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पुरुषोत्तम की पदयात्ा

पुरुषोत्तम की पदयात्ा प्रकाश के पथ पर जीवन के परम सतय की खोज

डॉ. मयंक मुरारी

www.prabhatbooks.com

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PURUSHOTTAM KI PADYATRA by Dr. Mayank Murari Published by PRABHAT PAPERBACKS An imprint of Prabhat Prakashan Pvt. Ltd.

4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-110002 ISBN 978-93-5521-328-0

सास सुषमा ससन्ा और श्वसुर सवजय रंजन ससन्ा को

आतमाप्पण “इस आत्ा को सत्य और पूर्ण ज्ान द्ारा ही प्ाप्त करना होगा।” —मुंडकोपसनषद् 3.1.5 “अविद्ा के द्ारा िे ्ृत्यु के परे चले जाते हैं और विद्ा द्ारा अ्रता को प्ाप्त करते हैं...अजन् के द्ारा िे ्ृत्यु को पार करते हैं और जन् के द्ारा अ्रता का रस लेते हैं।” —ईशोपसनषद् 11.14 “पर् देि की ्वह्ा ही इस जगत् ्ें ब्रह्म‍ के चक्र को घु्ाती है। ह्ें उन ईश्वर के ्हेश्वर, सकल देिों के पर् देि को अिश्य ही जानना चावहए। उनकी शक्ति भी पर् है और उस शक्ति के ज्ान और बल की सिाभाविक वक्र्या बहुविध है। एक पर् देि, सभी सत्ाओं ्ें गुह्य‍, सभी सत्ाओं की आत्ा, सि्णव्यापक, वनरपेक्ष, वनगु्णर केिल सभी क्मों का अध्यक्ष, साक्षी, ज्ाता है।” —श्वेताश्वेतरोपसनषद् 6.1, 7, 8, 11



भूममका

हानता का घर कहाँ है? सा्ान्यतः जब ह् विचार करते हैं वक कोई व्यक्ति ्हान् है तो ह्ारे वद्ाग ्ें उसका पद, उसकी पहचान, उसका ्यश ्या धन आता है। हरेक िे कारर ही ह्ारे वद्ाग ्ें आते हैं, जो बाहरी हैं। चीनी दाश्णवनक लाओतसे का विचार है वक जो श्ेष्ठता छीनी जा सके, उसे ह् श्ेष्ठ ्या ्हान् नहीं कह सकते। श्ेष्ठता वकसी भी बाह्य‍ िसतु ्या कारर पर वनभ्णर नहीं है। ह् श्ेष्ठ हैं, क्योंवक ह्ारे पास शक्ति है। ह् ्हान् हैं, क्योंवक ह्ारे पास पद है। लेवकन ्ये सब श्ेष्ठता के पै्ाने नहीं हैं। अपने आंतररक गुरों एिं शक्ति्यों के कारर ह् श्ेष्ठ बनते हैं। प्कृवत खुद पद्यात्ा करती है और साथ ्ें सारे सजीि एिं वनजजीि का्य्णशील हो जाते हैं। विर एक पड़ाि पर प्कृवत सबको छोड़ देती है। अब उस पड़ाि से उठना ह्ारे प््यास पर वनभ्णर करता है वक ह् ऊपर उठना चाहते हैं ्या जैसे पैदा हुए िैसे ही ्र जाना चाहते हैं। उस पड़ाि पर ्नुष्य का विकास ह्ारे आंतररक गुरों, संभािना एिं अिसर के प्वत सचेत एिं सजगता पर वनभ्णर करता है। ्नुष्य की देह भर पाने से कोई ्नुष्य नहीं होता जाता है, उसे श्ेष्ठ बनना होता है। इसके वलए ्यात्ा करनी पड़ती है; और ्यह पद्यात्ा जीिन भर चलती रहती है। श्ेष्ठता के वलए ज्ान जरूरी है। ज्ान ्ुक्ति का ्ाग्ण है, लेवकन िह ज्ान नहीं, जो दूसरों से ह् लेते हैं। जो ज्ान ह्ारे अंदर से आता है, ह्ारी चेतना से प्कट होता है, िह वनससंदेह ्ुक्ति की ओर ले जाता है। िह ज्ान कैसे व्लेगा? पारसी ्त के प्ित्णक जरथुसट्र का अंवत् स््य था। उनहोंने वशष्यों को बुला्या और कहा वक अंवत् उपदेश देना बाकी रह ग्या है। उनहोंने अंवत् िाक्य कहा—जरथुसट्र से सािधान रहो! वशष्यों ने पूछा वक इसका क्या अथ्ण है? तब उनहोंने कहा वक ्ुझे ्त पकड़ लेना, अन्यथा सचचे ज्ान से िंवचत रह जाओगे, जो तुमहारे अंदर से पैदा हो

