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Story Transcript

कठोपिनषद

आचायर् पर्शांत

Copyright © Acharya Prashant All Rights Reserved. This book has been published with all efforts taken to make the material error-free after the consent of the author. However, the author and the publisher do not assume and hereby disclaim any liability to any party for any loss, damage, or disruption caused by errors or omissions, whether such errors or omissions result from negligence, accident, or any other cause. While every effort has been made to avoid any mistake or omission, this publication is being sold on the condition and understanding that neither the author nor the publishers or printers would be liable in any manner to any person by reason of any mistake or omission in this publication or for any action taken or omitted to be taken or advice rendered or accepted on the basis of this work. For any defect in printing or binding the publishers will be liable only to replace the defective copy by another copy of this work then available.

कर्म-सच ू ी आचायर् पर्शांत

v

1. निचकेता की पातर्ता और सत्य के पर्ित असीम पर्ेम

1

2. यमराज िकसके पर्तीक हैं? मौत का वास्तिवक अथर् क्या?

13

3. आत्मा का वास्तिवक अथर् और हमारे जीवन में महत्व क्या 21 है ? 4. परमात्मा की रज़ामंदी तम् ु हारी रज़ामंदी में है

26

5. असली साधक की क्या पहचान?

29

6. िजसे भरम, उसे भरम, िजसे परम, उसे परम

42

7. िकसपर आिशर्त हों?

55

8. मिु क्त िस्थितयों पर नहीं, तम् ु हारे चन ु ाव पर िनभर्र करती है 61 9. इिन्दर्यों को वश में कैसे करें ?

68

10. मक् ु त जीवन - न आसान, न किठन

85

11. अनभ ु वों के मध्य तम ु मक् ु त रहना

90

12. साथर्कता की तलाश मत करो बस िनरर् थकता पर कड़ी

108

नज़र रखो 13. अध्यात्म परम चालाकी है

119

14. जीवन का उद्दे श्य क्या है ?

124

15. मन शैतान की ओर जा रहा है या सन्त की ओर?

133

16. गुरु सीढ़ी है

140

17. सािक्षत्व का व्यवहािरक अथर् क्या है ?

144

18. कौनसे डर शभ ु होते हैं?

148

19. चौबीसों घण्टे ध्यान में रहने की आसान िविध

164

• iii •

कर्म-सच ू ी 20. गुरु से कौन से पर्श्न पछ ू ने चािहए? या मौन रह जाना ही

170

उिचत है ? 21. िसद्धांत नहीं, व्यवहार; ज़ब ु ान नहीं, िज़न्दगी

175

पर्शांतअद्वैत संस्था

179

आचायर् पर्शांत की पस् ु तकें (िहंदी व अंगर्ेज़ी)

183

आचायर् पर्शांत से िमलने के माध्यम

185

• iv •

आचायर् पर्शांत मनष्ु य को ज्ञात सबसे पर्ाचीन शास्तर्ों में वेद शीषर् पर आते हैं और वेदांत वैिदक सार के परम िशखर हैं।

आज दिु नया ऐसी समस्याओं से जझ ू रही है जो इितहास में पहले कभी नहीं दे खी गईं। अतीत में हमारी समस्याएँ अक्सर बाहरी

पिरिस्थितयों के कारण होती थीं, जैसे िक भख ु मरी, गरीबी, अिशक्षा, पर्ौद्योिगकी का अभाव, स्वास्थ्य संबंिधत समस्याएँ आिद। संक्षेप में

कहें तो चन ु ौती बाहरी थी, दश्ु मन – चाहे वो सक्ष् ू म जीव के रूप में हो या संसाधनों की कमी के रूप में – बाहर था। सीधे कहें तो मनष्ु य अपनी बाहरी पिरिस्थितयों के दबाव में संघषर्रत रहता था।

परन्तु बीते सौ वषोर्ं में बहुत से बदलाव हुए हैं। मनष्ु य के संघषोर्ं ने इस सदी में एक बहुत ही अलग और जिटल रूप ले िलए हैं। पदाथर् को िकस तरह से अपने उपभोग के िलए इस्तेमाल करना है , वह आज हम जानते हैं; परमाणु और बर्ह्मांड के रहस्य मनष्ु य के अथक अनस ु ंधान के आगे ज़्यादा िछपे नहीं रह गए हैं। आज गरीबी, अिशक्षा और बीमारी

