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मानसरोवर भाग-1

पर्ेमचंद

पर्काशक : टर् साइन पिब्लिशंग हाउस पता : SY.N0.21/2 & 21/3, सोननहल्ी, कृष्णराजपुरल, बेंगलुरु, कनार्टक – 560049, भारत

ईमेल: [email protected] वेबसाइट: www.truesign.in

© पर्काशकाधीन

मानसरोवर भाग-1 पर्ेमचंद ISBN: 978-93-90852-77-2 संस्करण: 2022

िबना पर्काशक की िलिखत अनुमित के इस पुस्तक या इसके िकसी भाग का कोई भी व्यावसाियक इस्तेमाल नहीं िकया जा सकता है, न ही इसको कोई कॉपी करायी जा सकती है, न िरकािडर्ग और न ही कंप्यूटर या िकसी अन्य माध्यम से स्टोर िकया जा सकता है।

पर्ेमचंद जी का जीवन पिरचय पर्ेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के िनकट लमही गाँव में हु आ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा िपता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी िशक्षा का आरं भ उदर् ,ू फारसी से हु आ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उमर् में ही उन्होंने ितिलस्म-ए-होशरुबा को पढ़ िलया और उन्होंने उदर् ू के मशहू र रचनाकार रतननाथ ‘शरसार', िमज़ार् हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से पिरचय पर्ाप्त कर िलया था। १८९८ में मैिटर्क की परीक्षा उत्ीणर् करने के बाद वे एक स्थानीय िवद्ालय में िशक्षक के रूप में िनयुक् हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। १९१० में उन्होंने अंगर्ेजी, दशर् न, फारसी और इितहास से इंटर पास िकया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद िशक्षा िवभाग के इंस्पेक्टर पद पर िनयुक् हो गए थे। सात वषर् की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वषर् की अवस्था में िपता का देहान्त हो जाने के कारण उनका पर्ारं िभक जीवन संघषर् मय रहा। उनका पहला िववाह उन िदनों की परं परा के अनुसार पंदर्ह साल की उमर् में हु आ जो सफल नहीं रहा। १९०६ में उनका दस ू रा िववाह िशवरानी देवी से हु आ जो बाल-िवधवा थीं। वे सुिशिक्षत मिहला थीं िजन्होंने कु छ कहािनयाँ और पर्ेमचंद घर में शीषर् क पुस्तक भी िलखी। उनकी तीन संताने हु ई-ं शर्ीपत राय, अमृत राय और कमला देवी शर्ीवास्तव। १८९८ में मैिटर्क की परीक्षा उत्ीणर् करने के बाद वे एक स्थानीय िवद्ालय में िशक्षक िनयुक् हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। १९१० में उन्होंने अंगर्ेजी, दशर् न, फारसी और इितहास िवषयसिहत इंटर पास िकया। १९१९ में बी.ए पास करने के बाद वे िशक्षा िवभाग के इंस्पेक्टर पद पर िनयुक् हु ए। १९२१ ई. में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्ान पर स्कू ल इंस्पेक्टर पद से त्यागपतर् दे िदया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना िलया। मयार्दा, माधुरी आिद पितर्काओं में वे संपादक पद पर कायर् रत रहे। इसी दौरान उन्होंने पर्वासीलाल के साथ िमलकर सरस्वती पर्ेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण िनकाला। पर्ेस उनके िलए व्यावसाियक रूप से लाभपर्द िसद् नहीं हु आ। १९३३ ई. में अपने ऋण को पटाने के िलए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के िसनेटोन कंपनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का पर्स्ताव स्वीकार कर िलया। िफल्म नगरी पर्ेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वषर् का अनुबध ं भी पूरा नहीं कर सके और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य िनरं तर िबगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टू बर १९३६ को उनका िनधन हो गया। वे आयर् समाज से पर्भािवत रहे जो उस समय का बहु त बड़ा धािमर् क और सामािजक आंदोलन हु आ करता था। उन्होंने िवधवा-िववाह का समथर् न िकया और १९०६ में दस ू रा िववाह अपनी पर्गितशील परं परा के अनुरूप बाल-िवधवा िशवरानी देवी से