10

सकता है। ह्ारे िाङ््य ्ें इसी बात को दूसरे तरीके से कहा ग्या—‘एकं सत्य विप्ाः बहुध िदंवत।’ सत्य एक है, लेवकन उसके अनेक ना् हैं और उसको खोजने के वलए जागना पड़ता है। सजग रहकर जीिन भर चलना होता है। बाहर का कोई ज्ान ह्ें तृप्त नहीं कर सकता। अभी तक की जीिन-्यात्ा ्ें ्ैंने सीखा है वक रूपांतरर के वलए हरेक पल के साथ वजज्ासा, बदलाि और प्ेररा के तत्ि ह्ारे पास आते हैं। हरेक पल के साथ जुड़ी घटना ह्ारे जीिन के रूपांतरर ्ें ्हत्िपूर्ण भूव्का अदा कर सकती है। ्यह रूपांतरर एक पल ्ें हो सकता है ्या लंबे स््य तक चलनेिाले अभ्यास का परररा् हो सकता है। इस्ें एक जन् ्या कई जन् भी लग सकते हैं, लेवकन अंत ्ें खुद ही व्यक्ति को आत्बोध के वलए प््यास करना होता है। आचा्य्ण आलार कला् के साक्निध्य ्ें ्हात्ा बुद्ध ने प्ज्ा के कई वक्षवतज का आत्साक्षातकार वक्या। तब गुरु ने उनको वभक्षु स्ुदा्य का नेतृति करने को कहा। ्हात्ा बुद्ध ने कहा वक आपने ्ुझे अपने पास रखकर जो वशक्षा दी, कृप्या उसके वलए ्ेरा धन्यिाद सिीकार कीवजए, वकंतु वसद्धाथ्ण का लक््य वकसी संप्दा्य का नेता बनना नहीं, बक््क सचची ्ुक्ति का ्ाग्ण खोजना है। जीिन ्ें पुरुषोत्् बनना आसान नहीं होता है। ्ानि जीिन ्ें वशखर पर पहुुँचने के वलए पद्यात्ा करनी होती है। बाह्य‍ ्यात्ा, वजस्ें अनवगनत सत्य व्लते हैं और अंत्या्णत्ा, वजस्ें उन सत्य के आधार पर जीिन को वदशा देना होता है। श्ीरा् का जीिन ह्ारे वलए पुरुषोत्् की ्यात्ा का सबसे उतकृष्ट उदाहरर है। श्ीरा् खुद विषरु के अितार हैं। भारतिष्ण के सि्णश्ेष्ठ राज्य अ्योध्या के राजकु्ार हैं। उनके वलए हरेक चीज सहज ही िरेण्य है। बािजूद इसके उनहोंने 15िें िष्ण ्ें दशरथ से अनु्वत लेकर तीथा्णटन के ्ाध्य् से देश की ्यात्ा की। पूरे देश को देखा, जाना और स्झा। भारत की सांसकृवतक आत्ा की तलाश की। इन ्यात्ाओं के बाद िे लौटकर आते हैं तो अंतवि्णिेक को उपलबध हो जाते हैं, उन्ें िैराग्य उतपनि होता है। विर रा् एक तावककिक िैज्ावनक की तरह वचंतन करते हैं, जहाँ िे विज्ान से अध्यात् के वशखर पर पहुुँच जाते हैं। श्ी्द्भगिद्ीता से पूि्ण ‘्योगिावसष्ठ’ ऐसे ही विचार-्ंथन की ्हान् पुसतक है। इसके बाद उनके जीिन के विवभनि चररों ्ें भारत के ्हान् ऋवष्यों ्यथा—िवसष्ठ, विश्वाव्त्, गौत्, भरद्ाज, कणि, परशुरा्, अगसत्य, अवत् जैसे गुरुओं का ्ाग्णदश्णन व्ला। तब रा् के साथ एक पूरा स्ाज सांसकृवतक रूपांतरर की विराट् प्वक्र्या का साझेदार होकर जीिंत हो उठता है।

