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Story Transcript

प्रेमचंद

इस पुस्तक का प्रकाशन एवं ववक्रय इस शतत पर वकया जा रहा है वक प्रकाशक की लिलित पूवातनुमवत के विना इस पुस्तक या इसके वकसी भी अंश को न तो पुन: प्रकावशत वकया जा सकता है और न ही वकसी भी अन्य प्रकार से, वकसी भी रूप में इसका व्यावसावयक उपयोग वकया जा सकता है। यवि कोई व्यवि ऐसा करता है तो उसके ववरुद्ध क़ानूनी कारत वाई की जा सकती है।

ISBN: 978-93-89851-38-0 eISBN: 978-93-89851-30-4 © प्रकाशकाधीन प्रकाशक: प्रभाकर प्रकाशन पता: प्िॉट न. 55, मेन मदर डेयरी रोड, पाांडव नगर, ईस्ट ददल्ली-110092 फोन: +91 011-40395855 व्हाट्स ऐप: +91 8447931000 ई-मेल: [email protected] वेबसाइट: www.pharosbooks.in संस्करण: 2021

मानसरोवर भाग-4 प्रेमचंि

ववषय-सूची प्रेरणा .................................................................................... 4 सद्गवत ................................................................................ 14 तगािा ................................................................................. 21 िो कब्रें ................................................................................ 28 ढपोरसंि .............................................................................. 41 विमॉन्सटरेशन .......................................................................... 58 िारोगाजी .............................................................................. 66 अवभिाषा.............................................................................. 73 िुचड़ ................................................................................. 79 आगा-पीछा ........................................................................... 88 प्रेम का उिय ........................................................................ 104 सती ................................................................................. 114 मृतक भोज .......................................................................... 121 भूत ................................................................................. 137 सवा सेर गेहूँ......................................................................... 148 सभ्यता का रहस्य ................................................................... 154 समस्या .............................................................................. 160 िो सलियाूँ ........................................................................... 165 माूँगे की घड़ी ........................................................................ 215 स्मृवत का पुजारी ..................................................................... 229

प्रेरणा मेरी कक्षा में सूयतप्रकाश से ज्यािा ऊधमी कोई िड़का न था, िल्कक यों कहो वक अध्यापनकाि के िस वषष ं में मुझे ऐसी ववषम प्रकृवत के वशष्य से सािका न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान िसती थी। अध्यापकों को िनाने और वचढाने, उद्योगी िािकों को छे ड़ने और रुिाने में ही उसे आनन्ि आता था। ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचता, ऐसे-ऐसे फंिे िािता, ऐसे-ऐसे िंधन िाूँधता वक िेिकर आश्चयत होता था। वगरोहिंिी में अभ्यस्त था। िुिाई फौजिारों की एक फौज िना िी थी और उसके आतंक से शािा पर शासन करता था। मुख्य अलधष्ठाता की आज्ञा टि जाए, मगर क्या मजाि वक कोई उसके हु क्म की अवज्ञा कर सके। स्कू ि के चपरासी और अित िी उससे थर-थर काूँपते थे। इस्पेक्टर का मुआइना होने वािा था, मुख्य अलधष्ठाता ने हु क्म विया वक िड़के वनवित ष्ट समय से आधा घंटा पहिे आ जाएूँ। मतिि यह था वक िड़कों को मुआइने के िारे में कुछ जरूरी िातें िता िी जाएूँ, मगर िस िज गए, इंस्पेक्टर साहि आकर िैठ गए, और मिरसे में एक िड़का भी नहीं। ग्यारह िजे सि छात्र इस तरह वनकि पड़े, जैसे कोई वपंजरा िोि विया गया हो। इस्पेक्टर साहि ने कैवफयत में लििा वड़लसल्प्िन िहु त िराि है। वप्रंलसपि साहि की वकरवकरी हु ई, अध्यापक ििनाम हु ए और यह सारी शरारत सूयतप्रकाश की थी, मगर िहु त पूछ-ताछ करने पर भी वकसी ने सूयतप्रकाश का नाम तक न लिया। मुझे अपनी संचािन-ववलध पर गवत था। टरेवनंग कािेज में इस ववषय में मैंने ख्यावत प्राप्त की थी, मगर यहाूँ मेरा सारा संचािन-कौशि जैसे मोचात िा गया था। कुछ अक्ि ही काम न करती वक शैतान को कैसे सन्मागत पर िाएूँ। कई िार अध्यापकों की िैठक हु ई, पर यह वगरह न िुिी। नई वशक्षा-ववलध के अनुसार मैं िंिनीवत का पक्षपाती न था, मगर यहाूँ हम इस नीवत से केवि इसलिए ववरि थे वक कहीं उपचार से भी रोग असाध्य न हो जाए। सूयतप्रकाश को स्कू ि से वनकाि िेने का प्रस्ताव भी वकया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण समझकर हम इस नीवत का व्यवहार करने का साहस न कर सके। िीस-िाईस अनुभवी और वशक्षाशास्त्र के आचायत एक िारह-तेरह साि के उद्दंि िािक का सुधार न कर सकें, यह ववचार िहु त ही वनराशाजनक था। यों तो सारा स्कू ि उससे त्रावह-त्रावह करता था, मगर सिसे ज्यािा संकट में मैं था, क्योंवक वह मेरी कक्षा का छात्र था और उसकी शरारतों का कु फि मुझे भोगना पड़ता था। मैं स्कू ि आता, तो हरिम यही िटका िगा रहता था वक िेिें आज क्या ववपलि आती है। मानसरोवर भाग 4 / 4

