9789353495459 Flipbook PDF


122 downloads 125 Views 14MB Size

Recommend Stories


Porque. PDF Created with deskpdf PDF Writer - Trial ::
Porque tu hogar empieza desde adentro. www.avilainteriores.com PDF Created with deskPDF PDF Writer - Trial :: http://www.docudesk.com Avila Interi

EMPRESAS HEADHUNTERS CHILE PDF
Get Instant Access to eBook Empresas Headhunters Chile PDF at Our Huge Library EMPRESAS HEADHUNTERS CHILE PDF ==> Download: EMPRESAS HEADHUNTERS CHIL

Story Transcript

धरती सागर और सीपियां अमृता प्रीतम पंजाबरी के सबसे लोकप्प्य लेखकों में से एक थरी । अमृता प्रीतम का जनम 1919 में गजु रांवाला पंजाब (भारत) में हुआ । उनका बचपन लाहौर में बरीता और प्िक्ा भरी वहीं हुई । प्किोरावसथा से उनहोंने प्लखना िरू ु प्कया । उनहोंने सौ से अप्िक कप्वताओ ं की प्कताब प्लखरी, साथ हरी प्िकिन, बायोग्ािी, आलेख और आटोबायोग्ािी प्लखकर साप्हतय में नया मक ु ाम हाप्सल प्कया । इनकी तमाम पसु तकों का कई भारतरीय भाषाओ ं सप्हत प्वदेिरी भाषाओ ं में भरी अनवु ाद हुआ । अमृता प्रीतम पहलरी मप्हला लेप्खका हैं, प्जनहें 1956 में साप्हतय अकादमरी परु सकार प्मला । 1982 में उनहें काग़ज़ ते कै नवास के प्लए ज्ानपरीठ परु सकार प्मला । 2004 में पद्मप्वभषू ण भरी प्दान प्कया गया ।

धरती सागर और सीपियां

अमृता प्ीतम

यूएसए | कनाडा | यूके | आयरलैंड | ऑस्ट्ेललया न्ू ज़ीलैंड | भारत | दक्षिण अफ्ीका | चीन हिन्द पॉके ट बुक्स, पेंगुइन रैं डम िाउस ग्ुप ऑफ़ कम्पनीज़ का हिस्ा िै, जिसका पता global.penguinrandomhouse.com पर ममलेगा पेंगुइन रैं डम िाउस इं हडया प्ा. लल., चौथी मं जिल, कै पपटल टावर -1, एम िी रोड, गुड़गांव 122 002, िररयाणा, भारत

प्थम सं स्करण हिन्द पाॅकेट बुक्स द्ारा 2002 में प्काक्ित यि सं स्करण हिन्द पॉके ट बुक्स में पेंगुइन रैं डम िाउस द्ारा 2022 में प्काक्ित कॉपीराइट © अमृता प्ीतम सवावाधिकार सुरक्षित 10 9 8 7 6 5 4 3 2 इस पुस्तक में व्यक्त पवचार लेखक के अपने िैं, जिनका यथासं भव तथ्ात्मक सत्ापन हकया गया िै, और इस सं बं ि में प्कािक एवं सियोगी प्कािक हकसी भी रूप में उत्तरदायी निीं िैं। ISBN 9789353495459

यि पुस्तक इस ितवा पर पवक्रय की िा रिी िै हक प्कािक की ललखखत पूवावानुमपत के पबना इसका व्यावसाययक अथवा अन् हकसी भी रूप में उपयोग निीं हकया िा सकता । इसे पुनः प्काक्ित कर पवक्रय या हकराए पर निीं हदया िा सकता तथा जिल्दबं द अथवा हकसी भी अन् रूप में पाठकों के मध्य इसका पररचालन निीं हकया िा सकता । ये सभी िततें पुस्तक के ख़रीददार पर भी लागू िोंगी । इस सं दभवा में सभी प्कािनाधिकार सुरक्षित िैं । www.penguin.co.in

इकबाल की अम्ाां के ना्...

