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First published by Anybook in 2020 Copyright © 2020 Anybook Copyright Text © 2020 Dr. Shikhar Agrawal Cover Design & Typesetting by Anybook ISBN : 978-93-86619-68-6 The author asserts the moral right to be identified as the author of this work All right reserved. No part of this publication may be reproduced or transmitted in any form or by means, electronic or mechanical and including photocopying, recording or by any information storage and stored in retrieval system, without the prior permission in writing of the Publisher and Author, nor be otherwise circulated in any form of binding or cover other than that in which it is published and without a similer condition including this condition being imposed on the subsequent purchaser.
समर्पित उन बेगुनाह आरोपियो/ं बं दियो ं को समर्पित जो किन्ह ीं वजहो ं से जेल में बं द हैं/थे ।
पहला पन्ना ये जो वक़्त का पहिया है ना ! ना तो ये कभी रूका है और ना ही कभी रूके गा….वैसे भी कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है लेकिन कभी-कभी आदमी समय के आगे इतना बेबस और लाचार नजर आता है कि उसे अपने खुद की रची हुई अनचाही परिस्थितियो ं से निकलना मुश्किल हो जाता है। अगर वक़्त आपको मुँह चिढ़ाने पर आ जाए तो समझें कि ऊँ ट पर बैठे होने के बावजूद आपको कु त्ता काट सकता है। लेकिन अगर यही वक़्त किसी के साथ यारी कर ले तो चाय वाला भी देश का प्रधानमं त्री बन सकता है। सब समय और तकदीर की बात है। अगर वक़्त और तकदीर दोनो ं आपके साथ हैं तो आपकी मटमैली तस्वीर के सुनहरा होने में पल भर की भी देरी नही ं लगती। फिलहाल, मैं खुद को खुशकिस्मत मानूं या नही,ं मैं खुद फै सला नही ं कर पा रहा हूं। लेकिन मेरी किताब पढ़ने के बाद आप ये राय जरूर कायम कर कसेंगे कि मेरे भूत को देखते
हुए मेरा भविष्य मुझे किस दिशा में ले जाएगा। मैं आप पाठको ं के ज्योतिषी होने की अपेक्षा नही ं कर रहा लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद आप मेरे चाल, चेहरा और चरित्र को लेकर आंकलन तो कर ही सकते हैं। तो तैयार हो जाइए बिना लाग-लपेट के मेरे बारे में अपनी राय बनाने की... मैं अपने बारे में सब कु छ लिखने जा रहा हूं, जिसकी समीक्षा आप लोगो ं को ही करनी है और बताना है मेरा अपराध...
उद्देश्य बदलते वक़्त के साथ एक मामूली सी घटना या कोई बड़ी घटना, इं सान की जिदं गी कै से बदल देती है और कै से बदल जाते हैं उसके जीने के मायने, ये मैं यानि शिखर अग्रवाल से बेहतर कोई नही ं बयां कर सकता। वक़्त के अलावा कोई दूसरा ऐसा पैमाना दनि ु या में नही ं है जो हमारे अपने, पराये, रिश्ते-नाते और अच्छे -बुरे की गहराई को माप-तोल सके या इसकी परिभाषा को परिभाषित कर सके । एक इं सान जिसकी जिदं गी में सब कु छ सामान्य रूप से चल रहा हो लेकिन वक़्त का पहिया ऐसा घूमे कि उसका सब कु छ उस पहिये के नीचे दफन होने को आ जाए तो इसे आप वक़्त की मार नही ं तो और क्या कहेंगे। हर व्यक्तिगत जिदं गी की अपनी एक अलग दास्ताँ होती है लेकिन जब एक घटना की वजह से कई परिवार उजड़ जाये, तो वो महज एक कहानी नही ं बल्कि कई कहानियो ं का दस्तावेज बन जाता है। कु छ ऐसी ही कहानी शुरू होती
है बुलंदशहर के स्याना तहसील से, जो आगे चलकर एक ऐसी उलझी हुई दास्ताँ के तौर पर लोगो ं के बीच आती है। इस घटना के चलते एक सामान्य सी जिदं गी जीने वाले युवक को कै से एक विलेन बना दिया जाता है या यूँ कहें वक़्त ने कै से करवट बदली और मेडिकल की पढ़ाई करने वाला एक छात्र कै से एक सं गीन अपराध का आरोपी करार दिया जाने लगा, मीडिया में उसका ट्रायल चलने लगा, मैं इसका एक जीता-जागता उदाहरण हूं। दिल में जन सेवा की भावना लेकर मेडिकल की पढ़ाई से गरीबो,ं असहायो ं की सेवा करने का सपना देखने वाले एक नवयुवक के टू टे सपने ने उसे कहां से कहां पहुँचा दिया...