एक विन मैंने अपनी मेज की िराज िोिी, तो उसमें से एक िड़ा-सा मेंढक वनकि पड़ा। मैं चौंककर पीछे हटा तो क्िास में एक शोर मच गया। उसकी ओर सरोष नेत्रों से िेिकर रह गया। सारा घंटा उपिेश में िीत गया और वह पट्ठा लसर झुकाये नीचे मुस्करा रहा था। मुझे आश्चयत होता था वक यह नीचे की कक्षाओं में कैसे पास हु आ था। एक विन मैंने गुस्से से कहा, ‘तुम इस कक्षा से उम्र भर नहीं पास हो सकते।’ सूयतप्रकाश ने अववचलित भाव से कहा, ‘आप मेरे पास होने की वचन्ता न करें । मैं हमेशा पास हु आ हूँ और अिकी भी हूँगा।’ ‘असम्भव!’ ‘असम्भव सम्भव हो जाएगा!’ मैं आश्चयत से उसका मुूँह िेिने िगा। जहीन से जहीन िड़का भी अपनी सफिता का िावा इतने वनववत वाि रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा, वह प्रश्न-पत्र उड़ा िेता होगा। मैंने प्रवतज्ञा की, अिकी इसकी एक चाि भी न चिने िूँगू ा। िेिूँ,ू वकतने विन इस कक्षा में पड़ा रहता है। आप घिराकर वनकि जाएगा। वावषत क परीक्षा के अवसर पर मैंने असाधारण िेिभाि से काम लिया; मगर जि सूयतप्रकाश का उिर-पत्र िेिा, तो मेरे ववस्मय की सीमा न रही। मेरे िो पचे थे, िोनों ही में उसके नम्िर कक्षा में सिसे अलधक थे। मुझे िूि मािूम था वक वह मेरे वकसी पचे का कोई प्रश्न भी हि नहीं कर सकता। मैं इसे लसद्ध कर सकता था; मगर उसके उिर-पत्रों को क्या करता! लिवप में इतना भेि न था जो कोई संिेह उत्पन्न कर सकता। मैंने वप्रंलसपि से कहा, तो वह भी चकरा गए; मगर उन्हें भी जान-िूझकर मक्िी वनगिनी पड़ी। मैं किावचत् स्वभाव ही से वनराशावािी हूँ। अन्य अध्यापकों को मैं सूयतप्रकाश के ववषय में जरा भी वचंवतत न पाता था। मानो ऐसे िड़कों का स्कू ि में आना कोई नई िात नहीं, मगर मेरे लिए वह एक ववकट रहस्य था। अगर यही ढंग रहे, तो एक विन या तो जेि में होगा, या पागििाने में। 2 उसी साि मेरा तिाििा हो गया। यद्यवप यहाूँ का जिवायु मेरे अनुकूि था, वप्रंलसपि और अन्य अध्यापकों से मैत्री हो गई थी, मगर मैं अपने तिाििे से िुश हु आ; क्योंवक सूयतप्रकाश मेरे मागत का काूँटा न रहेगा। िड़कों ने मुझे वविाई की िावत िी और सि-के-सि स्टेशन तक पहु ूँचाने आये। उस वि सभी िड़के आूँिों में आूँसू भरे हु ए थे। मैं भी अपने आूँसुओं को न रोक सका। सहसा मेरी वनगाह सूयतप्रकाश पर पड़ी, जो सिसे पीछे िल्ज्जत िड़ा था। मुझे ऐसा मािूम हु आ वक उसकी आूँिें भी भीगी थीं। मेरा जी िार-िार चाहता था वक चिते-चिते उससे िो-चार िातें कर िूूँ। शायि वह भी मुझसे कु छ कहना चाहता था, मगर न मैंने पहिे िातें कीं, मानसरोवर भाग 4 / 5

न उसने; हािाूँवक मुझे िहु त विनों तक इसका िेि रहा। उसकी लझझक तो क्षमा के योग्य थी; पर मेरा अवरोध अक्षम्य था। संभव था, उस करुणा और ग्िावन की िशा में मेरी िो-चार वनष्कपट िातें उसके विि पर असर कर जातीं; मगर इन्हीं िोये हु ए अवसरों का नाम तो जीवन है। गाड़ी मंिगवत से चिी। िड़के कई किम तक उसके साथ िौड़े। मैं लिड़की के िाहर लसर वनकािे िड़ा था। कुछ िेर मुझे उनके वहिते हु ए रूमाि नजर आये। वफर वे रे िाएं आकाश में वविीन हो गई ं : मगर एक अकपकाय मूवतत अि भी प्िेटफामत पर िड़ी थी। मैंने अनुमान वकया, वह सूयतप्रकाश है। उस समय मेरा हृिय वकसी ववकि कैिी की भाूँवत घृणा, मालिन्य और उिासीनता के िंधनों को तोड़-तोड़कर उसके गिे वमिने के लिए तड़प उठा। नये स्थान की नई वचंताओं ने िहु त जकि मुझे अपनी ओर आकवषत त कर लिया। वपछिे विनों की याि एक हसरत िनकर रह गई। न वकसी का कोई ित आया, न मैंने कोई ित लििा। शायि िुवनया का यही िस्तूर है। वषात के िाि वषात की हररयािी वकतने विनों रहती है। संयोग से मुझे इंग्िैंि में ववद्याभ्यास करने का अवसर वमि गया। वहाूँ तीन साि िग गए। वहाूँ से िौटा तो एक कािेज का वप्रंलसपि िना विया गया। यह लसवद्ध मेरे लिए वििकु ि आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी ि ूर न उड़ी थी; वकन्तु पिलिप्सा अि वकसी और भी ऊूँची िािी पर आश्रय िेना चाहती थी। वशक्षामंत्री से रब्त-जब्त पैिा वकया। मंत्री महोिय मुझ पर कृपा रिते थे; मगर वास्तव में वशक्षा के मौलिक लसद्धांतों का उन्हें ज्ञान न था। मुझे पाकर उन्होंने सारा भार मेरे ऊपर िाि विया। घोड़े पर वह सवार थे, िगाम मेरे हाथ में थी। फि यह हु आ वक उनके राजनैवतक ववपवक्षयों से मेरा ववरोध हो गया। मुझ पर जा-िेजा आक्रमण होने िगे। मैं लसद्धान्त रूप से अवनवायत वशक्षा का ववरोधी हूँ। मेरा ववचार है वक हर एक मनुष्य की उन ववषयों में ज्यािा स्वाधीनता होनी चावहए, लजनका उससे वनज का संिंध है। मेरा ववचार है वक यूरोप में अवनवायत वशक्षा की जरूरत है, भारत में नहीं। भौवतकता पल्श्चमी सभ्यता का मूि तत्त्व है। वहाूँ वकसी काम की प्रेरणा, आलथत क िाभ के आधार पर होती है। लजन्िगी की जरूरत ज्यािा है; इसलिए जीवन-संग्राम भी अलधक भीषण है। माता-वपता भोग के िास होकर िच्चों को जकि-से-जकि कु छ कमाने पर मजिूर करते हैं। इसकी जगह वक वह मि का त्याग करके एक वशलिंग रोज की िचत कर िें, वे अपने कमलसन िच्चे को एक वशलिंग की मजिूरी करने के लिए ििायेंगे। भारतीय जीवन में साल्त्वक सरिता है। हम उस वि तक अपने िच्चों से मजिरू ी नहीं कराते, जि तक वक पररल्स्थवत हमें वववश न कर िे। िररद्र से िररद्र वहंिस्ु तानी मजि ूर भी वशक्षा के उपकारों का कायि है। उसके मन में यह अवभिाषा होती है वक मेरा िच्चा चार अक्षर पढ जाए। इसलिए नहीं वक उसे कोई अलधकार वमिेगा; िल्कक केवि इसलिए वक ववद्या मानवी शीि का एक शंगार है। अगर यह जानकर भी वह अपने िच्चे को मिरसे नहीं भेजता, तो समझ िेना चावहए वक वह मजिूर है। ऐसी िशा में मानसरोवर भाग 4 / 6