धरती,  सागर  और  सीपियां

एक

हो नी कई बार इस तरह सालों चिु  साधे बैठी रहती है जैस े उसने अिने 

महंु  में घघु नी डाल रखी हो  । चेतना तब िंद्रह साल की थी और उसके  भाई समु रे  को अठारहवां  लगा था, तब चेतना ने उसके  जनमपिन िर अिनी सहेपलयों को भी बल ु ाया  था, और उसके  िोसतों को भी । छः-सात लड़पकयां थीं । इनमें से एक थी  आधी सोई आधी जागती आख ं ोंवाली पमननी, और एक थी गेहुए ं रंग और  तराशे  हुए नकशोंवाली चमिा । समु रे  के  अपतररक्त लड़कों में  से  होनी ने  पजसकी ओर आख ं  भरकर िेखा था, वह था चेतना का िड़ोसी इकबाल ।  इकबाल की आख ं  ें अिने  सापथयों के  चेहरों की ओर, लगता था, जैस े िेखती न हों, बप्क चेहरों के  ऊिर से तैरकर पनकल जाती हों । कुछ िेर गीतों का एक साधारण खेल चलता रहा । िहले  गीत की  आपिरी िंपक्त पजस शबि िर खतम होती, िसू रे  गानेवाले को वह गीत गाना  होता था, पजस गीत की िहली िंपक्त उसी शबि से शरू ु  होती हो । लेपकन महपिल में रंग भर गया, जब लड़पकयों ने समु रे  से पगटार के   साथ अिनी िसिं  का गीत गाने के  पलए कहा । लड़पकयों ने चेतना से सनु   रखा था पक समु रे  पगटार बहुत अचछी बजाता है । “य ू आर माई थीम िार ए ड्ीम”–समु रे  जब तक इस गीत को गाता  रहा, आख ं  ें चरु ाकर चमिा की तरि िेखता रहा । चमिा की चनु नी पजतनी  उसके  घटु नों में पघरी हुई थी, उससे जयािा वह खिु  अिने घटु नों में पसकुड़ी  हुई थी । गीत खतम होने िर कुछ पमनट सब इस तरह चपु िया गए थे जैसे सबको  कोई न कोई ‘थीम’ पमल गया हो और सभी कोई न कोई सिना िेख रहे हों ।  सचमचु  ही समु रे  पगटार बड़ी खबू सरू त बजाता था । कुछ पमनटों के  बाि 

खामोशी के  अलस से जब सबका धयान टूटा तो एक-साथ सबों ने महससू   पकया पक समु रे  से एक गीत ् और गाने के  पलए कहा जाए । “य ू आर  ि  ओनली  वन...टुगैिर  वी  हैव  लाटस  आि  िन .् ..वहाट  पवल आई डू  इि य ू लीव मी...” इस बार जब समु रे  ने  यह गीत गाया तो  चमिा को िेखते  हुए वह अिनी आख ं  ें इतनी नहीं चरु ा रहा था, पजतना  चमिा उसकी आख ं ों से अिना बिन चरु ा रही थी । गीत के  बोलों से कमरे की हवा गमामा रही थी । सब लड़पकयों ने महससू   पकया पक उनका सासं  गममा हो आया था और पिर जब लड़पकयों ने एक-एक  कर चमिा की ओर िेखा तो ईरयामा  ने  उनके  सासं  को और भी गमामा  पिया । गीत खतम हुआ तो िो लड़पकयों ने समु रे  से एक नये गीत की िमामाइश  की,  “य ू आर  सवीट  पसकसटीन,  ओ  य ू आर  पबउटीिूल  एणड  य ू आर  माईन...ओ माई एजं ल पडवाईन...” समु रे  ने  हाथ में  पिर पगटार ले  ली और गाने  लगा, “ओ माई एजं ल  पडवाईन य ू आर सवीट पसकस...” और तभी अचानक पगटार को एक तरि  रखकर बोला, “नहीं, मैं यह गीत नहीं गा सकता ।”  “समु रे !” चेतना ने चमककर कहा । “नहीं गा सकता, कयोंपक...” समु रे  ने  हसं कर चमिा की तरि िेखा  और बोला, “समवन इज़ नाट यैट पसकसटीन!” चरु ाकर िेखती हुई आख ं ों को तो कुछ कहा जा सकता है, िर सीधा  एकटक िेखती आख ं ों को कोई कया कहे! लड़पकयां  पखलपखलाकर हसं   िड़ीं, और चमिा घटु नों में  इस तरह पसकुड़ गई जैस े पसर से  िैरों तक वह  सारी की सारी पसिमा  िो घटु ने बन गई हो । सब लड़पकयां  कुछ बड़ी थीं, िर चमिा चेतना की हमउम्र थी–िंद्रह  साल की । चेतना ने चमिा को बड़ी लड़पकयों के  मज़ाक से बचाने के  पलए  सबका धयान पमननी की तरि िे रा और बोली, “आज हम पमननी से ‘चांि  की घपं टयों’ वाला गीत सनु ेंगे ।” पमननी की आधी सोई और आधी जागती आख ं  ें एक झिक में इस तरह  मिंु  गई पक उसकी िोनों आ ख ं  ें काजल की मोटी-मोटी लकीरों की तरह ं १०

