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Story Transcript

जिसकी िड़ें नहीं (कहानी संग्रह) ---------------

अं शु जौहरी

राजमंगल प्रकाशन An Imprint of Rajmangal Publishers

ISBN : 978-9394920149 Published by :

Rajmangal Publishers Rajmangal Prakashan Building, 1st Street, Sangwan, Quarsi, Ramghat Road Aligarh-202001, (UP) INDIA Cont. No. +91- 7017993445 www.rajmangalpublishers.com [email protected] [email protected] ---------------------------------------------

प्रथम संस्करण : जुलाई 2022 – पेपरबैक प्रकाशक : राजमंगल प्रकाशन राजमंगल प्रकाशन बबल्डिं ग, 1st स्ट्रीट, सांगवान, क्वासी, रामघाट रोड, अलीगढ़, उप्र. – 202001, भारत फ़ोन : +91 - 7017993445

--------------------------------------------First Published : July 2022 - Paperback कवर आर्ट: डीवी लीन पेन्याफ्लोर, सैन डडएगो, कैललफ़ोडनि या @deewiexchaos

eBook by : Rajmangal ePublishers (Digital Publishing Division) Copyright©अंशु जौहरी यह एक काल्पनिक कृति है। िाम, पात्र, व्यवसाय, स्थाि और घटिाएँ या िो लेखक की कल्पिा के उत्पाद हैं या काल्पनिक िरीके से उपयोग ककए जािे हैं। वास्तकवक व्यनियों, जीकवि या मृि, या वास्तकवक घटिाओं से कोई भी समाििा कवशुद्ध रूप से संयोग है। यह पुस्तक इस शित के अधीि बेची जािी है कक इसे प्रकाशक की पूवत अिुमति के बबिा ककसी भी रूप में मुद्रिि, प्रसाररि-प्रचाररि या बबक्रय िहीं ककया जा सकेगा। ककसी भी पररस्थस्थति में इस पुस्तक के ककसी भी भाग को पुिकविक्रय के ललए फोटोकॉपी िहीं ककया जा सकिा है। इस पुस्तक में लेखक द्वारा व्यि ककए गए कवचार के ललए इस पुस्तक के मुिक/प्रकाशक/कविरक ककसी भी िरह से लजम्मेदार िहीं हैं। सभी कववाद मध्यस्थिा के अधीि हैं, ककसी भी िरह के कािूिी वाद-कववाद की स्थस्थति में न्यायालय क्षेत्र अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, भारि ही होगा।

समर्पि त उन सबको जजन्होंने इसे पोषित डकया… “मैं एक ऐसा वृक्ष हूँ डक जजसकी जड़ें ही नहीं! जजसकी कोंपलों का ऊगना, पनपना, बढ़ना नहीं बंधा है मौसमों, स्थानों और समय के डनयमों से जो जीषवत रह सकता है हवा की अदृश्य पतली परत या डकसी रहस्यमयी, पारदर्शी आकार में कभी तो इसकी पजियाूँ धर लेती हैं आकार कटोरे का, जजसमें एकत्रित करती हैं वे बाररर्श की बंदों को त्रिर बुनती हैं उनसे त्रहम के चमकते तारे, जजनमें डनखरती धप से इं द्रधनुि के रंग उजागर हो जाते कभी मैं पलणि काषवहीन, त्रहमालय की कंदराओं में लीन तपस्वी सी हो जाती हूँ पतझड़ में झरती इसकी पजियाूँ केवल पीली नहीं पड़ती उनका रंग कभी लाल, कभी नीला, बैगनी या मयरी हो जाता है वो धर लेती है त्रभन्न-त्रभन्न आकार- कभी गोला, कभी वेलन, तमाम स्थात्रपत आकारों के परे, इसकी कललयाूँ भी मनचाहा स्वरुप ले लेती हैं कभी कोमल पंखुरी, कभी रंगषबरंगे, नुकीले काूँटों सी यह बन जाता है घना जंगल अपनी पररजध के भीतर