अब वैसी अजेय समस्या नहीं रही जैसे पहले पर्तीत हुआ करती थी। इसी

के चलते अब हमारी महत्वाकाँक्षा दस ू रे गर्हों में बसने और यहाँ तक िक मत्ृ यु को मात दे ने की हो गई है ।

वतर्मान काल मनष्ु य के इितहास में सबसे अच्छा होना चािहए था।

इससे कहीं दरू , हम अपने आप को आंतिरक रं गमंच में चन ु ौती के एक बहुत ही अलग आयाम पर पाते हैं। बाहरी दिु नया में लगभग हर चीज़ पर िवजय पर्ाप्त करने के बाद मनष्ु य पा रहा है िक वह आज पहले से कहीं ज़्यादा गुलाम है । और यह एक अपमानजनक गुलामी है – सभी पर

वचर्स्व जमाना और िफ़र यह पाना िक भीतर से एक अज्ञात उत्पीड़क के बहुत बड़े गुलाम हैं। मनष्ु य भले ही पर्कृित पर अपना िनयंतर्ण बनाने में सफल हो गया

हो लेिकन वह स्वयं अपने आंतिरक िवनाशकारी केंदर् द्वारा िनयंितर्त है , िजसका उसे बहुत कम ज्ञान है । इन दोनों के साथ होने का मतलब है िक

•v•

आचायर् पर्शांत

मनष्ु य की पर्कृित का नाश करने की क्षमता असीिमत और िनिवर्वाद है । मनष्ु य के पास केवल एक ही आंतिरक शासक है : इच्छा, उपभोग करने

और अिधक-से-अिधक सख ु का अनभ ु व करने की अनंत इच्छा। मनष्ु य सख ु का अनभ ु व तो करता है पर िफ़र भी स्वयं को अतप्ृ त ही पाता है ।

इस संदभर् में आध्याित्मकता के शद् ु ध रूप में वेदान्त आज पहले से

कहीं अिधक महत्वपण ू र् हो जाता है । वेदांत पछ ू ता है : भीतर वाला कौन

है ? उसका स्वभाव क्या है ? वह क्या चाहता है ? क्या उसकी इच्छाओं की पिू तर् से उसको संतोष िमलेगा?

आज मानव जाित िजन पिरिस्थितयों में खद ु को पाती है , उसकी

पर्ितिकर्या के रूप में आचायर् पर्शांत वेदांत के सार को आज दिु नया के सामने लाने का महत्वपण ू र् कायर् कर रहे हैं। उनका उद्दे श्य वेदान्त

के शद् ु ध सार को सभी तक पहँुचाना और वेदान्त द्वारा आज की समस्याओं को हल करना है । वतर्मान की ये समस्याएँ मनष्ु य के स्वयं के पर्ित अज्ञान से उत्पन्न हुई हैं, इसिलए उन्हें केवल सच्चे आत्म-ज्ञान से ही हल िकया जा सकता है ।

आचायर् पर्शांत ने दो तरीकों से वेदांत को जन-सामान्य तक लाने का

पर्यास िकया है : पहला, उन्होंने कई उपिनषदों और गीताओं पर सतर् िलए

हैं और उनकी व्यापक िटप्पिणयाँ वीिडयो शर्ंख ु तकों के रूप ृ ला और पस् में उपलब्ध हैं (िलंक: solutions.acharyaprashant.org)। दस ू रा, वे

लोगों की दै िनक समस्याओं को संबोिधत करते हुए उन्हें वेदांत के पर्काश

में सल ु झाकर उनका मागर्दशर्न करते हैं। उनके सोशल मीिडया चैनल्स ऐसे हज़ारों सतर्ों के पर्काशन के िलए समिपर्त हैं।

सं ििक्षप्त क्षप्त जीवनी पर्शांत ितर्पाठी का जन्म 1978 को महािशवराितर् के पावन अवसर पर

उत्तर पर्दे श के आगरा शहर में हुआ था। वे तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं, उनके िपता एक पर्ांतीय पर्शासिनक अिधकारी थे और माता एक गिृ हणी। उनका बचपन ज़्यादातर उत्तर पर्दे श में ही बीता।