धरती, सागर और सीपियां

पिखाई िेने  लगीं । लड़पकयों ने  जब पमननी को घेर पलया तो चेतना को  खयाल आया पक पमननी ने एक पिन उसे जो ‘भेि’ की बात बताई थी, वह  बात उसे सब लड़पकयों के  सामने नहीं बतानी चापहए थी । उसने ज्िी से  उठकर लड़पकयों को पलेटें थमानी शरू ु  कर िीं और बोली, “िहले चाय िी  लें, नहीं तो मेरी माताजी कहेंगी पक हमने चाय ठंडी कर िी!” –और पिर यह भी उसी पिन की बात है । चेतना ने  सबों को अिने  बगीचे  में  िूलों के  िौधे  पिखाते  हुए इकबाल से  कहा पक एक जािानी  पकताब में  से िढ़कर वह जो िूल-िौधों को नये ढंग से  रोिने का तज़रबा  कर रहा था, आज िाटटी के  बाि वह उसे ज़रूर पिखाए । जब सब अिने-अिने घर चले गए तो चेतना इकबाल के  साथ उसके   घर उसका नया तज़रबा िेखने के  पलए चली आई । इकबाल का घर चेतना  के  घर के  िीछे  िड़ता था । बहुत छोटा-सा साधारण घर था, लेपकन घर की  पिछली तरि एक कािी बड़ा कचचा आगं न था । इसी आगं न में इकबाल  ने िौधे लगा रखे थे । िेखकर चेतना ठगी-सी रह गई । पकसी िौधे के  नीचे लकड़ी की िांकें  गड़ी हुई थीं, तो पकसी िौधे का पसर तारों में कसा हुआ था । कई टहपनयों  की रपससयों और धागों से गांठें मार िी गई थीं । “इकबाल!  ....”  चेतना  ने  सहमी  नज़र  से  िहले  िौधों,  और  पिर  इकबाल की तरि िेखकर घबराई हुई आवाज़ में कहा, “तमु हें ये सारे  िौधे  इस तरह नहीं लगते जैस े ये सब लंगड़ा गए हों?” “चेती!” इकबाल ने चेतना के  चेहरे  की ओर िेखा । इकबाल जब भी  पकसी के  चेहरे  की तरि िेखता, पकसी को यह महससू  नहीं होता था पक  उसकी आख ं  ें उसे  िेख रही हैं । हमेशा ऐसा लगता था जैस े उसकी आख ं  ें चेहरे   के  ऊिर से  तैरकर गज़ु र जाती हैं । िर उस पिन चेतना को लगा पक  इकबाल ने  सचमचु  उसके  चेहरे   की तरि िेखा था, और यह िेखना इस  तरह का था जैसे  उसने  आख ं ों से  उसके  महंु  िर एक चित मार िी हो ।  चित खाकर चेतना को लगा पक उसे खिु  को तो कुछ नहीं हुआ, िर चित  मारनेवाला चित मारकर जैस े रोने िर उतर आया हो! जब की यह बात है, चेतना तब िद्रं ह साल की थी, और िसवीं का धरती, सागर और सीपियां