11

पुरुषोत्् की पद्यात्ा को वजस प्कार श्ीरा् ने अपने विचार और वििेक के धरातल पर सहज बना्या, श्ीकृषर को गीता ्ें उस स्ाधान के वलए विश्वरूप को प्कट करना पड़ता है। िर्णन है वक विश्वाव्त् के साथ भेजने के वनर्ण्य के पश्ात् दशरथजी ने श्ीरा् को बुलाकर पूछा वक िे आजकल सब का्ों से उदासीन क्यों हैं? रा् कहते हैं वक जीिन ्ें आद्ी जो कुछ भी करता है, िह अंततः क्षवरक परररा्ोंिाला तथा ्ृत्यु की ओर जानेिाला होता है। जीिन ्ें कहीं वकसी बात की कोई सथा्यी उपलक्बध नहीं है। इस क्षवरक जीिन के सभी क््ण विरोध, विसंगवत और अंतवि्णरोध से भरे हैं। जीिन ्ें धन, ्यश, बल और पद सभी के अपने अंतवि्णरोध हैं। भला कोई वििेकशील प्ारी क्यों इन क्षवरक सुख से जुड़ना चाहेगा? ऐसे ही कुछ सिाल नवचकेता उठाते हैं। ्हाभारत के ्युद्धक्षेत् ्ें अजु्णन शंका उठाते हैं और इस ्युग ्ें तथागत को भी कटु सत्य से जूझना पड़ता है। लेवकन कोई पुरुषोत्् कैसे बनता है, इसके वलए श्ीरा् के जीिन की अंत्या्णत्ा करने की जरूरत है। कैसे? ‘्योगिावसष्ठ’ ्ें ब्रह्म‍वष्ण कहते हैं वक न दुवन्या के का्ों ्ें लगाकर ्न को शांवत व्लती है और न ही इससे अलग हटकर। परंतु जो कोई इन दोनों क्सथवत्यों से अलग होकर विचार तथा वििेक से जीिन को देखता है, िह ब्रह्म‍ सत्य के दश्णन का अवधकारी हो जाता है। वशखर की ्यात्ा की दो भािभूव् हैं—एक, िैज्ावनक चेतना के आधार पर ्ौवलक विचारों के साथ खुद का प्कटीकरर तथा दूसरा, विचार और वििेक के साथ अध्यात् ्ें प्िेश करना। रा् के जीिन को ध्यान से देवखए। उनहोंने कभी खुद को अितार कौन कहे, पुरुषोत्् के रूप ्ें भी प्सतुत नहीं वक्या। सदैि जीिन की जवटलताओं के बीच खड़े एक आ् ्ानि की तरह चलते हैं, सा्ान्य लोगों के साथ बराबरी का संबंध बनाते हैं। िे हर बात और क््ण को स्ाज के साथ संगवत और न्या्य के औवचत्य के धरातल पर प्वतसथावपत करते हैं। िे अितारी हैं, लेवकन हर कद् सािधानी से रखते हैं। कोई ज्दी नहीं है। पुरुषोत्् की पद्यात्ा का पूरा ्ौवलक वचंतन देते हैं, पुरुषोत्् के पड़ाि पर भी उसको छोड़ने का सदैि विक्प स्ाज के स्क्ष रखते हैं। िे बताते हैं वक पुरुषोत्् की ्यात्ा ह्ारे जीिन सत्य को आत्सात् करने ्ें वछपी है। जीिन एक चेतन व्यिसथा है, वजस्ें केिल जड़ता ही नहीं, चेतनता भी है। िह गवत्ान है। वजंदगी का अपना दश्णन है। इस दश्णन के कुछ सनातन सूत् ह्ारे जीिन के सत्य को बताते हैं, जो पुरुषोत्् की ह्ारी ्यात्ा ्ें सहा्यक बनते हैं। पुरुषोत्् का पथ िह है, जो विराट् ्ानि स्ाज के वलए सुखद और ्ंगलकारी

