कैदखाने का आईना
[जेल डायरी]
कैदखाने का आईना
रूपेश कुमार सिंह
प्रलेक प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड *in association with JVP Publication Pvt. Ltd.
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ISBN : 978-93-90410-93-4
पहला पेपरबैक संस्करण : 2020 प्रकाशक :
प्रलेक प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड PRALEK PRAKASHAN PVT. LTD.
वितरक :
जेवीपी पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड JVP PUBLICATION PVT. LTD.
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कैदखाने का आईना : रूपेश कुमार सिंह
Kaidkhane ka aaina : Jail diary by Rupesh Kumar Singh
आवरण : जेवीपी पब्लिकेशन प्रा.लि.
पुस्तक सज्जा : जेवीपी पब्लिकेशन प्रा.लि. कॉपीराइट : रूपेश कुमार सिंह
शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्षरत तमाम योद्धाओं को समर्पित
भूमिका जब मैंने शेरघाटी सब-जेल (उपकारा) में पहली बार प्रवेश किया, तो मुझे यह अनजाना नहीं लगा। इसका कारण था कि कई कैदियों (लेखकों) द्वारा लिखी गयी जेल डायरी में लिखे शब्दों से अवगत होना। जिस कारण जेल के अंदर के माहौल का थोड़ा-सा ज्ञान पहले ही हो गया था। जब मैं शेरघाटी सब-जेल (उपकारा) व गया सेंट्रल जेल में 6 महीने रहा और वहां पर मैंने जो स्थिति देखी, उससे दुनिया को अवगत कराना मैंने अपनी जिम्मेदारी मान ली। मैंने इन दोनों जेलों के अंदर जो हालात देखे और उन बदतर हालातों के खिलाफ बंदियों के साथ मिलकर हमने जो संघर्ष जेल की चारदीवारी के अंदर चलाया, उसे भी आपलोगों को बताना जरूरी समझा, क्योंकि वर्तमान में ब्राह्मणीय-हिन्दुत्व-फासीवादी ताकतों की सरकार केंद्र व अधिकांश राज्यों में है और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वालों को जेलों में बंद किया जा रहा है। आने वाले दिनों में असहमति की आवाज को कुचलने के लिए जेलें और भी भरी जाएंगी और जेल भी संघर्ष का एक बड़ा केंद्र बनेगा। आज पूरे देश में हमारी सरकारों द्वारा काला कानून यूएपीए के बेजा इस्तेमाल की घटनाएं लगातार देखने को मिल रही है। एक झूठी कहानी गढ़कर मेरे उपर भी बिहार पुलिस ने काला कानून यूएपीए की आधा दर्जन धाराएं समेत सीआरपीसी व आईपीसी की कई धाराएं लगायी थी, इसलिए एक यूएपीए के आरोपी को जेल व न्यायालय में किन परिस्थितियों से गुजरना होता है, यह भी आप इस किताब में पढ़ेंगे। मैंने यह किताब इसी उम्मीद से लिखी है कि इनके जरिए आप कैदखाने को आईना में देख सकें और आप भी भली-भांति जेल के अंदर के हालातों से परिचित हो सकें, ताकि जेल जाने पर आपको भी जेल अनजाना ना लगे। इस किताब को लिखने व आप तक पहुंचाने में बहुत सारे लोगों का हाथ रहा है, उन सभी को हार्दिक आभार। —रूपेश कुमार सिंह भूमिका • 7
क्रम
भूमिका
