01 भारत का सम्पूर्ण इतिहास 01 Flipbook PDF


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भारत का सम्पूर्ण इतिहास | Complete History | Bharat ka Itihas ⋮ 9/5/2017

इस पृष्ठ में आप पायेंगे भारत का इतिहास (Indian History in Hindi) नोट्स, जो कि हिन्दी में हैं जिन्हें  हमने 4 भागों में बांटा है, प्राचीन इतिहास, मध्यकालीन इतिहास, आधुनिक भारत और स्वतन्त्रता आंदोलन | ये सभी विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए बेहद उपयोगी हैं, नोट्स को बनाने का मकसद तेजी से रिविज़न के साथ साथ सभी उपयोगी तथ्यों को भी रखना है ताकि कोई भी तथ्य ना छू टे ये इन सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी है जैसे – UPSC Exam, UPPSC,  SSC CGL, उम्मीद है भारतीय इतिहास (Indian History in Hindi) के ये नोट्स आपके लिए उपयोगी साबित होंगे ! कई सारे इतिहास के नोट्स Download के लिए भी उपलब्ध हैं, शीघ्र ही और भी नोट्स उपलब्ध होंगे !

प्राचीन भारत का इतिहास | Prachin Bharat Ka Itihas 1 प्राचीन इतिहास को जानने के स्त्रोत  2 प्रागैतिहासिक काल  3 प्राचीन भारतीय सिक्कों का संक्षिप्त इतिहास 4 प्राचीन काल के प्रमुख राजवंश संस्थापक एवं राजधानी 5 हडप्पा सभ्यता- सिन्धु घाटी की सभ्यता  6 वैदिक काल का इतिहास  7 जैन धर्म | तथ्य जो प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं ! 8 बौद्ध धर्म का इतिहास 9 भागवत्, वैष्णव एवं शैव धर्म  10 ईरानी एवं यूनानी आक् रमण  1/5

11 महाजनपद काल 12 मौर्य साम्राज्य 13 मौर्योत्तर काल 14 मूर्ति एवं मंदिर निर्माण की विभिन्न शैलियां 15 गुप्त काल | सम्पूर्ण जानकारी 16 हूण कौन थे ? 17 पुष्यभूति वंश | हर्षवर्धन 18 दक्षिण भारत का इतिहास 19 सीमावर्ती राजवंशों का इतिहास 20 राजपूतों के वंश  21 त्रिपक्षीय संघर्ष 22 प्राचीन काल का इतिहास [रिवीज़न नोट्स] Audio Included 23 प्राचीन इतिहास | Handwritten Notes Hindi PDF Download 24 (56 Facts PDF) प्राचीन इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य 25 पोरस कौन था ? 26 क्या राखीगढ़ी था हड्प्पा सभ्यता का प्रारम्भिक स्थल ? 27 भारतीय इतिहास के कु छ महत्वपूर्ण प्रश्न PDF Download (Descriptive) 28 NCERT History eBook in Hindi – Download PDF 29 7 ऐसे युद्ध जिन्होंने भारत का इतिहास बदल दिया 30 पाकिस्तान मांग रहा है “हड़प्पा सभ्यता वाली कांस्य नर्तकी की मूर्ति” 31 प्राचीन इतिहास – 101 तथ्यों में – QUICKEST REVISION SERIES

मध्यकालीन इतिहास | Madhykalin Bharat Ka Itihas 1 मध्यकालीन भारतीय इतिहास को जानने के स्त्रोत 2 इस्लाम का अभ्युदय एवं प्रसार 3 अरबों का आक् रमण 4 भारत पर तुर्की आक् रमण (महमूद गजनवी) 5 मुहम्मद गौरी (मुइजुद्दीन मुहम्मद बिन साम गोरे) 6 दिल्ली सल्तनत – सभी वंश 7 कु तुबुद्दीन ऐबक – गुलाम वंश 8 इल्तुत्मिश का इतिहास 9 रज़िया सुल्तान-भारत की प्रथम महिला शासिका 10 ग्यासुद्दीन बलबन का इतिहास 11 जलालुद्दीन खिलजी का इतिहास 12 अलाउद्दीन खिलजी | बाजार नीति | विजय अभियान 13 मुबारक खिलजी व खिलजी वंश का अंत 14 गयासुद्दीन तुगलक (तुगलक वंश का संस्थापक) | Gayasuddin Tuglaq History in Hindi 15 मुहम्मद बिन तुगलक | Muhammad Bin Tuglaq History in Hindi 16 मुहम्मद बिन तुगलक की 5 विफल योजनाएं, जिनकी वजह से उसे बुद्धिमान मूर्ख राजा कहा जाता है | 17 फिरोज़ शाह तुगलक | Firoz Shah Tuglaq History in Hindi 18 सैय्यद वंश | History of Saiyad/Seyad/Sayyad Vansh in Hindi 19 बहलोल लोदी (लोदी वंश) | Bahlol Lodi/Lodhi History in Hindi 20 सिकं दर लोदी का इतिहास | Sikandar Lodi History in Hindi लो 2/5

21 इब्राहिम लोदी का इतिहास | Ibrahim Lodi/Lodhi History in Hindi 22 स्वतंत्र प्रांतीय राज्य (INDEPENDENT PROVINCIAL STATES) 23 विजय नगर साम्राज्य (VIJAY NAGAR EMPIRE) 24 बहमनी साम्राज्य (BAHMANI EMPIRE) 25 मध्यकालीन भारत में धार्मिक आंदोलन 26 सूफी आंदोलन (Sufi Movement) 27 बाबर | मुगल वंश | शुरू से अंत तक 28 हुमायुँ का इतिहास | मुग़ल साम्राज्य 29 जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का इतिहास 30 नूरुददीन मोहम्मद जहांगीर का इतिहास 31 शाहजहाँ- ताज महल का निर्माता 32 औरंगजेब (जिंदा पीर ) का इतिहास 33 मुगलों का पतन – पूरी जानकारी 34 मुगल प्रशासन (MUGHAL ADMINISTRATION) 35 सूर साम्राज्य | शेरशाह सूरी का इतिहास 36 मराठा राज्य | शिवाजी के नेतृत्व में मराठों का उदय 37 शिवाजी के उत्तराधिकारी (शम्भाजी) 38 खालसा पंत | सिखों का उदय (RISE OF SIKHS) 39 7 ऐसे युद्ध जिन्होंने भारत का इतिहास बदल दिया 40 भारत पर आक् रमण करने वाले 10 सबसे क् रूर आक् रमणकारी 41 कौन थे शेख सलीम चिश्ती ? 42 फतेहपुर सीकरी | इतिहास | मुख्य इमारतें 43 NCERT History eBook in Hindi – Download PDF 44 ताजमहल से सम्बंधित कु छ प्रचिलित कथायें – Interesting Facts 45 जानिये कै से हुआ ताजमहल का निर्माण -एक नदी के किनारे कै से टिका है ताजमहल 46 भारतीय इतिहास के कु छ महत्वपूर्ण प्रश्न PDF Download (Descriptive) 47 कौन थे सैयद बन्धु ? और क्यों इन्हें किं ग मेकर कहा जाता है ? 48 GK Trick : गुलाम वंशीय शासक

आधुनिक भारत का इतिहास | Adhunik Bharat Ka Itihas 1 यूरोपीय कम्पनीयों का आगमन (पुर्तगाली)- With Audio Notes 2 डच (हॉलैडवासी) ईस्ट इण्डिया कम्पनी- With Audio Notes 3 अंग्रेजों का भारत आगमन- With Audio Notes 4 डेनिस का भारत आगमन- With Audio Notes 5 फ् रांसिसियों का भारत आगमन- French East India Company 6 प्रथम कर्नाटक युध्द | विस्तारपूर्वक | With Audio Notes 7 द्वितीय कर्नाटक युध्द | विस्तारपूर्वक | With Audio Notes 8 तृतीय कर्नाटक युध्द | विस्तारपूर्वक | With Audio Notes 9 अंग्रेजों की बंगाल विजय- With Audio Notes 10 प्रथम आंग्ल मैसूर संघर्ष- With Audio Notes 11 द्वितीय आंग्ल मैसूर युध्द – With Audio Notes 12 तृतीय आंग्ल मैसूर युध्द – With- Audio Notes 13 चतुर्थ आंग्ल मैसूर युध्द -With Audio Notes 14 प्लासी का युध्द और सत्ता परिवर्तन यॉं औ द्वै 3/5

15 बक्सर युध्द, इलाहाबाद संधियॉं और द्वैत शासन 16 आंग्ल मराठा संघर्ष- प्रथम – With Audio Notes 17 आंग्ल मराठा युध्द – द्वितीय With Audio Notes 18 आंग्ल-मराठा युद्ध तृतीय व चतुर्थ 19 आंग्ल-सिख संघर्ष – प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय 20 पिंडारियों का दमन 21 आंग्ल-नेपाल संघर्ष 22 सुगौली संधि क्या थी ? 23 सिंध और रजवाड़ों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय 24 1857 का विद्रोह – भाग 1 [Audio Notes in Hindi] 25 1857 के विद्रोह के कारण [Audio Notes] 26 1857 के बाद हुए नागरिक विद्रोह [Audio Notes] 27 आदिवासी विद्रोह 28 कृ षक आंदोलन- Audio Notes 29 अंग्रेजो की भूराजस्व नीति- British Land Revenue Policy 30 भारत के प्रमुख गवर्नर जनरल तथा वायसराय 31 7 ऐसे युद्ध जिन्होंने भारत का इतिहास बदल दिया 32 NCERT History eBook in Hindi – Download PDF 33 ऐसा वायसराय जिसे “भारत का रक्षक तथा विजय का संचालक” कहा जाता है ! 34 भारतीय इतिहास के कु छ महत्वपूर्ण प्रश्न PDF Download (Descriptive) 35 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कु छ प्रमुख व्यक्तित्व | PDF | Download 36 ये 24 महत्वपूर्ण कथन व नारे प्रत्येक प्रतियोगी परीक्षा में पूछे जाते हैं 37 कामागतामारू की घटना क्या है ? 38 1947 से 2017 तक की 64 बेहद महत्वपूर्ण घटनायें 39 आधुनिक भारत के सामाजिक-धार्मिक संस्था/संगठन/आंदोलन 40 मुस्लिम लीग की स्थापना (Muslim League) 41 कार्नवालिस संहिता क्या थी ? 42 वुड का डिस्पैच क्या था ? 43 क्या था द्वैत शासन ? | बंगाल में द्वैध शासन 44 ब्लैक होल दुर्घटना क्या थी ?? 45 जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड से संबंधित संपूर्ण जानकारी 46 18वीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक स्थिति 47 भारतीय धन की निकासी (DRAIN OF INDIAN WEALTH)

स्वाधीनता संग्राम 1 2 3 4 5 6 7 8 9

स्वतन्त्रता आंदोलन का प्रथम चरण स्वतन्त्रता आंदोलन में आरंभिक राजनीतिक संगठन 1857 ई० के पूर्व के सिपाही विद्रोह 1857 का विद्रोह – With Audio Notes 1857 के विद्रोह के कारण With Audio Notes 1857 के बाद हुए नागरिक विद्रोह With Audio Notes आदिवासी विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कु छ प्रमुख व्यक्तित्व | PDF | Download मंगल पांडे के बारे में सम्पूर्ण जानकारी | Complete Information About Mangal Pandey दो

रो 4/5

10 प्रमुख आंदोलन एवं विद्रोह [30+ Important Facts] 11 स्वतन्त्रता आंदोलन का द्वितीय चरण 12 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) का इतिहास | Every Fact Covered 13 बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) कै से हुआ ? 14 [65+ Facts] आधुनिक भारत में सामाजिक-धार्मिक आंदोलन 15 कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन 16 कांग्रेस का बनारस अधिवेशन 17 स्वतंत्रता संग्राम से सम्बंधित प्रसिद्ध व्यक्तित्व 18 सूरत अधिवेशन तथा फू ट (Surat Split) 1907 ई० 19 क्या है काकोरी ट्रेन एक्शन प्लान? 20 मॉर्ले-मिन्टो सुधार (Marley-Minto reforms)-1909 ई० 21 दिल्ली दरबार (Delhi Darbar)-1911 ई० 22 हिंदू महासभा की स्थापना 23 लखनऊ समझौता (Lucknow Pact) 1916 ई० क्या था और क्यों हुआ था ? 24 होमरूल लीग आंदोलन (1916 ई०) कब, क्यूँ और कै से हुई स्थापना ? 25 भारत में क् रांतिकारी गतिविधियां | एक सवाल सदैव पूछा जाता है ! 26 महात्मा गांधी का उदय एवं क्या थे उनके आरंभिक प्रयोग

इतिहास के महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर साहित्यिक स्रोतों से सबसे ज्यादा पूछे जाने वाले 20 सवाल क्या 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन अहिंसक था ? भारत में 19वीं शताब्दी के जनजातीय विद्रोह के क्या कारण थे ? जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की रचना एवं पालन पोषण कै से हुआ है ? वैदिक सभ्यता में धर्म और ऋत से क्या तात्पर्य था ?

मुख्य विषय ज्ञानकोश  गणित  डाउनलोड  अर्थव्यवस्था

इतिहास  अँग्रेजी  एसएससी विज्ञान 

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कृ षि

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भूगोल  रीजनिंग  रणनीति राज्यव्यवस्था टेस्ट सीरीज़ (Unlimited) जीवनी

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प्राचीन इतिहास को जानने के स्त्रोत | सम्पूर्ण जानकारी ⋮ 31/5/2019

प्राचीन इतिहास को जानने के लिए सभी स्त्रोतों को मुख्य तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है | 1. साहित्यिक 2. पुरातात्विक

साहित्यिक स्रोत (Literary Sources) साहित्यिक स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

(i) धार्मिक साहित्य (Religious Literature) वेद– इसका अर्थ होता है- महत् ज्ञान, अर्थात् पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान, संपूर्ण वैदिक इतिहास की जानकारी के स्रोत वेद ही हैं. इनकी संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद. वेदांग– इनसे वेदों के अर्थ को सरल ढंग से समझा जा सकता है. इनकी संख्या 6 है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष. ब्राह्मण ग्रंथ-वेदों की गद्य रूप में की गई सरल व्याख्या को ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है. आरण्यक– इसकी रचना जंगलों में की गई. इसे ब्राह्मण ग्रंथ का । अंतिम हिस्सा माना जाता है, जिसमें ज्ञान एवं चिंतन की प्रधानता है, उपनिषद् – ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के लिए गुरु के समीप बैठना, इन्हें वेदांत भी कहा जाता है इनकी कु ल संख्या 108 है, भारत का राष्ट् रीय आदर्श वाक्यसत्यमेव जयते मुंडकोपनिषद् से लिया गया है. इसी उपनिषद् में यज्ञ की तुलना टू टी नाव से की गई है. श्रीकृ ष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख छांदोग्यपनिषद् में हुआ है | उपनिषदों से तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की जानकारी मिलती है. महाकाव्य– रामायण एवं महाभारत भारत के दो प्राचीनतम महाकाव्य हैं. उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इनका रचनाकाल चौथी शताब्दी ई०पू० से चौथी शताब्दी ई० के बीच माना जाता है. रामायण– इसके रचनाकार महर्षि बाल्मीकि हैं. संस्कृ त भाषा में लिखे इस महाकाव्य में कु ल 24000 श्लोक हैं. इससे तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियों की जानकारी मिलती है. महाभारत– आरंभ में इसका नाम जयसंहिता था. इसके रचनाकार महर्षि वेदव्यास हैं. इसमें श्लोकों की मूल संख्या 8800 थी, लेकिन वर्तमान में कु ल संख्या 1,00000 है. इसमें कु ल 18 पर्व हैं. श्रीमद्भागवतगीता भीष्मपर्व से संबंधित है. महाभारत का युद्ध 950 ई० पू० में लड़ा गया था, जो 18 दिनों तक चला, यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है. इसे पाँचवें वेद के रूप में मान्यता मिली है. पुराण– इसे पंचमवेद भी कहा जाता है|

