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परछाईया - कुछ गुज़रे पलो की KUCH GUZRE PALO KI

संध्या सक्सेना

Copyright © Sandhya Saxena All Rights Reserved. This book has been published with all efforts taken to make the material error-free after the consent of the author. However, the author and the publisher do not assume and hereby disclaim any liability to any party for any loss, damage, or disruption caused by errors or omissions, whether such errors or omissions result from negligence, accident, or any other cause. While every effort has been made to avoid any mistake or omission, this publication is being sold on the condition and understanding that neither the author nor the publishers or printers would be liable in any manner to any person by reason of any mistake or omission in this publication or for any action taken or omitted to be taken or advice rendered or accepted on the basis of this work. For any defect in printing or binding the publishers will be liable only to replace the defective copy by another copy of this work then available.

िजस तरह के माहौल में मेरा बचपन, अल्हड़पन और अब तक का जीवन बीता है उसमें अनेक उतार-चढ़ाव, ब॓धन और वजर्नाएं रही हैं अिधकांश िनदे श तरह न करो वाले होते थे, िकन्तु करना क्या और कैसे चािहए इन सब का िनतांत अभाव था। समाज की सजग िनगाहें सदै व बनी रहीं। तथािप इन हालात में भी मैं भाग्यवान हंू िक मझ ु े कुछ लोग इस तरह के भी िमले िजन्होंने मेरी परछाइयों को नहीं मेरे

अिस्तत्वा को मेरी पहचान माना ! अपनी भावभीनी किवताएं मैं इन सभी को समिपर्त करती हंू ।

इस सच ू ी में पहला नाम मेरे पित सन ु ील का है िजनके साथ

सहयोग व बंधनमक् ु त प्यार ने मेरी सारी अिभलाषाएं परू ी कीं। मेरे सहभागी बने रहने का हािदर् क आभार।

ये िकताब मेरी बड़ी बेटी नेहा के िलए िजस पर मझ ु े गवर् है हालांिक उसे मेरा पर्ितिबंब कहा जाता है िफर भी उसका व्यिक्तत्व दृढ़ है । मेरी छोटी बेटी मानवी इस समपर्ण की अिधकारी है । उसी ने इस संकलन की रूपरे खा बनाने और इसे अपनी कल्पनाशील शिक्त से बहुत अच्छी तरह से पर्स्तत ु करने में अथक पर्यास

िकए हैं । यह और भी सराहनीय है िक इस िकताब में उसकी िलखी किवताये भी शािमल है । मैं अपने पिरवार की भी आभारी हंू । अपनी बड़ी बहन मीरा और मंजू का शभ ु ाशीष सदा अनभ ु व िकया है । मंजू की मधरु यादें मेरा संबल हैं। परन्तु मेरे भाई संजय और भाभी अनीता के अथक पर्यासों का पिरणाम मेरा यह काव्य संगर्ह है । इसके पर्कािशत होने में उनका सहयोग अिवस्मरणीय है ।

इसमें मेरे दोनों दामादों िवश्वदीप और आिदत्य के सझ ु ाव

मल् ू यवान हैं। इन दोनों के आने से मेरा पिरवार पण ू र् हुआ है । इन सबके बाद अपने पिरवार के नन्हे सदस्यों रूहानी और कबीर को मैं हृदय से आशीवार्द दे ती हंू । संभव है िकसी िदन वे इस संकलन को पढ़ कर अपनी नानी का एक अलग रूप दे खकर अचंिभत हों। - संध्या ये मेरी अम्मा के िलए िजनके ठहाके मझ ु े बहुत याद आते है ।

मेरे पापा - माँ और दीदी-जीजू के िलए, इन लोगो के िबना मेरा अिस्तत्व अधरू ा है ।

ये मेरे ‘बेस्ट हाफ’ - आिदत्य के िलए जो पित होने से पहले मेरा िमतर् है । मैं इस प्लेटफामर् के ज़िरये, अपनी िज़न्दगी के दो बहुत एहम और िपर्ये परु ु षो को अपना धन्यवाद करना चाहती हु,

पापा - िवजय कुमार वत्स और मेरा भाई अंकुर, जो िमले तो

मझ ु े मेरे ससस ु रल से है लेिकन ये उदाहरण है की इस दिु नया में

बेटी समझने वाले ससरु और माँ के सामान इज़्ज़त और स्नेह दे ने वाले दे वर भी है ।

मेरी बेटी रूहानी और भांजे कबीर के िलए। मैं अपनी कुछ किवताये इस िकताब में इन सब को समिपर्त

करती हु, इसका सबसे बड़ा शर्ेय मैं अपने भाई को दे ना चाहती

हु िजसने बचपन से लेके आज तक मझ ु े समझा और समझाया

- मेरा हाथ पकड़कर मझ ु े मिु श्कलों से िनकाला और मैं अपनी नावेल परू ी कर सकू, भाभी - आकृित के साथ िमलकर मझ ु े पर्ोत्सािहत िकया।

अनु भैया - ये आपके िलए। - मानवी

कर्म-सच ू ी 1. सेवा िनविृ त

1

2. िरश्ता िदल ् का

3

3. अम्मा

5

4. समय

7

5. अनभ ु िु त

9

6. अकेलापन

11

7. काश ्

12

8. स्तर्ी व्यथा

14

9. अन्मोल ् पल ्

16

10. जीवन ् का सच

18

11. िवराम

20

12. शब्दों का तापमान

21

13. अजन्मी व्यथा

23

14. बचपन का वो पहला प्यार

25

15. िज़कर्

26

16. बस अब..