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1 अपहरण 11 2 कोबरा कैंप में 48 घंटे 19 3 गया (बिहार) पुलिस के हवाले 24 घंटे 36 4 शेरघाटी सब-जेल (उपकारा) में प्रवेश 48 5 जेल की पहली सुबह और जेल का मुआयना 56 6 मुलाकाती 66 7 शेरघाटी उपकारा में कैदियों की स्थिति 77 8 जेल में योग दिवस 81 9 जेल में विद्रोह की सुगबुगाहट, भूख हड़ताल व जेल प्रशासन का दमन 84 10 जेल में ‘चुड़ल ै ’ 104 11 रैगिंग 107 12 नंगटा दौड़ 111 13 जेल में छापा 113 14 जेल में सरकारी व धार्मिक कार्यक्रम 118 15 दारोगा बना बंदी 123 16 जेल सिपाही 126 17 जेल में मनाया अग्रिम का जन्मदिन 130 18 गया सेंट्रल जेल में प्रवेश 134 19 19 नंबर सेल में सात दिन 138 20 अंतिम बसेरा बना अंडा सेल 159 21 जेल के अंदर दो जेल 162
22 23 24 25 26 27
गंाधी जयंती कार्यक्रम बना नाच गान का स्टेज गया सेंट्रल जेल में मेरी गतिविधि फांसी प्राप्त कैदियों से मुलाकात जेल में साहित्य का सृजन अदालत की थकाऊ-ऊबाऊ कार्रवाई व जमानत पर रिहाई उपसंहार
165 167 178 182 193 200
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अपहरण 26 मई, 2019 को मेरे छोटे भाई कुमार अंशु उर्फ छोटू की शादी हुई थी। उस समय वह रामगढ़ आईटीआई कॉलेज से आईटीआई कर रहा था और रामगढ़ (झारखंड) के इफिको कॉलोनी में भाड़े का क्वार्टर लेकर रहता था। जब उसकी शादी तय हुई, तो उसी क्वार्टर से सारा आयोजन भी किया जाना तय हुआ। इस समय मैं अपनी जीवनसाथी ईप्सा शताक्षी व बेटा अग्रिम अविरल के साथ बोकारो स्टील सिटी के सेक्टर-12 में भाड़े पर एक क्वार्टर लेकर रह रहा था, लेकिन छोटे भाई के शादी में शामिल होने के लिए 20 मई से ही हमलोग रामगढ़ में थे। 26 मई को शादी संपन्न हो जाने के बाद हमलोग वापस बोकारो जाने वाले थे। इसी बीच रामगढ़ जिला न्यायालय में अधिवक्ता मिथिलेश कुमार सिंह (जो मेरे बहनोई की बुआ का बेटा है और फासीवाद विरोधी मोर्चा, रामगढ़ के संयोजक भी थे) ने बिहार के औरंगाबाद जिला स्थित अपने पैतृक गांव जाने की पेशकश की। मैंने उनकी पेशकश को सहर्ष स्वीकारते हुए अपनी हामी भर दी। प्रोग्राम था कि 4 जून की सुबह में रामगढ़ से निकलेंगे और शाम तक लौटकर वापस आ जाएंगे। मिथिलेश जी ने ही एक स्थानीय व्यक्ति की कार बुक की और 4 जून की सुबह 8 बजे कार मेरे छोटे भाई के इफिको कॉलोनी के आवास पर आ गयी। मैं नाश्ता करके कार में बैठ गया, फिर मिथिलेश जी भी अपने घर से निकलकर मुख्य सड़क पर आ गये और हमलोग औरंगाबाद के लिए निकल लिये। जून का शुरूआती दिन था यह और गर्मी अपने चरम पर थी। कार में एसी 3 नंबर पर चल रहा था और तापमान में परिवर्तन होने के कारण 10 मिनट चलने पर ही मुझे पेशाब लग गया। बायपास रोड के प्रवेश द्वार पर ही मैंने कार रोकने को बोला और फिर सभी ने पेशाब किया। फिर कार आगे को चली। हजारीबाग पार करने के बाद फिर मेरा प्रेशर बढ़ने लगा। काफी देर तक मैंने अपने आप को रोके रखा। अंततः पद्मा चौक से जब कार आगे बढ़ी, तो मैंने फिर ड्राइवर को अपहरण • 11