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लोमहर्ष तथा उनके पुत्र उग्रश्रवा पुराणों के संकलनकर्ता माने जाते हैं. इनकी संख्या 18 है. इनमें मुख्य रूप से प्राचीन शासकों की वंशावली का विवरण है. पुराणों में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक मत्स्यपुराण है. यह सातवाहन वंश से संबंधित है. विष्णु पुराण से मौर्य वंश तथा वायु पुराण से गुप्त वंश के विषय में जानकारी मिलती है. बौद्ध साहित्य– यह मूल रूप से चार भागों में विभाजित है-जातक, त्रिपिटक, पालि एवं संस्कृ त जातक – यह बौद्धों का एक पवित्र ग्रंथ है. यह 550 कथाओं का एक संग्रह है. इसमें महात्मा | बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियाँ वर्णित हैं. अजन्ता की चित्रकारी जातक की कहानियाँ दर्शाती है. त्रिपिटक- त्रिपिटकों की भाषा प्राकृ त है. ये तीन हैं- सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटक,पालि ग्रंथ- प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में हैं. मिलिंदपन्हो- इस बौद्ध ग्रंथ में यूनानी नरेश मिनाण्डर (मिलिंद) एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच वार्तालाप का वर्णन है | दीपवंश- श्रीलंका (सिंहल द्वीप) के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला यह पहला बौद्ध ग्रंथ है. महावंश– इसमें मगध के राजाओं की क् रमबद्ध सूची है. चूल वंश– इससे कै ण्डी चोल साम्राज्य के विघटन की जानकारी मिलती है. संस्कृ त ग्रंथ ललितविस्तार– संस्कृ त भाषा में बौद्ध धर्म का यह पहला ग्रंथ है. दिव्यावदान– इसमें शुंग वंश एवं मौर्य शासकों के विषय में वर्णन है. जैन साहित्य– ये प्राकृ त एवं संस्कृ त भाषा में हैं, इन्हें आगम कहा जाता है. आचराग सूत्र– इसमें जैन भिक्षुओं के विधि-निषेध एवं आचार-विचारों का वर्णन है. भगवती सुत्र– इसमें महावीर स्वामी के जीवन तथा अन्य समकालिकों के साथ उनके संबंधों का विवरण है. इसी में 16 महाजनपदों का भी विवरण है.

प्रमुख दर्शन चार्वाक (भौतिकवादी) सांख्य योग न्याय वैशेषिक पूर्व मीमांसा उत्तर मीमांसा

प्रवर्तक चार्वाक कपिल पतंजलि (योग सूत्र) गौतम (न्याय सूत्र) कणाद या उलूक जैमिनी बादरायण (ब्रह्मसूत्र)

(ii) धर्मेत्तर साहित्य (Non-Religious literature) 1. संगम साहित्य– इसमें चोल, चेर तथा पांड्य राज्यों के उदय का वर्णन है. इसमें कविताओं की कु ल 30,000 पंक्तियाँ हैं. ये कविताएँ दो मुख्य समूहों (1.पटिनेडिकलकणक्कु तथा 2. पतुपात्तु) में विभाजित हैं. पहला समूह बाद वाले समूह से पुराना है. 2. मनुस्मृति – यह सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक है. इससे तत्कालीन भारतीय राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियों की जानकारी मिलती है. इसमें विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख है- ब्रह्म, दैव, आर्य, प्रजापत्य, गंधर्व, असूर, राक्षस एवं पैशाच. नोटः अनुलोम विवाह– उच्च वर्ग के पुरुष का निम्न वर्ग की स्त्री के साथ शादी करना अनुलोम विवाह कहलाता है.. प्रतिलोम विवाह- उच्च वर्ग की कन्या का निम्न वर्ग के पुरुष के साथ शादी करना प्रतिलोम विवाह कहलाता है. 3. नारद स्मृति– इससे गुप्तवंश के विषय में जानकारी मिलती है. 4. अर्थशास्त्र– आचार्य चाणक्य ( विष्णुगुप्त) या कौटिल्य द्वारा संस्कृ त भाषा में रचित इस ग्रंथ को भारतीय राजनीति का पहला भारतीय ग्रंथ माना जाता है. लगभग 6000 श्लोकों वाले इस ग्रंथ में मौर्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थितियाँ वर्णित

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हैं. 5. मुद्राराक्षस– विशाखदत्त द्वारा रचित इस नाटक में चंद्रगुप्त मौर्य तथा उनके गुरु चाणक्य द्वारा नन्द वंश के पतन तथा मौर्य वंश की स्थापना का वर्णन है. 6. मालविकाग्निमित्रम्– कालिदास द्वारा रचित इस ग्रंथ में पुष्यमित्र शुंग एवं उसके पुत्र अग्निमित्र के समय की राजनीतिक स्थिति तथा शुंग एवं यवन संघर्ष का वर्णन है. 7. हर्षचरित– सम्राट् हर्ष के राजकवि बाणभट्ट द्वारा रचित इस ग्रंथ से हर्ष के जीवन एवं तत्कालीन भारतीय इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है. 8. स्वप्नवास्वदत्तं – महाकवि भास द्वारा रचित इस ग्रंथ में वत्सराज उदयन एवं चंडप्रद्योत के संबंधों का उल्लेख है. 9. राजतरंगिणी – कल्हण द्वारा रचित इस पुस्तक का संबंध कश्मीर के इतिहास से है. इसे भारतीय इतिहास का प्रथम प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है. 10. मृच्छकटिकम्– शूद्रक द्वारा रचित इस नाटक से गुप्तकालीन इतिहास की जानकारी मिलती है. 11. विक् रमांकदेवचरित्– कश्मीरी कवि विल्हण द्वारा रचित इस ग्रंथ से चालुक्य राजवंश विशेषकर विक् रमादित्य पंचम के विषय में जानकारी मिलती है. 12. कीर्ति-कौमुदी– सोमेश्वर द्वारा रचित इस काव्य से चालुक्यवंशीय इतिहास की जानकारी मिलती है. 13. अवन्तिसुंदरी कथा– महाकवि दंडी द्वारा रचित इस ग्रंथ से दक्षिण भारत के पल्लवों के इतिहास की जानकारी मिलती है. 14. अष्टाध्यायी– पाणिनी द्वारा रचित संस्कृ त व्याकरण की यह प्रथम प्रामाणिक पुस्तक है.

ग्रंथ रचनाकार काल अष्टाध्यायी पाणिनी छठी शताब्दी ईसापूर्व रामायण बाल्मीकि पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व महाभारत वेदव्यास चौथी शताब्दी ईसापूर्व अर्थशास्त्र चाणक्य तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व इंडिका मेगास्थनीज चंद्रगुप्त मौर्य (मौर्य काल) पंचतंत्र विष्णु शर्मा दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व महाभाष्य पतंजलि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व सत्सहसारिका सूत्र नागार्जुन कनिष्क काल बुद्ध चरित्र अश्वघोष कनिष्क काल सौंदरानंद अश्वघोष कनिष्क काल स्वप्नवासवदत्ता भास गुप्त काल (300 ईसवी) काम सूत्र वात्स्ययन गुप्तकाल (300 ईसवी) कु मारसंभव कालिदास गुप्त काल अभिज्ञान शाकुं तलम् कालिदास गुप्त काल विक् रमोर्वशीयम् कालिदास गुप्त काल मेघदूतम् कालिदास गुप्त काल रघुवंशम् कालिदास गुप्त काल मालविकाग्निमित्रम् कालिदास गुप्त काल नाट्यशास्त्र भरतमुनि गुप्त काल महाविभाषाशास्त्र वसुमित्र कनिष्क काल देवीचंद्रगुप्तम विशाखदत्त गुप्त काल मृच्छकटिकम् शूद्रक गुप्त काल सूर्य सिद्धांत आर्यभट्ट गुप्त काल वहत्ससहिंता बारह मिहिर गुप्त काल कथासरित्सागर सोमदेव गुप्त काल

विदेशी लेखक एवं उनके साहित्य 3/9

1. हेरोडोटस– इसे इतिहास का पिता कहा जाता है. इसने हिस्टोरिका नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें भारत तथा ईरान (फारस) के बीच आपसी संबंधों का वर्णन है. 2. मेगास्थनीज- यह चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस निके टर का राजदूत था. इसके द्वारा रचित इंडिका नामक पुस्तक में मौर्यकालीन नगर प्रशासन तथा कृ षि का वर्णन है. 3. डायमेकस- यह सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत था, जो बिन्दुसार के दरबार में आया था. 4. डायनोसियस- यह मिस्र नरेश टॉलमी फिलेडेल्फस का राजदूत था, जो बिन्दुसार के दरबार में आया था. 5. प्लिनी- इसने नेचुरल हिस्टोरिका नामक पुस्तक लिखी. इसमें भारतीय पशु, पेड़-पौधों, खनिज पदार्थों आदि का वर्णन है. 6. फाह्यान (399-415 ई०)- प्रथम चीनी यात्री जो चन्द्रगुप्त विक् रमादित्य के शासन काल में भारत आया था. अपनी पुस्तक में इसने तत्कालीन भारतीय राजनीतिक तथा सामाजिक स्थितियों का वर्णन किया है. 7. ह्वेनसांग (629-644ई०)- इसे यात्रियों के सम्राट् या यात्रियों के राजकु मार के नाम से भी जाना जाता है. यह सम्राट् हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया था. इसके द्वारा लिखित यात्रा-वृतांत सी-यू-की से तत्कालीन भारत के संबंध में जानकारी मिलती है. इसने नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन तथा अध्यापन का कार्य किया. 8. इत्सिंग– यह भी एक चीनी यात्री था. इसने 670 ई० के आस-पास भारत के बिहार प्रदेश का भ्रमण किया था. इसने नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन भी किया था.

रचनाकार देश रचना का नाम मेगास्थनीज यूनान इंडिका टॉलेमी यूनान ज्योग्राफी प्लिनी यूनान नेचुरल हिस्टोरिका अज्ञात यूनान/मिस्त्र पेरिप्लस ऑफ इरीथ्रियन सी फाह्यान चीन ए रिकॉर्ड ऑफ बुद्धिस्ट कं ट्रीज ह्णेनसांग चीन एस्से ऑन बेस्ट इन वर्ल्ड इत्सिंग चीन रिकॉर्ड ऑफ द बुद्धिस्ट रिलिजन एज प्रैक्टिस्ड इन इंडिया एंड मलाया ह्मवली चीन लाइट ऑफ ह्णेनसांग अलबरूनी अरब तहक़ीक़ ए हिंद

पुरातात्त्विक स्रोत (Archaeological Sources) खुदाई के दौरान प्राप्त वे पुरानी वस्तुएँ, जिनसे इतिहास की रचना में सहायता मिलती है, पुरातात्विक स्रोत कहलाती हैं. इनमें अभिलेख, मुद्रा, स्मारक आदि प्रमुख हैं. जॉन कनिंघम को भारतीय पुरातत्त्व का पिता कहा जाता है. मुद्राएँ अथवा सिक्के   प्राचीन भारत के गणराज्यों का अस्तित्व मुद्राओं से ही प्रमाणित होता है. उनपर अंकित तिथियों से कालक् रम को निर्धारित करने में सहायता मिलती है. प्राचीन सिक्कों का अध्ययन न्यूमिसमेटिक्स कहलाता है | भारत में प्राचीनतम सिक्का 5 वीं शताब्दी ई०पू० का है, जिसे आहत सिक्का (पंच मार्क ) कहा जाता है. यह मुख्यतया चांदी धातु से निर्मित है. भारत में सर्वप्रथम सोने का सिक्का हिन्द-यवन शासक द्वारा जारी किया गया. भारत में सर्वाधिक सोने के सिक्के गुप्त शासकों द्वारा तथा शुद्धतम सोने के सिक्के कु षाण शासक कनिष्क द्वारा जारी किए गए. सातवाहन शासकों ने सीसा तथा पोटीन के सिक्के जारी किए. इन्होंने सोने के सिक्के जारी नहीं किए सर्वाधिक सिक्के मौर्योत्तर काल के तथा सबसे कम सिक्के गुप्तोतर काल के मिले है. अभिलेख – अभिलेख प्रायः स्तंभों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं, मूर्तियों, मंदिरों की दीवारों इत्यादि पर खुदे मिलते हैं. अभिलेखों का अध्ययन पुरालेखशास्त्र (Epigraphy) कहलाता है.

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भारत का सबसे पुराना अभिलेख हड़प्पा काल का माना जाता है, जिसे अभी तक नही पढ़ा जा सका है | प्राचीनतम पठनीय अभिलेख सम्राट् अशोक का है, जिसे पढ़ने में 1837 ई० में जेम्स प्रिंसेप को सफलता मिली थी. सर्वाधिक अभिलेख मैसूर में पुरालेख शास्त्री के कार्यालय में संग्रहित है | कु छ प्रमुख अभिलेख 1. जूनागढ़ (गिरनार) अभिलेख– यह शक शासक रुद्रदमन प्रथम का अभिलेख है. यह संस्कृ त भाषा का सबसे लंबा एवं प्रथम अभिलेख है. 2. एन अभिलेख– इसे गुप्त शासक भानुगुप्त द्वारा जारी किया गया. इसी अभिलेख में सर्वप्रथम सती–प्रथा की चर्चा मिलती है. 3. एहोल अभिलेख– यह बादामी के चालुक्य शासक पुलके शिन द्वितीय का है, जिसे उसके मंत्री रविकीर्ति द्वारा तैयार किया गया था. 4. हाथी गुम्फा अभिलेख– इसे कलिंग शासक खारवेल द्वारा जारी किया गया था. इसी अभिलेख में सर्वप्रथम ईस्वीवार घटनाओं का विवरण मिलता है. 5. इलाहाबाद अभिलेख (प्रयाग प्रशस्ति)– मूल रूप से यह अभिलेख सम्राट् अशोक का है. बाद में इसपर हरिषेण द्वारा समुद्रगुप्त की उपलब्धियों को खुदवाया गया. आगे चलकर मुगल शासक जहाँगीर ने भी इसपर अपना संदेश खुदवाया. 6. मास्की एवं गुर्जरा अभिलेख– ये दोनों ही अभिलेख सम्राट् अशोक के हैं, जिनमें क् रमशः अशोक प्रियदर्शी तथा अशोक नाम का उल्लेख है. 7. भाबू एवं रुमिनदेयी अभिलेख– ये दोनों ही अभिलेख अशोक के हैं, जिनसे अशोक के बौद्ध धर्म के प्रति आस्था का पता चलता है. 8. रूपनाथ अभिलेख– इस अभिलेख से अशोक के शैव-धर्म के प्रति आस्था का पता चलता है. पर्सीपोलिस व नक्श-ए-रुस्तम- इस अभिलेख में भारत तथा ईरान के संबंधों का वर्णन है. 9. बोगजकोई (एशिया माइनर)– 1400 ई०पू० के इस अभिलेख में इन्द्र, वरुण, मित्र तथा नासत्य नामक चार देवताओं का उल्लेख है.

