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श्रीविद्या चक्राचचन महायाग- िैज्ञावनक विमर्च एिं विवि

Copyright © 2020 by Achal Pulastey All rights reserved. No part of this book may be reproduced, stored in a retrieval system, or transmitted, in any form by any means, electronic, mechanical, magnetic, optical, chemical, manual, photocopying, recording or otherwise, without the prior written consent of its copyright holder indicated above.

ISBN: 978-93-90636-39-6 Publishing Year 2020

Published by: Sankalp Publication Head Office: Ring Road 2 Gaurav Path, Bilaspur, Chhattisgarh – 495001 Phones: +91 9111395888 +91 9111396888 Email: [email protected] Website: www.sankalppublication.com

श्रीविद्या चक्राचचन महायाग िैज्ञावनक विमर्च एिं विवि (कौलयोगी श्री 1008 श्री भूतेश्वरानन्दनाथ पद्धवत)

हादौवह वनयमााः प्रोक्ााःयमसंयमनादयाः। कादौ तु वनयमो नावतत तिेच्छया िमचमाचरे त।् । -दविणािचचति हानि नवद्या की सािना में यम-ननयम, सयं म का पालन करना अननवायच होता है,परन्तु कानि नवद्या के सािक की इच्छा ही िमाचचरण हैं।

*अचल पल ु ततेय

श्रीचक्राचचन महायाग - वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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श्रीनवद्या चक्राचचन महायाग- वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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श्रीचक्राचचन महायाग - वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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References (कंु डनलनी-श्रीचक्राचचन-एक वैज्ञाननक नवमर्च) 1- "CCI: "The Big Bang Theory-Comic Book Resources. July 31, 2008. Retrieved January 15, 2010. 2- "Big Bang Theory Theme". Retrieved September 2, 2011. 3-Linas R. (2001). I of the vortex: from neurons to self MIT Press. ISBN 0-262 122332 2 (HC)ISBN0-262-62163-0 4-Human Neuroanatomy- Indrabir Singh 10th Edition 2018, The Health Sciences Publisher ISBN: 978-93-5270-148-3 5-Fundamentals of neurophysiology -RF Schmidt, J Dudel, W Jaenig, M Zimmermann – 2012 6-Human Embryology-Inder bir Singh-10th Edition 2014, Jaypee Brothers Publishers ISBN 978-93-5152-118-1 7-श्रीनवद्या सािना-डॉ रमाकांत निवेिी “आनन्ि” प्रथम संस्करण 2006,चौखम्भा सरु भारती प्रकार्न वाराणसी 8-ब्रह्माण्ड परु ाण

सदं भचग्रथ ं कौलयोगीश्री1008 श्री भतू ेश्वरानन्िनाथ उपिेर्,र्ाक्तानन्ितरंनगणी, नवज्ञान भैरवतंत्र,कंकालमानलनीतंत्र,कुलाणचवतंत्र,र्ाक्तप्रमोि,सौन्ियचलहरी, वाररवस्या रहस्यम् ,वाराहीतंत्र,रुद्रयामलतंत्र,लनलतासहस्रनाम, भवु नेश्वरी सनं हता,िगु ाचर्प्तर्ती,र्ैवनसद्ातं ,कश्मीरी र्ैविर्चन ईर्ोवास्य उपननषि,् भावनोपननषि-् भास्करराय,तंत्रालोक,नर्वसत्रू नवमनर्चनी,नत्रनर्रोभैरवतंत्र,स्पन्िसत्रू ।