12

हो। जीिन की गुक्तथ्यों को सुलझाते हुए वदव्यता का आरोहर करें। सत्य की खोज हर ्युग ्ें नई तरह से की जाती है। रा् ने ््या्णदा ्ें, कृषर ने क््ण ्ें, बुद्ध ने करुरा ्ें, ्हािीर ने अवहंसा ्ें, शंकराचा्य्ण ने अद्ैत ्ें, रा्कृषर ने भक्ति ्ें और गांधी ने सत्य ्ें वक्या। पुरानी सभी खोजें एक रासता वदखाती हैं, ह्ारी पद्यात्ा के वलए अपने ्युग सत्य तक पहुुँचने के वलए। ह् अपने विचारों, क्पनाओं एिं सपनों को बुनते, पीछा करते और उसको खुद ्ें उतारकर ही जीिन का ्यथाथ्ण रचते हैं। अगर सच ्ें देखें तो ह् अपने सपने, अपनी दृक्ष्ट और अपने विचारों के अलािा कुछ भी नहीं हैं। अपनी हरेक पद्यात्ा को पूर्णता से जोड़ना ही वशखर की ्यात्ा है। अवखल सृक्ष्ट ह्ारे वलए एक पुसतक है और उसके विविध आ्या् उस पुसतक के विवभनि पनिे हैं। वशखर की ्यात्ा वकसी एक पथ से ्या एक वशक्षा से संभि नहीं है। ह् वजतना इस प्कृवत को पढ़ेंगे, इस सृक्ष्ट के अि्यि को स्झेंगे, ह्ारी ्यात्ा सहज रूप से पुरुषोत्् तक पहुुँच जाएगी।

—डॉ. मयंक मुरारी ्ो. ः 9934320630

अनुक्रम आत्मार्पण

भूम्कमा

7

9

1. अंदर क्सथत प्काश की खोज से व्टेगा जीिन का अंधकार

17

3. पुरुषोत्् की ्यात्ा ्ें ््या्णदा की कसौटी

24

2. अचछाई की अनंत ्यात्ा की शुरुआत अंत्या्णत्ा से जरूरी

4. रावत् ्ें ईश्वरी्य ऊजा्ण की खोज करें तो जीिन आलोक से भरेगा 5. धन-पद ही सबकुछ होता तो ्हात्ा बुद्ध राजपद छोड़ते!

6. ईश्वर का है स्सत पररित्णनशील जगत् और इसकी हरेक िसतु 7. ईश्वर की इस दुवन्या ्ें दुःख की स्स्या क्यों है?