उस पर कानून का प्रहार करना मेरी दृवष्ट में न्याय-संगत नहीं है। इसके लसवाय मेरे ववचार में अभी हमारे िेश में योग्य वशक्षकों का अभाव है। अद्धत-वशवक्षत और अकपवेतन पानेवािे अध्यापकों से आप यह आशा नहीं रि सकते वक वह कोई ऊूँचा आिशत अपने सामने रि सकें। अलधक-से-अलधक इतना ही होगा वक चार-पाूँच वषत में िािक को अक्षर-ज्ञान हो जाएगा। मैं इसे पवत त िोिकर चुवहया वनकािने के तुकय समझता हूँ। वय प्राप्त हो जाने पर यह मसिा एक महीने में आसानी से तय वकया जा सकता है। मैं अनुभव से कह सकता हूँ वक युवावस्था में हम लजतना ज्ञान एक महीने में प्राप्त कर सकते हैं, उतना िाकयावस्था में तीन साि में भी नहीं कर सकते, वफर िामख्वाह िच्चों को मिरसे में कैि करने से क्या िाभ? मिरसे के िाहर रहकर उसे स्वच्छ वायु तो वमिती, प्राकृवतक अनुभव तो होते। पाठशािा में िन्ि करके तो आप उसके मानलसक और शारीररक िोनों ववधानों की जड़ काट िेते हैं। इसलिए जि प्रान्तीय व्यवस्थापक-सभा में अवनवायत वशक्षा का प्रस्ताव पेश हु आ, तो मेरी प्रेरणा से वमवनस्टर साहि ने उसका ववरोध वकया। नतीजा यह हु आ वक प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। वफर क्या था। वमवनस्टर साहि की और मेरी वह िे-िे शुरू हु ई वक कुछ न पूवछए। व्यविगत आक्षेप वकए जाने िगे। मैं गरीि की िीवी था, मुझे ही सिकी भाभी िनना पड़ा। मुझे िेशद्रोही, उन्नवत का शत्रु और नौकरशाही का गुिाम कहा गया। मेरे कािेज में जरासी भी कोई िात होती तो कौंलसि में मुझ पर वषात होने िगती। मैंने एक चपरासी को पृथक् वकया। सारी कौंलसि पंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गई। आलिर वमवनस्टर साहि को मजिूर होकर उस चपरासी को िहाि करना पड़ा। यह अपमान मेरे लिए असह्य था। शायि कोई भी इसे सहन न कर सकता। वमवनस्टर साहि से मुझे वशकायत नहीं। वह मजिूर थे। हाूँ, इस वातावरण में काम करना मेरे लिए िुस्साध्य हो गया। मुझे अपने कािेज के आन्तररक संगठन का भी अलधकार नहीं। अमुक क्यों नहीं परीक्षा में भेजा गया, अमुक के िििे अमुक को क्यों नहीं छात्रवृलि िी गई, अमुक अध्यापक को अमुक कक्षा क्यों नहीं िी जाती, इस तरह के सारहीन आक्षेपों ने मेरी नाक में िम कर विया था। इस नई चोट ने कमर तोड़ िी। मैंने इस्तीफा िे विया। मुझे वमवनस्टर साहि से इतनी आशा अवश्य थी वक वह कम-से-कम इस ववषय में न्यायपरायणता से काम िेंगे; मगर उन्होंने न्याय की जगह नीवत को मान्य समझा और मुझे कई साि की भवि यह फि वमिा वक मैं पिच्युत कर विया गया। संसार का ऐसा कटु अनुभव मुझे अि तक न हु आ था। ग्रह भी कुछ िुरे आ गए थे, उन्हीं विनों पत्नी का िेहान्त हो गया। अल्न्तम िशत न भी न कर सका। सन्ध्या-समय निी-तट पर सैर करने गया था। वह कु छ अस्वस्थ थीं। िौटा, तो उनकी िाश वमिी। किावचत् हृिय की गवत िन्ि हो गई थी। इस आघात ने कमर तोड़ िी। माता के प्रसाि और आशीवाति से िड़े-िड़े महान् पुरुष कृताथत हो गए हैं। मैं जो कु छ हु आ, पत्नी के प्रसाि और आशीवाति से हु आ; वह मेरे भाग्य की ववधात्री थीं। वकतना अिौवकक त्याग था, वकतना ववशाि धैयत। उनके माधुयत में तीक्ष्णता का नाम भी न था। मुझे याि नहीं आता वक मैंने कभी उनकी भृकुटी संकुवचत िेिी हो, वह वनराश होना तो जानती ही न थीं। मैं कई िार सख्त मानसरोवर भाग 4 / 7