• vi •

आचायर् पर्शांत

माता-िपता और िशक्षकों ने उन्हें एक ऐसा बालक पाया जो कभी

शरारत करता तो कभी अचानक गहन िचंतन में डूब जाता। दोस्त भी उन्हें एक अपिरमेय स्वभाव वाला याद करते हैं, अक्सर यह सिु निश्चत नहीं होता था िक वे मज़ाक कर रहे हैं या गंभीर हैं। एक पर्ितभाशाली छातर्

होने के कारण वे लगातार अपनी कक्षा में शीषर् पायदान पर रहे और एक छातर् के िलए उच्चतम संभव पर्शंसा और परु स्कार पर्ाप्त िकए। उनकी

माताजी को याद है िक कैसे उन्हें अपने बच्चे के बेहतर शैिक्षक पर्दशर्न के कारण कई बार ‘मदर क्वीन’ की उपािध से सम्मािनत िकया जाता

था। िशक्षक कहते हैं िक उन्होंने पहले कभी ऐसा छातर् नहीं दे खा था जो

मानिवकी में उतना ही पर्ितभाशाली हो िजतना िवज्ञान में , जो भाषाओं में उतना ही िनपण ु हो िजतना गिणत में और अंगर्ेजी में उतना ही कुशल िजतना िहंदी में । राज्य के तत्कालीन राज्यपाल ने उन्हें बोडर् परीक्षाओं में

एक नया मानदं ड स्थािपत करने और एनटीएसई स्कॉलर होने के नाते एक सावर्जिनक समारोह में सम्मािनत िकया था।

वे पाँच साल की उमर् से ही एक िजज्ञासु पाठक थे। उनके िपता

के व्यापक गह ु तकालय में उपिनषद् जैसे आध्याित्मक गर्ंथों सिहत ृ पस्

दिु नया के कुछ बेहतरीन सािहत्य शािमल थे। लंबे समय तक वे घर के िकसी शांत कोने में बैठ जाते और उन िकताबों में डूबे रहते जो केवल पिरपक्व परु ु ष ही समझ सकते थे। पढ़ने में खो जाने के कारण वे कई बार भोजन िकए िबना ही सो जाते। दस साल का होने से पहले ही उन्होंने

िपता के पस् ु तक-संगर्ह से लगभग सब कुछ पढ़ िलया था तथा और अिधक की माँग कर रहे थे। उनमें गहराई के शरु ु आती लक्षण तब पर्कट

हुए जब उन्होंने ग्यारह वषर् की उमर् में किवताएँ रचनी शरू ु कीं। उनकी किवताएँ रहस्यमयी रं गों से ओत-पर्ोत थीं और ऐसे पर्श्न पछ ू रही थीं िजन्हें अिधकांश वयस्क भी नहीं समझ पाते।

पंदर्ह वषर् की आयु में , कई वषोर्ं तक लखनऊ शहर में रहने के बाद,

उन्होंने अपने िपता की स्थानांतरणीय नौकरी के कारण स्वयं को िदल्ली के पास गािज़याबाद में पाया। बढ़ती उमर् और शहर के पिरवतर्न ने उस पर्िकर्या को गित दी जो पहले से ही गहरी जड़ें जमा चक ु ी थी। वे

रात में जागने लगे और पढ़ाई के अलावा अक्सर रात के आसमान को

• vii •

आचायर् पर्शांत

चप ु चाप दे खा करते। उनकी किवताएँ गहराई में उतरती गईं; उनमें से

बहुत सी रात और चाँद को समिपर्त थीं। उनका ध्यान िशक्षािवदों के बजाय रहस्यवािदयों की ओर तेजी से बढ़ने लगा। िफ़र भी उन्होंने शैिक्षक रूप से अच्छा पर्दशर्न करना जारी रखा और

पर्ितिष्ठत भारतीय पर्ौद्योिगकी संस्थान, िदल्ली में पर्वेश पर्ाप्त िकया। आईआईटी में उनका समय दिु नया को समझने और छातर् राजनीित