श्रीनवद्या चक्राचचन महायाग- वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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प्राक्कथनम् निज्ञासा िन्मगत स्वभाव है पर मनष्ु य िैस-े िैसे आस-पास की वस्तओ ु ं को समझने लगता है,वैसे-वैसे निज्ञासा की तीव्रता कम होने लगती है। नकर्ोर-वय आते-आते भौनतक िगत के प्रनत काफी समझ प्राप्त हो चक ु ी होती है ।वयस्क होते-होते निज्ञासा लगभग सतं ष्टु हो चक ु ी होती है ।िगत के प्रनत एक अविारणा नवकनसत हो िाती है,परन्तु यनि वयस्क होने पर भी निज्ञासा बनी रहती है तो वह अनतं यात्रा की ओर अग्रसर कर िेती है,परन्तु यहााँ भी कुछ िानने के बाि सभी कुछ िानने का भ्रामक अहक ं ार होने की प्रबल सभं ावना होती है।निसे तोड़ने के नलए एक कारक की िरूरत होती है।यह कारक ही गरू ु तत्व है,िो आगे बढ़ने के नलए प्रेररत करता है।यहााँ िरूरी नहीं है नक वह मनष्ु य के रूप में ही हो,पर्,ु पक्षी,वृक्षानि नकसी भी रूप में हो सकता है।ऐसी ही पररनस्थनतयों में ही ित्तात्रेय को चौबीस गरू ु बनाना पड़ा। डायोनीि ने कुत्ते को गरू ु मान नलया। वृक्ष,पर्,ु पनक्षयों,अननन आनि के िारा अंहकार व भ्रम टूटता रहा, वे सीखते- सम्हलते आगे बढते रहे। अंततः परम गरू ु बन गये।यही ज्ञान-नवज्ञान व आनत्मक नवकास की प्रनक्रया है। सौभानय से मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।सामान्य िीवन की आवश्यक समझ होने के बाि आस-पास घटने वाली अबझू घटनाओ ं ने मेरी बाल सल ु भ निज्ञासा को मिं नहीं होने निया,निसकी तनु ष्ट के नलए र्ास्त्रों-ग्रंथों की ओर उन्मख ु हुआ।कुछ तथ्यों का ज्ञान भी हुआ,स्वभानवक अंहकार भी हुआ,परन्तु सन् 1981ई.में एक ऐसे व्यनक्तत्व से सपं कच हुआ नक पस्ु तकीय ज्ञान से पणू चता का भ्रम भंग हो गया।परू े 40 निन के नववाि-सवं ाि के बाि एक निन िोपहर में खल ु ी आाँखों से िेखा नक उस सािारण से निखने वाले व्यनक्त का मनणपरू चक्र रनक्तम आभा में चक्रीय गनत कर रहा है,निसमें समद्रु , सयू च, सोम, काली, गायत्री, सन्ु िरी, तारा आनि र्नक्तयााँ रूपान्तररत हो रही थी। पहले स्वप्न में होने का भ्रम हुआ,पर नहीं,मैं परू ी तरह िागृत अवस्था में था और िो िेख रहा था,वह प्रत्य़क्ष सत्य था,नफर घबरा कर मैं पछू बैठा-यह श्रीचक्राचचन महायाग - वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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क्या िेख रहा हाँ ? र्ान्त भाव से मिं मस्ु कान के साथ उत्तर नमला-‘कहीं बाहर नहीं है,हर निज्ञासा का नवकल्प अपने अन्िर ही है,िैसे ब्रह्माण्ड में नपडं है,उसी तरह नपण्ड में ब्रह्माण्ड भी है।निसे िेखने के नलए अन्तर्दचनष्ट का आवश्यकता होती है।’ इसी क्षण मेरा अहं भगं हो गया,नफर समपचण और कानतचक पनु णचमा के निन िीक्षा होती है,वह भी एक अनठू ी र्तच के साथ,वह यह नक "मैं नर्ष्य नहीं नमत्र बनाता ह।ाँ वतचमान में गरू ु -नर्ष्य संबंिों को बोनझल बना निया गया है। लोभ -लाभ से वर्ीभतू गरुु -नर्ष्य संबंि एक औपचाररकता हो गयी है। िबनक यह नवमर्च का संबंि है।निसमें माननसक-बौनद्क, आध्यानत्मक अतं रंगता होनी चानहए।गरू ु -नर्ष्य गहरी नमत्रता का सबं िं है,क्योंनक इस सबं ंि में नर्ष्य ही नहीं गरू ु भी सीख रहा होता है।नर्ष्य ही गरू ु को व्यापकता प्रिान करता है।वतचमान का नर्ष्य ही भनवष्य का गरू ु होता है,इसनलए मैं नर्ष्य नहीं गरुु बनाता ह।ाँ ज्ञान के प्रवाह की ननरंतरता के नलए नमत्र बनाता ह।ाँ "