िीमार पड़ा हूँ। वैद्य वनराश हो गए हैं, पर वह अपने धैयत और शांवत से अणु-मात्र भी ववचलित नहीं हु ई।ं उन्हें ववश्वास था वक मैं अपने पवत के जीवन-काि में मरूूँगी और वही हु आ भी। मैं जीवन में अि तक उन्हीं के सहारे िड़ा था! जि वह अविम्ि ही न रहा, तो जीवन कहाूँ रहता। िाने और सोने का नाम जीवन नहीं है। जीवन नाम है, सिैव आगे िढते रहने की िगन का। यह िगन गायि हो गई। मैं संसार से ववरि हो गया। और एकान्तवास में जीवन के विन व्यतीत करने का वनश्चय करके एक छोटे-से गाूँव में जा िसा। चारों तरफ ऊूँचे-ऊूँचे टीिे थे, एक ओर गंगा िहती थी। मैंने निी के वकनारे एक छोटा-सा घर िना लिया और उसी में रहने िगा। 3 मगर काम करना तो मानवी स्वभाव है। िेकारी में जीवन कैसे कटता। मैंने एक छोटी-सी पाठशािा िोि िी; एक वृक्ष की छाूँह में गाूँव के िड़कों को जमा कर कु छ पढाया करता था। उसकी यहाूँ इतनी ख्यावत हु ई वक आस-पास के गाूँव के छात्र भी आने िगे। एक विन मैं अपनी कक्षा को पढा रहा था वक पाठशािा के पास एक मोटर आकर रुकी और उसमें से उस लजिे के विप्टी कवमश्नर उतर पड़े। मैं उस समय केवि एक कुतात और धोती पहने हु ए था। इस वेश में एक हावकम से वमिते हु ए शमत आ रही थी। विप्टी कवमश्नर मेरे समीप आये तो मैंने झेंपते हु ए हाथ िढाया, मगर वह मुझसे हाथ वमिाने के िििे मेरे पैरों की ओर झुके और उन पर लसर रि विया। मैं कु छ ऐसा लसटवपटा गया वक मेरे मुूँह से एक शब्ि भी न वनकिा। मैं अूँगरे जी अच्छी लििता हूँ, िशत नशास्त्र का भी आचायत हूँ, व्याख्यान भी अच्छे िे िेता हूँ। मगर इन गुणों में एक भी श्रद्धा के योग्य नहीं। श्रद्धा तो ज्ञावनयों और साधुओं ही के अलधकार की वस्तु है। अगर मैं ब्राह्मण होता, तो एक िात थी। हािाूँवक एक लसववलियन का वकसी ब्राह्मण के पैरों पर लसर रिना अवचंतनीय है। मैं अभी इसी ववस्मय में पड़ा हु आ था वक विप्टी कवमश्नर ने लसर उठाया और मेरी तरफ िेिकर कहा, आपने शायि मुझे पहचाना नहीं। इतना सुनते ही मेरे स्मृवत-नेत्र िुि गए, िोिा, ‘आपका नाम सूयतप्रकाश तो नहीं है?’ ‘जी हाूँ, मैं आपका वही अभागा वशष्य हूँ।’ ‘िारह-तेरह वषत हो गए।’ सूयतप्रकाश ने मुस्कराकर कहा, ‘अध्यापक िड़कों को भूि जाते हैं, पर िड़के उन्हें हमेशा याि रिते हैं। मैंने उसी ववनोि के भाव से कहा, ‘तुम जैसे िड़कों को भूिना असंभव है।’