११

इपमतहान िे चक ु ी थी । इकबाल तब अठारह साल का था और हाल ही में  उसने प्ी-मैडीकल का इपमतहान िेना था । उसके  बाि चेतना ने कालेज में  िापखला ले पलया और इकबाल डाकटरी करने के  पलए िनू ा चला गया ।  इकबाल िैंसठ प्पतशत नंबर लेकर िास हुआ था, पजससे  पि्ली में  उसे  आसानी से  िापखला ही नहीं वज़ीिा भी पमल सकता था । लेपकन िनू ा  में  िीस और होसटल के  खचमा  के  अलावा पकताबें  भी कालेज की तरि  से पमलती थीं और साथ में जेब-खचमा के  पलए िचहत्तर रुिये भी अलग ।  कालेज की तरि से  साथ में  यह शतमा  भी थी पक ‘पडग्ी’ लेने  के  बाि  वह हमेशा के  पलए िौज की नौकरी में  आ जाएगा । पडग्ी लेते  ही उसेने  लेफटीनैंट बन जाना था, और छ: महीने  के  बाि कै पटन । इस तरह उससे  िेखते-िेखते  लैफटीनैंट-कनमाल हो जाना था । इकबाल के  यह रासता चनु ने  में एक िसू रा भी कारण था । इस रासते को चनु ने से उसकी मां के  िःु खों के   पिन बीत जाने थे । समु रे  अभी कालेज में  ही िढ़ता था, जब उसने  बातों-बातों में  एक  बार चमिा से िछू ा था पक उसे कै से आिमी िसिं  हैं–पकन पडपग्यों वाले ।  जवाब में  शरमाई-शरमाई हुई चमिा ने  जब कहा था पक उसे  जहाज़ों के   कप्ान अचछे   लगते  हैं, तो समु रे  ने  कालेज छोड़कर मचचेंट नेवी में  अिना  नाम पलखवा पलया था । चेतना और चमिा कालेज में िापखल हो गई । चे ं तना डे सकालर थी,  िर चमिा पजस तरह सकूल के  पिनों में सकूल के  होसटल में रहती थी, उसी  तरह उसने कालेज के  पिनों में कालेज के  होसटल में रहना शरू ु  कर पिया ।  उसके   मां-बाि पि्ली में  नहीं रहते  थे । उसका पिता अमृतसर में  किड़े  का वयािारी था ।– और आधी सोई आधी जागती आख ं ों वाली पमननी  ने, ‘चांिी की घपं टयों’ वाले पजस भेि को एक पिन चेतना से साझा पकया  था, उसके  बाि उस भेि को उसने कभी पकसी को न बताया, िर उसी तरह  अिनी कािी में महु बबत के  गीत पलखती रही । कोई एक साल बीत गया । िर होनी इस तरह चिु  साधकर बैठी रही,  जैसे उसने अिने महंु  में घघु नी डाल रखी हो । १२