इस तरह बोनझल मयाचिाओ ं से मक्त ु मैं नमत्र बन गया।सािना क्रम आरम्भ हुआ। ननत्य नये अनभु व होते रहे,वह भी आम निनचयाच व िीवन र्ैली का ननवचहन करते हुए।िेखने,समझने,सोचने की र्दनष्ट बिलती गयी,तंत्र,मत्रं , सािना-नसनद् का सनु ा,पढ़ा भय,भावाभाव नतरोनहत होकर आनन्ि भाव का उिय होने लगा, निसके मल ू में श्रीनवद्याचक्राचचन की िीक्षा रही। प्राचीन काल से ही सािको में श्रीनवद्या के प्रनत उत्सक ु ता रही है,परन्तु वतचमान के भौनतक समृनद् के यगु में आमिन में भी उत्सक ु ता बढ़ी है। निससे श्रीयंत्र बािार की वस्तु हो गया है,लोग उत्सक ु ता व आर्ा से अपने घरों में स्थानपत कर रहे है,परन्तु कोई सकारात्मक प्रभाव न होने के कारण श्रीनवद्या की महत्ता सिं हे ास्पि हो रही है।र्ास्त्रोक्त बातें नमथ्या लग रही है,निसका कारण िर्चन व उपासना नवनि के ज्ञान का अभाव है,िबनक इससें सबं ंनित नवपल ु सानहत्य एंव नसद्,सतं ो के अनेक मठ,आश्रम भी बािार में उपलब्ि है,परन्तु नवर्ि व्याख्या व िरूू ह र्ैली के कारण निज्ञासु भ्रनमत हो रहे है।सािना में प्रवेर् करने के पश्चात कनठनाइयों या ननष्फलता के कारण हतार्ा व अनवश्वास फै ल रहा है।ऐसी पररनस्थनत में नसद् गरू ु िनों श्रीनवद्या चक्राचचन महायाग- वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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का िानयत्व गरू ु तर हो िाता है,क्योंनक र्नक्त सािना गरू ु गम्य है अथाचत गरू ु के नबना सभं व नहीं है पर आि के यगु में गरू ु खोिना भी एक नसनद् प्राप्त करना ही है।इसनलए ऐसी नस्थनत में यह पस्ु तक श्रीनवद्या उपासना के निज्ञासु िन के नलए सहि मागच िर्चन में उपयोगी नसद् होगी। श्रीनवद्या उपासना का के न्द्रीय तत्व आत्म िागरण,कल्याण,समृनद् के साथ मोक्ष भी है। वास्तव में यही मात्र एक नवद्या है िो भोग-मोक्ष एक साथ प्रिान करती है,क्योंनक र्ाक्तिर्चन में िीवन के भौनतक और अध्यानत्मक िोनो पक्ष आद्यार्नक्त के ही िो रूप है।इस नवद्या का सक ं े त ईर्ोवास्य उपननषि् में भी नमलता हैविद्यां चयविद्यां च यस्तद्वेदोभयां सह । अविद्यय मृतयांय तीतिया विद्ययमृतमश्नयते ।। अथाचत-“नवद्या और अनवद्या िोनो के ज्ञान से ही मनष्ु य समृद् िीवन भोगते हुए मोक्ष के प्राप्त कर सकता है। नवद्या का तात्पयच आत्मज्ञान तथा अनवद्या का तात्पयच पिाथच ज्ञान है।पिाथच ज्ञान को ही नवज्ञान कहा गया है,निससे आि मनष्ु य का िीवन सहि,सख ु ि व समृद् हुआ है।निसका ननरपेक्ष भाव से उपभोग आत्मज्ञानी ही कर सकता है।कहने का तात्पयच यह नक िख ु , अभाव व व्यानि ग्रस्त िीवन में मोक्ष सभं व नहीं है।निसका कारण नवज्ञान की उपेक्षा या अननभज्ञता है।पिाथचज्ञान(अनवद्या) से भौनतक िीवन की िररद्रता और व्यानि को िरू कर आत्मज्ञान(नवद्या)से आनन्ि बोि होने से नननश्चत ही भोग और मोक्ष एक साथ घनटत हो सकता है। इसीनलए श्री नवद्या के नवषय में कहा गया हैः यत्रयवस्त भोगः न च तत्र मोक्षः,यत्रयवस्त मोक्षः न च तत्र भोगः । श्री सन्य दरी सेियन् ततपरयणयांम,् भोगश्च मोक्षश्च करस्थएि ।। अथाचत -‘िहााँ भोग है वहााँ मोक्ष नहीं है,िहााँ मोक्ष है, वहााँ भोग नहीं है,परन्तु श्री नत्रपरु सन्ु िरी की सेवा में तत्पर मनष्ु य के एक हाथ में भोग व िसू रे हाथ में मोक्ष होता है।’इस प्रकार श्रीनवद्या िीवन की पणू तच ा व साथचकता की नवद्या है,िहााँ एक िसू रे के नवपरीत निखने वाले भौनतकता व आध्यात्म एक ही वस्तु के िो पक्ष हो िाते हैं। श्रीचक्राचचन महायाग - वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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महनषच कणाि् कहते हैं,“िगत का कारण परमाणु है”। महनषच अगस्त्य के अनसु ार है “इच्छा-ज्ञान-नक्रया ही ब्रह्माण्ड का कारण है।”