चौघड़ा (नेपाल) में पूजा प्रारंभ हो जाती है और जब वहाँ पूजा का विश्राम होता है, ठीक उसी समय माई पाटेश्वरी

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