िकया। उनकी तीन संताने हु ई-ं शर्ीपत राय, अमृत राय और कमला देवी शर्ीवास्तव। १९१० में उनकी रचना सोज़े-वतन (राष्र् का िवलाप) के िलए हमीरपुर के िजला कलेक्टर ने तलब िकया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी पर्ितयाँ जब्त कर नष् कर दी गई।ं कलेक्टर ने नवाबराय को िहदायत दी िक अब वे कु छ भी नहीं िलखेंग,े यिद िलखा तो जेल भेज िदया जाएगा। इस समय तक पर्ेमचंद, धनपत राय नाम से िलखते थे। उदर् ू में पर्कािशत होने वाली ज़माना पितर्का के सम्पादक और उनके अजीज दोस्त मुंशी दयानारायण िनगम ने उन्हें पर्ेमचंद नाम से िलखने की सलाह दी। इसके बाद वे पर्ेमचन्द के नाम से िलखने लगे। उन्होंने आरं िभक लेखन ज़माना पितर्का में ही िकया। जीवन के अंितम िदनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूतर् पूरा नहीं हो सका और लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टू बर १९३६ को उनका िनधन हो गया। उनका अंितम उपन्यास मंगल सूतर् था जो उनके पुतर् अमृत ने पूरा िकया था। सािहित्यक जीवन पर्ेमचंद के सािहित्यक जीवन का आरं भ १९०१ से हु आ था आरं भ में वे नवाब राय के नाम से उदर् ू में िलखते थे। पर्ेमचंद के लेख पहली रचना के अनुसार उनकी पहली रचना अपने मामा पर िलखा व्यंग्य थी, जो अब अनुपलब्ध है। उनका पहला उपलब्ध लेखन उदर् ू उपन्यास ‘असरारे मआिबद' है जो धारावािहक रूप में पर्कािशत हु आ। इसका िहंदी रूपांतरण देवस्थान रहस्य नाम से हु आ। पर्ेमचंद का दस ू रा उपन्यास ‘हमखुमार् व हमसवाब' है िजसका िहंदी रूपांतरण ‘पर्ेमा' नाम से १९०७ में पर्कािशत हु आ। १९०८ ई. में उनका पहला कहानी संगर्ह सोज़े-वतन पर्कािशत हु आ। देशभिक् की भावना से ओतपर्ोत इस संगर्ह को अंगर्ेज़ सरकार ने पर्ितबंिधत कर िदया और इसकी सभी पर्ितयाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भिवष्य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर िलखना पड़ा। ‘पर्ेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पितर्का के िदसम्बर १९१० के अंक में पर्कािशत हु ई। १९१५ ई. में उस समय की पर्िसद् िहंदी मािसक पितर्का सरस्वती के िदसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से पर्कािशत हु ई। १९१८ ई. में उनका पहला िहंदी उपन्यास सेवासदन पर्कािशत हु आ। इसकी अत्यिधक लोकिपर्यता ने पर्ेमचंद को उदर् ू से िहंदी का कथाकार बना िदया। हालाँिक उनकी लगभग सभी रचनाएँ िहंदी और उदर् ू दोनों भाषाओं में पर्कािशत होती रहीं। उन्होंने लगभग ३०० कहािनयाँ तथा डेढ़ दजर् न उपन्यास िलखे। १९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपतर् देने के बाद वे पूरी तरह सािहत्य सृजन में लग गए। उन्होंने कु छ महीने मयार्दा नामक पितर्का का संपादन िकया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वषोर् ं तक िहंदी पितर्का माधुरी का संपादन िकया। उन्होंने १९३० में बनारस से अपना मािसक पतर् हंस का पर्काशन शुरू िकया। १९३२ ई. में उन्होंने िहंदी साप्ािहक पतर् जागरण का पर्काशन आरं भ िकया। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में

अिखल भारतीय पर्गितशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता िसनेटोन कंपनी में कथा-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में पर्दिशर् त िफल्म मजदरू की कहानी उन्होंने ही िलखी थी। मरणोपरांत उनकी कहािनयाँ “मानसरोवर” नाम से ८ खंडों में पर्कािशत हु ई।ं रचनाएँ बहु मुखी पर्ितभासंपन् पर्ेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आिद अनेक िवधाओं में सािहत्य की सृिष् की। उनकी ख्याित कथाकार के तौर पर हु ई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास समर्ाट’ की उपािध से सम्मािनत हु ए। -पर्काशक

अनुकर्मिणका 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28.

अलग्योझा ..................................................................... 7 ईदगाह ....................................................................... 23 माँ ........................................................................... 34 बेटों वाली िवधवा ............................................................ 47 बड़े भाई साहब .............................................................. 62 शािन्त ....................................................................... 69 नशा ......................................................................... 80 स्वािमनी ..................................................................... 87 ठाकु र का कु आं ............................................................. 98 घरजमाई ................................................................... 101 पूस की रात .............................................................. 110 झाँकी ...................................................................... 115 गुल्ी-डंडा ................................................................ 121 ज्योित ..................................................................... 128 िदल की रानी .............................................................. 138 िधक्कार ................................................................... 153 कायर ..................................................................... 167 िशकार .................................................................... 176 सुभागी ..................................................................... 187 अनुभव .................................................................... 194 लांछन ..................................................................... 200 आिखरी हीला ............................................................. 210 तावान ..................................................................... 215 घासवाली .................................................................. 221 िगला ...................................................................... 230 रिसक संपादक ........................................................... 239 मनोवृित् ................................................................... 245 कश्मीरी सेब ............................................................... 251