साइड में कार रोकने को बोला। तब तक हमलोग लगभग 60-65 किलोमीटर चल चुके थे और कार में बैठे-बैठे मिथिलेश जी अपने जूनियर वकील को काम के बारे में बता रहे थे। दरअसल, हम दोनों ने एक-दो बार और ड्राइवर कलाम भईया के साथ रांची तक का सफर किया था, इसलिए मेरी भी जान-पहचान उनसे हो गयी थी और छोटे भाई की बारात वे भी जाने को मजबूर हुए थे। 2019 में 5 जून को ईद थी और 4 जून को हमलोग सफर पर थे। कलाम भैया ने बताया कि इधर से लौटते समय ईद की खरीदारी भी कर लेंगे और कल आप दोनों को मेरे घर जरूर आना है। हम दोनों ने भी उनके आमंत्रण को स्वीकार कर लिया था। खैर, मेरे कहने के कुछ देर बाद ही खाली जगह देखकर कलाम भैया ने गाड़ी रोक दी और हम तीनों सड़क से नीचे उतर कर खेत में पेशाब करने लगे। पेशाब करते हुए ही मैंने एक नजर मिथिलेश जी, कलाम भैया (मोहम्मद कलाम थे तो हमारी भाड़े की गाड़ी के ड्राइवर, लेकिन जब से हमारी जान-पहचान हुई थी, उन्हें कलाम भैया ही कहते थे) और मुख्य सड़क पर दौड़ा दी। मिथिलेश जी कान में मोबाइल लगाकर पेशाब कर रहे थे, तो कलाम भैया का भी सारा ध्यान पेशाब करने पर ही था और मुख्य सड़क पर एक बोलेरो अपनी रफ्तार पर ब्रेक लगा रही थी। मुझे लगा कि बोलेरो में बैठे लोग भी शायद पेशाब करने के लिए रुकने वाले हैं, फिर मैं उधर से ध्यान हटाकर पेशाब करने में ही तल्लीन हो गया। मैं पेशाब कर चुका था और अपनी जिन्स की जिप लगा ही रहा था कि अचानक पीछे हलचल लगी। जब तक पीछे पलटता, तब तक 4 आदमी के 8 मजबूत हाथों ने मेरे शरीर को दबोच लिया था। एक ने अपने एक हाथ से मेरा मुंह तो दूसरे हाथ से मेरी आंखें बंद कर दी, दूसरे ने अपने दोनों हाथों से मेरे कमर को पकड़ लिया, तीसरे ने अपने दोनों हाथ से मेेरा दायां हाथ और चौथे ने एक हाथ से मेरा बांया हाथ, तो दूसरे हाथ से मेरी गर्दन जकड़ लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, वे मुझे बोलेरो की तरफ खींच कर ले जाने लगे। इस हालात में भी मैंने छटपटाते हुए जो देखा, वो यह था कि बोलेरो के साथ-साथ दो बाइक भी वहां मौजूद है और मिथिलेश जी व कलाम भैया को भी कुछ लोग पकड़कर हमारी कार की तरफ ले जा रहे हैं। साथ ही कुछ लोग सड़क पर खड़े होकर गुजरने वाली गाड़ियों को वहां रुकने से मना कर रहे हैं और ये सभी (लगभग 10-12) लोग सिविल ड्रेस में ही है। अब मैं उनकी बोलेरो की बीच वाली सीट में धकेला जा चुका था और फिर आंखों पर मजबूत पट्टी बांधी जाने लगी। मेरे मुंह से उनका हाथ हटते ही मैंने सबसे पहले पूछा— ‘आपलोग कौन हैं?’ उनलोगों में से एक के द्वारा ‘पुलिस’ कहते-कहते मेरे दायें हाथ में हथकड़ी लग चुकी थी और बोलेरो फुल एसी के साथ लगभग 100-120 की स्पीड से बरही 12 • कैदखाने का आईना
की ओर सरपट भागने लगी थी। मैंने पुलिस शब्द सुनते ही बोला— “एक पत्रकार को इस तरह गिरफ्तार करने का क्या तरीका है? मेरे उपर कौन सा मुकदमा है? गिरफ्तारी का वारंट कहां है और आप कौन-सी पुलिस हैं?” मेरे इतने सवालों का मात्र एक छोटा लेकिन भारी-भरकम जवाब मिला— ‘सेंट्रल आईबी’ फिर उसमें से एक ने बोला— “भाई की शादी ठीक-ठाक से हो गयी न?” मैंने हामी भरी, तबतक मुझे अंदाजा हो गया था कि बोलेरो में