जहाूँ षवचरते बाघ बड़े स्वाद से पजियों का भक्षण करते भयभीत हो जाते हैं पलक्षयों के चहचहाते कलरव से कभी मरुस्थल, बिीली घाडटयाूँ, चट्टानों के समह, कभी समुद्री डकनारा, कही भी, कुछ भी पनपने के ललये नये-नये स्थानों को चुनता यह वृक्ष बंदी नहीं डकसी षवर्शेि स्थान के कारागृह का समचा अं तररक्ष इसका है और ये सबका... मैं एक ऐसा वृक्ष हूँ डक जजसकी जड़ें नहीं हैं”

आमुख



स डकताब के कमरे में बंद हैं कहाडनयाूँ जजन्हें बहना पसंद हैं और ठहरना उससे भी ज़्यादा। सभी कहाडनयाूँ सामजयक हैं। मैं जब जब भोगती थी जंगलों को, बाघों को, उनके भय को, पलक्षयों और उनके

कलरव को, कभी अकेले, कभी एक साथ, तब कहीं ये कहाडनयाूँ भी अपना आकार ले रही होतीं थीं । मुझे मालम नहीं डक डकस र्शैली, डकस षवमर्शश में रखूँ इन कहाडनयों को, जब हर कहानी का ढांचा जो भी हो, जैसा भी हो, उसकी आत्मा में इं सान और इं साडनयत को क़ैद करने की कोजर्शर्श है बस! ये डकसी षवर्शेि भौगोललक सीमाओं में बंधी कल्पनाओं या उनमें घटी घटनाओं का लेखा जोखा भी नहीं है। एक यािा है जो अचीन्ही त्रदर्शाओं की तरि ज़रुर ले जाती है। ये कहाडनयाूँ जजनकी जड़ें नहीं, ये कुछ करे न करे, आपको सींचेंगी अवश्य। इस संग्रह को संगठठत करने में, हर कहानी के हर पहल को जजस त्रदमाग़ी वजजि र्श की ज़रुरत होती है, उस वजजि र्श को आकार-डनराकारआकार देने के ललये, स्पर्शश और स्वस्ति का साडनध्य रहा, ईश्वर उन्हें सदैव अपनी छाया में रखे। जब कभी लगा डक बात षबगड़ गई है और अब कुछ हो नहीं सकता, ऐसे में हाथ पकड़कर डनरार्शात्मक सोच से बाहर डनकाल कर, नये हौसलों की राह त्रदखाने के ललये लोकेर्श और मेरी षमि पॉपी का अं तर से आभार! र्शकुंतला बहादुर आं टी का आभार डक वो बड़े उदार भाव से मेरे भािा ज्ञान को जब तब पोषित करती रहतीं हैं।

आपके समक्ष वह सब ‘‘जजसकी जड़ें नहीं‘‘ पर जो जीवन को जड़ नहीं होने देता। -अं र्शु जौहरी

अनुक्रमणणका शीर्षक

पृष्ठ संख्या

सुरग ं भरा पहाड़

9

पीले डैिोडडल

30

आरा

44

अं तशयुद्ध

58

डकतनी दर और कब तक?

68

जजसकी जड़ें नहीं...

81

सगुआरो

94

आधे घंटे के ललये

105

बाजसि लोना से बाथ तक

137

अनछु आ

146

...और डाल कट गयी

161

नीली-हरी जैडकट

166

डकराए पर पंख

180

धाूँस

185

सन्नाटे की चौखट

191

स्मृषतयों के प्रश्नजचन्ह

193

सुरंग भरा पहाड़



जाने क्यों हर यािा की समात्रि पर ये मंथन हृदय में ज़रुर होता है

डक र्शहर में रहने वाले लोग उस र्शहर को उसका चररि देते हैं या वह र्शहर लोगों के अं दर उतर कर उनका चररि बन बैठता है। ये बात