28

17. वो खत..

30

18. सज़ा पर िवराम

31

19. मेरी कहानी में ..

32

• vii •

1. सेवा िनविृ त सेवा िनविृ त और जीवन से िनविृ त दो घटनाओं का एक ही पहलू हैं

दोनो ही का अंत िबछोह हैं

सेवा िनविृ त में हम खल ु ी आँखो से दिु नया का चलन दे खते हैँ

कल तक िजनके बीच हमारा औिचत्य सवोर्पिर था

उसी महिफ़ल में अपना पिरचय

ढंू टते है सेवािनविृ त एक िवशेष आयोजन है

जो िक जीवन भर की

कमाई का स्विणर्म पल है

उस ् पल जो भी चेहरे आपके साथ होते हैं समय की गतर् में

धिू मल हो जाते हैँ • 1 •

परछाईया - कुछ गुज़रे पलो की

उन पलो को याद करके कभी उदासी आती

भी हैं तभी आगे बढ़ने की पर्ेरणा

नया सम्बल दे ती हैं

िकन्तु जीवन िनविृ त के उपरांत ्

हम इन पर्ितिकर्याओं से अनिभज्ञ रहते हैं

उस समय शायद खल ु ी आँखो के सपने

बंद आँखो से दे खते हैँ - संध्या

• 2 •

2. िरश्ता िदल ् का तम् ु हारा िदल नया था मेरी ऑ ंखे नई थी पर क्या करें

कहानी अब ् भी वही थी

िदल तो तम् ु हारा अभी भी धड़कता हैं िसफर्् मेरे िलए।

और मेरी ऑ ंखे

ढंू ढती हैं िसफर् तम् ु हारा चेहरा

उमर् का अब ऐसा मोड़ आ गया हैं अब सोंचती हँु। उमर् घट रही हैं

और इच्छाएं बढ़ती जा रही हैं

लोग कहते हैँ

जीवन अच्छा जीना हैं तो शौक िजंदा रिखये

मेरा तो यही कहना हैं तम् ु हारा िदल कभी, तम् ु हे दग़ा न दे

मेरी ऑ ंखें चाहे बदल जाये तम् ु हारा िदल हमेशा धड़कता रहे • 3 •

परछाईया - कुछ गुज़रे पलो की

क्योंिक तम् ु हारे गमों का

बाई पास िदल से हुआ है और मेरी आँखो पर चश्मा चढ़ा हैं अब भी तम् ु हारे मोह का

- सन्ध्या

• 4 •

3. अम्मा कुछ दे र ही सही मेरे साथ थोड़ी दे र बैठो ना छोटा सा चट ु कुला छोड़ के आँखें मींच के

ज़ोर से एक बार िफर से हस दो ना आज थोड़ी बीमार हँू, साड़ी के पल्लू में िफर से एक बार छोटी सी गाँठ लगा दो

घी में चीनी धिनया भन ू कर िखला दो। आज एक बार िफर मेरा हाथ पकड़ के

पापा और बआ के बचपन में ले चलो ना ! ु इतवार की सब ु ह

Sugar test करनी हो तो

धीरे धीरे नींद से जगा दे न

इस बार लढ़े िबना ही उठ जाऊँगी आज काम करने का िदल नही है

आज एक कप दध ू की chai बना दो बराबर में कुसीर् लगा लो, िदन में स्टु बना दे ना । तीसरा साल है गुज़रे हुए थोड़ा सा और रुकी होती

तो मेरी बेटी और दीदी के बेटे के िलए • 5 •

परछाईया - कुछ गुज़रे पलो की

सारे नस् ु के मैं िलख लेती अम्मा कैसी होती है ये दोनो समझ पाते

हमारे जैसी िक़स्मत नही है उनकी लेिकन कुछ ही पलो में अपना बचपन जी पाते। थोड़ी दे र ही सही … - मानवी (MS)

• 6 •

4. समय समय तम ु थम जाओ थोड़ा रुको

अभी तो िकतनी परीक्षा

दी हैँ मैने उनका पिरराम ् ती आने दो अभी तो जीना आरम्भ िकया है मैने सोचा है कुछ ऐसा करूँ जो मेरे अंतमर्न को आनंिदत करे

अलोिकत कर दँ ू संसार अपनी पर्ाथर्नाओ से

अपने िलए जीने के कुछ पल चाहती हँु जो िबछड़ गये हैँ जीवन सफर मे

उनकी यादों को सहे ज कर िसफर् जीना चाहती हँु समय तम् ु हे थमना होगा मेरी हर सोच को समझना होगा वरना तम ु तो गितशील हो जाओगे और मै

कतर्व्यिवमरु ् वही पाषाण बन जाऊँगी मेरे धैयर् की परीक्षा न लो मैने बदल िलया है स्वयं

को इतना तम ु भी तो अपनी • 7 •

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