अभिलेख शासक महास्थान अभिलेख चंद्रगुप्त मौर्य गिरनार अभिलेख रुद्रदामन प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त उदयगिरि अभिलेख चंद्रगुप्त द्वितीय भितरी स्तंभलेख स्कं दगुप्त एरण अभिलेख भानुगुप्त ग्वालियर प्रशस्ति राजा भोज हाथीगुम्फा अभिलेख खारवेल नासिक गौतमी बलश्री देवपाडा विजय सेन ऐहोल पुलके शिन द्वितीय स्मारक तक्षशिला– यहाँ से प्राप्त अवशेषों से कु षाण वंश के इतिहास की जानकारी मिलती है. अंकोरवाट (कं बोडिया) तथा बोरोबुदूर मंदिर (जावा)- यहाँ से प्राप्त अनेक प्रतिमाओं से पता चलता है कि इन देशों से भारत के व्यापारिक तथा सांस्कृ तिक संबंध थे.

In Short | Quick Revision धार्मिक साहित्यिक स्त्रोत बाह्मण साहित्य- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, महाभारत, रामायण, पुराण बौध्द साहित्य- सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिट्क,  महावंश, दीपवंश, ललित विस्तार, बुध्दचरित (रचनाकार-अश्वघोष), महाविभाष (रचनाकार-वसुमित्र) जातक आदि जैन ग्रंथ- कल्पसूत्र, भगवती सूत्र, आचारांग सूत्र इत्यादि 5/9

अर्ध्द ऐतिहासिक साहित्यिक स्त्रोत मुद्राराक्षस, अभिज्ञान शाकुं तलम, अर्थशास्त्र आदि ऐतिहासिक साहित्यिक स्त्रोत हर्षचरित, पृथ्वीरास रासो, राजतरंगिणी (राजतरंगिणी की रचना 12 वीं सदी में कल्हण द्वारा की गई थी पहली बार ऐतिहासिकता की झलक इसी ग्रंथ में मिलती है इसकी भाषा संस्कृ त है) पुरातात्विक स्त्रोत जो स्तम्भों, गुफाओं, मूर्तिओं, मुद्राओं, शिलाओं आदि उत्कीर्ण होते है अभिलेख कहलाते है सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलेख सम्राट अशोक के है, जिसको पहली बार जेम्स प्रिंसेप ने पढा था कालिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशास्ति रुद्रदामन का जूनागढ अभिलेख संस्कृ त भाषा में जारी प्रथम अभिलेख माना जाता है अभिलेखों के अतिरिक्त सिक्के , स्मारक व भवन, मूर्तियां, चित्रकला, भौतिक अवशेष, माद्भाण्ड, आभूषण एवं अस्त्र शस्त्र भी इसके अंतर्गत आते है विदेशी विवरण हेरोडोटस की रचना हिस्टोरिका से भारत-ईरान संबंध तथा उत्तर-पश्चिम भारत की जानकारी मिलती है टॉलेमी ने ‘ज्योग्राफी’ लिखा, हेगसांग हर्ष के समय 629 ई. में आया था, उसने ‘सी-यू-की’ की रचना की, अलबरूनी ने तहकीक-ए-हिंद की रचना की

16 Quick Revision Facts 1. सर्वप्रथम १८३७ में जेम्स प्रिन्सेप को अशोक के अभिलेख को पढने में सफलता मिली | 2. भारत से बाहर सर्वाधिक प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के बोगजकोई नामक स्थान से लगभग १४०० ई. पू. के मिले है जिसमें  इंद्र, मित्र, वरुण  और नासत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम मिले है | 3. सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्युमिसमेटिक्स )कहा जाता है | 4. सर्वप्रथम हिन्द- यूनानियों ने ही स्वर्ण मुद्रा जारी की | 5. सर्वाधिक शुध्द स्वर्ण मुद्राए कु षाणों ने तथा सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं गुप्तों ने जारी की | 6. चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) को सम्मिलित रूप से संहिता कहा जाता है | 7. ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ तथा यजुर्वेद में यज्ञों के नियम तथा विधि विधानों का संकलन है| 8. सामवेद यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मंत्रों का संग्रह तथा अथर्ववेद में धर्म, औषधी प्रयोग, रोग निवारण, तन्त्र-मन्त्र , जादूटोना जैसे अनेक विषयों का वर्णन है| 9. उपनिषदों में आध्यात्म तथा दर्शन के गूढ़ रहस्यो का विवेचन हुआ है वेदों का अंतिम भाग होने के कारण इसे वेदान्त भी कहा जाता है| 10. सबसे प्राचीन बौध्द ग्रन्थ पाली भाषा में लिखित त्रिपिटक है ये है- सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक| 11. जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, इनकी रचना प्राकृ त भाषा में हुई है| 12. हेरोडोटस को इतिहास का पिटा कहा जाता है, जिनकी प्रसिध्द पुस्तक ‘हिस्टोरिका’ है | 13. अज्ञात लेखक की रचना ‘पेरिप्लस ऑफ़ डी एरिथ्रियन सी’ में भारतीय बंदरगाहों तथा वाणिज्यिक गतिविधियों का विवरण मिलता है | 14. फाह्यान की प्रसिध्द रचना ‘फी-क्यों-की’ अथ्वा ‘ए रिकार्ड ऑफ़ डी बुधदिस्ट कं ट् रीज’ है | 15.  हेंगसाँग के यात्रा वृतांत सी-यू-की अथ्वा एस्से ओं वेस्टर्न वर्ल्ड है | 16. अलबरूनी की रचना ‘तहकीके हिन्द’ में गुप्तोत्तर कालीन समाज का विविधतापूर्ण विवरण मिलता है |

33 Quick Revision Questions

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1.ऐतिहासिक दृष्टि पर आधारित पहला भारतीय ग्रन्थ कौन-सा है? कल्हणकृ त ‘राजतरंगिणी 2. भारतीय समाज मुख्य रूप से कितने भागों में विभाजित था?  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र 3.स्त्रोतों के रूप में धार्मिक साहित्य को कितने उपवर्गों में विभाजित किया गया है? हिन्दू धर्म से सम्बद्ध साहित्य, बौद्ध साहित्य व जैन साहित्य 4.सबसे प्राचीन वेद कौन-सा है? ऋग्वेद 5.पुराणों की संख्या कितनी बताई गई है?  18 6.ऋग्वेद के पश्चात् किन ग्रन्थों की रचना हुई? सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् 7.पुराणों से कौन-से प्राचीन भारतीय राजवंशों के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है? शिशु, नन्द, मौर्य, शुंग, कण्व,सातवाहन व गुप्त काल आदि 8.पुराणों से कौन-से विदेशियों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है ? शक, यवन, हूण आदि 9.बौद्धों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ पिटक कौन-कौन से हैं? सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक 10.पिटकों की रचना कहाँ व किस भाषा में हुई? श्रीलंका में, पालि भाषा में 11.दक्षिणी बौद्धमत के ग्रन्थ कौन-कौन से हैं? – महावंश व दीपवंश 12.बुद्धचरित की रचना किस रचनाकार द्वारा किसके शासनकाल में हुई? कनिष्क के शासनकाल में अश्वघोष द्वारा बौद्धों के प्रसिद्ध ग्रंथ जातकों की संख्या कितनी है? 13.जैन धर्म के सूत्र ग्रन्थ कौन-कौन से हैं? कल्प सूत्र, भगवती सूत्र, आचारांग सूत्र आदि 14.जैन ग्रन्थों में ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ कौन-सा है?

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हेमचन्द्र रचित ‘परिशिष्ट पर्व | 15.ऐतिहासिक महत्व के प्रथम ग्रंथ की रचना कौन-सी है? ‘हर्षचरित’ रचना 16.प्राचीन भारत के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी देने वाला ग्रन्थ कौन-सा है? चंदबरदाई द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ 17.ऐतिहासिक ग्रन्थों में महत्वपूर्ण ‘राजतरंगिणी’ की रचना किसने की? 12वीं शताब्दी में कश्मीर के प्रसिद्ध विद्वान कल्हण ने 18.सौराष्ट् र क्षेत्र (गुजरात) में रचित महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ कौन-कौन से हैं? रसमला, कीर्तिकौमुदी, प्रबंध चिंतामणि ( मेरूतुंग ), प्रबंध कोष ( राजशेखर ) आदि । 19.संस्कृ त के प्रथम नाटककार भास की रचनाओं ‘स्वप्नवासवदत्ता’ व ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ से किसकी जानकारी प्राप्त होती है? वत्सराज उदयन व उनकी समकालीन परिस्थितियों की 20.मौर्यकाल की आरम्भ अवस्था के सम्बन्ध में कौन-सी रचना जानकारी प्रदान करती है?  विशाखदत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस | 21.कालिदास ने ‘अभिज्ञानशाकु न्तलम्’ में किसकी जानकारी दी है? गुप्तकालीन परिस्थितियों की 22.मौर्य के उत्तराधिकारी शृंगों के बारे में कौन-सा नाटक जानकारी देता है?  कालिदास द्वारा रचित ‘मालविकाग्निमित्रम् 23.मौर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में कौन-सा ग्रन्थ महत्वपूर्ण जानकारी देता है? कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र । 24.अभिलेखों की दृष्टि से किस शासक का काल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है? मौर्य सम्राट अशोक का काल 25.भारतीय इतिहास के निर्माण में किन अभिलेखों से सहायता मिलती है? अशोक के अभिलेख, कलिंगराज खारवेल का हाथी गुम्फा अभिलेख, समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय की महरौली स्तम्भ लेख, स्कं दगुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख आदि 26.सातवाहन, शकों व कु षाणों के सम्बन्ध में मुख्य रूप से किस पर निर्भर रहना पड़ता है? सिक्कों पर 27.गुप्तकाल के अधिकांश सिक्कों पर विष्णु एवम् गरुड़ के चित्र अंकित होने से क्या प्रतीत होता है?

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गुप्त शासक विष्णु उपासक थे। 28.विदेशों में प्राप्त कौन से स्मारक भारत के प्राचीन इतिहास को समझने में सहायक हुए हैं? जावा में स्थित बोरोबुदर मंदिर व प्रबंनम मंदिर, कम्बोडिया में अंकोखाट मन्दिर, बोर्नियों में ( मुकरकमन) में मिली विष्णु की प्रसिद्ध स्वर्ण मूर्ति, मलाया में शिव, पार्वती, गणेश की मूर्तियाँ। 29.प्राचीन भारत के इतिहास को व्यवस्थित रूप प्रदान करने में किन-किन विदेशी विवरणों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है? यूनानी विवरण, चीनी विवरण, तिब्बती विवरण। 30.कौन-से यूनानी विवरण भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में विशेष तौर पर महत्वपूर्ण हैं? हेरोडोट्स, नियार्क स, मेगस्थनीज, डायमेकस, कार्टियस, एरियन, प्लूटार्क , स्ट् रेबो आदि के विवरण प्रमुख हैं। 31.मेगस्थनीज की किस रचना से चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य के बारे में जानकारी मिलती हैं। इण्डिका । 32.चीनी यात्री फाह्यान किस शासक के समय भारत आया था? चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय 33.मुख्य तिब्बती विवरण कौन-कौन से हैं? कं ग्युर व तंग्युर

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प्रागैतिहासिक काल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी ⋮ 14/7/2019

प्राक् इतिहास या प्रागैतिहासिक काल (Pre-history or prehistoric times) इस काल में मनुष्य ने घटनाओं का कोई लिखित विवरण नहीं रखा। इस काल में विषय में जो भी जानकारी मिलती है वह पाषाण के उपकरणों, मिट्टी के बर्तनों, खिलौने आदि से प्राप्त होती है।

आद्य ऐतिहासिक काल (Epochal period) इस काल में लेखन कला के प्रचलन के बाद भी उपलब्ध लेख पढ़े नहीं जा सके हैं।

ऐतिहासिक काल (Historical period) मानव विकास के उस काल को इतिहास कहा जाता है, जिसके लिए लिखित विवरण उपलब्ध है। मनुष्य की कहानी आज से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व प्रारम्भ होती है, पर ‘ज्ञानी मानव‘ होमो सैपियंस Homo sapiens का प्रवेश इस धरती पर आज से क़रीब तीस या चालीस हज़ार वर्ष पहले ही हुआ। पाषाण काल (Stone age) यह काल मनुष्य की सभ्यता का प्रारम्भिक काल माना जाता है। इस काल को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। – 1. पुरा पाषाण काल Paleolithic Age 2. मध्य पाषाण काल Mesolithic Age एवं 3. नव पाषाण काल अथवा उत्तर पाषाण काल Neolithic Age

पुरापाषाण काल (Paleolithic Age) यूनानी भाषा में Palaios प्राचीन एवं Lithos पाषाण के अर्थ में प्रयुक्त होता था। इन्हीं शब्दों के आधार पर Paleolithic Age (पाषाणकाल) शब्द बना । यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में भी जाना जाता है। अभी तक भारत में पुरा पाषाणकालीन मनुष्य के अवशेष कहीं से भी नहीं मिल पाये हैं, जो कु छ भी अवशेष के रूप में मिला है, वह है उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थर के उपकरण। प्राप्त उपकरणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ये लगभग 2,50,000 ई.पू. के होंगे। अभी हाल में महाराष्ट् र के ‘बोरी’ नामक स्थान खुदाई में मिले अवशेषों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस पृथ्वी पर ‘मनुष्य’ की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पुरानी है। गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं। सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ़्लॅक्स प्रणाली द्वारा बनाये गये औजार मुख्य रूप से मद्रास, वर्तमान चेन्नई में पाये गये हैं। इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, मिर्ज़ापुर एंवं बेलन घाटी, इलाहाबाद में मिले हैं।

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मध्य प्रदेश के भोपाल नगर के पास भीम बेटका में मिली पर्वत गुफायें एवं शैलाश्रृय भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय के मनुष्यों का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। वे अग्नि के प्रयोग से अनभिज्ञ थे। सम्भवतः इस समय के मनुष्य नीग्रेटो Negreto जाति के थे। भारत में पुरापाषाण युग को औजार-प्रौद्योगिकी के आधार पर तीन अवस्थाओं में बांटा जा एकता हैं। यह अवस्थाएं हैं-

काल अवस्थाएं 1- निम्न पुरापाषाण काल हस्तकु ठार Hand-axe और विदारणी Cleaver उद्योग 2- मध्य पुरापाषाण काल शल्क (फ़्लॅक्स) से बने औज़ार 3- उच्च पुरापाषाण काल शल्कों और फ़लकों (ब्लेड) पर बने औजार पूर्व पुरापाषाण काल के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं –

स्थल 1- पहलगाम 2- वेनलघाटी 3- भीमबेटका और आदमगढ़ 4- 16 आर और सिंगी तालाब 5- नेवासा 6- हुंसगी 7- अट्टिरामपक्कम

क्षेत्र कश्मीर इलाहाबाद ज़िले में, उत्तर प्रदेश होशंगाबाद ज़िले में मध्य प्रदेश नागौर ज़िले में, राजस्थान अहमदनगर ज़िले में महाराष्ट्र गुलबर्गा ज़िले में कर्नाटक तमिलनाडु

मध्य पुरापाषाण युग के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं – 1. भीमबेटका 2. नेवासा 3. पुष्कर 4. ऊपरी सिंध की रोहिरी पहाड़ियाँ 5. नर्मदा के किनारे स्थित समानापुर पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले प्रस्तर उपकरणों के आकार एवं जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर इस काल को हम तीन वर्गो में विभाजित कर सकते हैं।1. निम्न पुरा पाषाण काल (2,50,000-1,00,000 ई.पू.) 2. मध्य पुरापाषाण काल (1,00,000- 40,000 ई.पू.) 3. उच्च पुरापाषाण काल (40,000- 10,000 ई.पू.)