अलग्योझा भोला महतो ने पहली स्तरी के मर जाने के बाद दस ू री सगाई की, तो उसके लड़के रग्घू के िलए बुरे िदन आ गये। रग्घू की उमर् उस समय केवल दस वषर् की थी। चैन से गाँव में गुल्ीडंडा खेलता-िफरता था। माँ के आते ही चक्की में जुटना पड़ा। पन्ा रूपवती स्तरी थी। और रूप और गवर् में चोली- दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू िनकालता, शाम को सानी रग्घू देता। रग्घू ही झूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कु छ ऐसी िफरीं िक उसे अब रग्घू में सब बुराइयां ही बुराइयाँ नजर आतीं। पन्ा की बातों को वह पर्ाचीन मयार्दानुसार आँखें बंद करके मान लेता था। रग्घू की िशकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हु आ िक रग्घू ने िशकायत करना ही छोड़ िदया। िकसके सामने रोये? बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा िजद्ी लड़का है, पन्ा को तो कु छ समझता ही नहीं, बेचारी उसका दुलार करती है, िखलाती-िपलाती है। यह उसी का फल है। दस ू री औरत होती, तो िनबाह न होता। यह तो कहो, पन्ा इतनी सीधी-सादी है िक िनबाह हो जाता है। सबल की िशकायतें सब सुनते हैं, िनबर् ल की फिरयाद भी कोई नहीं सुनता। रग्घू का हृदय माँ की ओर से िदन-ब-िदन फटता जाता था। यहाँ तक िक आठ साल गुजर गये और एक िदन भोला के नाम भी मृत्यु का सन्देश आ पहु ँचा। पन्ा के चार बच्चे थे- तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ा खचर् और कमाने वाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा? यह मानी हु ई बात थी। अपनी स्तरी लायेगा और अलग रहेगा। स्तरी आकर और भी आग लगाएगी। पन्ा को चारों ओर अँधरे ा-ही-अँधरे ा िदखाई देता था, कु छ भी हो, वह रग्घू की आसरै त बनकर घर में न रहेगी। िजस घर में उसने राज िकया उसमें अब लौंडी न बनेगी। िजस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी। वह सुंदर थी, अवस्था अभी कु छ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दस ू रा घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग हंसेग।े बला से! उसकी िबरादरी में ऐसा होता नहीं? बर्ाह्ण, ठाकु र थोड़े ही थी िक नाक कट जायेगी। यह तो उन्हीं जातों में होता है िक घर में चाहे जो कु छ करो, बाहर परदा टका रहे। वह तो संसार को िदखाकर दस ू रा घर कर सकती है। िफर वह रग्घू की दबैल बनकर क्यों रहे? भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था। संध्या हो गयी थी। पन्ा इसी िचन्ता में पड़ी हु ई थी िक सहसा उसे खयाल आया, लड़के घर में नहीं हैं। बैलों के लौटने की बेला है, कहीं कोई लड़का उसके नीचे न आ जाये। अब द्ार पर कौन है, जो उनकी देखभाल करे गा? रग्घू को मेरे लड़के फू टी आँखों नहीं भाते। कभी हंसकर नहीं बोलता। घर से बाहर िनकली तो देखा, रग्घू सामने झोंपड़े में बैठा ऊख की गड़ेिरया बना रहा है। लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की मानसरोवर भाग-1 | 7

उसकी गदर् न में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्ा कर रही है। पन्ा को अपनी आंखों पर िवश्वास न आया। आज तो यह नयी बात है। शायद दुिनया को िदखाता है िक मैं अपने भाइयों को िकतना चाहता हू ँ और मन में छु री रखी हु ई है। घात िमले तो जान ही ले ले! काला साँप है, काला साँप! कठोर स्वर में बोली-तुम सब-के-सब वहाँ क्या करते हो? घर में आओ, साँझ की बेला है, गोरू आते होंगे। रग्घू ने िवनीत नेतर्ों से देखकर कहा-मैं तो हू ँ ही काकी, डर िकस बात का है? बड़ा लड़का केदार बोला-काकी, रग्घू दादा ने हमारे िलए दो गािड़याँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्ू बैठेंग,े दस ू रे पर लछमन और झुिनयाँ। दादा दोनों गािड़याँ खींचेंग।े यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गािड़याँ िनकाल लाया। चार- चार पिहये लगे थे। बैठने के िलए तख्ते और रोक के िलए दोनों तरफ बाजू थे। पन्ा ने आश्चयर् से कहा- ये गािड़याँ िकसने बनाई? ं

केदार ने िचढ़ कर कहा-रग्घू दादा ने बनायी हैं, और िकसने। भगत के घर से बसूला और रुखानी माँग लाये और चटपट बना दीं। खूब दौड़ती हैं काकी। बैठ खुन्ू, मैं खींचूं।

खुन्ू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर का शोर हु आ, मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शरीक है। लछमन ने दस ू री गाड़ी में बैठकर कहा- दादा, खींचो। रग्घू ने झुिनया को भी गाड़ी में िबठा िदया और गाड़ी खींचता हु आ दौड़ा। तीनों लड़के तािलयाँ बजाने लगे। पन्ा चिकत नेतर्ों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही िक यह वही रग्घू है या कोई और। थोड़ी देर बाद दोनों गािड़याँ लौटी, लड़के घर में आकर इस यान-यातर्ा के अनुभव बयान करने लगे। िकतने खुश थे सब, मानो हवाई जहाज पर बैठे हों। खुन्ू ने कहा- काकी, सच, पेड़ दौड़ रहे थे। लछमन-और बिछयाँ कैसी भागी, सब-की सब दौड़ी! केदार- काकी, रग्घू दादा दोनों गािड़यां एक साथ खींच ले जाते हैं। झुिनया सबसे छोटी थी। उसकी व्यंजना-शिक् उछल-कू द और नेतर्ों तक सीिमत थी-तािलयाँ बजा-बजाकर नाच रही थी। खन्ू- अब हमारे घर गाय भी आ जायेगी काकी! रग्घू दादा ने िगरधारी से कहा है िक हमें एक गाय ला दो। िगरधारी बोला, कल लाऊंगा। केदार- तीन सेर दधू देती है काकी! खूब दधू िपएंग।े इतने में रग्घू अंदर आ गया। पन्ा ने अवहेलना की दृिष् से देखकर पूछा- क्यों रग्घू, तुमने िगरधारी से कोई गाय माँगी है?