में गहरी भागीदारी के बीच बीता। वे राष्टर्व्यापी कायर्कर्मों और

पर्ितयोिगताओं में एक उभरते हुए िडबेटर और अिभनेता के रूप में सामने आए। वे पिरसर में एक जीवंत व्यिक्त, एक भरोसेमंद छातर्-नेता और मंच पर एक भावपण ू र् कलाकार थे। उन्होंने लगातार राष्टर्ीय स्तर की वाद-िववाद और भाषण पर्ितयोिगताएँ जीतीं और उत्कृष्ट नाटकों में िनदेर् शन और अिभनय के िलए परु स्कार भी पर्ाप्त िकए। एक बार

उन्हें एक ऐसे नाटक में अपने पर्दशर्न के िलए ‘सवर्शर्ेष्ठ अिभनेता’ का परु स्कार िमला िजसमें उन्होंने न तो कोई शब्द बोला था और न ही कोई कदम बढ़ाया था।

वे लंबे समय से यह महसस ू कर रहे थे िक िजस नजर से अिधकांश

लोग दिु नया को दे खते हैं, िजस तरह से हमारे िदमाग ढरार्बद्ध हो गए

हैं, उसमें मल ू भत ू रूप से कुछ कमी है , और इस कारण हमारे आपसी सम्बन्धों, वैिश्वक संस्थाओं की संरचनाओं, समाज के कायर् करने के तरीके, मल ू रूप से कहें तो हमारे जीने के ढं ग में ही िवकृित आ गई है । उन्होंने यह दे खना शरू ु कर िदया था िक मानव पीड़ा के मल ू में स्पष्टता व समझ का अभाव है । वे मनष्ु य की अज्ञानता, जिनत हीनता, गरीबी

की समस्या, उपभोग की बरु ाई, मनष्ु य, जानवरों और पयार्वरण के पर्ित

िहंसा और स्वाथर् व संकीणर् िवचारधारा पर आधािरत शोषण से बहुत व्यिथत थे। उनका परू ा अिस्तत्व ही इस िवस्तीणर् पीड़ा को चन ु ौती दे ने के िलए तैयार था, और एक यव ु ा के तौर पर उन्हें भारतीय िसिवल सेवा या पर्बंधन की राह चन ु ना एक सही कदम लगा।

उन्होंने उसी वषर् भारतीय िसिवल सेवा और भारतीय पर्बंधन

संस्थान (आईआईएम), अहमदाबाद में पर्वेश पर्ाप्त िकया। पर्शासिनक

सेवाओं के आवंटन में उन्हें आईएएस का इिच्छत पद न िमल सका, साथ

• viii •

आचायर् पर्शांत

ही तब तक यह भी िदखने लगा था िक पर्शासन में रहते हुए कर्ांितकारी पिरवतर्न नहीं लाया जा सकता, उन्होंने आईआईएम जाने का चन ु ाव िकया।

आईआईएम में उनके दो साल शैक्षिणक दृिष्ट से काफी समद् ृ ध

थे। वे ऐसे नहीं थे जो सदा गर्ेड और प्लेसमें ट की होड़ में ही लगे रहते, जैसा िक इन पर्ितिष्ठत संस्थानों में सामान्यतयः दे खने को िमलता है ।

वे िनयिमत रूप से गाँधी आशर्म के पास की एक झग्ु गी में संचािलत एक गैर-सरकारी संगठन में बच्चों को पढ़ाते, साथ ही, इस संगठन के खचोर्ं को दे खने के िलए स्नातकों को गिणत भी पढ़ाया करते थे। इसके अलावा, मानवीय अज्ञानता पर उनका गुस्सा िथएटर के माध्यम से

आकर लेता था। उन्होंने ’खामोश! अदालत जारी है ‘, ’गैंडा‘, ’पगला घोड़ा‘

और ’16 जनवरी की रात‘ जैसे नाटकों में अिभनय के साथ-साथ इनका

िनदेर् शन भी िकया। एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें एक ही समय पर दो अलग-अलग नाटकों का िनदेर् शन एक साथ करना पड़ा। ये नाटक आस-पास और दरू -दराज से आए दशर्कों से खचाखच भरे आईआईएम

के सभागार में हुआ करते थे। पिरसर के लाभ-केंिदर्त और स्वाथर्-पर्ेिरत माहौल में उन्होंने खद ु को एक बाहरी व्यिक्त पाया। इन अिस्तत्ववादी