8. ईश्वर का गुरुतिाकष्णर है चेतना को ऊधि्णगा्ी बनाना

9. वजंदगी की गुक्तथ्याँ सुलझाते हुए वदव्य ्ानि की ओर आरोहर

10. व्यक्ति को ईश्वर से जोड़ती है ह्ारी प्ाथ्णना

11. नवचकेता के सिालों ्ें जीिन की वजज्ासा की अनंत ्यात्ा 12. एक सुंदर संबंध से जुड़ी हैं अक्सतति की सारी रचनाएँ 13. जानने से ज्यादा जरूरी है जीिन को ्ानना

14. जन्-्ृत्यु से छूटने की तै्यारी है पूजा-पाठ

20 27 31 34 37 43 46 49 53 56 60 63

15. जीिन पर वचंतन के वलए वन्यव्त रूप से विरा् लेना जरूरी

67

17. चेतना का विकास नहीं तो ्ृत्यु की प्तीक्षा है जीिन

73

16. जीिन ्ें साथी की खोज 18. िसतु की भाँवत है शरीर

19. आंतररक सुख के वलए िृक्ष को जीिन के केंद्र ्ें लाइए

20. वशक्षा का लक््य ही है ज्ान और चररत् के आलोक की खोज 21. चेतना के आरोहर ्ें वनवहत है श्ीरा् की खोज 22. जीिन से दूर होते रस-रंग ्ें सि्यं की खोज

23. जीिन ्ें ह् कहाँ पर अपने वसर को झुकाएँ

24. दो साँसों के बीच ल्यबद्धता पर वनभ्णर है सिास‍थ्य 25. करुरा का चर्ोतकष्ण है आँसू

70 76 79 82 85 88 91 94 97

26. सि्णश्ेष्ठ के वलए जरूरी है चेतना को उतकृष्ट बनाना

100

28. स्ाज की सिीका्य्णता पर ही वनभ्णर है श्ेष्ठता की पहचान

107

27. श्ेष्ठ जीिन जीना चावहए, लेवकन पररिार कहाँ है?

29. सितंत्ता के वलए खुद को क््ण से अलग करना जरूरी 30. जीिन ्ें संपूर्ण सुख का ना् है ईश्वर

31. जीिन को अथ्णपूर्ण बनाती है िूलों की दुवन्या

32. जीिन ्ें गलत हो रहा हो तो पीछे ्ुड़कर देखें

33. जीिन प्वतपल न्या है, ्यवद हर क्षर का उतसि ्नाएँ

34. जो संसार ्ें वनःशु्क है, िही जीिन के वलए बेशकी्ती 35. वजस्ें स्ावहत सबकुछ, िही है आकाश 36. ित्ण्ान ्ें है आनंद

37. वदव्यता की अनुभूवत का ना् है ईश्वर

103 110 114 117 120 124 128 131 134 138

38. आनेिाले कल का वनधा्णरर करती है ह्ारी दृक्ष्ट

141

40. आत्-जागरर से शुरू होती है जीिन की अनंत ्यात्ा

150

39. ह्ारी साथ्णकता की पूर्णता ्ें वछपा है जीिन का लक््य 41. शांत ्क्सतषक से ही संभि है वनराशा पर विज्य 42. नदी की तरह बहने ्ें है जीिन की व्ठास

43. व्यक्ति का विकास नहीं हुआ तो स्ाज का विकास नहीं होगा 44. व्यक्ति के अवधकार का पै्ाना हो उसकी चेतना का विकास 45. सुबह सौंद्य्ण की शुरुआत तो शा् उसका चर्ोतकष्ण है 46. सरलता ्ें वस्टी वदव्यता

47. दो साँसों के बीच है जीिन

48. जीिन ्ें सुख की खोज, खुद जीिन की खोज है 49. सिा्णत्िाद से साकार होगा सि्ण्ंगलम्

50. आध्याक्त्कता का अथ्ण है संतुलन का जीिन संदभ्ण ग्ंथ

145 153 156 159 162 165 169 173 176 179 183 190

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