मानसरोवर भाग-1 | 8

रग्घू ने क्षमा-पर्ाथर् ना के भाव से कहा- हाँ माँगी तो है, कल लायेगा। पन्ा- रुपये िकसके घर से आएंग? े यह भी सोचा है? रग्घू सोच िलया है काकी! मेरी यह मुहर नहीं है। इसके पच्चीस रुपये िमल रहे है, पाँच रुपये बिछया के मुजरा दे दँगू ा! बस, गाय अपनी हो जायेगी। पन्ा सन्ाटे में आ गयी। अब उसका अिवश्वासी मन भी रग्घू के पर्ेम और सज्जनता को अस्वीकार न कर सका। बोली-मुहर को क्यों बेचे देते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है? हाथ में पैसे हो जायें, तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा। इतने िदनों गाय नहीं रही, तो क्या लड़के नहीं िजये? रग्घू दाशर् िनक भाव से बोला- बच्चों के खाने-पीने के यही िदन हैं काकी। इस उमर् में न खाया, तो िफर क्या खायेंग।े मुहर पहनना मुझे अच्छा भी नहीं मालूम होता। लोग समझते होंगे िक बाप तो गया, इसे मुहर पहनने को पड़ी है। भोला महतो गाय की िचंता ही में चल बसे। न रुपये आये और न गाय िमली। मजबूर थे, रग्घू ने यह समस्या िकतनी सुगमता से हल कर दी। आज जीवन में पहली बार पन्ा को रग्घू पर िवश्वास आया, बोली- जब गहना ही बेचना है तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे? मेरी हँसली ले लेना। रग्घू- नहीं काकी! वह तुम्हारे गले में बहु त अच्छी लगती है। मदोर् ं को क्या, मुहर पहनें या ना पहने। पन्ा- चल, मैं बूढ़ी हु ई। अब हँसली पहनकर क्या करना है। तू अभी लड़का है, तेरा सूना गला अच्छा न लगेगा। रग्घू मुस्कराकर बोला- तुम अभी से कैसे बूढ़ी हो गई? गाँव में है कौन तुम्हारे बराबर? रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ा को लिज्जत कर िदया। उसके रूखे -मुरझाए मुख पर पर्सन्ता की लाली दौड़ गयी। 2 पाँच साल गुजर गये। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, बात का धनी दस ू रा िकसान गाँव में न था। पन्ा की इच्छा के िबना कोई काम न करता। उसकी उमर् अब 23 साल की हो गयी थी। पन्ा बार-बार कहती, भैया, बहू को िबदा करा लाओ। कब तक नैहर में पड़ी रहेगी? सब लोग मुझ को बदनाम करते हैं िक यही बहू को नहीं आने देती, मगर रग्घू टाल देता था। कहता िक अभी जल्दी क्या है। उसे अपनी स्तरी के रं ग-ढंग का कु छ पिरचय दस ू रों से िमल चुका था। ऐसी औरत को घर में लाकर वह अपनी शांित में बाधा नहीं डालना चाहता था। आिखर एक िदन पन्ा ने िजद करके कहा- तो तुम न लाओगे? कह िदया िक अभी कोई जल्दी नहीं है। तुम्हारे िलए जल्दी न होगी, मेरे िलए तो जल्दी है। मैं आज आदमी भेजती हू ँ। पछताओगी काकी, उसका िमजाज़ अच्छा कहीं है।