भारत के पवी अं चल में बसे प्रदेर्श मेघालय के संदभश में और भी सार पणश थी। मेघालय की याद करूँ तो मुझे याद आती है पवशतीय बीहड़ों के मध्य, सपश सी सड़क पर दौड़ती एक नीली कार, बादलों के झीने घंघट में से झाूँकती खासी पवशतों की चोडटयाूँ । मुझे याद आती है सघन हरी वनस्थललयाूँ, अनषगनत झरने, चमचमाती, इठलाती नत्रदयाूँ, उन पर तने छोटे बड़े पुल, खासकर वृक्षों की जीषवत जड़ो के पुल! कंदराओं और गुिाओं के दुुःसाहसी आमंिण, कोयले और खडनज पदाथों की समृलद्ध, पल पल रुप बदलने वाले बहुरुत्रपये बादल जो कुछ ही पलों के अं तराल में काले घने कंबल की परतों से झमाझम, डनभीक बाररर्श की झड़ी लगा देते थे। और मुझे याद आता है बाली, हमारा टर गाइड! आवारा, रुई से जथरकते मेघों की त्रदर्शाहीन यािाओं के मध्य खासी, जैन्तिया और गारो पहाडड़यों से बुना यह प्रकृषत का जादुई कररश्मा मेघालय यूँही नहीं कहलाता था -‘‘मेघ‘‘ और ‘‘आलय‘‘ याडन बादलों का घर। कल कल करती अनवरत बाररर्श को समेटे डकसी तपस्यारत मुडन सा था मेघालय।

लजसकी जड़ें िहीं | 9

‘‘मनस्तस्वनी ये जगह तेरे ललये षबलकुल सही है। यहाूँ की जनजाषतयाूँ मातृसिात्मक हैं । तुझे यही बस जाना चात्रहये।‘‘ वैभवी ने जर्शलांग एअरपोटश पर मुझे जचढ़ाते हुये कहा था। कभी हम डकसी एक स्मृषत को कुरेदते हैं और बदले में वह स्मृषत, हम में दबा, बंधा कुछ खोल कर स्वतंि कर देती है। मुझे याद आते हैं उस नीली कार में बैठे हुये हम चारो षमि- मैं , वैभवी, राघव, राजन और बाली हमारा टर गाइड। हम लोग खासी पहाड़ी पर एक छोटे से रेस्टरैंट पर नाश्ते के ललये रुके थे और हल्की सी बाररर्श र्शुरु हो गयी थी। ‘‘त्रिर से बाररर्श! मनस्तस्वनी मैम, पैसे के अलावा आप हर उस चीज़ से निरत करने लगते हो जो आपके पास जािी हो। बस पैसा कभी जािी नहीं लगता।‘‘ खखन्न सी हूँसी हूँसते हुये बाररर्श के संदभश में बाली ने यह बात कही थी। उसके उस कथन से मुझे जसयेटल के अपने एक षमि की याद आ गई थी जजसके घर में षवश्व के तमाम मरुस्थलों की पेंडटग थी। जसयेटल की त्रदन रात की बाररर्श से तंग आकर वह मरुस्थलों के जचिों में सखा, गरम धप का चोखा स्वाद चखा करता था। पर बाररर्श की इस अषतश्योजि में मैंने बाली के वाक्य के दसरे भाग को नज़रअं दाज़ कर त्रदया हो, ऐसा भी नहीं था। आखखर डकतना पैसा होना जािी नहीं होता? पैसा तो हमेर्शा कम ही लगता है। पाूँच षमनट में बाररर्श बंद भी हो गयी थी। ‘‘मेघालय डकतना अनछु आ और खबसरत है। मुझे लगता है डक प्रगषत कई मायनों में प्राकृषतक सौंदयश को बड़ी डनमशमता से नष्ट कर देती है।‘‘ मैं ने धुंध ओढ़े पवशत की चोटी से नीचे की हरी घाटी की तस्वीर उतारते हुये कहा था।