मानसरोवर भाग 4 / 8

सूयतप्रकाश ने ववनीत स्वर में कहा, ‘उन्हीं अपराधों को क्षमा कराने के लिए सेवा में आया हूँ। मैं सिैव आपकी ििर िेता रहता था। जि आप इंग्िैंि गए, तो मैंने आपके लिए िधाई का पत्र लििा; पर उसे भेज न सका। जि आप वप्रंलसपि हु ए, मैं इंग्िैंि जाने को तैयार था। वहाूँ मैं पवत्रकाओं में आपके िेि पढता रहता था। जि िौटा, तो मािूम हु आ वक आपने इस्तीफा िे विया और कहीं िेहात में चिे गए हैं। इस लजिे में आये हु ए मुझे एक वषत से अलधक हु आ; पर इसका जरा भी अनुमान न था वक आप यहाूँ एकांत-सेवन कर रहे हैं। इस उजाड़ गाूँव में आपका जी कैसे िगता है? इतनी ही अवस्था में आपने वानप्रस्थ िे लिया?’ मैं नहीं कह सकता वक सूयतप्रकाश की उन्नवत िेिकर मुझे वकतना आश्चयत मय आनंि हु आ। अगर वह मेरा पुत्र होता तो भी इससे अलधक आनंि न होता। मैं उसे अपने झोंपड़े में िाया और अपनी राम कहानी कह सुनाई। सूयतप्रकाश ने कहा, ‘तो यह कवहए वक आप अपने ही एक भाई के ववश्वासघात के वशकार हु ए। मेरा अनुभव तो अभी िहु त कम है; मगर इतने ही विनों में मुझे मािूम हो गया है वक हम िोग अभी अपनी लजम्मेिाररयों को पूरा करना नहीं जानते। वमवनस्टर साहि से भेंट हु ई तो पूछूूँगा, वक यही आपका धमत था।’ मैंने जवाि विया- ‘भाई, उनका िोष नहीं। संभव है, इस िशा में मैं भी वही करता, जो उन्होंने वकया। मुझे अपनी स्वाथत लिप्सा की सजा वमि गई और उसके लिए मैं उनका ऋणी हूँ। िनावट नहीं, सत्य कहता हूँ वक यहाूँ मुझे जो शांवत है, वह और कहीं न थी। इस एकान्त-जीवन में मुझे जीवन के तत्त्वों का वह ज्ञान हु आ, जो संपलि और अलधकार की िौड़ में वकसी तरह संभव न था। इवतहास और भूगोि के पोथे चाटकर और यूरोप के ववद्याियों की शरण जाकर भी मैं अपनी ममता को न वमटा सका; िल्कक यह रोग विन-विन और भी असाध्य होता जाता था। आप सीवढयों पर पाूँव रिे िगैर छत की ऊूँचाई तक नहीं पहु ूँच सकते। सम्पलि की अट्टालिका तक पहु ूँचने में िूसरों की लजंिगी ही जीने का काम िेती है। आप कु चिकर ही िक्ष्य तक पहु ूँच सकते हैं। वहाूँ सौजन्य और सहानुभूवत का स्थान ही नहीं। मुझे ऐसा मािूम होता है वक उस वि मैं वहंस्र जंतओ ु ं से वघरा हु आ था और मेरी सारी शवियाूँ अपनी आत्मरक्षा में ही िगी रहती थीं। यहाूँ मैं अपने चारों ओर संतोष और सरिता िेिता हूँ। मेरे पास जो िोग आते हैं, कोई स्वाथत िेकर नहीं आते और न मेरी सेवाओं में प्रशंसा या गौरव की िािसा है। यह कहकर मैंने सूयतप्रकाश के चेहरे की ओर गौर से िेिा। कपट मुसकान की जगह ग्िावन का रं ग था। शायि यह वििाने आया था वक आप लजसकी तरफ से इतने वनराश हो गए थे, वह अि इस पि को सुशोवभत कर रहा है। वह मुझसे अपने सिुपयोग का ििान कराना चाहता था। मुझे अि अपनी भूि मािूम हु ई। एक संपन्न आिमी के सामने समृवद्ध की वनंिा उवचत नहीं। मैंने तुरन्त िात पिटकर कहा, मगर तुम अपना हाि तो कहो। तुम्हारी यह काया-पिट कैसे हु ई?

मानसरोवर भाग 4 / 9

तुम्हारी शरारतों को याि करता हूँ तो अि भी रोएं िड़े हो जाते हैं। वकसी िेवता के वरिान के लसवा और तो कहीं यह ववभूवत न प्राप्त हो सकती थी।’ सूयतप्रकाश ने मुस्कराकर कहा, ‘आपका आशीवाति था।’ मेरे िहु त आग्रह करने पर सूयतप्रकाश ने अपना वृिांत सुनाना शुरू वकयाआपके चिे आने के कई विन िाि मेरा ममेरा भाई स्कू ि में िालिि हु आ। उसकी उम्र आठनौ साि से ज्यािा न थी। वप्रंलसपि साहि उसे होस्टि में न िेते थे और न मामा साहि उसके ठहरने का प्रिन्ध कर सकते थे। उन्हें इस संकट में िेिकर मैंने वप्रंलसपि साहि से कहा, उसे मेरे कमरे में ठहरा िीलजये। वप्रंलसपि साहि ने इसे वनयम-ववरुद्ध ितिाया। इस पर मैंने विगड़कर उसी विन होस्टि छोड़ विया और एक वकराये का मकान िेकर मोहन के साथ रहने िगा। उसकी माूँ कई साि पहिे मर चुकी थी। इतना िुििा-पतिा, कमजोर और गरीि िड़का था वक पहिे ही विन से मुझे उस पर िया आने िगी। कभी उसके लसर में िित होता, कभी ज्वर हो आता। आये विन कोई-न-कोई िीमारी िड़ी रहती थी। इधर साूँझ हु ई और झपवकयाूँ आने िगीं। िड़ी मुल्श्कि से भोजन करने उठता। विन चढे तक सोया करता और जि तक मैं गोि में उठाकर विठा न िेता, उठने का नाम न िेता। रात को िहु धा चौंककर मेरी चारपाई पर आ जाता। मेरे गिे से लिपटकर सोता। मुझे उस पर कभी क्रोध न आता। कह नहीं सकता, क्यों मुझे उससे प्रेम हो गया। मैं जहाूँ पहिे नौ िजे सोकर उठता था, अि तड़के उठ िैठता और उसके लिए ि ूध गरम करता। वफर उसे उठाकर हाथ-मुूँह धुिाता और नाश्ता कराता। उसके स्वास््य के ववचार से वनत्य वायु सेवन को िे जाता। मैं जो कभी वकताि िेकर न िैठता था, उसे घंटों पढाया करता। मुझे अपने िावयत्व का इतना ज्ञान कैसे हो गया, इसका मुझे आश्चयत है। उसे कोई वशकायत हो जाती तो मेरे प्राण निों में समा जाते। िॉक्टर के पास िौड़ता, िवाएं िाता और मोहन की िुशामि करके िवा वपिाता। सिैव यह वचंता िगी रहती थी, वक कोई िात उसकी इच्छा के ववरुद्ध न हो जाए। इस िेचारे का यहाूँ मेरे लसवा ि ूसरा कौन है। मेरे चंचि वमत्रों में से कोई उसे वचढाता या छेड़ता तो मेरी त्योररयाूँ ििि जाती थीं! कई िड़के तो मुझे िूढी िाई कहकर वचढाते थे; पर मैं हूँसकर टाि िेता था। मैं उसके सामने एक अनुवचत शब्ि भी मुूँह से न वनकािता। यह शंका होती थी, वक कहीं मेरी िेिा-िेिी यह भी िराि न हो जाए। मैं उसके सामने इस तरह रहना चाहता था, वक वह मुझे अपना आिशत समझे और इसके लिए यह मानी हु ई िात थी वक मैं अपना चररत्र सुधारूूँ। वह मेरा नौ िजे सोकर उठना, िारह िजे तक मटरगश्ती करना, नई-नई शरारतों के मंसूिे िाूँधना और अध्यापकों की आूँि िचाकर स्कू ि से उड़ जाना, सि आप-ही-आप जाता रहा। स्वास््य और चररत्र पािन के लसद्धांतों का मैं शत्रु था; पर अि मुझसे िढकर उन वनयमों का रक्षक ि ूसरा न था। मैं ईश्वर का उपहास वकया करता, मगर अि पक्का आल्स्तक हो गया था। वह िड़े सरि मानसरोवर भाग 4 / 10