मानसरोवर भाग-1 | 9

तुम्हारी बला से, जब मैं उससे बोलूंगी ही नहीं, तो क्या हवा से लड़ेगी? रोिटयाँ तो बना लेगी। मुझसे भीतर-बाहर का सारा काम नहीं होता, मैं आज बुलाये लेती हू ँ। बुलाना चाहती हो, बुला लो, मगर िफर यह न कहना िक यह मेहिरया को ठीक नहीं करता, उसका गुलाम हो गया। न कहू ँगी, जाकर दो सािड़याँ और िमठाई ले आ। तीसरे िदन मुिलया मैके से आ गयी। दरवाजे पर नगाड़े बजे, शहनाइयों की मधुर ध्विन आकाश में गूँजने लगी। मुँह-िदखाई की रस्म अदा हु ई। वह इस मरुभूिम में िनमर् ल जलधारा थी। गेहुँआ रं ग था, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, कपोलों पर हलकी सुखीर्, आंखों में पर्बल आकषर् ण। रग्घू उसे देखते ही मंतर्मुग्ध हो गया। पर्ातःकाल पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गेहुँआ रं ग पर्भात की सुनहरी िकरणों से कुं दन हो जाता, मानो उषा अपनी सारी सुगध ं , सारा िवकास और उन्माद िलये मुस्कराती चली जाती हो। 3 मुिलया मैके से ही जली-भूनी आयी थी। मेरा शौहर छाती फाड़कर काम करे , और पन्ारानी बनी बैठी रहे, उसके लड़के रईसजादे बने घूमें। मुिलया से यह बरदाश्त न होगा। वह िकसी की गुलामी न करे गी, अपने लड़के तो अपने होते नहीं, भाई िकसके होते हैं? जब तक पर नहीं िनकलते हैं, रग्घू को घेरे हु ए हैं। ज्यों ही जरा सयाने हु ए, पर झाड़ कर िनकल जाएंग,े बात भी न पूछेंग।े एक िदन उसने रग्घू से कहा- तुम्हें इस तरह गुलामी करनी हो तो करो, मुझसे न होगी। रग्घू िफर क्या करूँ, तू ही बता? लड़के तो अभी घर का काम करने लायक भी नहीं है। मुिलया- लड़के रावत के हैं, तुम्हारे नहीं हैं। यही पन्ा है, जो तुम्हें दाने- दाने को तरसाती थी। सब सुन चुकी हू ँ। मैं लौंडी बनकर न रहू ँगी। रुपये-पैसे का मुझे कु छ िहसाब नहीं िमलता। न जाने तुम क्या लाते हो और वह क्या करती है? तुम समझते हो, रुपये घर ही में तो हैं, मगर देख लेना, तुम्हें जो एक फूटी कौड़ी भी िमले। रग्घू- रुपये-पैसे तेरे हाथ में देने लगूं तो दुिनया क्या कहेगी, यह तो सोच। मुिलया-दुिनया जो चाहे, कहे। दुिनया के हाथों िबकी नहीं हू ँ। देख लेना भाड़ लीप कर हाथ काला ही रहेगा। िफर तुम अपने भाइयों के िलए मरो, मैं क्यों मरूँ? रग्घू ने कु छ जवाब न िदया। उसे िजस बात का भय था, वह इतनी जल्द िसर पर आ पड़ी। अब अगर उसने बहु त खींचा, तो साल-छह महीने और काम चलेगा। बस, आगे यह डोंगा चलता नजर नहीं आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी? एक िदन पन्ा ने महु ए का सुखावन डाला। बरसात शुरू होने वाली थी। बखार में अनाज गीला न हो। मुिलया से बोली- बहू , जरा देखती रहना, मैं तालाब से नहा आऊँ।

मानसरोवर भाग-1 | 10

मुिलया ने लापरवाही से कहा, मुझे नींद आ रही है, तुम बैठकर देखो। एक िदन न नहाओगी तो क्या होगा? पन्ा ने साड़ी उठाकर रख दी, नहाने न गयी। मुिलया का वार खाली गया। कई िदन के बाद एक शाम को पन्ा धान रोपकर लौटी, अँधरे ा हो गया था। िदन-भर की भूखी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी, मगर देखा, तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हु आ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुिलया ने आिहस्ते से पूछा- आज अभी चूल्हा नहीं जला? केदार ने कहा- आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी। भाभी ने कु छ बनाया ही नहीं। पन्ा- तो तुम लोगों ने खाया क्या? केदार-कु छ नहीं, रात की रोिटयाँ थीं, खुन्ू और लछमन ने खायी। मैंने सत्ू खा िलया। पन्ा- और बहू ? केदार- वह पड़ी सो रही है, कु छ नहीं खाया। पन्ा ने उसी वक् चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गयी। आटा गूथ ं ती थी और रोती थी। क्या नसीब है? िदन-भर खेत में जली, घर आयी तो आग के सामने जलना पड़ा। केदार का चौदहवीं साल था। भाभी के रं ग-ढंग देखकर सारी िस्थित समझ रहा था। बोलाकाकी, भाभी, अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती। पन्ा ने चौंक कर पूछा- क्या कु छ कहती थी? केदार- कहती कु छ न थी, मगर है उसके मन में यही बात। िफर तुम क्यों नहीं उसे छोड़ देतीं? जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है। पन्ा ने दाँतों से जीभ दबाकर कहा- चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूलकर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुिलया से कभी बोलोगे तो समझ लेना, जहर खा लूंगी। 4 दशहरे का त्यौहार आया। इस गाँव से कोस-भर पर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ा भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हु ई, मगर पैसे कहां से आयें? कुं जी तो मुिलया के पास थी। रग्घू ने आकर मुिलया से कहा- लड़के मेले जा रहे हैं, सब को दो-दो पैसे दे दे। मुिलया ने त्यौिरयां चढ़ाकर कहा- पैसे घर में नहीं हैं। रग्घू- अभी तो ितलहन िबका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये? मुिलया- हाँ उठ गये। रग्घू- कहां उठ गये? जरा सुनू, आज त्यौहार के िदन लड़के मेला देखने न जायेंग? े मुिलया- अपनी काकी से कहो, पैसे िनकालें, गाड़ कर क्या करें गी? मानसरोवर भाग-1 | 11