लजसकी जड़ें िहीं | 10

‘‘आप कहना क्या चाहती हैं मैम? ऐसी जगहों को प्रगषत से वजजि त रखा जाना चात्रहये? और इन जगहों पर रहनेवालों का क्या? वो गुमनाम, बेकार सही पर उनके बच्चों को भी अच्छी जर्शक्षा, अस्पताल और हर उस आराम को भोगने की इच्छा क्यों नहीं होनी चात्रहये जो बड़े र्शहर में रहने वालों को आसानी से सुलभ होती है? इन सबकी छोड़ो, हम तो यहाूँ अपने बच्चों को पोिक आहार भी नहीं दे पाते।‘‘ उसकी आवाज़ में आक्रोर्श झलक रहा था। मैं लौट कर कुसी पर आ बैठी थी। ‘‘क्यूँ इतनी भी आमदनी नहीं होती क्या?‘‘ उसके आक्रोर्श को नज़रअं दाज़ करते हुये मैंने बांस की मेज पर रखे अनानास के जस की चुस्कियाूँ लेते हुये पछा था। ‘‘आप टर गाईड की आमदनी की बात कर रही है।‘‘ वह ज़ोर से हूँसा था, ‘‘वो यहाूँ के मौसम सी अडनश्चित है और भरोसे के लायक नहीं। मेरे दो बेटे और एक षबडटया है। इस धंधे से तो कुछ भी नहीं होो़ता।‘‘ कह कर वह उस स्थान की ओर बढ़ गया था जहाूँ से घाटी त्रदखायी दे रही थी। मुझे लगा डक मुझे यह कम आमद की कहानी, तय डकये पैसों से और ज़्यादा पैसे ऐ ंठने के ललये सुनायी जा रही थी। जब मैंने राजा, वैभवी और राघव के साथ अपने इस गहन होते संर्शय को बाूँटा था, बाली उस समय थोड़ी दरी पर खड़ा जसगरेट के धुूँये के छल्ले बना रहा था। मैंने देखा डक उसके माथे की जसलवटें गहरी हो गयीं थी और लक्षषतज में डकसी र्शन्य पर अटकी उसकी छोटी आूँ खें डकसी जचिं ता में उलझी हुयी थी। ‘‘जाने दे ना। उसे सुनाने दे अपनी कहानी। हम तो वही देंगे जो हमने तय कर रखा है।‘‘ वैभवी के वाक्य ने मेरा ध्यानभंग डकया था। जसगरेट के बचे खुचे टु कड़े को अपने जतों से कुचलकर, बाली लौट रहा था और जैसे धुयें के गुबार में उसने अपनी कड़वाहट को भी बाहर लजसकी जड़ें िहीं | 11

उकेर त्रदया था। लौटकर वह हमे मेघालय के सबसे खबसरत और सबसे अनछु ये त्रहस्से त्रदखाने के अपने वायदे को लेकर उत्सात्रहत था। वो त्रहस्से जो पयशटकी भीड़ से अलग थलग थे। अब तक की यािा में मैं जजतना बाली को जानी थी, उतनी ही मेघालय और वहाूँ रहने वालों को जानने की उत्कंठा तीव्र होती जाती थी। वह अन्य टर गाईड की तरह चापलस और नरम ज़ुबान न था। बल्कल्क उसका स्वर अक्सर मेघालय की कहाडनयाूँ सुनाते सुनाते तल्ख हो जाता था। उसमे आक्रोर्श था, डकसी जानकार पर छु पे हुये दुश्मन के प्रषत। और वह उतना ही नरमत्रदल भी था। डकसी बकरी के बच्चे को गोद में उठाते हुये उसकी हूँसी छोटे बच्चों सी मासम और डनश्छल हो जाती थी। मेरी सहज जजज्ञासा उसमें भी एक उत्सुकता को जीवंत करती थी। राजन, वैभवी और राघव उससे बात करने से कतराते थे पर मुझे उसकी तल्ख ईमानदारी के खड़सपने को कुरेद कर उस नरमत्रदल इं सान तक पहुूँचनें में एक सुख सा षमलता था। जैसे लंबे लंबे घने पेड़ों को चीरकर सयश की रोर्शनी डकसी बौने से पेड़ पर अपनी रोर्शनी उड़ेल पाने का सुख भोग ले। ‘‘...तो मैम, जसिश सब हरा हरा देखने का मन है या भीतर घुसकर लोगों की जज़न्दषगयों को भी चखना चाहेगी आप? कोई भी टररस्ट यहाूँ के अस्पताल, िल नहीं देखना चाहता।‘‘ ‘‘अगर मेरे देखने से डकसी की मदद होती हो तो ज़रुर देखना चाहूँगी। डकसी की भी जज़न्दगी तमार्शा नहीं न होती डक झांका, देखा और डनकल ललये। और खेती बाड़ी है न यहाूँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय। अब यहाूँ के लोगों का ही मन है डक जजसके कारण यहाूँ औद्यौषगकरण नहीं हो सकता। क्योंडक, यहाूँ के लोग चाहते हैं डक मेघालय के औद्यौषगकरण से प्राकृषतक सौंदयश को, उनके रीषत ररवाज़ों, उनकी सांिृषतक धरोहर को लजसकी जड़ें िहीं | 12