मध्य पाषाण काल (Middle Stone Age) इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, जिन्हें लघु पाषाणोपकरण माइक् रोलिथ कहते थे। पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले कच्चे पदार्थ क्वार्टजाइट के स्थान पर मध्य पाषाण काल में जेस्पर, एगेट, चर्ट और चालसिडनी जैसे पदार्थ प्रयुक्त किये गये। इस समय के प्रस्तर उपकरण राजस्थान, मालवा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं मैसूर में पाये गये हैं। अभी हाल में ही कु छ अवशेष मिर्जापुर के सिंगरौली, बांदा एवं विन्ध्य क्षेत्र से भी प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थि-पंजर के कु छ अवशेष प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के सराय नाहर राय तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन जीवन भी शिकार पर अधिक निर्भर था। इस समय तक लोग पशुओं में गाय, बैल, भेड़, घोड़े एवं भैंसों का शिकार करने लगे थे।

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जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण के रल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं। यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है। कृ षि संबंधी प्रथम साक्ष्य ‘साम्भर’ राजस्थान में पौधे बोने का है जो ईसा से सात हज़ार वर्ष पुराना है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच सिंधु घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो (मुअन-जोदाड़ो) और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। वेदों में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है। मध्य पाषाण काल के अन्तिम चरण में कु छ साक्ष्यों के आधार पर प्रतीत होता है कि लोग कृ षि एवं पशुपालन की ओर आकर्षित हो रहे थे इस समय मिली समाधियों से स्पष्ट होता है कि लोग अन्त्येष्टि क्रिया से परिचित थे। मानव अस्थिपंजर के साथ कहीं-कहीं पर कु त्ते के अस्थिपंजर भी मिले है जिनसे प्रतीत होता है कि ये लोग मनुष्य के प्राचीन काल से ही सहचर थे। बागोर और आदमगढ़ में छठी शताब्दी ई.पू. के आस-पास मध्य पाषाण युगीन लोगों द्वारा भेड़े, बकरियाँ रख जाने का साक्ष्य मिलता है। मध्य पाषाण युगीन संस्कृ ति के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं –

स्थल

क्षेत्र 1- बागोर राजस्थान 2- लंघनाज गुजरात 3- सराय नाहरराय, चोपनी माण्डो, महगड़ा व दमदमा उत्तर प्रदेश 4- भीमबेटका, आदमगढ़ मध्य प्रदेश

नव पाषाण अथवा उत्तर पाषाण काल (Neolithic or North Stone Age) साधरणतया इस काल की सीमा 3500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है। यूनानी भाषा का Neo शब्द नवीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए इस काल को ‘नवपाषाण काल‘ भी कहा जाता है। इस काल की सभ्यता भारत के विशाल क्षेत्र में फै ली हुई थी। सर्वप्रथम 1860 ई. में ‘ली मेसुरियर’ Le Mesurier ने इस काल का प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तर प्रदेश की टौंस नदी की घाटी से प्राप्त किया। इसके बाद 1872 ई. में ‘निबलियन फ़्रेज़र’ ने कर्नाटक के ‘बेलारी’ क्षेत्र को दक्षिण भारत के उत्तर-पाषाण कालीन सभ्यता का मुख्य स्थल घोषित किया। इसके अतिरिक्त इस सभ्यता के मुख्य के न्द्र बिन्दु हैं – कश्मीर, सिंध प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम आदि।

ताम्र-पाषाणिक काल (Copper-stone age) जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और तांबे के औज़ारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ कहते हैं। सर्वप्रथम जिस धातु को औज़ारों में प्रयुक्त किया गया वह थी – ‘तांबा’। ऐसा माना जाता है कि तांबे का सर्वप्रथम प्रयोग क़रीब 5000 ई.पू. में किया गया। भारत में ताम्र पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट् र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में हैं। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में स्थित ‘बनास घाटी’ के सूखे क्षेत्रों में ‘अहाड़ा’ एवं ‘गिलुंड’ नामक स्थानों की खुदाई की गयी। मालवा, एवं ‘एरण’ स्थानों पर भी खुदाई का कार्य सम्पन्न हुआ जो पश्चिमी मध्य प्रदेश में स्थित है। खुदाई में मालवा से प्राप्त होनेवाले ‘मृद्भांड’ ताम्रपाषाण काल की खुदाई से प्राप्त अन्य मृद्भांडों में सर्वात्तम माने गये हैं। पश्चिमी महाराष्ट् र में हुए व्यापक उत्खनन क्षेत्रों में अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा एवं दायमाबाद, पुणे ज़िले में सोनगांव, इनामगांव आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं। ये सभी क्षेत्र ‘जोर्वे संस्कृ ति‘ के अन्तर्गत आते हैं।

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इस संस्कृ ति का समय 1,400-700 ई.पू. के क़रीब माना जाता है। वैसे तो यह सभ्यता ग्रामीण भी पर कु छ भागों जैसे ‘दायमाबाद’ एवं ‘इनामगांव’ में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी। ‘बनासघाटी’ में स्थित ‘अहाड़’ में सपाट कु ल्हाड़ियां, चूड़ियां और कई तरह की चादरें प्राप्त हुई हैं। ये सब तांबे से निर्मित उपकरण थे। ‘अहाड़’ अथवा ‘ताम्बवली’ के लोग पहले से ही धातुओं के विषय में जानकारी रखते थे। अहाड़ संस्कृ ति की समय सीमा 2,100 से 1,500 ई.पू. के मध्य मानी जाती है। ‘गिलुन्डु’, जहां पर एक प्रस्तर फलक उद्योग के अवशेष मिले हैं, ‘अहाड़ संस्कृ ति’ का के न्द्र बिन्दु माना जाता है। इस काल में लोग गेहूँ, धान और दाल की खेती करते थे। पशुओं में ये गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर और ऊँ ट पालते थे। ‘जोर्वे संस्कृ ति’ के अन्तर्गत एक पांच कमरों वाले मकान का अवशेष मिला है। जीवन सामान्यतः ग्रामीण था। चाक निर्मित लाल और काले रंग के ‘मृद्‌भांड’ पाये गये हैं। कु छ बर्तन, जैसे ‘साधारण तश्तरियां’ एवं ‘साधारण कटोरे’ महाराष्ट् र और मध्य प्रदेश में ‘सूत एवं रेशम के धागे’ तथा ‘कायथा’ में मिले ‘मनके के हार’ के आधार पर कहा जा एकता है कि ‘ताम्र-पाषाण काल’ में लोग कताई-बुनाई एवं सोनारी व्यवसाय से परिचित थे। इस समय शवों के संस्कार में घर के भीतर ही शवों का दफ़ना दिया जाता था। दक्षिण भारत में प्राप्त शवों के शीश पूर्व और पैर पश्चिम की ओर एवं महाराष्ट् र में प्राप्त शवों के शीश उत्तर की ओर एवं पैर दक्षिण की ओर मिले हैं। पश्चिमी भारत में लगभग सम्पूर्ण शवाधान एवं पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान का प्रचलन था। इस काल के लोग लेखन कला से अनभिज्ञ थे। राजस्थान और मालवा में प्राप्त मिट्टी निर्मित वृषभ की मूर्ति एवं ‘इनाम गांव से प्राप्त ‘मातृदेवी की मूर्ति’ से लगता है कि लोग वृषभ एवं मातृदेवी की पूजा करते थे। तिथि क् रम के अनुसार भारत में ताम्र-पाषाण बस्तियों की अनेक शाखायें हैं। कु छ तो ‘प्राक् हड़प्पायी’ हैं, कु छ हड़प्पा संस्कृ ति के समकालीन हैं, कु छ और हड़प्पोत्तर काल की हैं। ‘प्राक् हड़प्पा कालीन संस्कृ ति’ के अन्तर्गत राजस्थान के ‘कालीबंगा’ एवं हरियाणा के ‘बनवाली’ स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के हैं। 1,200 ई.पू. के लगभग ‘ताम्र-पाषाणिक संस्कृ ति’ का लोप हो गया। के वल ‘जोर्वे संस्कृ ति‘ ही 700 ई.पू. तक बची रह सकी। सर्वप्रथम चित्रित भांडों के अवशेष ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ में ही मिलते हैं। इसी काल के लोगों ने सर्वप्रथम भारतीय प्राय:द्वीप में बड़े बड़े गांवों की स्थापना की।

संस्कृ ति 1- अहाड़ संस्कृ ति 2- कायथ संस्कृ ति 3- मालवा संस्कृ ति 4- सावलदा संस्कृ ति . 5- जोर्वे संस्कृ ति 6- प्रभास संस्कृ ति 7- रंगपुर संस्कृ ति

काल लगभग 1700-1500 ई.पू. लगभग 2000-1800 ई.पू. लगभग 1500-1200 ई.पू. लगभग 2300-2200 ई.पू लगभग 1400-700 ई.पू. लगभग 1800-1200 ई.पू. लगभग 1500-1200 ई.पू.

प्रागैतिहासिक कालीन संस्कृ ति एवं विशेषताएं संस्कृ ति के लक्षण शल्क, निम्न गंडासा, पुरापाषाण खंडक, काल उपकरण, संस्कृ ति मध्य खुरचनी, पुरापाषाण वेधक काल संस्कृ ति उच्च फलक एवं पुरापाषाण तक्षिणी काल संस्कृ ति काल

मुख्य स्थल

महत्व उपकरण एवं विशेषताएं

पंजाब, कश्मीर, सोहन घाटी, सिंगरौली हस्त कु ठार एवं वाटिकाश्म उपकरण, होमो घाटी, छोटा नागपुर, नर्मदा घाटी, कर्नाटक, इरेक्टस के अस्थि अवशेष नर्मदा घाटी से आंध्र प्रदेश प्राप्त हुए हैं | नेवासा (महाराष्ट्र), डीडवाना (राजस्थान), फलक, बेधनी,  भीमबेटका से गुफा भीमबेटका (मध्य प्रदेश) नर्मदा घाटी, चित्रकारी मिली है | बाकुं डा, पुरुलिया (पश्चिम बंग) प्रारंभिक होमोसेपियंस मानव का काल, बेलन घाटी, छोटा नागपुर पठार, मध्य भारत, हार्पून,  फलक एवं हड्डी के उपकरण प्राप्त गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश हुए | बे

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मध्य पाषाण काल

सुक्ष्म पाषाण संस्कृ ति

पॉलिश्ड़ नवपाषाण उपकरण काल संस्कृ ति

आदमगढ़, भीमबेटका (मध्य प्रदेश), बागोर (राजस्थान), सराय नाहर राय (उत्तर प्रदेश) बुर्जहोम और गुफ्कराल लंघनाज(गुजरात), दमदमा (कश्मीर), कोल्डिहवा (उत्तर प्रदेश), चिरौंद (बिहार), पौयमपल्ली (तमिलनाडु), ब्रह्मगिरि, मस्की (कर्नाटक)

सूक्ष्म पाषाण उपकरण बढ़ाने की तकनीकी का विकास, अर्धचंद्राकार उपकरण, इकधार फलक, स्थाई निवास का साक्ष्य पशुपालन |   प्रारंभिक कृ षि संस्कृ ति, कपड़ा बनाना, भोजन पकाना, मृदभांड निर्माण, मनुष्य स्थाई निवास बना, पाषाण उपकरणों की पॉलिश शुरू, पहिया, अग्नि का प्रचलन |

Quick Revision भारत में पुरा पाषाण युगीन सभ्यता का विकास प्लाइस्टोसीन या हिम युग से हुआ। प्रस्तर युग या पाषाण युग को मानव द्वारा प्रयोग में लाये गये पत्थर के उपकरणों की बनावट तथा जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है  1. पुरा पाषाण काल (Paleolithic Age) 2. मध्य पाषाण काल (Mesolithic Age) 3. उत्तर अथवा नव पाषाण काल . (neolithic Age) पुरा पाषाण काल में मानव शरीर के अवशेषों का अभाव रहा है। हिमयुग का अधिकांश हिस्सा इसी काल से गुजरा। इस काल में ‘चापरचापिंग’ (पेबुला) परम्परा के अन्तर्गत गोल पत्थरों को तोड़कर हथियार बनाये गये, जिसके अवशेष पंजाब की सोहन नदी घाटी से मिलते हैं। हस्त कु ठार (हैण्ड ऐक्स) परम्परा के हथियार मद्रास से प्राप्त हुए हैं। मद्रास के अतिरिक्त इस काल के औजारों के अवशेष मिर्जापुर (उ० प्र०) के बेलन घाटी, दिदवाना (राजस्थान) तथा नर्मदा नदी की घाटी से प्राप्त होते हैं। भीमबेतका (मध्य प्रदेश) की गुहाओं में तत्कालीन मनुष्यों के आवास के अवशेष मिले हैं। इस युग का मानव आग से अनभिज्ञ था। कच्चा मांस अथवा फल-फू ल खाया करता था। स्थायी निवास के अभाव में इस समय का मानव खानाबदोश का जीवन जीता था। कृ षि कर्म तथा पशुपालन से विमुख इस समय का मानव पूर्णत: आखेटक का जीवन जीता था। मध्यपाषाण काल के लोग शिकार करने, मछली पकड़ने, खाद्य-सामग्री को एकत्र करने के साथ-साथ पशुपालन भी करने लगे। मध्य प्रदेश के ‘आदमगढ़ तथा राजस्थान के बागोर’ से पशुपालन के सबसे पुराने साक्ष्य मिलते हैं। इस काल में शिकार में प्रयुक्त होने वाले औजार बहुत छोटे होते थे, जिन्हें ‘माइक् रोलिथ’ (लघु पाषाणों पकरण) कहा जाता था। छोटे आकार के पत्थरों से निर्मित उपकरण राजस्थान, गुजरात, मालवा, पश्चिमी बंगाल, आंध्रप्रदेश तथा मैसूर से प्राप्त हुए हैं। सम्भवत: पहला मानव अस्थिपंजर मध्य पाषाण में ही मिला। प्रतापगढ़ के ‘सरायनाहरराय’ तथा ‘महदहा’ नामक स्थान से मध्य पाषाणकाल के प्रथम मानव अस्थिपंजर मिले। इस काल में मानव थोडा बहुत कृ षि कर्म तथा बर्तन निर्माण कला से भी परिचित होने लगा था। मध्य पाषाण काल में ही भारत में गुफा चित्रकारी के अवशेष मिले हैं। विंध्याचल की गुफाओं में अनेक आखेट, नृत्य एवं युद्ध से संबंधित प्रगैतिहासिक चित्र मिले हैं। सम्भवतः इस काल के लोग अन्त्येष्टि क्रिया से भी परिचित थे। | ‘नवपाषाण युग’ के लोग पालिशदार पत्थर के औजारों तथा हथियारों का प्रयोग करते थे। इस समय के औजारों में कु ल्हाड़ी का महत्वपूर्ण स्थान था। ‘ले मेसुरियर महोदय’ ने 1860 में टोंस नदी की घाटी से प्रथम नव पाषाण उपकरण प्राप्त किया। उत्तर-पश्चिम में स्थित कश्मीर में नवपाषाण संस्कृ ति की कई विशेषताएं देखने को मिलती हैं, जिसमें मुख्य है गर्तनिवास । श्रीनगर के बुर्जाहोम’ (जन्मस्थान) नामक स्थान पर इस काल के लोग | झील के किनारे गर्तावासों (गड्ढों) में रहते थे। गर्तनिवास का एक और स्थान था ‘गुफकराल जो श्रीनगर से 41 कि० मी० दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यहाँ के लोग कृ षि और पशुपालन दोनों करते थे। नवपाषाण युग के लोग हड्डी द्वारा बने हथियारों का भी प्रयोग करते थे। हड्डी के हथियार पटना (बिहार) के चिरौद नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। बुर्जाहोम के लोग रूखड़े धूसर मृदभाण्ड का भी प्रयोग करते थे। यहाँ कब्रों में मालिकों के साथ उनके कु त्तों को भी दफनाया जाता था। सम्भवत: यह परम्परा इस काल में अन्यत्र देखने को नहीं मिली। नव पाषाण युग की मुख्य उपलब्धि थी खाद्य उत्पादन का आविष्कार, पशुओं के प्रयोग की जानकारी, स्थिर ग्रामीण जीवन आदि। कृ षि का प्रथम स्पष्ट साक्ष्य नव पाषाण युग में ही सिंध और बलूचिस्तान की सीमा पर कच्छी मैदान में बोलन नदी के तट पर स्थित ‘मेहरगढ़’ नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।