खूंटी पर कुं जी लटक रही थी। रग्घू ने कुं जी उतारी और चाहा िक संदक ू खोले िक मुिलया ने उसका हाथ पकड़ िलया और बोली- कुं जी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहनने को भी चािहए, कागज-िकताब को भी चािहए, उस पर मेला देखने को भी चािहए। हमारी कमाई इसिलए नहीं है िक दस ू रे खाएँ और मूंछों पर ताव दें। पन्ा ने रग्घू से कहा- भैया, पैसे क्या होंगे। लड़के मेला देखने न जायेंग।े रग्घू ने िझड़क कर कहा- मेला देखने क्यों न जायेंग? े सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जायेंग? े यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छु ड़ा िलया और पैसे िनकालकर लड़कों को दे िदये, मगर जब कुं जी मुिलया को देने लगा तो उसने उसे आंगन में फेंक िदया और मुँह लपेटकर लेट गयी। लड़के मेला देखने नहीं गये। इसके बाद दो िदन गुजर गये। मुिलया ने कु छ नहीं खाया और पन्ा भी भूखी रही। रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे, पर न यह उठती, न वह। आिखर रग्घू ने परे शान होकर मुिलया से पूछा- कु छ मुँह से भी तो कह, क्या चाहती है? मुिलया ने धरती को सम्बोिधत करके कहा- मैं कु छ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहु ँचा दो। रग्घू- अच्छा उठ, बना खा। पहु ँचा दँगू ा। मुिलया ने रग्घू की ओर आँखें उठाई। रग्घू उसकी सूरत देखकर डर गया। वह माधुयर्, वह मोहकता, वह लावण्य गायब हो गया था। दाँत िनकल आये थे, आँखें फट गयी थीं और नथुने फड़क रहे थे। अंगारे की-सी लाल आँखों से देखकर बोली- अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है, यह मंतर् पढ़ाया है? तो यहाँ ऐसी कच्ची नहीं हू ँ। तुम दोनों की छाती पर मूँग दलूँगी। हो िकस फेर में? रग्घू- अच्छा तो मूँग ही दल लेना। कु छ खा-पी लेगी, तभी तो मूंग दल सकेगी। मुिलया- अब तो तभी मुँह में पानी डालूँगी, जब घर अलग हो जायेगा। बहु त झेल चुकी, अब नहीं झेला जाता। रग्घू सन्ाटे में आ गया। एक िदन तक उसके मुंह से आवाज ही न िनकली। अलग होने की उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। उसने गाँव में दो-चार पिरवारों को अलग होते देखा था। वह खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के हृदय भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा के िलए गैर हो जाते हैं। िफर उनमें वही नाता रह जाता है, जो गाँव के और आदिमयों में। रग्घू ने मन में ठान िलया था िक इस िवपित् को घर में न आने दँगू ा, मगर होनहार के सामने उसकी एक न चली। आह! मेरे मुँह में कािलख लगेगी, दुिनया यही कहेगी िक बाप के मर जाने पर दस साल भी एक में िनबाह न हो सका। िफर िकससे अलग हो जाऊं? िजनको गोद में िखलाया, िजनको बच्चों की तरह पाला, िजनके िलए तरह-तरह के कष् झेले, उन्हीं से अलग हो जाऊँ। अपने प्यारों को घर से िनकाल बाहर करूँ? उसका गला फँस गया। काँपते हु ए स्वर में बोला- तू क्या चाहती है िक मैं अपने भाइयों से अलग हो जाऊँ? भला सोच तो, कहीं मुँह िदखाने लायक रहू ँगा? मुिलया-तो मेरा इन लोगों के साथ िनबाह न होगा। रग्घू- तो तू अलग हो जा। मुझे अपने साथ क्यों घसीटती है? मानसरोवर भाग-1 | 12