क्षषत न पहुूँचे। इसी कारण इस राज्य को भारतीय संषवधान में षवर्शेि दजाश प्राि है। बोलो? है डक नहीं?‘‘ मेरे स्वर की तीक्ष्णता पर वह मुिरा त्रदया था। ‘‘आपने तो हमारा मन मोह ललया मैम। आपको दसरे देर्श में रहते हुये भी अपने देर्श के एक छोटे से राज्य के बारे में इिी जानकारी है जजिी यहाूँ रहनेवालों को नहीं। आपको तो मेघालय का चप्पा चप्पा त्रदखाना है। आप डकताब ऊपर से नहीं पढ़ती। उसके हर र्शब्द को गहती हैं आप।‘‘ उसके इस कथन पर राजन, वैभवी और राघव मुझे जचढ़ाने लगे थे और बाली का चेहरा र्शमश से गुलाबी हो गया था। ‘‘कबसे कर रहे हो यह, बाली?‘‘ ‘‘कबसे क्या कर रहा हूँ?‘‘ ‘‘यही टर गाईड का काम। और अगर इसमे अच्छा पैसा नहीं बनता तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ डक साथ में कुछ और काम भी ज़रुर करते होंगे।‘‘ ‘‘वो तो आप सही कह रही हैं। इस काम को करते कुछ दो साल हो रहे।‘‘ ‘‘केवल दो साल! उसके पहले क्या करते थे?‘‘ ‘‘अरे मैम जाने दीजजये। क्या कीजजयेगा जानकर? मेरी कहानी उबाऊ और उदासी भरी है। चवन्नी के लायक भी नहीं।‘‘ ‘‘अरे, हम चवन्नी तो देने वाले भी नहीं। हमे तो फ्री में सुनना है।‘‘ मैंने ठहाका लगाया था पर वह चुप रहा। ‘‘सुनाओं ना बाली। रािा कट जायेगा और उदासी कम करने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे बाूँटना।‘‘ वह त्रिर भी चुप था, जैसे डकसी पर्शोपेर्श में हो। ‘‘नहीं बताना चाहते बाली...?‘‘ लजसकी जड़ें िहीं | 13