और िवदर्ोही नाटकों ने उन्हें अपनी पीड़ा को अिभव्यिक्त दे ने में मदद की और आगे के बड़े मंचों के िलए तैयार िकया।

अगले कुछ वषर्, जैसा िक वे अपने शब्दों में कहतें हैं, िनजर्नता में व्यतीत हुए। इस अविध को वे एक िवशेष द:ु ख, तड़प और तलाश के रूप में विणर्त करते हैं। शांित की तलाश में वे कॉरपोरे ट जगत की नौकिरयों

और उद्योगों को बदलते रहे । इसी तलाश में वे समय िनकालकर अक्सर

शहर और काम से भी दरू चले जाया करते थे। उन्हें धीरे -धीरे यह बात

स्पष्ट होने लगी थी िक वे क्या करना चाहतें हैं और वह जो उनके माध्यम से व्यक्त होने के िलए पक ु ार रहा था, वह िकसी पारं पिरक मागर् से पर्स्फुिटत नहीं हो सकता। इस िदशा में उनका अध्ययन और संकल्प जोर पकड़ने लगा, और उन्होंने बोधगर्ंथों और आध्याित्मक

सािहत्य के आधार पर स्नातकोत्तरों और अनभ े रों के िलए एक ु वी पेशव नेतत्ृ व पाठ्यकर्म तैयार िकया। पाठ्यकर्म कुछ पर्ितिष्ठत संस्थानों में • ix •

आचायर् पर्शांत

शरू ु िकया गया और वे कभी-कभी अपनी उमर् से बड़े छातर्ों को भी पढ़ाते। कोसर् सफल रहा और उनके िलए रास्ता साफ होने लगा।

अट्ठाईस वषर् की आयु में उन्होंने कॉरपोरे ट जगत को अलिवदा

कह िदया और ’इंटेलीजेंट िस्पिरचअ ु िलटी (पर्बद् ु ध आध्याित्मकता) के माध्यम से एक नई मानवता के िनमार्ण‘ के िलए ’अद्वैत लाइफ-

एजक ु े शन' की स्थापना की। पर्योजन था मानव चेतना में गहरा पिरवतर्न लाना। उनके पर्ारं िभक शर्ोता थे कॉलेज के छातर् िजन्हें आत्म-िवकास

पाठ्यकर्म का लाभ िमला। पर्ाचीन सािहत्य की सीख को सरल शब्दों और मनोहर गितिविधयों के रूप में छातर्ों तक पहँुचाया गया।

वैसे तो अद्वैत का काम अद्भत ु था और सभी ने इसकी सराहना

भी की, पर दस ु ौितयों का सामना भी करना पड़ा। ू री ओर बड़ी चन सामािजक और शैक्षिणक व्यवस्थाओं ने छातर्ों को केवल परीक्षाओं में

उत्तीणर् होने और नौकरी की सरु क्षा हे तु िडगर्ी पर्ाप्त करने के िलए तैयार िकया था। आत्म-िवकास की िशक्षा, मन के पार की िशक्षा, जीवन-िशक्षा

जो अद्वैत छातर्ों के िलए लाने का पर्यास कर रहा था, वह इतनी नई और इतनी अलग थी िक अक्सर अद्वैत के पाठ्यकर्मों के पर्ित उनका रवैया उदासीनता से भरा रहता और कभी-कभी तो आंतिरक िवरोध

का भी सामना करना पड़ता। अक्सर कॉलेजों का पर्बंधन िनकाय और छातर्ों के माता-िपता भी अद्वैत के इस साहिसक पर्यास की महत्ता और िवशालता को समझने में परू ी तरह िवफल हो जाते थे। हालाँिक इन तमाम मिु श्कलों के बीच भी अद्वैत ने अच्छा पर्दशर्न करना जारी रखा।

िमशन का िवस्तार जारी रहा और आज भी यह हजारों छातर्ों को स्पशर् कर रहा है और उनका जीवन बदल रहा है ।