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यहाँ के लोगों द्वारा गेहूँ, जौ और कपास पैदा करने का अनुमान लगाया जा सकता है। सम्भवत: ये कच्चे ईंटों से निर्मित घरों में रहते थे। इलाहाबाद के ‘कोल्डीहवा’ स्थान से चावल की खेती के प्राचीनतम साक्ष्य मिलते हैं। कु म्भकारी की स्पष्ट शुरुआत इसी काल में हुई।

स्मरणीय तथ्य   1. इतिहास के जिस काल की जानकारी के लिए लिखित साधन का अभाव है तथा मानव असभ्य जीवन जी रहा था उसे प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है 2. जिस काल की जानकारी के लिए लिखित साधन तो उपलब्ध हैं परंतु उसे पढ़ा नहीं जा सकता उसे आद्य इतिहास कहा जाता है हडप्पा का इतिहास काल है 3. इतिहास किए जिस काल की जानकारी के स्रोत के रूप में लिखित साधन उपलब्ध हैं उसे ऐतिहासिक काल कहा जाता है 4. मानव का अस्तित्व पृथ्वी पर अति नूतन काल के आरंभ में हुआ था 5. गर्त आवास का साक्ष्य गुफ्फ्कर्ल, बुर्जहोम तथा  नागार्जुनकोंडा से मिला है 6. बेलन घाटी क्षेत्र पुरापाषाण काल के तीनों चरणों से जुड़ा है 7. भीमबेटका से गुफा चित्रकारी के साक्ष्य मिले हैं 8. मध्य प्रदेश के आजमगढ़ तथा राजस्थान के बागोर से पशुपालन के सबसे पुराने साक्ष्य मिले हैं 9. मेहरगढ़ से सर्व प्रथम कृ षि का साक्ष्य मिला है 10. नव पाषाण युग के हथियार बिहार के चिरांद नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं 11. इलाहाबाद के कोल्डीहवा स्थान से चावल की खेती के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं 12. गर्तचूल्हे का प्राचीन साक्ष्य लंघनाज तथा सराय नाहर राय से मिला है 13. कु पगल तथा काडेकल से राख का टीला मिला है 14. मृदभांड निर्माण का प्राचीनतम साक्ष्य जो चौपानी मांडो से मिला है 15. मनुष्य के साथ पालतू पशु को दफनाने का साक्ष्य बुर्जहोम से मिला है

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प्राचीन भारतीय सिक्कों का संक्षिप्त इतिहास ⋮ 28/5/2019

1. पुरातात्विक स्रोतों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि 7वीं शताब्दी ई० पू० के लगभग पश्चिमी एशिया के अन्तर्गत यूनानी नगरों में सर्वप्रथम सिक्के प्रचलन में आये। 2. वैदिक ग्रंथों में आये ‘निष्क‘ और ‘शतमान‘ का प्रयोग वैदिक काल में सिक्कों के रूप में भी होता था। 3. भारत में धातु के सिक्के सर्वप्रथम गौतमबुद्ध के समय में प्रचलन में आये, जिसका समय 500 ई० पू० के लगभग माना जाता है। 4. बुद्ध के समय पाये गये सिक्के ’ आहत सिक्के ‘ (Punch Marked) कहलाये। इन सिक्कों पर पेड़, मछली, साँड़, हाथी, अर्द्धचंद्र आदि की आकृ ति बनी होती थी। ये सिक्के अधिकांशतः चाँदी के तथा कु छ ताँबे के बने होते थे। ठप्पा मार कर बनाये जाने के कारण इन सिक्कों को ‘आहत सिक्का’ कहा गया। 5. आहत सिक्कों का सर्वाधिक पुराना भण्डार पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध से प्राप्त हुआ है। 6. मौर्यकाल में सोने के सिक्के के रूप में ‘निष्क’ तथा ‘सुवर्ण’ का, चाँदी के सिक्के के रूप में ‘कार्षापण’ या ‘ धरण’ का, ताँबे के सिक्के के रूप में ‘मापक’ तथा ‘काकण’ का प्रयोग होता था। 7. भारत में सर्वप्रथम भारतीय यूनानियों ने सोने के सिक्के जारी किये। 8. सोने के सिक्के सर्वप्रथम बड़े पैमाने पर कु षाण शासक कडफिसस द्वितीय द्वारा चलाये गये। 9. कनिष्क ने अधिक मात्रा में ताँबे के सिक्के जारी किये। 10. मौर्योत्तर काल में सोने के निष्क, सुवर्ण तथा पल, चाँदी का शतमान, ताँबे का काकिनी सिक्का प्रचलन में था। 11. चार धातुओं सोना, चाँदी, ताँबा तथा सीसे के मिश्रण से ‘कार्षापण’ सिक्का बनाया जाता था। 12. गुप्तकाल में सर्वाधिक सोने के सिक्के जारी किये गये परन्तु इनकी शुद्धता पूर्वकालीन कु षाणों के सिक्के की तुलना में कम थी। 13. गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के ‘दीनार’ कहे जाते थे। दैनिक लेन-देन में ‘कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था। 14. कु षाणकालीन सोने के सिक्के 124 ग्रेन के तथा गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के 144 ग्रेन के होते थे। 15. सोने, चाँदी, ताँबा, पोटिन तथा काँसा द्वारा बने सर्वाधिक सिक्के मौर्योत्तर काल में जारी किये गये। 16. 650 ई० से 1000 ई० के बीच सोने के सिक्के प्रचलन से बाहर हो गये। 17. 9 वीं सदी में प्रतिहार शासकों के कु छ सिक्के मिलते हैं। 7 वीं सदी से 11 वीं सदी के मध्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, एवं गुजरात में ‘गधैया सिक्के ‘ पाये गये। इन सिक्कों पर अग्निवेदिका का चित्रण है। 18. ग्रीक शासकों के ड्रामा तांबे के सिक्कों के तर्ज पर प्रतिहार एवं पाल शासकों ने चांदी ‘द्रम्म’ सिक्के जारी किये। ये भी पढ़ें – हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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प्राचीन काल के प्रमुख राजवंश संस्थापक एवं राजधानी ⋮ 30/3/2018

राजवंश संस्थापक राजधानी हर्यक वंश बिंबिसार राजगृह, पाटलिपुत्र शिशुनागवंश शिशुनाग पाटिलपुत्र नंद वंश महापद्मनंद पाटिलपुत्र मौर्य वंश चंद्रगुप्त मौर्य पाटिलपुत्र शुंग वंश पुष्यमित्र शुंग पाटिलपुत्र कण्व वंश वसुदेव पाटिलपुत्र सातवाहन वंश सिमुक प्रतिष्ठान इक्ष्वाकु वंश श्री शांतमूल नागार्जुनीकोण्ड कु षाण वंश कडफिसस प्रथम पुरुषपुर (पेशावर), मथुरा गुप्त वंश श्रीगुप्त पाटिलपुत्र हूण वंश तोरमाण शाकल (सियालकोट) पुण्य भूति/वर्धन वंश नरवर्ध्द्न थानेश्वर, कन्नौज पल्लव वंश सिंहबर्मन चतुर्थ कांचीपुरम राष्ट्रकू ट वंश दंती बर्मन मान्यखेत पाल वंश गोपाल मुंगेर (बंगाल) गुर्जर प्रतिहार हरीश चंद्र कन्नौज सेन वंश सामंत सेन राढ़ गहड़वाल वंश चंद्रदेव कन्नौज चौहान वंश वासुदेव अजमेर चंदेल वंश नन्नूक खजुराहो गंग वंश वज्रहस्त पंचम पुरी (उड़ीसा) उत्पल वंश अवंती बर्मन कश्मीर परमार वंश उपेंद्र या कृ ष्णराज धार, उज्जैन सोलंकी वंश मूलराज प्रथम अन्हिलवाड़ कलचुरी वंश कोकल्ल त्रिपुरी चोल वंश विजयालय तंजावुर हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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हडप्पा सभ्यता- सिन्धु घाटी की सभ्यता ⋮ 5/6/2019

हडप्पा सभ्यता- सिन्धु घाटी की सभ्यता | Harappa/Hadappa Sabhyata in Hindi इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता इसलिए कहा जाता है क्योंकि सर्वप्रथम 1921 में पाकिस्तान के शाहीवाल जिले के हड्प्पा नामक स्थल से इस सभ्यता की जानकारी प्राप्त हुई। 1922 में जब मोहनजोदड़ो एवं अन्य स्थलों का पता चला तब यह मानकर कि सिन्धु घाटी के इर्द-गिर्द ही इस सभ्यता का विस्तार है, उसका नामकरण ‘सिन्धु घाटी की सभ्यता’ किया गया। परन्तु यह नाम भी इस सभ्यता के सही-सही भौगोलिक परिप्रेक्ष्यों में अपर्याप्त है। अत: इसका उपयुक्त नाम हड़प्पा ही है क्योंकि किसी लुप्त सभ्यता का नामकरण प्राय: उस नाम के ऊपर कर दिया जाता है। जहाँ से सबसे पहले इस सभ्यता से सम्बन्धित सामग्री मिलती है। वर्तमान में हड़प्पा सभ्यता का क्षेत्रफल 1,2,99,600 वर्ग मील है। इसका विस्तार पश्चिम में सुत्कगेन्डोर के मकरान तट से पूर्व में आलमगीर पुर (मेरठ जिला) एवं उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक था। सबसे उत्तर में गुमला एवं सबसे दक्षिण में सूरत जिले का हलवाना इसमें सम्मिलित हैं।

सैन्धव सभ्यता के महत्वपूर्ण स्थलों की स्थिति तथा परिचय बलूचिस्तान सुत्के गेन्डोर- इसका पता 1927 में जार्ज डेल्स ने लगाया था। 1962 में जार्ज डेल्स ने इसका पुरात्वेषण किया। यह स्थल दाश्क नदी के किनारे स्थित है। यहाँ एक बन्दरगाह, दुर्ग एवं निचले नगर की रूपरेखा मिली। एक बन्दरगाह के रूप में सम्भवतः सिन्धु सभ्यता, फारस एवं बेबीलोन के मध्य होने वाले व्यापार में इस स्थल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। सोत्काकोह – यह शादी कौर नदी के मुहाने पर स्थित है। 1962 में इसे डेल्स ने खोजा था। यहाँ पर भी ऊपरी एवं निचली दो टीले मिले हैं। यह बन्दरगाह न होकर समुद्र तट एवं समुद्र से दूरवर्ती भू-भाग के मध्य व्यापार का के न्द्र रहा होगा। डाबरकोट – यह विंदार नदी के मुहाने पर स्थित है।

सिन्धु मोहनजोदड़ो -सिन्धु नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित सिन्धु सभ्यता के एक के न्द्र के रूप में मोहनजोदड़ो (मृतकों का टोला) की खोज 1922 में राखलदास बनर्जी ने उस समय की जब वे एक बौद्ध स्तूप का वहाँ पर उत्खनन करवा रहे थे। मार्शल के नेतृत्व में 1922 से 1923 तक यहाँ पुनः खुदाई कराई गई । यहाँ नगर निर्माण के चरण प्राप्त हुए हैं। 1950 में सर मार्टिमर व्हीलर ने पुन: यहाँ की खुदाई कराई । सन् 1964 और 1966 में अमरीका के पुरातत्वविद् डेल्स ने पुनः यहाँ उत्खनन करवाया। कोटदीजी – 1935 में धुर्ये ने इस स्थल से कु छ बर्तन इत्यादि प्राप्त किये थे। 1955-57 में फजल अहमद ने इस स्थल का

उत्खनन करवाया। यहाँ पर सिन्धु सभ्यता के नीचे एक और संस्कृ ति के अवशेष मिले जिसे कोटदीजी संस्कृ ति कहा गया। यहाँ सिन्धु सभ्यता से सम्बन्धित बाणाग्न मिले हैं। यहाँ मकान कच्ची ईंटों के बने हैं परन्तु नीवों में पत्थर का प्रयोग हुआ है। चन्हूदडो – यह स्थल मोहनजोदड़ो से दक्षिण-पूर्व दिशा में लगभग 128.75 कि० मी० की दूरी पर स्थित है। यहाँ एक ही गढी प्राप्त है। ननी गोपाल मजूमदार ने इस स्थल को 1931 में ढू ढ़ा था। पुन: मैके ने 1935 में इस स्थल का उत्खनन करवाया था। चन्हूदडो

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में सिन्धु सभ्यता के पूर्व की संस्कृ तियों झूकर एवं झांगर संस्कृ ति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

पंजाब हड़प्पा – हड़प्पा पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के शाहीवाल जिले में रावी नदी के बाएँ किनारे पर स्थित है। 1921 में दयाराम साहनी एवं माधोस्वरूप वत्स ने इस स्थल का अन्वेषण किया। वैसे इनके पूर्व भी 1826 में चार्ल्स मैसन एवं 1853 एवं 1873 में जनरल कनिंघम ने हड्प्पा के टीले एवं इसके पुरातात्विक महत्व का लिखित उल्लेख किया था। 1946 में व्हीलर के निर्देशन में यहाँ उत्खनन हुआ। अनुमानत: हड़प्पा का प्राचीन नगर मूल रूप में 5 कि० मी० के क्षेत्र में बसा था। रोपड़ – पंजाब में शिवालिक पहाड़ी की उपत्यका में स्थित इस स्थल की खुदाई यज्ञदत्त शर्मा के निर्देशन में 1955 से 1956 तक हुई। रोपड़ में सिन्धु सभ्यता के अतिरिक्त 5 अन्य सिन्धु-उत्तर संस्कृ तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ से कांचली मिट्टी एवं अन्य पदार्थों के आभूषण, ताम्र कु ल्हाड़ी, चार्ट फलक, ताँबे की कु ल्हाड़ी प्राप्त हुई है। एक कब्रिस्तान भी मिला है। बाड़ा – यह स्थल रोपड़ के पास ही स्थित है। संघोल – यह स्थल पंजाब प्रान्त के लुधियाना जिले में स्थित है, जिसकी खुदाई एस० एस० तलवार एवं रविन्द्र सिंह विष्ट ने कराई थी। यहाँ से ताँबे की दो छेनियाँ, काँचली मिट्टी की चूड़ियाँ, बाली और मनके प्राप्त हुए हैं। यहाँ कु छ वृत्ताकार गर्त मिले जो अग्नि स्थल के रूप में प्रयुक्त लगते हैं।

हरियाणा राखी गढ़ी – हरियाणा प्रान्त के जिंद जिले में स्थित इस स्थल की खोज सूरजभान और आचार्य भगवान देव ने की थी यहाँ से सिन्धु पूर्व सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं यहाँ से ताँबे के उपकरण एवं सिन्धुलिपियुक्त एक लघु मुद्रा भी उपलब्ध हुई है। बणावली या बनवाली – यह हिसार जिले में सरस्वती नदी, जो अब सूख चुकी है, की घाटी में स्थित है। रविन्द्र सिंह विष्ट ने 197374 में यहाँ उत्खनन करवाया। यहाँ प्राप्त पुरातात्विक सामग्रियों में ताँबे के बाणाग्र, उस्तरे, मनके , पशु और मानव मृण्मूर्तियाँ, बाट बटखरे, मिट्टी की गोलियाँ, सिन्धु लिपि में अंकित लेख वाली मुद्रा आदि प्राप्त हुई है। मीत्ताथल – हरियाणा प्रदेश में भिवानी जिले में स्थित इस स्थल का उत्खनन 1968 में सूरजभान ने करवाया।