भाव से पूछता, परमात्मा सि जगह रहते हैं, तो मेरे पास भी रहते होंगे। इस प्रश्न का मजाक उड़ाना मेरे लिए असंभव था। मैं कहता हाूँ परमात्मा तुम्हारे , हमारे सिके पास रहते हैं और हमारी रक्षा करते हैं। यह आश्वासन पाकर उसका चेहरा आनन्ि से लिि उठता था, किावचत् वह परमात्मा की सिा का अनुभव करने िगता था। साि ही भर में मोहन कुछ से कु छ हो गया। मामा साहि िोिारा आये, तो उसे िेिकर चवकत हो गए। आूँिों में आूँसू भरकर िोिे, ‘िेटा! तुमने इसको लजिा लिया, नहीं तो मैं वनराश हो चुका था। इसका पुनीत फि तुम्हें ईश्वर िेंगे। इसकी माूँ स्वगत में िैठी हु ई तुम्हें आशीवाति िे रही है।’ सूयतप्रकाश की आूँिें उस वि भी सजि हो गई थीं। मैंने पूछा, ‘मोहन भी तुम्हें िहु त प्यार करता होगा?’ सूयतप्रकाश के सजि नेत्रों में हसरत से भरा हु आ आनन्ि चमक उठा, ‘िोिा, वह मुझे एक वमनट के लिए भी न छोड़ता था। मेरे साथ िैठता, मेरे साथ िाता, मेरे साथ सोता। मैं ही उसका सिकु छ था। आह! वह संसार में नहीं है। मगर मेरे लिए वह अि भी उसी तरह जीता-जागता है। मैं जो कुछ हूँ, उसी का िनाया हु आ हूँ। अगर वह िैवी ववधान की भाूँवत मेरा पथ-प्रिशत क न िन जाता, तो शायि आज मैं वकसी जेि में पड़ा होता। एक विन मैंने कह विया था वक अगर तुम रोज नहा न लिया करोगे तो मैं तुमसे न िोिूूँगा। नहाने से वह न जाने क्यों जी चुराता था। मेरी इस धमकी का फि यह हु आ वक वह वनत्य प्रात:काि नहाने िगा। वकतनी ही सिी क्यों न हो, वकतनी ही ठंिी हवा चिे; िेवकन वह स्नान अवश्य करता था। िेिता रहता था, मैं वकस िात से िुश होता हूँ। एक विन मैं कई वमत्रों के साथ लथयेटर िेिने चिा गया, ताकीि कर गया था वक तुम िाना िाकर सो रहना। तीन िजे रात को िौटा, तो िेिा वक वह िैठा हु आ है! मैंने पूछा, ‘तुम सोये नहीं? िोिा, नींि नहीं आई।’ उस विन से मैंने लथयेटर जाने का नाम न लिया। िच्चों में प्यार की जो एक भूि होती है िूध, वमठाई और लििौनों से भी ज्यािा मािक जो माूँ की गोि के सामने संसार की वनलध की भी परवाह नहीं करती, मोहन की वह भूि कभी संतुष्ट न होती थी। पहाड़ों से टकराने वािी सारस की आवाज की तरह वह सिैव उसकी नसों में गूूँजा करती थी। जैसे भूवम पर फैिी हु ई िता कोई सहारा पाते ही उससे वचपट जाती है, वही हाि मोहन का था। वह मुझसे ऐसा वचपट गया था वक पृथक् वकया जाता, तो उसकी कोमि िेि के टु कड़े-टु कड़े हो जाते। वह मेरे साथ तीन साि रहा और ति मेरे जीवन में प्रकाश की एक रे िा िािकर अन्धकार में वविीन हो गया। उस जीणत काया में कैसे-कैसे अरमान भरे हु ए थे। किावचत् ईश्वर ने मेरे जीवन में एक अविम्ि की सृवष्ट करने के लिए उसे भेजा था। उद्देश्य पूरा हो गया तो वह क्यों रहता। मानसरोवर भाग 4 / 11