मुिलया- तो मुझे क्या तुम्हारे घर में िमठाई िमलती है? मेरे िलए क्या संसार में जगह नहीं है? रग्घू- तेरी जैसी मजीर्, जहाँ चाहे रह। मैं अपने घरवालों से अलग नहीं हो सकता। िजस िदन इस घर में दो चूल्हे जलेंग,े उस िदन मेरे कलेजे के दो टु कड़े हो जायेंग।े मैं यह चोट नहीं सह सकता। तुझे जो तकलीफ हो, वह मैं दरू कर सकता हू ँ। माल-असबाब की मालिकन तू है ही, अनाज-पानी तेरे ही हाथ है, अब रह क्या गया है? अगर कु छ काम-धंधा करना नहीं चाहती तो मत कर, भगवान ने मुझे कमाई दी होती, तो मैं तुझे ितनका तक उठाने नहीं देता। तेरे यह सुकुमार हाथ-पाँव मेहनत-मजूरी करने के िलए बनाये ही नहीं गये हैं, मगर क्या करूँ, अपना कु छ बस ही नहीं है। िफर भी तेरा जी कोई काम करने को न चाहे, मत कर, मगर मुझसे अलग होने को न कह, तेरे पैरों पड़ता हू ँ। मुिलया ने िसर से आँचल िखसकाया और जरा समीप आकर बोली- मैं काम करने से नहीं डरती, न बैठे-बैठे खाना चाहती हू ँ मगर मुझसे िकसी की धौंस नहीं सही जाती। तुम्हारी काकी घर का काम-काज करती हैं, तो अपने िलए करती हैं, अपने बाल-बच्चों के िलए करती हैं। मुझ पर कु छ एहसान नहीं करती, िफर मुझ पर धौंस क्यों जमाती हैं? उन्हें अपने बच्चे प्यारे होंगे, मुझे तो तुम्हारा आसरा है। मैं अपनी आंखों से यह नहीं देख सकती िक सारा घर तो चैन करे , जरा- जरा से बच्चे तो दधू िपएँ और िजसके बल-बूते पर गृहस्थी बनी हु ई है, वह मट्े को तरसे। कोई उसका पूछने वाला न हो। जरा अपना मुँह तो देखो, कैसी सूरत िनकल आयी है। औरों के तो चार बरस में अपने पट्े तैयार हो जायेंग।े तुम तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। बैठ जाओ, खड़े क्यों हो? क्या मारकर भागोगे? मैं तुम्हें जबरदस्ती न बाँध लूँगी, क्या यह मालिकन का हु क्म नहीं है? सच कहू ,ं तुम बड़े कठ-कलेजी हो। मैं जानती, ऐसे िनमोर्ही से पाला पड़ेगा, तो इस घर में भूल से न आती। आती भी तो मन न लगाती, मगर अब तो मन तुमसे लग गया। घर भी जाऊँ तो मन यहाँ ही रहेगा। और तुम जो हो, मेरी बात नहीं पूछते। मुिलया की ये रसीली बातें रग्घु पर असर न डाल सकीं। वह उसी रुखाई से बोला- मुिलया, मुझसे यह न होगा। अलग होने का ध्यान करते ही मेरा मन जाने कैसा हो जाता है। यह चोट मुझसे न सही जायेगी। मुिलया ने पिरहास करके कहा- तो चूिड़यां पहनकर अंदर बैठो न! लाओ मैं मूंछें लगा लूँ। मैं तो समझती थी िक तुममें भी कु छ कस-बल है। अब देखती हू ँ तो िनरे िमट्ी के लोंदे हो। पन्ा दालान में खड़ी दोनों की बातचीत सुन रही थी। अब उससे न रहा गया। सामने आकर रग्घू से बोली- जब वह अलग होने पर तुली हु ई है, िफर तुम क्यों उसे जबरदस्ती िमलाये रखना चाहते हो? तुम उसे लेकर रहो, हमारे भगवान् मािलक हैं। जब महतो मर गये थे और कहीं पत्ों की भी छाँह न थी, जब उस वक् भगवान् ने िनबाह िदया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान् की दया से तीनों लड़के सयाने हो गये हैं। अब कोई िचन्ता नहीं। रग्घू ने आंसू भरी आंखों से पन्ा को देखकर कहा- काकी, तू भी पागल हो गयी है क्या? जानती नहीं, दो रोिटयाँ होते ही दो मन हो जाते हैं। मानसरोवर भाग-1 | 13

पन्ा- जब यह मानती ही नहीं, तब तुम क्या करोगे? भगवान् की यही मरजी होगी, तो कोई क्या करे गा? परालब्ध में िजतने िदन एक साथ रहना िलखा था, उतने िदन रहे। अब उसकी यही मरजी है, तो यही सही। तुमने मेरे बाल- बच्चों के िलए जो कु छ िकया, वह भूल नहीं सकती। तुमने इनके िसर हाथ न रखा होता, तो आज इनकी न जाने क्या गित होती, न जाने िकसके द्ार पर ठोकरें खाते होते, न जाने कहां-कहां भीख माँगते िफरते। तुम्हारा जस मरते दम तक गाऊंगी। अगर मेरी खाल तुम्हारे जूते बनाने के काम आये, तो खुशी से दे दँ।ू चाहे तुमसे अलग हो जाऊँ, पर िजस घड़ी पुकारोगे, कु त्े की तरह दौड़ी आऊंगी। यह भूलकर भी न सोचना िक तुमसे अलग होकर मैं तुम्हारा बुरा चाहू ग ं ी। िजस िदन तुम्हारे िलए कोई बुरी भावना मेरे मन में आयेगी, उसी िदन िवष खाकर भर जाऊंगी। भगवान् करे , तुम द ूधों नहाओ, पूतों फलो। मरते दम तक यही असीस मेरे रोएँ-रोएँ से िनकलती रहेगी। और अगर लड़के भी अपने बाप के हैं, तो मरते दम तक तुम्हारा पोस मानेंग।े यह कहकर पन्ा रोती हु ई वहाँ से चली गयी। रग्घू वहीं मूितर् की तरह बैठा रहा। आसमान की ओर टकटकी लगी थी और आँखों से आँसू बह रहे थे। 5 पन्ा की बातें सुनकर मुिलया समझ गयी िक अब अपने पौ बारह हैं। चटपट उठी, घर में झाडू लगाई, चूल्हा जलाया और कु एँ से पानी लाने चली। उसकी टेक पूरी हो गयी थी। गाँव में िस्तरयों के दो दल होते हैं- एक बहु ओं का, दस ू रा सास का। बहु एं सलाह और सहानुभूित के िलए अपने दल में जाती हैं, सास अपने में। दोनों की पंचायतें अलग होती हैं। मुिलया को कु एँ पर दो-तीन बहु एँ िमल गई। एक ने कहा- आज तो तुम्हारी बुिढ़या बहु त रो-धो रही थी। मुिलया ने िवजय के गवर् से कहा- इतने िदनों से घर की मालिकन बनी हु ई हैं, राज-पाट छोड़ते िकसे अच्छा लगता है? बहन, मैं इसका बुरा नहीं चाहती, लेिकन एक आदमी की कमाई में कहां तक बरकत होगी। मेरे भी तो यही खाने- पीने, पहनने-ओढ़ने के िदन हैं। अभी उनके पीछे मरो, िफर बाल-बच्चे हो जायें, उनके पीछे मरो। सारी िजन्दगी रोते ही कट जाये। एक बहू - बुिढ़या यही चाहती है िक यह जन्म-भर लौंडी बनी रहे। मोटा- झोटा आये और पड़ी रहे। दस ू री बहू - िकस भरोसे पर कोई मरे ? अपने लड़के तो बात नहीं पूछते, पराये लड़कों का क्या भरोसा? कल इनके हाथ-पैर हो जायेंग,े िफर कौन पूछता है! अपनी-अपनी मेहिरयों का मुँह देखेंग।े पहले ही से फटकार देना अच्छा है, िफर तो कोई कलंक न होगा। है।