‘‘आपने कोयले की खदानों के बारे में सुना है? रैट होल माइन्स...?‘‘ ‘‘ज़्यादा कुछ नहीं। क्या तुम पहले कोयले की खदानों में काम करते थे?‘‘ मेरी आूँ खे षवस्मय से चौड़ी हो गयी थी। मैं पहली बार डकसी खदान में काम करने वाले से षमली थी। कुछ त्रहचडकचाते हुये उसने जवाब त्रदया-‘‘खदानों से जुड़ा हुआ था मेरा काम। यहाूँ बहुत सारे लोगों की जज़िं दगी कोयले की खदानों पर डटकी है। खदानों के माललको से लेकर खदानों में काम करने वाले , त्रिर कोयला ढ़ोने वाले, उन्हें आसपास के रसायडनक प्ांट में लाने ले जाने वाले, कामगार जुटाने वाले। हम इसे काला सोना कहते हैं। यह कोयला असाम जाता है, आसपास के षबजली उत्पादन केंद्रों में जाता है। मगर जबसे रैट होल माइन पर सरकारी बैन लगा है तबसे सब खत्म।‘‘ मगर इस ‘सब‘ की लंबी कड़ी में वो कहाूँ त्रिट होता था और कोयले के खनन पर जजसे वह रैट होल मायडनिं ग कह रहा था, उस पर बैन क्यूँ लगा था? पछने पर बाली ने तो कुछ उिर नहीं त्रदया पर तब तक राघव ने अपना सैल िोन मेरे आगे कर त्रदया था। ‘‘ये लो, ये लेख पढ़ो।‘‘ ‘‘डकस बारे में है?‘‘ ‘‘इसमे तुम्हारे दसरे प्रश्न का उिर है।‘‘ लेख पड़कर मुझे एक नयी ही जानकारी षमली थी। ‘‘बाली, क्या तुम भी रैट होल मायडनिं ग करते थे? बाली ने कोई उिर नहीं त्रदया था। ‘‘जवाब दो ना, बाली। क्या तुम भी रैट होल मायडनिं ग करते थे?‘‘ ‘‘हांजी मैम!‘‘ लजसकी जड़ें िहीं | 14

मैं भौचक रह गयी थी। ‘‘क्या? सचमुच? तो, तो जो इस लेख में ललखा है वह सच है?‘‘ ‘‘मैं क्या जान डक क्या ललखा है? पढ़ा आपने है।‘‘ ‘‘यही डक इस तरह के खनन के ललये पहाड़ो की दीवारों में सुराख़ करते हैं और उसे अं दर की तरि को खोदते जाते हैं। और इन सुराखों के मुूँह क्या सचमुच तीन से चार िीट चौड़े होते हैं? इसमें यह भी ललखा है डक इस तरह की खदानों में बच्चों और छोटे कद के लोगों का इिेमाल होता है क्योंडक वो इस तरह के सुराखों में आसानी से घुस सकते हैं। बच्चों का? माने वो घुटनों के बल इस तरह की सुरग ं ों में जाते हैं, छे नी, हथौड़ी और तमाम औज़ारों के साथ।‘‘ ‘‘हांजी मैम। त्रिर अं दर घुसकर, पीठ के बल लेटकर वो कोयला, खदानों की छत और दीवारों से तोड़ते हैं। कोयला उनके पैरों के बीच िंसे डडब्बे या बाल्टी में इकट्ठा करते हैं। भर जाने पर कुछ लोग उसे खींचकर बाहर लेकर आते हैं जहाूँ क्रेन के र्शाफ्ट से जुड़े एक बड़े से डडब्बे में उसे डालते हैं। यत्रद क्रेन न हो तो लोग अपनी पीठ पर ढ़ोकर बाहर लाते हैं। मैंने भी डकया है ये सब। और कई जगह सिर से दो सौ िीट की खुदायी की जाती है। जजन पर बांस के खपच्चे से सीत्रढ़या बनाकर उतरते हैं।‘‘ ‘‘...और कोयला खत्म होने के बाद क्या करते हैं उस गड्ढे का? उसे यों ही छोड़ देते हैं? ताडक कोई भी जानवर षगर कर मर जाये या...‘‘ ‘‘...ये उतना बुरा नहीं है जजतना आप समझ रही है। बाहर से पहाड़ ज्यो का त्यों रहता है। इसके चलने से डकतने लोगों की जजिं दषगया चलती थी।‘‘ ‘‘क्या हो गया है तुम्हें बाली? डकतने लोग, सब लोग नहीं होते और वो भी बच्चे और जजस तरह के माहौल में और जैसे उन्हें काम करना लजसकी जड़ें िहीं | 15

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