धरती, सागर और सीपियां

िो

चे तना पजस तरह पनयमिवू माक कालेज जाती थी, उसीं तरह पनयमिवू माक 

कालेज से आकर एक पयाला चाय िीकर इकबाल के  घर जाती और सब  िौधों को सींचती थी । “भला अममां! यह तार इकबाल ने कयों लिेट िी थी?”  “कया मालमू  बेटी! उसी को मालमू  होगा ।” “और अममां, यह पसिमा  मझु  े ही लगता है या तमु हें भी-इस िौधे ने हाथ  में लाठी इस तरह िकड़ी हुई है, जैसे यह लंगड़ा हो...” चेतना हसं ने  लगती, अममां  भी हसं  जाती । इस तरह इधर-उधर की  बातें चेतना पकए जाती और हसं े जाती, िर उसने कभी पकसी िौधे से तार  नहीं हटाई, कभी पकसी टहनी के  हाथ से लाठी नहीं अलगाई, कभी पकसी  बेल िर से इकबाल की बांधी रससी नहीं खोली । “अलग खोलकर रख िो न ये तारें ...” अममां ने कई बार कहा ।  “लोग कहते  हैं, हाथों से  गंडाई रपससयां  िांतों से  खोलनी िड़ती हैं;  पजसने अिने हाथों से ये गांठें िी हैं, वही आकर खोलेगा भी, मेरे िांत कया  िालत ू हैं...” चेतना हर बार यह बात कहकर हसं  िड़ती । इकबाल अिनी मां को अममां कहकर बल ु ाता था, उसी की रटन िर  चेतना भी अममां कहती थी । शरू ु -शरू ु  में वह ‘अममांजी’ कहा करती, िर  अममां को यह ‘जी’ अनावशयक लगता था, पजससे चेतना उसे अब पसिमा   अममां कहती थी । कई बार जब चेतना आती, अममां ने अिने पलए चाय का िानी भी न  चढ़ाया होता । ऐसे मौकों िर काम लेने के  पलए चेतना के  िास एक कारगर   हपथयार था । चेतना अममां से कहती पक आज वह इकबाल को ज़रूर  एक  पचट्ी पलखेगी पक अममां न समय िर खाना खाती हैं, और न ही चाय िीती धरती, सागर और सीपियां



१३

हैं । यह हपथयार उसके  हाथ में इकबाल के  खतों में से ही आया था । अिने  हर खत में वह अममां से ताकीि करता था पक अगर उसने अिना खयाल  न रखा तो वह िढ़ाई छोड़कर वािस चला आएगा । और अममां जब भी  इकबाल को चेतना से खत पलखवाती थी तो उसमें वह हर बार इकबाल  को यकीन पिलाती पक उसकी सेहत पबलकुल ठीक है । चेतना अममां को  इकबाल के  सारे  खत िढ़कर सनु ाती थी और अममां की तरि से जवाब भी  पलखती थी । इकबाल को गए तीसरा साल हो आया था, िर उसने अिनी  तरि से आज तक इकबाल को एक भी शबि नहीं पलखा था । इकबाल ने  भी जाने कया पज़ि िकड़ रखी थी । वह अचछी तरह जानता था पक अममां  की तरि से पजतने भी खत आते हैं, वे चेतना के  पलखे होते हैं । िर उसने  शपु रिया की आड़ में भी चेतना के  पलए कभी कुछ नहीं पलखा था । “ना-शक ु रा कहीं का!” अममां अकसर हसं कर कहा करती । िर साथ  ही वह उसके  ना-शक ु रे   होने  का कारण भी ढूंढ लेती थी, “शरू ु  से  ही  शमटीला है, जाने पकसिर गया है...” पिछले  साल, और उससे  पिछले  साल भी, इकबाल छुरटियों में  एन  ०सी०सी० की ट्ेपनंग के  पलए बमबई चला गया था पजससे  वह अममां  को पमलने के  पलए पि्ली न आ सका । इस बार उसने पलखा था पक वह  पि्ली ज़रूर आएगा । “पकतने  पिन रह गए हैं  उसके  आने  में?” अममां  बैठी-बैठी उंगपलयों  िर पहसाब करने लगती । “अममां! खत पलखने के  पलए तो तमु ने मझु  े अिनी मपंु शन रखा ही है  पिन पगनने के  पलए भी मझु  े अिनी मपंु शन रख लो!” चेतना हसं ने लगती । “तमु हारा पिया मैं पकस जनम में चक ु ाऊंगी, बेटी!” कई बार अममां की  आख ु  ं से इतनी नहीं छलकती थीं, पजतनी  ं  ें छलक आतीं । आख ं  ें आसं ओ उन बातों से, जो अममां ने कभी चेतना से नहीं की थीं ।–एक पिन अममां से  कुछ बातें भी छलक गई–ं “खिु ा अगर एक हाथ से  कहर कमाता है, तो िसू रे   हाथ से  पकतनी  बड़ी  मेहर  कर  िेता  है–कभी  पकसी  के   घर  इस  जैसा  बेटा  जनमा  है...” “सच अममां, तमु  पकसमतवाली हों, मेरा समु रे  ‘वीर’ बहुत अचछा है, िर  इतना लािरवाह है पक मझु  े बार-बार उसे खत पलखकर याि पिलानी िड़ती है १४