मुिलया पानी लेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोली- जाओ, नहा आओ, रोटी तैयार रग्घू ने मानो सुना ही नहीं। िसर पर हाथ रखकर द्ार की तरफ ताकता रहा। मुिलया- क्या कहती हू ँ कु छ सुनाई देता है? रोटी तैयार है जाओ नहा आओ। मानसरोवर भाग-1 | 14

रग्घू- सुन तो रहा हू ं क्या बहरा हू ँ? रोटी तैयार है तो जाकर खा ले। मुझे भूख नहीं है। मुिलया ने िफर कु छ नहीं कहा। जाकर चूल्हा बुझा िदया, रोिटयाँ उठाकर छीके पर रख दीं और मुंह ढक कर लेट रही। जरा देर में पन्ा आकर बोली- खाना तो तैयार है, नहा-धोकर खा लो! बहू भी भूखी होगी। रग्घू ने झुँझलाकर कहा- काकी, तू घर में रहने देगी िक मुँह में कािलख लगाकर कहीं िनकल जाऊँ? खाना तो खाना ही है, आज न खाऊंगा, कल खाऊंगा, लेिकन अभी मुझसे न खाया जायेगा। केदार क्या अभी मदरसे से नहीं आया? पन्ा- अभी तो नहीं आया, आता ही होगा। पन्ा समझ गयी िक जब तक वह खाना बनाकर लड़कों को न िखलाएगी और खुद न खायेगी, रग्घू न खायेगा। इतना ही नहीं, उसे रग्घू से लड़ाई करनी पड़ेगी, उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी। उसे यह िदखाना पड़ेगा िक मैं ही उससे अलग होना चाहती हू ँ नहीं तो वह इसी िचंता में घुल-घुलकर पर्ाण दे देगा। यह सोचकर उसने अलग चूल्हा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और खुन्ू मदरसे से आ गये। पन्ा ने कहा- आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार है। केदार ने कहा- भैया को भी बुला लूँ न? पन्ा- तुम आकर खा लो। उनकी रोटी बहू ने अलग बनायी है। खुन्ू- जाकर भैया से पूछ न आऊँ? पन्ा- जब उनका जी चाहेगा, खाएँग।े तू बैठकर खा, तुझे इन बातों से क्या मतलब? िजसका जी चाहेगा खायेगा, िजसका जी न चाहेगा, न खायेगा। जब वह और उसकी बीबी अलग रहने पर तुले हैं, तो कौन मनाये? केदार- तो क्यों अम्माजी, क्या हम अलग घर में रहेंग? े पन्ा- उनका जी चाहे, एक घर में रहें, जी चाहे आंगन में दीवार डाल-लें। खुन्ू ने दरवाजे पर आकर झाँका, सामने- फू स की झोंपड़ी थी, वहीं खाट पर पड़ा रग्घू नािरयल पी रहा था। खुन्ू-भैया तो अभी नािरयल िलये बैठे हैं। पन्ा- जब जी चाहेगा, खाएँग।े केदार- भैया ने भाभी को डाँटा नहीं? मुिलया अपनी कोठरी में पड़ी सुन रही थी। बाहर आकर बोली- भैया ने तो नहीं डाँटा, अब तुम आकर डाँटो। केदार के चेहरे का रं ग उड़ गया। िफर जबान न खोली। तीनों लड़कों ने खाना खाया और बाहर िनकले। लू चलने लगी थी। आम के बाग में गाँव के लड़के- लड़िकयाँ हवा से िगरे हु ए आम चुन रहे थे। केदार ने कहा- आज हम भी आम चुनने चलें, खूब आम िगर रहे हैं। खुन्ू-दादा जो बैठे हैं। मानसरोवर भाग-1 | 15

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