4 ‘गवमत यों की तातीि थी। िो तातीिों में मोहन मेरे ही साथ रहा था। मामाजी के आग्रह करने पर भी घर न आया। अिकी कािेज के छात्रों ने काश्मीर-यात्रा करने का वनश्चय वकया और मुझे उसका अध्यक्ष िनाया। काश्मीर यात्रा की अवभिाषा मुझे वचरकाि से थी। इसी अवसर को गनीमत समझा। मोहन को मामाजी के पास भेजकर मैं काश्मीर चिा गया। िो महीने के िाि िौटा, तो मािूम हु आ मोहन िीमार है। काश्मीर में मुझे िार-िार मोहन की याि आती थी और जी चाहता था, िौट जाऊूँ। मुझे उस पर इतना प्रेम है, इसका अन्िाज मुझे काश्मीर जाकर हु आ; िेवकन वमत्रों ने पीछा न छोड़ा। उसकी िीमारी की ििर पाते ही मैं अधीर हो उठा और िस ू रे ही विन उसके पास जा पहु ूँचा। मुझे िेिते ही उसके पीिे और सूिे हु ए चेहरे पर आनन्ि की स्फू वतत झिक पड़ी। मैं िौड़कर उसके गिे से लिपट गया। उसकी आूँिों में वह िरू दृवष्ट और चेहरे पर वह अिौवकक आभा थी जो मूँिराती हु ई मृत्यु की सूचना िेती है। मैंने आवेश से काूँपते हु ए स्वर में पूछा, यह तुम्हारी क्या िशा है मोहन? िो ही महीने में यह नौित पहु ूँच गई? मोहन ने सरि मुस्कान के साथ कहा, ‘आप काश्मीर की सैर करने गए थे, मैं आकाश की सैर करने जा रहा हूँ।’ ‘मगर यह िु:ि की कहानी कहकर मैं रोना और रुिाना नहीं चाहता। मेरे चिे जाने के िाि मोहन इतने पररश्रम से पढने िगा मानो तपस्या कर रहा हो। उसे यह धुन सवार हो गई थी वक साि भर की पढाई िो महीने में समाप्त कर िे और स्कू ि िुिने के िाि मुझसे इस श्रम का प्रशंसारूपी उपहार प्राप्त करे । मैं वकस तरह उसकी पीठ ठोकूूँ गा, शािाशी िूँगू ा, अपने वमत्रों से ििान करूूँगा, इन भावनाओं ने अपने सारे िािोवचत उत्साह और तल्लीनता से उसे वशीभूत कर लिया। मामाजी को िफ्तर के कामों से इतना अवकाश कहाूँ वक उसके मनोरं जन का ध्यान रिें। शायि उसे प्रवतविन कु छ-न-कु छ पढते िेिकर वह विि में िुश होते थे। उसे िेिते िेिकर वह जरूर िांटते। पढते िेिकर भिा क्या कहते। फि यह हु आ वक मोहन को हककाहकका ज्वर आने िगा, वकन्तु उस िशा में भी उसने पढना न छोड़ा। कु छ और व्यवतक्रम भी हु ए, ज्वर का प्रकोप और भी िढा; पर उस िशा में भी ज्वर कुछ हकका हो जाता, तो वकतािें िेिने िगता था। उसके प्राण मुझमें ही िने रहते थे। ज्वर की िशा में भी नौकरों से पूछता भैया का पत्र आया? वह कि आएूँगे? इसके लसवा और कोई िूसरी अवभिाषा न थी। अगर मुझे मािूम होता वक मेरी काश्मीर-यात्रा इतनी महूँगी पड़ेगी, तो उधर जाने का नाम भी न िेता। उसे िचाने के लिए मुझसे जो कु छ हो सकता था, वह मैंने सि वकया; वकन्तु िुिार टाइफायि था, उसकी जान िेकर ही उतरा। उसके जीवन के स्वप्न मेरे लिए वकसी ऋवष के आशीवाति िनकर मुझे प्रोत्सावहत करने िगे और यह उसी का शुभ फि है वक आज आप मुझे इस िशा में िेि रहे हैं। मोहन की िाि अवभिाषाओं को प्रत्यक्ष रूप में िाकर यह मुझे संतोष होता है वक शायि उसकी पववत्र आत्मा मुझे िेिकर प्रसन्न होती हो। यही प्रेरणा थी वक लजसने कवठन से कवठन परीक्षाओं मानसरोवर भाग 4 / 12

में भी मेरा िेड़ा पार िगाया; नहीं तो मैं आज भी वही मंििुवद्ध सूयतप्रकाश हूँ, लजसकी सूरत से आप वचढते थे।’ उस विन से मैं कई िार सूयतप्रकाश से वमि चुका हूँ। वह जि इस तरफ आ जाता है, तो विना मुझसे वमिे नहीं जाता। मोहन को अि भी वह अपना इष्टिेव समझता है। मानव-प्रकृवत का यह एक ऐसा रहस्य है, लजसे मैं आज तक नहीं समझ सका। ***