राजस्थान कालीबंगा – राजस्थान प्रान्त के गंगानगर जिले में स्थित घघ्घर (प्राचीन सरस्वती) के किनारे कालीबंगा स्थित है। यहाँ सिन्धु सभ्यता के साथ-साथ सिन्धु-पूर्व सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। 1961 में ब्रजवासी लाल एवं बालकृ ष्ण थापड़ के निर्देशन में 1961 में यहाँ खुदाई सम्पन्न हुई। 6 यहाँ खुदाई में दो टीले मिले हैं। दोनों टीले सुरक्षा दीवारों से घिरे हैं।

उत्तर प्रदेश आलमगीरपुर – 6 यह हिण्डन नदी के तट पर स्थित है।

गुजरात रंगपुर – यह मादर नदी के तट पर स्थित है, जहाँ माधोस्वरूप वत्स ने 1931-34 में तथा रंगनाथ राव ने 1953-54 में उत्खनन करवाया। लोथल – यह काठियावाड़ में स्थित है। यहाँ पर एक गोदी मिली है जो समुद्री आवागमन तथा व्यापार के लिए महत्वपूर्ण थी । यहाँ मनकों का एक कारखाना मिला है हाथी के दाँत भी मिले हैं। सुरकोतड़ा – कच्छ में स्थित सुरकोतड़ा की खोज श्री गजपत जोशी ने 1964 ई० में की। यहाँ सिन्धु सभ्यता के बर्तनों के साथ ही एक नयी तरह का लाल भाण्ड भी मिला है। यहाँ शवाधान के उदाहरण मुख्यत: अस्थि कलशों के रूप में मिले हैं। बड़ी चट्टान से ढकी एक कब्र भी मिली है। | यहाँ घोड़े की हड्डियाँ भी मिली हैं। ।

सिंधु सभ्यता के प्रमुख स्थल एवं उनकी स्थिति खो

र्ता 2/13

स्थल

खोज 

उत्खनन कर्ता

नदी तट

स्थिति

हड़प्पा

1921

दयाराम साहनी

रावी के बाएं किनारे सिंधु के दाहिने किनारे पर

मॉन्टगोमरी जिला (पाकिस्तान)

मोहनजोदड़ो 1922

राखल दास बनर्जी

सुत्कागेण्डोर 1927

ऑरेल स्टाइल एवं जॉर्ज डेल्स एम जे मजूमदार बी बी लाल एवं बी के थापर फजल अहमद

1931 1953 1953 1953रंगपुर 54 1953रोपड़ 56 लोथल 1955 आलमगीरपुर 1958 बनावली 1974 धोलावीरा 1990 सुरकोतदा 1972 राखीगढ़ी 1963 1963बालाकोट 76 चन्हुदड़ो कालीबंगा कोटदीजी

लरकाना जिला (सिंध) पाकिस्तान

सिंधु के बाएं किनारे घग्घर (सरस्वती) सिंधु

मकरान तट (बलूचिस्तान) पाकिस्तान सिंध प्रांत पाकिस्तान राजस्थान सिंध प्रांत पाकिस्तान

रंगनाथ राव

मादर

गुजरात

यज्ञदत्त शर्मा

सतलज

पंजाब

रंगनाथ राव यज्ञदत्त शर्मा रविंद्र सिंह बिष्ट रविंद्र सिंह बिष्ट जगपति जोशी प्रो. सूरजभान

भोगवा हिंडन रंगोई लूनी कच्छ का रन –

गुजरात उत्तर प्रदेश हरियाणा गुजरात कच्छ जिला गुजरात हरियाणा

जी एफ डेल्स

विंदार

पाकिस्तान

दशक

सिन्धु सभ्यता का उद्भव व्हीलर का मत है कि मेसोपोटामिया के लोग ही सिन्धु सभ्यता के जनक थे। गार्डन का मत है कि मेसोपोटामिया के लोग समुद्री मार्ग से यहाँ आए तथा नये वातावरण में नये सिरे से चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने के फलस्वरूप यहाँ नई संस्कृ ति का विकास किये। फे यर सर्विस के अनुसार इस सभ्यता का उद्भव और विस्तार बलूची संस्कृ तियों का सिंधु प्रदेश की आखेट पर निर्भर करने वाली किन्हीं वन्य और कृ षक संस्कृ तियों के पारस्परिक प्रभाव के फलस्वरूप हुआ। अमलानंद घोष ने सोथी (बीकानेर एवं गंगानगर क्षेत्र-राजस्थान) या ‘कालीबंगा प्रथम संस्कृ ति का हड़प्पा संस्कृ ति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान माना हैं । जगपति जोशी ने भी इनके मत का समर्थन किया है। धर्मपाल अग्रवाल, ब्रिजेट आल्चिन, रेमण्ड आल्चिन आदि विद्वानों ने यह धारणा व्यक्त की है कि सोथी संस्कृ ति (राजस्थान) सिन्धु सभ्यता से पूर्व कोई संस्कृ ति नहीं थी, प्रत्युत वह सिन्धु सभ्यता का ही प्रारम्भिक रूप थी।

सिन्धु सभ्यता की विशेषताएँ एवं स्थापत्य योजना सिन्धु संस्कृ ति की विशेषता है इसकी नगर योजना – सिन्धु सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर हैं। सिन्धु सभ्यता के नगरों में मकान जाल की तरह बसाये गये थे। | प्राय: सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं तथा नगर को आयताकार खण्डों में विभक्त करती थीं मोहनजोदड़ो की सबसे चौड़ी सड़क 10 मी० से कु छ अधिक चौड़ी है। अधिकांश नगरों में दुर्ग बने हुए थे जहाँ सम्भवत: शासक वर्ग के लोग रहते थे। दुर्ग के बाहर निचले स्तर पर ईंटों के मकानों वाला शहर बसा था, जहाँ सामान्य लोग रहते थे। 6 सिन्धु सभ्यता में किसी भी सड़क को ईंट आदि बिछाकर पक्का नहीं बनाया गया था। सिन्धु सभ्यता के प्रत्येक भवन में स्नानागार एवं घर के गंदे जल की निकासी के लिए नालियों का प्रबंध था। कई घरों में कु एँ भी थे। गलियों की चौड़ाई 1 मी० से 2.2 मी० तक था। 3/13

भवन निर्माण में पक्की एवं कच्ची दोनों तरह की ईंटों का प्रयोग हुआ है। सिंधु संस्कृ ति के नागरिक भवन निर्माण में सजावट और बाहरी आडम्बर के विशेष प्रेमी नहीं थे। उनके भवनों में विशेष अलंकरण नहीं दिखायी पड़ता है। ईंटों पर भी किसी तरह का अलंकरण नहीं होता था। कालीबंगा की फर्श एकमात्र अपवाद है, जिसके निर्माण में अलंकृ त ईंटों का प्रयोग हुआ है। सिन्धु सभ्यता के अवशेषों में मन्दिर स्थापत्य का कोई उदाहरण नहीं प्राप्त हुआ है। ॐ हड़प्पा की जल निकास प्रणाली विलक्षण थी। सम्भवत: किसी भी दूसरी सभ्यता ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्व नहीं दिया, जितना कि हड़प्पा संस्कृ ति के लोगों ने दिया था। ६ सिन्धु सभ्यता में प्रयुक्त ईंटें अलग-अलग प्रकार की हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त सबसे बड़ी ईंट 51.43 | से० मी० X 26.27 से० मी० की है। कु छ ईंट 35.83 से० मी० X 18.41 से० मी०X26.27 से० मी० की मिली है। सबसे छोटी ईंटें 24.13 से० मी० X11.05 से० मी० X 5.08 से० मी० की हैं। सामान्यतया व्यवहार में लाई गयी ईंटें 27.94 से० मी० X13.97 से० मी० X 6.35 से० मी० की हैं। जुड़ाई के लिए सैन्धव लोग मुख्यत: मिट्टी के गारे का प्रयोग करते थे। जुड़ाई के लिए जिप्सम के मिश्रण का प्रयोग भी हुआ है, परन्तु अत्यन्त कम।मोहनजोदड़ो की के वल एक ही इमारत विशाल स्नानागर में गिरिपुष्पक का प्रयोग हुआ है। नालियों की जुड़ाई में जिप्सम और चूने के मिश्रण का प्रयोग हुआ है। | दीवारों के मध्य में दरवाजे न होकर एक किनारे पर होते थे। लकड़ी के बने होने के कारण इनके अवशेष प्राप्य नहीं हैं। भवनों में खिड़कियों का निर्माण नहीं होता था। इमारतों की छतें समतल थीं। भवनों में स्तम्भों का प्रयोग होता था परन्तु अत्यन्त कम। वर्गाकार एवं चतुर्भुजाकार स्तम्भों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। वृत्ताकार स्तम्भों का प्रयोग नहीं हुआ है। सिन्धु सभ्यता के कु एँ वृत्ताकार अथवा अण्डाकार थे। अधिकांश कु एँ.91 मीटर व्यास वाले थे पर .61 मीटर वाले छोटे एवं 2.13 मीटर व्यास वाले के कु एँ भी मिले हैं।

विशेष स्थलों की निर्माण योजना हड़प्पा – हड़प्पा में नगर के दो खण्ड हैं, पूर्वी टीला (निचला नगर), पश्चिमी टीला-गढी पश्चिमी टीले का निर्माण कृ त्रिम चबूतरे पर किया गया है, इस खण्ड में किलेबन्दी पाई गयी है। किलेबन्दी में आने जाने का मुख्य मार्ग उत्तर में था। यहाँ उत्खनन में उत्तरी प्रवेश द्वार एवं रावी के किनारे के बीच एक ‘अन्न भण्डार’, ‘श्रमिक आवास’ एवं सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान भी मिला है। हड़प्पा में अन्न भंडार संख्या में 12 हैं जो छ: -छ: की दो कतारों में हैं। प्रत्येक खण्ड का क्षेत्रफल लगभग 15.24X6.10 मी० है। 12 अन्नागार भवनों का पूरा क्षे० 2745 वर्ग मी० के लगभग है। | अन्नागारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इस पर दो कतारों में ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे बने हैं। इसका उपयोग शायद फसल दावने के लिए होता था। सामान्य आवास के दक्षिण में एक कब्रिस्तान मिला है। मोहनजोदड़ो – यह नगर दो खण्डों में विभाजित है, पूर्वी एवं पश्चिमी, पश्चिमी भाग ऊँ चा परन्तु छोटा है पश्चिमी खण्ड के आसपास कच्ची ईंटों से किलेबंदी की दीवार बनी है जिसमें मीनारें और बुर्ज बने हैं। पश्चिमी गढ़ी में अनेक सार्वजनिक महत्व के स्थल स्थित हैं जैसे |‘अन्न भंडार, “पुरोहितवास’, महाविद्यालय भवन, विशाल स्नानागार आदि। मोहनजोदड़ो का सबसे प्रमुख सार्वजनिक स्थल था दुर्ग (पश्चिमी खण्ड) में स्थित विशाल स्नानागार, यह स्नानागार 11.88 मी० लंबा, 7.01 मी० चौड़ा एवं 2.43 मी० गहरा है। इस स्नानागार में नीचे उतरने के लिए उत्तर एवं दक्षिण सिरों में सीढियाँ बनी हुई थीं। इसकी फर्श पक्की ईंटों से बनी है। इस स्नानागार का इस्तेमाल आनुष्ठानिक स्नान के लिए होता था। मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत है यहाँ का धान्य कोठार, जो 45.71 मीटर लम्बा एवं 15.23 मीटर चौड़ा है। मोहनजोदड़ो के अधिकांश मकान पक्की ईंटों से बने हैं। चन्हूदड़ो -यहाँ मनके बनाने का एक कारखाना प्राप्त हुआ है। लोथल – लोथल की नगर निर्माण योजना और उपकरणों में समानता के आधार पर इसे लघु हड़प्पा या लघु मोहनजोदड़ो कहा गया है। यहाँ पूरी बस्ती एक ही दीवार से घिरी थी। पूरे नगर के दो खण्ड़ थे गढ़ी और निचला नगर । लोथल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मारक गोदी था। 4/13

यहाँ से अग्निपूजा के भी साक्ष्य मिले हैं। गढ़ी में अनेक मकानों में वृत्ताकार या चतुर्भुजाकार अग्नि स्थान पाये गये हैं, जिनमें राख के साथ मृत्पिंड मिले हैं। शायद इसका उपयोग यज्ञ जैसे अनुष्ठान के लिए था। कच्ची मिट्टी के एक मकान से मिट्टी के बर्तनों में कीमती पत्थरों के 600 अर्ध-निर्मित मनके मिले हैं। लगता है लोथल में मनका बनाने का कारखाना था। एक छोटा सा उपकरण मिला है जिसे शायद दिशा मापक की तरह उपयोग किया जाता होगा। | कालीबंगा – इस नगर को भी गढ़ी और निचला नगर के रूप में बसाया गया था। गढी को दो भागों में एक दीवार द्वारा विभाजित कर दिया गया था। अनेक जगहों पर ऊँ चे-ऊँ चे चबूतरों के शिखरों पर हवन कु ण्डों के अस्तित्व का साक्ष्य मिलता है, जिसे यज्ञ के हवनकुं ड के रूप में पहचाना गया है यहाँ से अलंकृ त ईंटों का उदाहरण प्राप्त हुआ है।

कलात्मक गतिविधियाँ पाषाण एवं धातु की मूर्तियाँ सिन्धु सभ्यता के पुरातत्व अवशेषों में उपलब्ध पाषाण मूर्तियाँ संख्या में कम हैं । ये एलेबेस्टर, चूना पत्थर, सेलखड़ी, बलुआ पत्थर एवं सलेटी पत्थर से निर्मित हैं। सभी मूर्तियाँ खण्डित अवस्था में प्राप्त हुई हैं। कोई भी पाषाण मूर्ति ऐसी नहीं प्राप्त हुई हैं जिसका सिर और धड़ दोनों एक में मिले हों। मोहनजोदड़ो से प्राप्त पाषाण मूर्तियाँ मोहनजोदड़ो से एक सेलखड़ी की मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके नेत्र लम्बे, अधर खुले तथा होठ मोटे, माथा छोटा और ढलुवा है। ओंठ पर मूछे मुड़ी हैं। वह एक शाल ओढ़े है जो बाएँ कं धे को ढके हैं, दायाँ हाथ खुला है। पीछे काढ़ी गयी के श लंबी मस्तक पर फीते से बंधी है। चूने के पत्थर से निर्मित 14 से० मी० ऊँ चाई का एक सिर प्राप्त हुआ है। लगभग 17.8 से० मी० का एक अन्य लम्बा सिर मिला है, इसमें लहरदार के शों को फीते से बाँधे दिखाया गया है। चूने पत्थर की बनी अधूरी मूर्ति पायी गयी है जो 14.6 से० मी० ऊँ ची मोहनजोदड़ो से एलेबेस्टरपत्थर की बनी एक बैठे हुए आदमी की 29.5 सेमी ऊँ ची मूर्ति प्राप्त हुई है। यह आकृ ति अधर में पारदर्शी वस्त्र बाँधे है। यह बायीं भुजा ढकता हुआ दाहिनी भुजा के नीचे से होती हुआ पारदर्शी पतला शाल ओढे है । पुरुष का बायाँ घुटना उठा है और उस पर उसकी बायीं भुजा टिकी है। एलेबेस्टर (चूने का जल युक्त सल्फे ट) की ही एक और मूर्ति प्राप्त हुई है।