लगभग 30 वषर् की आयु में आचायर् पर्शांत ने अपने संवाद (बोध-

सतर्) में बोलना शरू ु िकया। ये सतर् महत्वपण ू र् जीवन-मद् ु दों पर खल ु ी

चचार् के रूप में हुआ करते थे। जल्द ही यह स्पष्ट होने लगा िक ये सतर् गहन ध्यानपण ू र् थे, मन को एक अनोखी शांित िदलाते थे और मानस पर चमत्कािरक रूप से उपचारात्मक पर्भाव डालते थे। आचायर् पर्शांत के शब्दों और वीिडयो को िरकॉडर् कर इंटरनेट पर उपलब्ध कराया जाने

लगा। और जल्द ही उनके लेखन और उनके व्याख्यानों के पर्ितलेखन

•x•

आचायर् पर्शांत

को पर्कािशत करने के िलए एक वेबसाइट भी तैयार की गई।

लगभग उसी समय उन्होंने आत्म-जागरुकता िशिवरों का

आयोजन करना शरू ु कर िदया। वे सच्चे साधकों को लगभग 30 लोगों

के समह ू में एक सप्ताह की अविध के िलए अपने साथ िहमालय ले जाते। ये िशिवर गहन पिरवतर्नकारी घटनाएँ बन गए और िशिवरों की आविृ त्त में भी बढ़ोत्तरी हुई। अपेक्षाकृत कम समय में अपार स्पष्टता और शांित पर्दान करते हुए सैकड़ों िशिवर अब तक आयोिजत िकए जा चक ु े हैं।

आचायर् पर्शांत का अिद्वतीय आध्याित्मक सािहत्य मानव जाित

द्वारा ज्ञात उच्चतम शब्दों के बराबर है । उनकी पर्ितभा वेदांत पर

आधािरत है । अपनी व्यापक वेदांितक नींव के साथ उन्हें अतीत की िविभन्न आध्याित्मक धाराओं के संगम के रूप में दे खा जाता है , िफ़र भी वे िकसी परं परा से सीिमत नहीं हैं। वे मन पर जोरदार पर्हार करते हैं और

साथ ही उसे पर्ेम और करुणा से शांत भी करते हैं। एक स्पष्टता है जो उनकी उपिस्थित से िनकलती है और उनके होने से एक सक ु ू न िमलता है । उनकी शैली स्पष्टवादी, शद् ु ध, रहस्यमय और करुणामय है । उनके सीधे और सरल सवालों के सामने अहं कार और मन के झूठ को छुपने की कहीं जगह नहीं िमलती। वे अपने शर्ोताओं के साथ खेलते हैं – उन्हें

ध्यानपण ू र् मौन की गहराई तक ले जाते हैं, हँसते हैं, मज़ाक करते हैं और

समझाते हैं। एक तरफ तो वे काफी करीब पर्तीत होते हैं, वहीं दस ू री तरफ यह भी िदखता है िक उनके माध्यम से आने वाले शब्दों के सर्ोत कहीं और ही हैं।

इंटरनेट पर उनके द्वारा अपलोड िकए गए 10,000 से अिधक

वीिडयोज़ और लेख मल् ू यवान आध्याित्मक संकलन हैं और सभी के िलए िनःशल् ु क उपलब्ध हैं। यह संकलन इंटरनेट पर दिु नया का सबसे

बड़ा आध्याित्मक सामगर्ी का भंडार है , िजनमें से 50 लाख से अिधक िमनट पर्ितिदन दे खे जाते हैं। वे आईआईटी, आईआईएम और कई अन्य पर्ितिष्ठत संस्थानों के साथ-साथ TED जैसे प्लेटफामोर्ं पर िनयिमत

वक्ता रहे हैं। अभी हाल ही में पें गुइन पिब्लशर द्वारा पर्कािशत उनकी पस् ु तक ‘कमर्’ राष्टर्ीय बेस्टसेलर रही। िपर्ंट मीिडया में उनके लेख राष्टर्ीय

दै िनक समाचार पतर्ों में िनयिमत रूप से पर्कािशत होते रहते हैं। उनके

• xi •

आचायर् पर्शांत

पर्वचन और साक्षात्कार राष्टर्ीय टीवी चैनलों के माध्यम से भी पर्सािरत

िकए जाते हैं। आज उनके आंदोलन ने करोड़ों लोगों के जीवन को पर्भािवत िकया है । लोगों के साथ अपने सीधे संपकर् और िविभन्न