ये जानकर आप भी हैरान हो जायेंगे। मैं शिखर अग्रवाल अपनी दास्ताँ आगे बढ़ाता हूं। कहते हैं कि जब इं सान के सपने टू टते हैं तो वह बिखर जाता है, उसकी जिदं गी की नीदं उड़ जाती है। हालात की मार से दिल में बेइंतिहा दर्द होता है मगर इं सान चीख नही ं पाता तो वही इं सान मन की पीड़ा को कागज के पन्नों पर उके रने की कोशिश करता है और उके रता भी है ताकि उस दर्द को लोगो ं तक पहुँचाया जा सके और दनि ु या को बताया जा सके कि आखिर सच्चाई क्या थी और दनि ु या को बताया क्या गया। मेरा इस किताब को लिखने का उद्देश्य व्यावसायिक नही ं बल्कि इस बात पर प्रकाश डालना है कि कै से एक साधारण व्यक्ति को आरोपी बनाकर जेल में बन्द कर दिया जाता है और उसकी जिदं गी तबाह करने की कोशिश की जाती है। पत्रकारिता का क्या काम होता है और किस प्रकार किसी भी मुकदमे को मीडिया हैक कर लेती है। कै से न्यूज़ चैनलो ं में आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है, ये बात भी जगजाहिर हो चुकी है। जबकि सच्चाई ये है कि मीडियाकर्मी बगैर जाँच पड़ताल किए कोर्ट–कचहरी के फै सले से पहले किसी गं भीर मुद्दे पर अपना फै सला जनता को सुना देते हैं। मीडिया को इस बात की कोई चिन्ता नही ं होती है, कि उनके टीआरपी के खेल के चलते किसी की जिदं गी का खेल बिगड़ सकता है। मैं ये नही ं कहता कि सभी मीडियाकर्मी नासमझ होते हैं लेकिन माइक पकड़कर खुद जज बन जाना और किसी सं वेदनशील मुद्दे पर अपना फै सला सुना देना, अधिकांश न्यूज़ चैनलो ं की फितरत में शुमार हो चुका है। ऐसा नही ं है कि इसके लिए के वल मीडिया ही जिम्मेदार है, पुलिस की सं दिग्ध भूमिका भी मामले को और सं दिग्ध बना देती है। मीडिया के टीआरपी के खेल और कानून के
नं गे नाच का सं गम कई बार किसी बेगुनाह की जिदं गी को तबाह कर देता है या तबाही के कगार पर ला पटकता है। मैं जो लिखने जा रहा हूं, उसकी प्रासं गिकता तब तक बनी रहेगी जब तक भारत में कानून और जेल बनी रहेगी। इस किताब में मैं अपने ऊपर बीती हुई सच्चाई को बताने का पूरा प्रयास करूं गा। बं दियो ं का जीवन, जेल कर्मचारियो ं की भूमिका, मीडिया का व्यवहार, पुलिस का रोल, आम जनता की भावना और कै दियो ं के परिवार का जीवन ...मैंने लगभग सभी बिन्दुओ ं को किताब की शक्ल में शब्दों के जरिए जुबान देने की कोशिश की है। इस किताब को साधारण जन मानसो ं को पढ़ाने का उद्देश्य के वल इतना होगा कि वे लोग इसे पढ़कर सच्चाई से ये पता कर पायेंगे कि बं दियो ं की आज के वक़्त में क्या हालत है। कै से-कै से साधारण एवं असाधारण लोग जेल में जीवन यापन कर रहे हैं और कै सी-कै सी प्रतिभा उनके अन्दर निवास करती है। साथ ही कानून की लाचारता के चलते कै से एक नही ं हज़ारो ं परिवारो ं की जिदं गी तबाह हो रही है। बं दी जीवन से गुजर चुका... आपका अपना डॉ. शिखर अग्रवाल
अनुक्रम जो सच है वही लिखूं गा ... 15 आंखो ं देखी... 21 वही हुआ जो नही ं होना था... 25 खूनी खेल... 33 मेरी फरारी मेरी जुबानी... 37 मीडिया से हुआ रूबरू... 41 मं दिर दर्शन के बाद गोवा दर्शन... 49 दिल्ली रवानगी... 53 आखिरकार कर दिया सरेंडर... 59 जेल-लोक में आगमन... 61 मेरा अपराध
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जेल-लोक का काला कारोबार... 69 मैं और मेरी तन्हाई... 91 चलते-चलते... 115
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डॉ. शिखर
जो सच है वही लिखूं गा ... दिन : 03 दिसम्बर 2018, समय : सुबह
एक तरफ धरती के गर्भ की हलचल तो दूसरी ओर बुलंदशहर का गर्म माहौल...किसी को कु छ भी पता नही ं था कि क्या होने वाला है। बुलंदशहर की आबो-हवा में बहने वाली शांत बयार आक्रामक होने को तैयार थी। लेकिन शायद ही किसी को ऐसी किसी अनहोनी के होने की आशं का थी जो एक बड़े हादसे में तब्दील होने वाली थी। ऐसा कु छ तो था जो मेरी समझ से परे था। किसी अनहोनी के होने की आशं का सुबह से ही होने लगी थी। मेरे हाथ से पानी की गिलास छू टकर फर्श पर गिर गया था। अलसुबह गली के कु त्ते अनायास ही रोने लगे थे। भविष्य की घटनाओ ं से अनजान मैं नहा धोकर पूजा करने के बाद जैसे ही नाश्ते की मेज की ओर बढ़ा, एक जानने वाले का फोन आ गया। यह फोन वैभव (बदला हुआ नाम) का था। वैभव मेरा बेहद करीबी दोस्त रहा है। मेरा अपराध
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