हड़प्पा से प्राप्त पाषाण मूर्तियाँ हड़प्पा से लाल बलुआ पत्थर का एक युवा पुरुष का धड़ मिला है, यह मूर्ति पूर्णतया नग्न है। एक अन्य मूर्ति जो सलेटी चूने-पत्थर की बनी है, जो नृत्य-मुद्रा में बनायी गई आकृ ति का धड़ है। यह आकृ ति दायें पैर खड़ी है और बायां पैर आगे की ओर कु छ ऊपर उठा हुआ है। | पाषाण निर्मित पशुओं की मूर्तियों में मोहनजोदड़ो से 25.4 से० मी० ऊँ ची एक पत्थर की मूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें मेढ़े जैसे सींग और शरीर दिखाये गये हैं और हाथी जैसी सूंड । मोहनजोदड़ो से ही सेलखड़ी का एक कु त्ता प्राप्त हुआ है। कांस्य मूर्तियाँ मोहनजोदड़ो से 14 से० मी० ऊँ ची कांस्य की नृत्य करती हुई नग्न मूर्ति प्राप्त हुई है। इसकी बायीं भुजा जो कं धे से लेकर कलाई तक चूड़ियों से भरी है, में एक पात्र है। इस मूर्ति का निर्माण द्रवी-मोम विधि से हुआ है। मोहनजोदड़ो से कांसे की कु छ पशुओं की भी आकृ तियाँ मिली हैं। इनमें भैंसा और मेढा (अथवा बकरा) की आकृ तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। लोथल से ताँबे के पक्षी, बैल, खरगोश और कु त्ते की आकृ तियाँ मिली हैं। मृण्मूर्तियाँ

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हड़प्पा संस्कृ ति में उपलब्ध शिल्प आकृ तियों में सर्वाधिक संख्या मृण्मूर्तियों की है। मूर्तियाँ मानव और पशुओं की है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त मृण्मूर्तियों में नारी की मृण्मूर्तियाँ पुरुषों से अधिक हैं। नारी मृण्मूर्तियाँ – मूर्तियों को बनाने के लिए हाथ एवं साँचे का उपयोग होता था। | अधिकांश मृण्मूर्तियों में सिर पर पंखाकार – शिरोभूषा है तथा गले में हार पहने दिखाया गया है। पुरुष मृण्मूर्तियाँ बहुत थोड़े अपवादों को छोड़कर प्राय: सभी नग्न हैं। शृंगयुक्त चेहरे भी पाये गये हैं। मोहनजोदड़ो से घुटने के बल चलते हुए दो बच्चों की मूर्तियाँ मिली हैं। पशु-मृण्मूर्तियाँ सिन्धु सभ्यता की पशु-मूर्तियाँ मानव-मूर्तियों से | अधिक संख्या में पाई गयी हैं। अधिकांश पशु मूर्तियाँ मिट्टी की बनी हैं। मोहनजोदड़ो में छोटे सौंग और बिना कू बड़ के बैल की मूर्तियाँ सर्वाधिक संख्या में मिली हैं, उसके बाद कू बड़ वाले बैल की। बैल के पश्चात मोहनजोदड़ो में मेढ़े की आकृ तियों की संख्या हैं, तत्पश्चात गैंडे की। हड़प्पा में कू बड़ वाले बैलों की मूर्तियाँ सर्वाधिक संख्या में मिली हैं और उसके बाद बिना कू बड़ वाले | बैल की। संख्या में हड़प्पा में बैल के पश्चात गैंडे की आकृ तियाँ हैं फिर मेढ़े की। सिन्धु सभ्यता से प्राप्त अन्य पशुओं में भैंसा, हाथी, बाघ, बकरा, कु त्ता, खरगोश, सुअर, गिलहरी, साँप आदि हैं।घड़ियाल, कछु आ और मछली की मृण्मूर्तियाँ भी हड़प्पा से मिली हैं। | हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की मृण्मूर्तियों में गाय की आकृ तियाँ नहीं मिली हैं। (प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता राव ने | दो गाय की मृण्मूर्तियाँ मिलने का उल्लेख किया है।) सिन्धु सभ्यता के उत्खननों में फाख्ता, बत्तख, मोर, | मुर्गी, चील, कबूतर, गौरैया, तोता, उल्लू आदि पक्षी की पहचान की गयी है। चन्हूदड़ो से एक अलंकृ त हाथी का खिलौना प्राप्त हुआ है। बनवाली से मिट्टी के बने हल के खिलौने प्राप्त हुए हैं | मुहरें सिन्धु सभ्यता के विभिन्न स्थलों से लगभग 2000 मुहरें प्राप्त हुई हैं। ये इस सभ्यता की सर्वोत्तम कलाकृ तियाँ है।। अधिकांश मुहरों पर चित्रलिपि में लेख हैं या उन पर पशु आकृ तियाँ बनी हैं। अधिकांश मुहरें 1.77 से 0.91 सेमी लम्बी, 1.52 से 0.51 सेमी० चौड़ी तथा 1.27 सेमी० मोटी हैं। अब तक प्राप्त मुहरों में सर्वाधिक सेलखड़ी की बनी हैं। लोथल और देसालपुर से ताँबे की मुहरें मिली हैं। मुहरें कई प्रकार की मिली हैं-बेलनाकार, वर्गाकार, चतुर्भुजाकार, बटन जैसी, घनाकार एवं गोल। | मोहनजोदड़ो से बेलनाकार मुहरें मिली हैं। मुहरों पर मनुष्य, एक श्रृंगी बैल, कू बड़ वाले बैल, जंगली भैंस, व्याघ्र, हाथी, गैंडा, हिरन, धनुष बाणलिए मानव, पेड़, पौधे आदि का अंकन है। ‘मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर देवता, पशु और सात | नारी आकृ तियाँ मिलती हैं। चन्हूदड़ो की एक मुद्रा छाप पर दो नग्न नारियाँ अंकित हैं जो एक-एक ध्वज पकड़े खड़ी हैं। मृदभाण्ड इस सभ्यता के बर्तन अधिकतर चाक पर ही बने हैं, उन्हें भट्ठों में पकाया जाता था। अधिकांश मृद्भाण्ड बिना चित्र वाले हैं। कु छ बर्तनों पर पीला, लाल या गुलाबी रंग का लेप है। बर्तनों पर वनस्पति–पीपल, ताड़, नीम, के ला, और बाजरा के चित्र पहचाने गये हैं। मछली, और, बकरे, हिरण, मुर्गा आदि जानवरों के चित्रण भी बर्तनों पर है। युद्ध सम्बन्धी तथा अन्य उपकरण ताँबे एवं काँसे के भाले और चाकू , बाणाग्र तथा कु ल्हाड़ियाँ पायी गयी हैं। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से भाले के फाल प्राप्त हुए हैं। मैके को उत्खनन में मोहनजोदड़ो से दो आरियाँ मिली हैं-एक ताँबे की तथा एक काँसे की। काफी संख्या में छेनियां मिली हैं।

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लोथल से नोक की तरफ छेद वाली सूई प्राप्त हुई है। यहीं से खाँचे वाला वर्मा मिला है। ताँबे का एक हंसिया का फाल मोहनजोदड़ो से मिला है।

धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान सिन्धु सभ्यता में ऐसा कोई भवन नहीं मिला है, जिसे सर्वमान्य रूप में मन्दिर की संज्ञा दी जा सके । मातृदेवी सिन्धु सभ्यता के निवासी मातृदेवी की उपासना करते थे। हड़प्पा से एक मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके गर्भ से एक पीपल का पौधा निकत्ता दिखाया गया है। इससे पता चलता है कि हड़प्पावासी धरती को उर्वरता की देवी समझते थे। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक नारी और पुरुष दिखाये गये हैं। पुरुष के हाथ में हँसिया है स्त्री बैठी हुई है तथा उसके बाल बिखरे हुए हैं । सम्भवतः यह बलि का उदाहरण है। सिन्धुघाटी का देवता मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक पुरुष आकृ ति है जो त्रिमुखी लगती है। इस देवता में तीन सिर और सींग हैं। इसे आसीन योगी के रूप में चित्रित किया गया है। एक पैर दूसरे पैर पर रखा गया है। आकृ ति की दायीं ओर हाथी, और बाघ तथा बायीं ओर गैंडा और भैंसा हैं। आसन के नीचे दो हरिण दिखाये गए हैं। देवता को घेरे हुए पशु पृथ्वी की चारों दिशाओं में देख रहे हैं। मार्शल इस अंकन को ‘शिव, पशुपति का प्रारूप मानते हैं। इसे | ‘योगेश्वर’ की मूर्ति भी कहा जाता है। मोहनजोदड़ो से ही एक मुद्रा पर एक त्रिमुखी आकृ ति पायी गयी है जो चौकी पर योगासन मुद्रा में बैठी है। आकृ ति श्रृंगयुक्त है शिरोभूषा के रूप में पीपल की एक टहनी है। | मोहनजोदड़ो से एक अन्य मूर्ति की शिरोभूषा के रूप में एक टहनी दिखायी गयी है । मूर्ति एकमुखी कालीबंगा के एक मृत्पिंड पर एक ओर सींग वाले देवता का अंकन है, दूसरी तरफ मानव द्वारा बलि के लिए लाई गई बकरी है। मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर एक आकृ ति है जो आधा मानव है तथा आधा बाघ। मोहनजोदड़ो की एक मिट्टी की मुद्रा पर एक योगी के दो तरफ हाथ जोड़े पुरुष खड़े हैं। इनके पीछे सर्प के फन दिखाये गये हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा में एक देवता जैसी आकृ ति के शिरोभूषा में तीन पंख जैसी आकृ ति दिखायी गयी है। वृक्ष पूजा सिन्धु सभ्यता युग में वृक्ष पूजा भी प्रचलित थी। पशु पूजा सिन्धु सभ्यता में लोग पशुओं की भी पूजा करते थे। इनमें प्रमुख था कू बड़ वाला सांड। लिंग पूजा बड़ी संख्या में लिंगों के प्राप्त होने से ऐसा लगता है कि सिन्धु सभ्यता में लिंग पूजा प्रचलित थी। सिन्धु सभ्यता के लोग शायद भूतप्रेतों में विश्वास करते थे क्योंकि यहाँ अवशेषों में ताबीज पाये गये हैं। शव विसर्जन मार्शल नामक विद्वान ने सिन्धु-निवासियों में प्रचलित तीन प्रकार के शव विसर्जन के तरीकों का उल्लेख किया है | (1) सम्पूर्ण शव को पृथ्वी में गाड़ना (2) पशु-पक्षियों के खाने के पश्चात शव के बचे हुए भाग को माड़ना। (3) शव का दाह कर उसकी भस्म गाड़ना 7/13

कालीबंगा से एक तथा लोथल से तीन युग्मित समाधियों के अवशेष मिलते हैं। हड़प्पा से लकड़ी के ताबूत में रखकर दफनाये गये शव की एक समाधि मिली है।

सिंधु सभ्यता में भिन्न स्थानों से आयात की जाने वाली वस्तुएं  आयात की जाने वाली वस्तुएं स्थान सोना अफगानिस्तान, फारस, भारत (कर्नाटक) चांदी ईरान, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया तांबा खेतड़ी (राजस्थान), बलूचिस्तान टिन ईरान (मध्य एशिया), अफगानिस्तान खेल खड़ी बलूचिस्तान, राजस्थान, गुजरात हरित मणि दक्षिण भारत शंख एवं कौड़ियां सौराष्ट्र (गुजरात), दक्षिण भारत नील रत्न बदख्शाँ (अफगानिस्तान) सीसा ईरान, राजस्थान, अफगानिस्तान, दक्षिण भारत शिलाजीत हिमालय क्षेत्र फिरोजा ईरान (खुरासान) लाजवर्द बदख्शाँ (अफगानिस्तान), मेसोपोटामिया गोमेद सौराष्ट्र, गुजरात स्टेटाइट ईरान स्फटिक दक्कन पठार, उड़ीसा, बिहार स्लेट कांगड़ा

सिन्धु सभ्यता का आर्थिक जीवन कृ षि सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों में कोई फावड़ा या हल नहीं मिला है, परन्तु कालीबंगा से हड़प्पा-पूर्व काल के कुं ड मिले हैं जिनसे पता चलता है कि हड़प्पा काल में राजस्थान के खेतों में हल जोते जाते थे। सम्भवत: सिन्धु सभ्यता में सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। इसका कारण यह हो सकता है कि हड़प्पा संस्कृ ति में गाँव प्रायः बाढ़ में मैदानों के समीप बसे हुए थे। सिन्धु सभ्यता के लोग गेहूँ, जौ, राई, मटर, तिल चना, कपास, खजूर, तरबूज आदि पैदा करते थे। सैन्धववासी अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करते थे, जो शहरों में रहने वाले लोगों के काम आता था। किसानों से सम्भवत: कर के रूप में अनाज लिया जाता था और मजदूरी के रूप में धान्य कोठारों में इसका वितरण होता था। | सिन्धु सभ्यता के लोग कपास पैदा करने वाले सबसे पुराने लोगों में से थे। चूँकि कपास सबसे पहले इसी क्षेत्र में पैदा किया गया था, इसीलिए यूनानियों ने इसे सिंडोना (सिंडन) जिसकी व्युत्पत्ति सिन्ध से हुई है, नाम दिया था। मोहनजोदड़ो से बुने हुए सूती कपड़े का एक टुकड़ा मिला है। यहीं से एक चाँदी के बर्तन में तथा ताँबे के उपकरण में लिपटे सूती कपड़े के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा से तरबूज के बीज मिले हैं। लोथल और रंगपुर से धान (चावल) की उपज के बारे में जानकारी प्राप्त हुई है। | राजकीय स्तर पर अनाज रखने के लिए हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल में विशाल अन्नागारों का निर्माण हुआ था। हड़प्पा में अन्नागारों के समीप ही अनाज कू टने के लिए बने चबूतरे और मजदूरों के निवास मिले हैं। लोथल में एक वृत्ताकार चक्की के दो पाट मिले हैं। ऊपर वाले पाट में अनाज डालने के लिए दो छेद हैं। पशुपालन