धरती, सागर और सीपियां

पक वह मां को खत कयों नहीं पलखता!” “समु रे  का इसमें  कोई कसरू  नहीं बेटी । ये  जांच ें शायि िःु खों से  ही  समझ  आती  हैं...मैं  इकबाल  के   पलए  हमेशा  ताज़ी  रोटी  उतारा  करती  थी । खिु  कभी मैं  रात की बासी खा रहती, या चाय के  घटंू  से  ही चला  लेती । इतना-सा तो था...िर उसने  जाने  पकस आख ं  से  भांि पलया...बस  एक ही बात िकड़ बैठा पक मझु  े गममा  रोटी अचछी नहीं लगती । थाली में  धरी रोटी एक तरि सरका िेता और पडबबे से बासी रोटी पनकालकर खा   लेता ... उसने तो जैस े अिने महंु  के  सवाि को भी रससी में गांठ रखा हो ...” चेतना को आगं न में  लगे  िौधे  याि हो आए । वह कभी अममां  की  टरंकी िर रखी इकबाल की तसवीर के  चेहरे  की तरि और कभी िेड़ों के   चेहरों की ओर िेखने लगी । “और अभी की लो...िचहत्तर रुिये उसे पमलते हैं कालेज से खचमा के   पलए । जाने अिने पलए कै से चलाता है, िचास रुिये महीना वह मझु  े यहां  भेजे िे रहा है ।” “अममां!” “िो साल और मपु शकल है, पिर मेरा इकबाल...” “डाकटर इकबाल बन जाएगा ।” “भला पगनो तो बेटी, पकतने पिन रह गए हैं उसके  आने में?” चेतना जानती थी पक छुरटियां होने में अभी िो महीने बाकी हैं । अममां  को बातों में उलझाने के  पलए बोली :  “बस, अब मेरा इपमतहान शरू ु  होने ही वाला है । इपमतहान खतम होने  िर कुछ पिन नतीजा आने  में  लगेंगे । नतीजा आ जाने  के  बाि तब कहीं  छुरटियां  हो जाएगं ी और जब छुरटियां  हो जाएगं ी तो डाकटर साहब पि्ली  आ जाएगं े...िौने डाकटर साहब,” और पिर हसं ते-हसं ते चेतना ने अममां से  िछ ू ा, “अचछा अममां! अभी तो इकबाल आधा-िौना डाकटर ही बना है,  जब वह िरू ा डाकटर बनेगा...डाकटर साहब...तो मझु  े कया पखलाओगी?” “मैं तो िहले ही कह रही हू ं बेटी! तमु हारा पिया न जाने पकस जनम में  चक ु ाऊंगी...” धरती, सागर और सीपियां

१५

miU;kl

vkoj.k fp=k% bejkst vkoj.k fMT-kkbu% LdsulsV

MRP `150 (incl. of all taxes)

Get in touch

Social

© Copyright 2013 - 2024 MYDOKUMENT.COM - All rights reserved.