इंटरनेट-आधािरत चैनलों के माध्यम से सभी के िलए स्पष्टता, शांित और पर्ेम लाने का उनका यह अथक पर्यास िनरं तर जारी है ।

• xii •

1 निचकेता की पातर्ता और सत्य के पर्ित असीम पर्ेम आचाय आचायर्र् पर्शांत: ये कभी अतीत में घटा हुआ कोई परु ाना िकस्सा नहीं है । उपिनषद् कभी कोई परु ाना िकस्सा बताते ही नहीं। िकस्से जो परु ाने पड़ जाएँ, उनका मल् ू य दो कौड़ी का। उपिनषद् आपसे जो कह रहे हैं, वो कभी

घटा नहीं था; वो सतत घिटत हो रहा है । निचकेता आज भी है , अभी भी है , सदृश है , पर्त्यक्ष है । उद्दालक भी हैं, यमराज भी हैं, दान दे ने की, यश लेने की घटना भी आज भी है ।

परू े पर्करण को ऐसे दे खा जैसे परु ाना है , जैसे िकसी और का है तो चक ू

जाएँगे। आरं भ में ही इन दो भल ू ों से सावधान होना आवश्यक है – न बात िकसी और की है , न बात कभी और की है ; बात आज की है और हमारी

है । ये हम अपनी बात कर रहे हैं। जो कुछ वहाँ पर घट रहा है , हमारे साथ रोज़ घटता है ।

अब ज़रा आित्मक रूिच की ज़मीन तैयार हुई। अन्यथा तो िकस्से के

साथ और उपिनषद् के साथ परायापन रह जाता है । आप उसे यँू पढ़ते हैं

जैसे सद ु रू िकसी अन्य अंतिरक्ष से आता हो। आप उसमें िफर खो सकते हैं, लेिकन शीघर् ही आपको वापस अपने जीवन में आना पड़ेगा और आप •1•

कठोपिनषद

पाएँगे िक आपके जीवन का पढ़े हुए से कोई संबंध कभी बना नहीं था। अतः जो पढ़ा, वो जीवन में उपयक् ु त न हो पाया, जो पढ़ा, वो बौिद्धक कोष में तो चला गया पर जीवन को धन्य न कर पाया, जीवन की दिरदर्ता न हटा पाया।

वास्तव में आप िकतना समझ पाएँ हैं, इसका मापदं ड भी यही है िक

िदन-पर्ितिदन की अपनी चयार् से, अपने आवेगों से, मनोभावों से िकतना

िमलान कर पाते हैं आप निचकेता की यातर्ा का। पण ू र् िमलान हो गया तो पण ू र् ज्ञान भी हो गया। बात अगर निचकेता की रह गई तो निचकेता जाने, बात अगर आपकी हो गई, िफर जीवन में रस उतरे गा।

पातर्ता क्या है ? पर्थम वल्ली और आगे भी ज्यों निचकेता की पातर्ता

का ही तो वणर्न है । पातर्ता वस्तु क्या है , आप समझ जाएँगे अगर आपने

निचकेता को समझ िलया। िपता हैं, गायें दान में दे रहे हैं, और िपता भी िवख्यात ऋिष, कोई साधारण जन नहीं, नामवर। कहने को निचकेता ये

भी कह सकता था िक उद्दालक जैसे पर्ख्यात ऋिष जो कर रहे हैं, वही

ठीक होगा। और पर्ख्यात ऋिष ही नहीं हैं, िपता हैं। पर जो उसे स्पष्ट

िदखता है , उसे वो संबंध, िरश्ते के पर्भाव तले नहीं आने दे ता। वो बहुत महत्व ही नहीं दे ता इस बात को िक सामने जो है , उससे मेरा भौितक िरश्ता क्या है , संबंध क्या है ।

उपिनषद् आरम्भ ही होता है जब निचकेता कहता है , "ये गायें

जराजीणर्, मत्ृ यु के इतनी िनकट हैं िक अब पानी न िपएँ, दाना न खाएँ (तो मर जाएँगी), दध ू इत्यािद का तो सवाल ही नहीं, इन्हें दान में िदया