।अथाचत परमाणु में नननहत र्नक्त या ऊिाच ही िगत का कारण है। इस कथन को आिनु नक नवज्ञान के महनषचयों (वैज्ञाननको) ने प्रयोग व प्रमाणों िारा प्रत्यक्ष कर निया है।यही परमाणु श्रीनवद्या का नबन्िु है,निसमें अन्तननचनहत र्नक्त ही श्रीनवद्या की आद्या र्नक्त है।निसका नवस्तार ही नवराट ब्रह्माण्ड है।नबन्िु से नवराट और नवराट से नबन्िु में पररवतचन का चक्र प्रकृ नत का गणु िमच है,निससे मनष्ु य सनहत प्रत्येक िीव व पिाथच िड़ु े हुए हैं।इस सबं ंि का बोि कराने की नविा ही श्रीनवद्या है । पाश्चात्य िनु नयााँ के वल भोग अथाचत पिाथच ज्ञान को महत्व िेकर भौनतकता के नर्खर पर पहुचाँ चक ु ी है।परू ब की िनु नयााँ के वल मोक्ष को महत्व िेकर िीवन को अभावों और िख ु ों से भर नलया है,निसका कारण कौलिर्चन की उपेक्षा रही है,िहााँ भौनतक-पराभौनतक िोनो को समान महत्व निया गया है। िेह और आत्मा िोनो सत्य है,िोनो का लक्ष्य आनन्ि है,इसनलए इस नविा के सािको,नसद्ो को आनन्िनाथ कहा िाता है।आि समृनद् के नर्खर पर खड़े मनष्ु य में उतना ही आनन्ि का अभाव है,नितना िनु भचक्ष में फाँ से मनष्ु य में,निसका कारण िेह-आत्मा,प्रकृ नत-िीव के मध्य असतं ल ु न है।इसी कारण िगत का अनस्तत्व खतरे में है।भल ू ोक का भयावह नवनार् आसन्न निख रहा है,ऐसे समय मे इस नवद्या का प्रकार्न महत्वपणू च हो िाता है । वैसे तो कोई पस्ु तक या नवचार पणू च या अंनतम नहीं होता है पर पणू चता का प्रयास ही सािना है।प्रस्ततु पस्ु तक िर्चन,व्याख्या,टीका,नववेचना के बिाय वैज्ञाननक नवमर्च एवं अनभु तू प्रयोग पर के नन्द्रत है।आर्ा है निज्ञासओ ु ,ं एवं श्रीनवद्या उपासको के नलए उपयोगी नसद् हो होगी। इस पस्ु तक के प्रस्तनु तकरण में प्रख्यात नचनकत्सक एवं श्रीनवद्यासािक नमत्र डॉ.वरे र् नागरथ (एम.डी.मेनडनसन) ने प्रेररत करने के साथ लेखन में भी महत्वपणू च सहयोग भी नकया है। गरू ु पत्रु -भ्राता अघोरानन्िनाथ(ओमप्रकार् चौबे)-िेनव नीलम, आनन्िाश्रीनवद्या चक्राचचन महायाग- वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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नन्िनाथ(महार्य आनन्िकुमारआयच),आचायच महेन्द्रानन्ि नाथ (वैद्य महेन्द्रनाथ नत्रपाठी),काँु वर रामनाथ िी,नत्रभनु र् े ानन्िनाथ (प.ं नत्रभनु र् े नतवारी)-िेनव प्रीती, ियप्रकार् नमश्रा-िेनव सनु ीता,अिेयानन्िनाथ(अिय नमश्रा)-िेनव सररता,िलिानन्िनाथ(िलिश्रीवास्तव)-िेनवप्रीती, नमतल ु ानन्िनाथ(नमतल ु पाठक)-िेनव अन्नपणू ाच, (ओमानन्िनाथ)ओमप्रकार् श्रीवास्तव,प्रेमयोगानन्ि नाथ,(प्रेमर्क ं र पान्डेय),भपू ने द्रानन्िनाथ(भपू न्े द्र नसरोही),रनवमोहनानन्िनाथ (रनवमोहन सााँईराम),श्रीनाथानन्िनाथ(श्रीनाथ यािव),मगं लानन्िनाथ(मगं ला श्रीवास्तव),प्रेमानन्िनाथ(प्रेमर्क ं र यािव),रािेश्वरानन्िनाथ(रािेर्चन्िकौनर् क)अवितू ानन्िनाथ(रामपनत),िमचिवे ानन्िनाथ(िमचिवे गप्तु ा),अरूणानन्िनाथ (लालबाबा-हररिार), कनपला नन्िनाथ(कनपलिेव यािव )डॉ.नवकास गप्तु ा, प.ं नवनीतवत्स,िी.करन,प्रो.बलवाननसहं (मृिानवज्ञान,इनस्िया-अनिका)पनं डत भषू णमनण नत्रपाठी, डॉ.िष्ु यंतकुमार र्ाह (अनस. प्रो.इनतहास-सक ं ाय,निल्ली नवश्वनवद्यालय),िेनव सरोि, एवं स्वर्नक्त िेनव िगु ाच के प्रनत ननरंतर नवमर्च नलए आभार व्यक्त करता ह।ाँ अंततःपज्ू यपाि गरू ु िेव व गरू ु र्नक्त मााँ िेनव सरस्वती को नमन करता ह,ाँ निनके कृ पा से इस पण्ु य कायच का नननमत्त बनने का अवसर प्राप्त हुआ है।