मानसरोवर भाग 4 / 13

सद्गवत िुक्िी चमार द्वार पर झाड़ू िगा रहा था और उसकी पत्नी झुररया घर को गोिर से िीप रही थी। िोनों अपने-अपने काम से फुरसत पा चुके तो चमाररन ने कहा, ‘तो जाके पंवित िािा से कह आओ न! ऐसा न हो, कहीं चिे जाएूँ।’ िुक्िी— ‘हाूँ जाता हूँ; िेवकन यह तो सोच, िैठेंगे वकस चीज पर?’ झुररया— ‘कहीं से िवटया न वमि जायेगी? ठकुराने से माूँग िाना।’ िुक्िी— ‘तू तो कभी-कभी ऐसी िात कह िेती है वक िेह जि जाती है। ठकुराने वािे मुझे िवटया िेंगे! आग तक तो घर से वनकिती नहीं, िवटया िेंगे! कैथाने में जाकर एक िोटा पानी माूँगूूँ तो न वमिे। भिा, िवटया कौन िेगा! हमारे उपिे, सेंठे, भूसा, िकड़ी थोड़े ही हैं वक जो चाहें उठा िे जाएूँ। िा, अपनी िटोिी धोकर रि िें। गमी के विन तो हैं। उनके आते-आते सूि जाएगी।’ झुररया— ‘वे हमारी िटोिी पर िैठेंगे नहीं। िेिते नहीं वकतने नेम-धरम से रहते हैं!’ िुक्िी ने जरा वचंवतत होकर कहा, ‘हाूँ, यह िात तो है। महु ए के पिे तोड़कर एक पिि िना िूूँ तो ठीक हो जाए। पिि में िड़े-िड़े आिमी िाते हैं, वह पवविर है। िा तो िंिा, पिे तोड़ िूूँ।’ झुररया— ‘पिि मैं िना िूूँगी। तुम जाओ, िेवकन हाूँ, उन्हें ‘सीधा’ भी तो िेना होगा। अपनी थािी में रि िूूँ?’ िुक्िी— ‘कहीं ऐसा गजि न करना, नहीं तो सीधा भी जाए और थािी भी फूटे! िािा थािी उठाकर पटक िेंगे। उनको िड़ी जकिी वकरोध चढ आता है। वकरोध में पंविताइन तक को छोड़ते नहीं, िड़के को ऐसा पीटा वक आज तक टू टा हाथ लिये वफरता है। पिि में सीधा भी िेना, हाूँ! मुिा तू छू ना मत।’ झूरी गोंड़ की िड़की को िेकर साह की ि ूकान से सि चीजें िे आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावि, पाव भर िाि, आधा पाव घी, नोन, हकिी और पिि में एक वकनारे चार आने पैसे रि िेना। गोंड़ की िड़की न वमिे तो भुलजत न के हाथ-पैर जोड़कर िे जाना। तू कुछ मत छू ना, नहीं गजि हो जाएगा।’ इन िातों की ताकीि करके िुक्िी ने िकड़ी उठाई और घास का एक िड़ा-सा गट्ठा िेकर पंवितजी से अजत करने चिा। िािी हाथ िािाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के लसवाय और क्या था! उसे िािी िेिकर तो िािा ि ूर ही से िुत्कारते।

मानसरोवर भाग 4 / 14

2 पं. घासीराम ईश्वर के परम भि थे। नींि िुिते ही ईशोपासन में िग जाते। मुूँह-हाथ धोते आठ िजते, ति असिी पूजा शुरू होती, लजसका पहिा भाग भंग की तैयारी थी। उसके िाि आधा घण्टे तक चन्िन रगड़ते, वफर आईने के सामने एक वतनके से माथे पर वतिक िगाते। चन्िन की िो रे िाओं के िीच में िाि रोरी की विन्िी होती थी। वफर छाती पर, िाहों पर चन्िन की गोि-गोि मुवद्रकाएं िनाते। वफर ठाकु रजी की मूवतत वनकािकर उसे नहिाते, चन्िन िगाते, फू ि चढाते, आरती करते, घंटी िजाते। िस िजते-िजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर िाहर आते। ति तक िो-चार जजमान द्वार पर आ जाते! ईशोपासन का तत्काि फि वमि जाता। वही उनकी िेती थी। आज वह पूजन-गृह से वनकिे, तो िेिा िुक्िी चमार घास का एक गट्ठा लिये िैठा है। िुक्िी उन्हें िेिते ही उठ िड़ा हु आ और उन्हें साष्टांग िंिवत् करके हाथ िाूँधकर िड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूवतत िेिकर उसका हृिय श्रद्धा से पररपूणत हो गया! वकतनी विव्य मूवतत थी। छोटा-सा गोि-मटोि आिमी, वचकना लसर, फू िे गाि, ब्रह्मतेज से प्रिीप्त आूँिें। रोरी और चंिन िेवताओं की प्रवतभा प्रिान कर रही थी। िुक्िी को िेिकर श्रीमुि से िोिे- ‘आज कैसे चिा रे िुलिया?’ िुक्िी ने लसर झुकाकर कहा, विवटया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ साइत-सगुन ववचारना है। कि मजी होगी?’ घासी— ‘आज मुझे छु ट्टी नहीं। हाूँ साूँझ तक आ जाऊूँगा।’ िुक्िी— ‘नहीं महाराज, जकिी मजी हो जाए। सि सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाूँ रि ि? ूूँ ’ घासी— ‘इस गाय के सामने िाि िे और जरा झािू िेकर द्वार तो साफ कर िे। यह िैठक भी कई विन से िीपी नहीं गई। उसे भी गोिर से िीप िे। ति तक मैं भोजन कर िूूँ। वफर जरा आराम करके चिूूँगा। हाूँ, यह िकड़ी भी चीर िेना। िलिहान में चार िाूँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा िाना और भुसौिी में रि िेना।’ िुक्िी फौरन हु क्म की तामीि करने िगा। द्वार पर झािू िगाई, िैठक को गोिर से िीपा। ति िारह िज गए। पंवितजी भोजन करने चिे गए। िुक्िी ने सुिह से कु छ नहीं िाया था। उसे भी जोर की भूि िगी; पर वहाूँ िाने को क्या धरा था। घर यहाूँ से मीि भर था। वहाूँ िाने चिा जाए, तो पंवितजी विगड़ जाएूँ। िेचारे ने भूि ििाई और िकड़ी फाड़ने िगा। िकड़ी की मोटी-सी गाूँठ थी; लजस पर पहिे वकतने ही भिों ने अपना जोर आजमा लिया था। वह उसी िम-िम के साथ िोहे से िोहा िेने के लिए तैयार थी। िुक्िी घास छीिकर िाजार िे जाता था। िकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके िुरपे के सामने लसर झुका िेती थी। यहाूँ मानसरोवर भाग 4 / 15

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