जा रहा है ।" और मन में उसके शंका भी उठती है , आशंका भी उठती है । शंका ये िक क्या ऐसा दान, दान है ? और आशंका ये िक ऐसा दान दे करके मेरे िपता का कहीं अिहत न हो जाए। ये तो पाप है ।

जाता है सीधे िपता के पास और एक बार नहीं, कई बार पछ ू ता है , "िपताजी, अगर यही दान है तो मझ े िकसको दोगे आप?" ये पर्श्न ु साधारण नहीं। कहने को तो बच्चे की वाणी है , अभी यव ु ा भी नहीं हुआ

है निचकेता, बालक। पर सत्य के पर्ित इतना पर्ेम होता कहाँ है ? न पर्ेम होता है , न साहस होता है , और दोनों िमली हुई बातें हैं, जहाँ पर्ेम है , वहीं साहस है ।

•2•

आचायर् पर्शांत

निचकेता कह रहा है , “अंतर नहीं पड़ता िक सामने कौन है । सत्य तो

सत्य है , उससे िडगाया नहीं जा सकता। तथ्य से िवमख ु नहीं हुआ जा सकता और तथ्य अभी ये है िक जो सामने हो रहा है , वो दान समान तो नहीं लगता।” और िपता के पर्ित स्नेह और शभ ु ेच्छा भी ज़ािहर ही है । “िपता, ये जो तम ु करते हो, ये तम् ु हें फलेगा नहीं।”

कदम-कदम पर पातर्ता का पर्दशर्न है । हमसे कहा जा रहा है िक जो

मन पव ू ार्गर्हगर्स्त होता है , उस मन के िलए नहीं है सत्य, उस मन के िलए

नहीं है मत्ृ यु से साक्षात्कार और मत्ृ यु पर िवजय। जो मन व्यिक्तयों को पर्धानता दे ता हो सत्य पर, वो भल ू ही जाए िक सत्य इत्यािद कुछ होता भी है । पातर्ता जाँिचएगा। एक आम जन के सामने यिद चन ु ाव आए िक िपता को चन ु लो, पिरवार को चन ु लो या िफर सच्चाई को, तो आप जानते ही हैं िक चन ु ाव िकस िदशा होगा। दे ख रहे हैं न, हम अपनी पातर्ता को कैसे मिलन करते हैं, गँवा दे ते हैं।

जाना है उपिनषद् के पास, जाना है गरु ु के पास, जाना है तमाम ऋिषयों के पास, और दोस्तों का बल ु ावा आ गया, िरश्ते बचाने हैं, और दोस्त भारी पड़ जाते हैं। और निचकेता तो बालक है , तमाम पर्कार से

िपता पर िनभर्र, उसके बाद भी वो कहता है , “न, िपता की अपेक्षा सत्य।”

हम ऐसा कहाँ कह पाते हैं? कृष्ण बल ु ाते रह जाएँ, बद् ु ध बल ु ाते रह जाएँ, जीज़स बल ु ाते रह जाएँ, हमारे िलए कुछ और पर्ाथिमक हो जाता है । कबीर बल ु ाते रह जाएँ, कुछ और ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है । आप ख़द ु ही बता दे ते हो िक िकतने पातर् हो, और िजतने पातर् हो,

उससे ज़्यादा िमलेगा नहीं िफर। बात मस् ु कुराने की भी है और मस् ु कुराने

की नहीं भी है । ताित्वक दृिष्ट से दे खें तो बड़ा चट ु कुला है ये, िक तम ु क्या छोड़कर िकसको चन ु रहे हो। पर मानवता में व्याप्त दःु ख की दृिष्ट से दे खें, हमारे तमाम संतापों और उलझनों की दृिष्ट से दे खें तो कहाँ

मस् ु कुराएँगे? इससे बड़ी तर्ासदी नहीं हो सकती िक सत्य बल ु ाता हो और आपको कुछ और ज़्यादा ज़रूरी लग जाए।

निचकेता को जो िमलता है , वो बाद की बात है । निचकेता पाने योग्य

है , ये पहली बात है । आप पाने योग्य हो, तो िफर जो िमलना है , वो तो िमलेगा ही। उसका क्या वणर्न? उसकी बात क्या? वो तो तय है । उसमें •3•

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