र्ारिीय नवरानत्र 2020

डॉ. आर.अचल पल ु स्तेय (िीक्षानाम-नवज्ञानानन्िनाथ,)



श्रीचक्राचचन महायाग - वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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अनुक्रमवणका श्रीमत्महानत्रपरु सन्ु िरी नचत्र प्राक्कथनम् कौलयोगी भतू ेश्वरान्िनाथ महराि तंत्र र्ाक्त सम्प्रिाय कौल सम्प्रिाय र्नक्त उपासना और श्रीचक्र श्रीनवद्या और श्रीचक्र श्रीमत्महानत्रपरु सन्ु िरी का स्वरूप श्रीचक्र और मानविेह चक्राचचन नत्रपरु सन्ु िरी और कंु डनलनी कंु डनलनी व श्रीचक्राचचनःएक वैज्ञाननक नवमर्च भाव तत्व श्रीयंत्र कल्पना व िातु श्रीयंत्र श्रीनवद्या सम्प्रिाय और सािना पक्ष अन्तयाचग बनहयाचग कुलसन्ु िरी-सवु ानसनीचक्राचचन ,सािना महु तच श्रीचक्र महायाग (पापोत्सािन.भनू मर्ोिन,आसन पिू न,िेह रक्षा,आचमन निर्ाबंिन, िार िेवता पिू न,िल र्ोिन,तत्व आचमनीय,पिू ा सामग्री व्यवस्था, पिू न सामग्री,मद्य,मााँस,मीन,मद्रु ा, कारण,सिु ागायत्री,पष्ु पानि सवचतत्व र्ोिन,भतू र्नु द्,) श्रीनवद्या चक्राचचन महायाग- वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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अध्यचस्थापन,आनन्ि भैरव ध्यान-1आनन्ि भैरवी ध्यान-1) अमृत कलर् स्थापन (तानं त्रक)