हमलोग 7 लोग हैं, आगे ड्राइवर के साथ एक आदमी है, बीच वाली सीट पर मेरे अगल-बगल में दो आदमी और पीछे की दोनों सीटों पर एक-एक व्यक्ति है और सभी लोग हथियार से लैस है, क्योंकि मेरे अगल-बगल बैठे व्यक्ति के कमर में रखे पिस्टल अक्सर मेरे शरीर को टच कर रहे थे। फिर चलती गाड़ी में ही मैंने पूछा— “मेरे साथ वाले दोनों आदमी कहां हैं?” पीछे से आवाज आई‘दोनों को छोड़ दिया हूं और वे लोग वापस रामगढ़ लौट गये हैं।’ उनके इस जवाब ने मुझे फौरी राहत पहुंचाई कि वे लोग वापस लौटने के बाद जरूर ही मेरी गिरफ्तारी की बात मेरे घरवालों को बताएंगे और मेरे घर में गिरफ्तारी की सूचना पहुंच जाएगी। तब तक मेरे अगल-बगल बैठे व्यक्तियों ने मेरे जिंस के पॉकेट से सारा सामान निकाल लिया और जूता-मोजा भी खोल दिया। उस समय मेरे पास मौजूद लगभग 11 हजार रुपये, मतदाता पहचान पत्र, एटीएम कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस व नोकिया का छोटा मोबाईल उनके कब्जे में चला गया। फिर आगे से आवाज आयी— ‘चिप्स कहां है, चिप्स (मेमोरी कार्ड)?’ मैंने कहा— ‘मेरे पास कोई चिप्स नहीं है।’ तब मेरे बगल में बैठे व्यक्ति ने कहा— ‘दादा, आप तो माओवादी का बड़ा नेता है और अभी संदीप से मिलने जा रहे हैं ना? फिर आपके पास मेमोरी कार्ड कैसे नहीं है?’ जबतक मैं कुछ जवाब देता, तबतक उनलोगों का फोन बजने लगा, फिर वे लोग गाड़ी साइड में लगाकर उतर गये और ‘मिशन कम्प्लीट’ ‘मिशन कम्प्लीट’ जैसे शब्द मुझे सुनाई पड़ने लगे। फोन पर कुछ लोग अंग्रेजी में तो कुछ लोग तेलुगु में बात कर रहे थे। अब मुझे सारा माजरा समझ में आने लगा और अब मुझे हकीकत में डर लगने लगा था, क्योंकि मुझे बोलेरो में खींचने के बाद, कुछ देर तक तो जरूर अपहरण • 13
गाड़ी बरही के तरफ चली, फिर दायें-बायें मुड़ने लगी थी। मैंने सोचा था कि ये लोग मुझे किसी थाना ले जाने के रास्ते में है, लेकिन लगभग 1 घंटा बीत जाने के बाद अब लगा कि ये लोग मुझे किसी सुनसान जगह पर ले आये हैं। फिर बातचीत में माओवादी नेता बताना और अब फोन पर ‘मिशन कम्प्लीट’ बोलना मुझे डरा गया था। मेरे आंखों के सामने माओवादी बताकर पुलिस के द्वारा किये गये फर्जी मुठभेड़ों की कहानियां एक के बाद एक चलचित्र की भांति आने लगी, जिसे मैंने पढ़ा था या फिर रिपोर्टिंग करते समय फर्जी मुठभेड़ में मारे गये लोगों के परिजनों से सुना था। खासकर मुझे माओवादी नेता आजाद व पत्रकार हेमचंद्र पांडे का वाकया याद आया कि कैसे एपीएसआईबी द्वारा फर्जी एनकाउंटर कर उनकी लाश को जंगल में फेंक दिया गया था। मैं अपने खयालों में डूबा हुआ था और पसीने से लथपथ था कि तभी एक मजबूत हाथ ने मेरे हाथ को पकड़ा और ‘लाल सलाम दादा’ बोलकर चला गया। मैंने पूछा— “आप कौन हैं?” जवाब की जगह सभी लोग फिर से बोलेरो में बैठ गये और पीछे से जवाब आयी— “यह आपका ही साथी था और अभी हमलोग का साथी है।” मैं अब खेल समझने लगा था, इसलिए मैंने तुरंत कहा— “यह मेरा साथी नहीं है, क्योंकि मैं अपने सभी दोस्तों की आवाज पहचानता हूं।” मैं समझ रहा था कि यह इन लोगों का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का तरीका है। फिर इस बार आगे से एक अंजान आवाज आई— ‘आप तो चिराग दा हैं ना?’ मैं समझ गया कि अगली सीट पर बैठा ऑफिसर बदल गया है और अबतक यह भी अनुमान हो गया था कि ये ऑफिसरों की एक टीम है, जिसमें मूल हिंदी भाषी कोई नहीं है, मतलब सेंट्रल आईबी के साथ एपीएसआईबी हो सकता है। खैर, मैंने तुरंत ही जवाब दिया— “ये चिराग दा कौन है और मैं चिराग दा कैसे हो सकता हूं, क्योंकि चिराग दा नाम का माओवादी नेता दो साल पहले ही फर्जी मुठभेड़ में मारा गया है, ऐसी खबर मैंने अखबारों में पढ़ी थी।” उनमें से एक ने मेरे ‘फर्जी’ शब्द को पकड़ लिया और बोला— ‘फर्जी क्यों बोला आपने?’ मैंने कहा— “अखबार में खबर आई थी कि उन्हें पकड़ा गया है, फिर बाद में खबर आई कि वे मुठभेड़ में मारे गये हैं। ऐसी खबर फर्जी मुठभेड़ को ही बयां करती है।” फिर से मेरे बगल वाले ने पूछा— 14 • कैदखाने का आईना
‘संदीप यादव को कब से जानते हैं?’ मैंने कहा— “कौन संदीप यादव?” उसने कहा— ‘माओवादी नेता संदीप यादव, जिसके पास आप अभी जा रहे हैं।” मैंने कहा— “मैंने संदीप यादव का नाम अखबारों में जरूर पढ़ा है, लेकिन मैं अभी मिथिलेश जी के गांव जा रहा हूं, ना कि संदीप यादव से मिलने।” फिर पीछे से आवाज आयी— ‘देखिये अभी तक हमलोग इज्जत से आपसे पूछ रहे हैं। सच-सच बतला दीजिए, नहीं तो वह हश्र करूंगा कि चेहरा भी कोई नहीं पहचान सकेगा।’ उसे लगा था कि मैं डर जाऊंगा। डर तो सचमुच ही गया था, लेकिन चेहरे पर डर नहीं आने देने की कोशिश की और मैंने कहा— “आपलोग जो भी पूछ रहे हैं, मैं सच-सच ही बता रहा हूं और आगे भी सच-सच ही बताऊंगा।” अब मैंने सोचा कि तुरंत-फुरंत मेरे एनकाउंटर की इनकी कोई योजना नहीं है, इसलिए माहौल को हल्का करने के लिए मैंने कहा— “प्यास लगी है, पानी तो दीजिए।” तब आगे बैठे ऑफिसर ने कहा— “ओह! मैं तो पूछना ही भूल गया था। नाश्ता किये हैं कि नहीं?” मैं नाश्ता करके ही घर से निकला था, लेकिन मुझे लगा कि शायद ये किसी होटल में मुझे नाश्ता करायेंगे और मुझे इनके चंगुल से छूटने में मदद मिलेगी, इसलिए मैंने इन्हें झूठ बोल दिया— ‘नहीं, नाश्ता भी नहीं किया हूं। 8 बजे घर से निकला और लगभग 09ः30 बजे आपलोगों ने उठा लिया। नाश्ता कब करता?” उसने तुरंत ही दो-चार बिस्कुट मेरी तरफ बढ़ा दिया और बोला— ‘तब तक यह खाकर पानी पी लीजिए। कुछ देर में एक जगह पहुंच जाएंगे, फिर खाना ही खिला देंगे। हमलोग भी आपके कारण बिस्कुट और पानी ही लिए हैं।’ मेरा होटल में बैठकर नाश्ता कराने वाले अनुमान का कबाड़ा निकल चुका था, इसलिए मुझे बड़ा गुस्सा आया और मैंने अब इनलोगों को तंग करने का सोचा। मैंने बोला— “मैं यह बिस्कुट नहीं खाऊंगा और ना ही सील टूटे बोतल का पानी पिऊंगा, क्योंकि मुझे आपलोग पर विश्वास नहीं है।” इतना सुनते ही उनलोगों में लगभग सभी ने समझाना शुरू कर दिया कि ‘वे अपहरण • 15
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