कलर् नितीय नवनि कलर् स्थापन तृतीय नवनि महागणपनत पिू न श्रीयंत्र स्थापना,प्राणप्रनतष्ठा िीप सक ं ल्प गरू ु स्मरण आम्नाय पिू न श्रीपीठ,नतरस्काररणी,मातंगी,ज्वालमानलनी पिू न चक्राचचनम् (नवननयोग,न्यास,ध्यान) तांनत्रक पिू न नवनि श्रीसक्त ू पिू न नवनि पिू ा की मद्रु ायें आवरणाचचन बनल,ननरािन कुण्डनलनी हवन सनं क्षप्त कुण्डनलनी हवन ,र्ानन्तपाठ लघु श्रीचक्राचचन पद्नत श्रीनवद्या हवन नविान काम्य प्रयोगाथच हनवष्य र्ाबर मत्रं सािना व प्रयोग श्री नत्रपरु सन्ु िरी स्तोत्र श्री नत्रपरु सन्ु िरी कवचम्

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पज्ू यपाि गरू ु िेव श्री1008श्री भतू ेश्वरानन्िनाथ महाराि

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पूज्यपाद गुरुदेि भूतेश्वरानन्दनाथ महराज नहमालय से ननकली गंडक की मध्यिारा में सती का गंडमल ू नगरा था,उिर नवन्ध्य में गगं ा तट पर श्रीकृ ष्ण की रक्षा कर महामाया स्थानपत हो हैं,र्ायि इसीनलए गंडक से गंगा के मध्य की िरती र्नक्त उपासक नसद्ों की पण्ु यभनू म बन गयी।िहााँ मत्स्येन्द्रानाथ, गोरखनाथ, िेवराहाबाबा,नकन्नाराम, रहसगू रुु , भआ ु लीराम, कालीचरन आनि अनेक र्नक्त नसद्ों का अवतरण हुआ। र्ाक्तों की नसद् भनू म होने का परु ातानत्वक साक्ष्य अनानिकाल से गााँव-गााँव में काली-र्ीतला थान के अलावा िेवररया निले के ग्राम नतवई में परमसन्ु िरी,तरै नी में तारा नवग्रह-तरै नीिेवी,गोरखपरु निले के तरकुलहााँ में वामा नवग्रह-वामनत,कुसम्ु हीिंगल में िमू ावती नवग्रह-बनु ढ़यामाई,पड़ौली में समया नवग्रह- समय,मऊ निले के सोनाडीह में परमेश्वरी,आिमगढ़ में श्रीनवद्या नवग्रह- श्रीररयापरु िेवी,कुर्ीनगर में करमहााँ,वनचरा,खनवार, कुलकुला(सती-स्तन),िबु ौली-कप्तानगिं में वनिगु ाच, नबहार के गोपालगिं निले के थााँवें (कमाख्या अवतरण)आनि अनेक प्राचीनतम् र्नक्त पीठ अपभ्रंर् नामो से आि भी लोक आस्था के के न्द्र है।इस सबं िं में यवु ा इनतहासकार डॉ.कीनतच अनानमका(अनस.प्रो.निल्ली नवश्वनवद्यालय निल्ली) के अनसु ार इन लोक र्नक्तयों की उपासना परम्परा पााँच हिार वषच से भी अनिक समय से चली आ रही है। इसी पण्ु यभनू म िेवररया(उप्र)िनपि के ग्राम-बभनी सकरापार ननवासी पज्ू य स्व.गयाचौबे के पचं म पत्रु के रूप पज्ू य गरू ु िेव का इस ग्रह पर र्भु ागमन 1935ई. में हुआ।यवु ा होकर कुल नाम श्रीरामध्यान चौबे के रूप मे सैननक बनकर सन् 1962 ई. के भारत-चीन यद् ु में भाग नलया।निसमें परािय व नवध्वंस से मन उनिनन हो गया।र्ानन्त की खोि में अरुणाचल प्रिेर्(नेफा) के घने पहाड़ी िंगलों में भटकने लगे।इसी िौरान एक नसद् का िर्चन हुआ, निनके निव्य सम्मोहन में कोलकता के ननयमतल्ला महाश्मर्ान नस्थत भतू नाथ पीठ चले गये ।िहााँ तंत्र की िीक्षा लेकर वषचपयंत अघोर सािना की।यहीं िीक्षान्त के समय भतू ेश्वरान्िनाथ नाम प्राप्त हुआ,िो लोक श्रीचक्राचचन महायाग - वैज्ञाननक नवमर्च एवं नवनि

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