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सिन्धु सभ्यता में पाले जाने वाले पशु थे-बैल, भेड़, बकरी, भैंसा, सुअर, हाथी, कु त्ते, गधे आदि। ऊँ ट, गैंडा, मछली, कछु ए, का चित्रण सिन्धु घाटी की मुद्राओं पर हुआ है। सिन्धु निवासियों को कू बड़वाला सांड़ विशेष प्रिय था। बिल्ली के पैरों के निशान भी मिले हैं। सिन्धु सभ्यता में घोड़े के अस्तित्व पर विद्वानों में परस्पर विवाद है। मोहनजोदड़ो के ऊपर की सतह पर प्राप्त. घोड़े की हड्डियों को कु छ विद्वान सिन्धुकाल का मानते हैं, कु छ परवर्ती काल का। मोहनजोदड़ो से ही मिट्टी की एक घोड़े जैसी आकृ ति भी मिली है। लोथल से भी तीन मृण्मय खिलौने प्राप्त हुए हैं जिन्हें अश्व के रूप में पहचाना गया है। सुरकोटड़ा में भी सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में घोड़े की हड्डियाँ मिली हैं। हाथी गुजरात के क्षेत्र में पाला जाने वाला पशु था। इसका अंकन कई मुद्राओं पर हुआ है। ऊँ ट का अंकन यद्यपि किसी मुद्रा पर नहीं हुआ है परन्तु उसकी हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। उद्योग एवं तकनीक हड़प्पा संस्कृ ति कांस्ययुगीन है। धातुकर्मी ताँबे. के साथ टिन मिलाकर कांसा तैयार करते थे। ७ ताँबा राजस्थान की खेतड़ी खानों से प्राप्त किया जाता था। कताई बुनाई का व्यवसाय सिन्धु सभ्यता में एक प्रमुख व्यवसाय था। मोहनजोदड़ो से एक चाँदी के बर्तन में कपड़े के अवशेष पाये गये हैं। यही से ताँबे के उपकरणों में लिपटे सूत का कपड़ा और धागा मिला है। | कालीबंगा से एक बर्तन का टुकड़ा मिला है जिस पर सूती कपड़े के निशान हैं। कालीबंगा से ही एक उस्तरे पर कपास का वस्त्र लिपटा हुआ मिला है। बुनकर सूती और ऊनी कपड़ा बुनते थे। कताई के लिए तकलियों का इस्तेमाल होता था। ईंटों के विशाल इमारतों से पता चलता है कि राजगीरी एक महत्वपूर्ण कौशल था। कु म्हार चाक के इस्तेमाल से बर्तन बनाते थे। बर्तनों को चिकना और चमकीला बनाया जाता था। पत्थर, धातु एवं मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण भी महत्वपूर्ण उद्योग थे। लोहे की जानकारी लोगों को नहीं थी। लोथल और चन्हूदड़ो में मनके बनाने का कारखाना था। हाथी दाँत का काम भी होता था। हड़प्पा संस्कृ ति के लोग नौकाएँ बनाना भी जानते थे। सुनार चाँदी, सोना एवं कीमती पत्थरों से आभूषण बनाते थे। लोथल से पुए के आकार की ताँबे की सिल प्राप्त हुई है, जो फारस की खाड़ी से मगायी जाती थी। व्यापार हड़प्पा सभ्यता के लोग धातु की मुद्राओं का प्रयोग नहीं करते थे अतः ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापार वस्तु विनिमय के माध्यम से होता था। 6 व्यापार में नावों का प्रयोग होता था। लोग ठोस पहिए वाले बैलगाड़ियों का इस्तेमाल करते थे। आधुनिक इक्के जैसे वाहन का भी इस्तेमाल होता था। | सिन्धु सभ्यता के लोगों का व्यापार बाह्य एवं आन्तरिक दोनों प्रकार का था। विदेशी व्यापार के अन्तर्गत टिन अफगानिस्तान या ईरान से, सीसा ईरान, अफगानिस्तान और राजस्थान से, सोना दक्षिण भारत से, चाँदी मुख्यतः ईरान एवं अफगानिस्तान से, लाजवर्द बदां से, एलेबेस्टर बलूचिस्तान से आयात किया जाता था। ताँबा मुख्यत: राजस्थान के खेतड़ी खानों से, सेलखड़ी बलूचिस्तान एवं राजस्थान से, स्लेटी पत्थर राजस्थान से, संगमरमर एवं ब्लड स्टोन भी राजस्थान से तथा देवदार एवं शिलाजीत हिमालय क्षेत्र से मंगाये जाते थे। सिन्धु सभ्यता में मोहरों, दो प्रकार के मनकों तथा कु छ अन्य विविध वस्तुओं के बाह्य व्यापार का साक्ष्य फारस की खाड़ी, मेसोपोटामिया, अफगानिस्तान और सोवियत दक्षिणी तुर्क मेनिया से भिन्न-भिन्न मात्रा में प्राप्त होता है। भारत में प्राप्त उल्लेखनीय विदेशी वस्तुएँ हैं-लोथल से फारस की मोहर, कालीबंगा से मेसोपोटामिया की एक बेलनाकार मोहर । लगभग 2350 ई० के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मैलुहा के साथ व्यापार संबन्ध होने के उल्लेख मिलते हैं। मेलुहा सम्भवतः सिन्धु प्रदेश का प्राचीन नाम रहा होगा। 9/13

माप-तौल मोहनजोदड़ो से सीप का एक मापदण्ड मिला है। यह 16.55 से० मी० लंबा, 1.55 सेमी० चौड़ा और .675 सेमी मोटा है। इसके एक तरफ बराबर बराबर दूरी पर 9 निशान बने हैं। किन्हीं भी दो निशानों के बीच की दूरी 0.66 सेमी है। लोथल से एक हाथी-दाँत का पैमाना मिला है। भूरे चर्ट पत्थर के बाट सर्वाधिक संख्या में प्राप्त | हुए हैं। अन्य पत्थरों में चूना पत्थर, सेलखड़ी, स्लेट पत्थर, कै लसिडोनी इत्यादि के बाट बनते थे। बाट कई आकार प्रकार के होते थे-घनाकार बाट सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा बर्तुलाकार बाट, चपटे बेलनाकार बाट, शंक्वाकार बाट, ढोलाकार बाट आदि आकार प्रकार के बाट प्राप्त हुये हैं।

सिन्धु सभ्यता की लिपि सिन्धु लिपि के लगभग 400 चिह्न ज्ञात हैं। लिखावट सामान्यतया बाईं से दायी ओर है। सिन्धु लिपि पढ़ पाने में अभी तक सफलता नहीं मिली है। सिन्धु सभ्यता से लंबे अभिलेख नहीं मिले हैं। सिन्धु लिपि के प्रत्येक चिह्न किसी ध्वनि, वस्तु अथवा विचार को द्योतक है। लिपि वर्ण कलात्मक नहीं बल्कि भाव चित्रात्मक है।

काल निर्धारण आज हड़प्पा सभ्यता का काल निर्धारण विभिन्न स्थलों से प्राप्त सामग्रियों के रेडियो कार्बन तिथियों पर आधारित है। इस विधि से सिन्धु सभ्यता की अवधि 2800/2900-2000 निर्धारित हुई है। यही तिथि सर्वमान्य हुई है। | मार्शल ने सैन्धव सभ्यता की तिथि 3250-2750 निर्धारित किया था। अनॅस्ट मैके ने 2800-2500 निर्धारित किया था। व्हीलर ने 2500-1500 माना है। फे यर सर्विस ने 2000-1500 माना है।

विद्वान मत आर० एस० शर्मा 2500 से 1800 ई० पू० फे यर सर्विस 2000 से 1500 ई० पू० जॉन मार्शल 3250 से 2750 ई० पू० माधो स्वरूप वत्स 3500 से 2700 ई० पू० मार्टीमर व्हीलर 2500 से 1500 ई० पू० अर्नेस्ट मैके 2800 से 2500 ई० पू०

जाति निर्धारण मोहनजोदड़ो से प्राप्त कं कालों की बनावट के आधार पर कं कालों को मानव शास्त्रीय अध्ययन से जाति के आधार पर निम्न चार समूहों में वर्गीकृ त किया गया (1) आद्य आस्ट् रेलायड (2) भूमध्य-सागरीय (3) मंगोलीय (4) अल्पाइन

सिन्धु सभ्यता का अंत सिन्धु सभ्यता के पतन का अभी तक कोई निश्चित कारण ज्ञात नहीं हो सका है। विभिन्न अनुमान किये गये हैं जो निम्नवत हैं कु छ विद्वानों ने जलवायु परिवर्तन को सैन्धव सभ्यता के पतन का कारण माना है। ऐसी धारणा व्यक्त की गयी है कि मानसूनी हवाओं के बदलने से सिंध क्षेत्र में वर्षा में कमी आयी। घोष का कहना है कि आर्द्रता का ह्रास एवं शुष्कता का विस्तार सभ्यता के अंत का प्रमुख कारण है। 10/13

एच० टी० लैम्बरिक आदि के अनुसार नदियों के मार्ग परिवर्तन से भी बस्तियाँ उजड़ गयी होंगीं। रावी जो हड़प्पा के बिलकु ल समीप बहती थी आज वह लगभग 6 मील की दूरी पर है। नदियों में बाढ़ का आना हड़प्पा संस्कृ ति के लोगों के लिए एक सामान्य विभीषिका बन चुका था। मार्शल के द्वारा मोहनजोदड़ो की खुदाई में 7 स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रसिद्ध भारतीय भूगर्भशास्त्री एम० आर० साहनी ने यह धारणा व्यक्त की थी कि सिन्धु सभ्यता के अंत का मुख्य कारण विशाल पैमाने पर जलप्लावन था। एक आधुनिक मत (जिसके समर्थक फे यर सर्विस आदि हैं) है कि इस सभ्यता ने अपने साधनों का जरूरत से ज्यादा व्यय कर डाला जिससे उनकी जीवन शक्ति नष्ट हो गयी। | मार्टिन व्हीलर आदि विद्वानों का मत है कि सिन्धु सभ्यता का अंत आर्यों के आक् रमण के कारण हुआ। यह मत दो तथ्यों पर आधारित है 1. मोहनजोदड़ो के ऊपरी सतह पर प्रभूत संख्या में कं कालों का अन्वेषण-जिससे आर्यों द्वारा किए गए नरसंहार का पता चलता है। 2. ऋग्वेद के अन्तर्गत इन्द्र को दुर्ग-संहारक के रूप में उल्लिखित किया गया है।

Quick Revision सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीन (3300 ई0 पू0 से 1700 ई0 पू0) नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। सिन्धु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। 1. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। अतः विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया, क्योंकि यह क्षेत्र सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं, पर बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले जो सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। 2. इसका विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ। मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख के न्द्र थे। 3. दिसम्बर 2014 में भिर्दाना को अबतक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया सिंधु घाटी सभ्यता का। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं। 4. यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी मे फै ली हुई थी इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। 5. प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। 6. सिन्धु घाटी सभ्यता के 1400 के न्द्रों को खोजा जा सका है जिसमें से 924 के न्द्र भारत में है। 7. 80 प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। 8. अभी तक कु ल खोजों में से 3 प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है। 1. सर्वप्रथम १९२१ ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अध्यक्ष जॉन मार्शल के निर्देशन में हड़प्पा स्थल का ज्ञान हुआ | 2. हडप्पा की खोज २९२१ में दयाराम साहनी ने की थी| 3. सिन्दू घाटी सभ्यता का समूचा क्षेत्र त्रिभुजाकार है जिसका क्षेत्रफल १२,९९,६०० वर्ग किमी है | 4. हडप्पा से कब्रिस्तान आर-३७ प्राप्त हुआ है| 5. हडप्पा से कांसे का इक्का व् सर्पण तथा सर्वाधिक अभिलेख युत मोहरें प्राप्त हुई है 6. मोहनजोदड़ो का अर्थ होता है मृतको का टीला| 7. काँसे की नग्न नर्तकी तथा दाढी वाले साधु की मूर्ति मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है | 8. कालीबंगा का अर्थ है काले रंग की चूड़ियाँ | 9. कालीबंगा से भूकं प के प्राचीनतम साक्ष्य, ऊँ ट की हड्डियाँ तथा शल्य चिकित्सा के साक्ष्य भी प्राप्त हुए है | 10. चन्हूदडो से मनके बनाने का कारखाना, बिल्ली का पीछा करता हुआ कु त्ता तथा सौन्दर्य प्रसाधनो में युक्त लिपिस्टिक का साक्ष्य प्राप्त हुआ है | 11. चन्हूदडो एकमात्र पुरास्थल है जहाँ से वक् राकार ईटे मिली है| 12. लोथल से गोदीवाडा से साक्ष्य प्राप्त हुए है|

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13. लोथल से स्त्री पुरुष शवाधान के साक्ष्य प्राप्त होते है| 14. बनावली से अच्छे किस्म का जौ, ताँबे का वानाग्र तथा पक्की मिट्टी के बने हल की आकृ ति का खिलौना प्राप्त हुआ है | 15. सुकोटडा से घोड़े की अस्थियाँ तथा एक विशेष प्रकार का कब्र प्राप्त हुआ है | 16. रंगपुर से धान की भूसी का ढेर प्राप्त हुआ है | 17. सुत्कागेंडोर का दुर्ग एक प्राकृ तिक स्थान पर बसाया गया था| 18. सिंध से बाहर सिर्फ कालीबंगा की मुहर पर बाघ का चित्र मिलता है| 19. सर्वाधिक संख्या में मुहरें मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है, जो मुख्यत: चौकोर है लोथल का अर्थ मुर्दों का नगर है | 20. मोहनजोदड़ो का सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल विशाल स्नानागार है | 21. सिन्धु सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत अन्नागार है | 22. सिन्धु सभ्यता के लोग सूती व् ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रो का उपयोग करते थे | 23. लोथल से धान व् बाजरे की खेती के अवशेष मिले है | 24. चावल की खेती के प्रमाण लोथल एवं रंगपुर से प्राप्त हुआ है | 25. सबसे पहले कपास पैदा करने का श्रेय सिन्धु सभ्यता के लोगों को दिया जाता है | 26. घोड़े के अस्तित्व के संके त मोहनजोदड़ो, लोथल, राणाघुंडी, एवं सुरकोटदा से प्राप्त हुए है| 27. कू बड़ वाला सांड सिन्धु घाटी सभ्यता का सबसे प्रिय पशु था | 28. मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर पशुपति शिव की आकृ ति से गैडा, भैसा, हाथी बाघ एवं हिरन की उपस्थिति के साक्ष्य प्राप्त हुए | 29. भारत में चाँदी सर्वप्रथम सिन्धु सभ्यता में पायी गई है | 30.   सैन्ध्वकालीन लोगों ने लेखन कला का आविष्कार किया था|

क्या आप हड़प्पा सभ्यता के इन 69 प्रश्नों का जवाब दे सकते हैं ? उत्खनन से सम्बंधित प्रमुख व्यक्ति चार्ल्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1882 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे मे एक लेख लिखा। 1921 में दयाराम साहनी ने हड़प्पा का उत्खनन किया। इसीलिए इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया। भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल ने 1924 में सिन्धु सभ्यता के बारे में तीन महत्त्वपूर्ण ग्रथ लिखे। Know the secret and real history of Mohenjo daro

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वैदिक काल का इतिहास | सम्पूर्ण जानकारी ⋮ 13/7/2019

वैदिक काल | सम्पूर्ण जानकारी | पूरी कवरेज | Vedic Kaal Ka Itihas | Complete History for UPSC/SSC

वैदिक संस्कृ ति का काल सिन्धु सभ्यता के पश्चात स्वीकार किया गया है। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक प्रवृत्तियों में हुए मौलिक विकास क् रम एवं परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए | अध्ययन की सुविधा हेतु वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया गया है–(1) ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल (2) उत्तरवैदिक काल । 

वैदिक सभ्यता का काल याकोबी एवं तिलक ने ग्रहादि सम्बन्धी उद्धरणों के आधार पर भारत में आर्यों का आगमन 4000 ई० पू० निर्धारित किया है। मैक्समूलर का अनुमान है कि ऋग्वेद काल 1200 ई० पू० से 1000 ई० पू० तक है।  मान्यतिथि– भारत में आर्यों का आगमन 1500 ई० पू० के लगभग हुआ।  आर्यों का मूल स्थान आर्य किस प्रदेश के मूल निवासी थे, यह भारतीय इतिहास का एक विवादास्पद प्रश्न है। इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा दिए गए मत संक्षेप में निम्नलिखित हैं। यूरोप 5 जातीय विशेषताओं के आधार पर पेनका, हर्ट आदि विद्वानों ने जर्मनी को आर्यों का आदि देश स्वीकार किया है।  गाइल्स ने आर्यों का आदि देश हंगरी अथवा डेन्यूब घाटी को माना है। 

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मेयर, पीक, गार्डन चाइल्ड, पिगट, नेहरिंग, बैण्डेस्टीन ने दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास स्थान माना है। यह मत सर्वाधिक मान्य है। आर्य भारोपीय भाषा वर्ग की अनेक भाषाओं में से एक संस्कृ त बोलते थे। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भारोपीय वर्ग की विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने वाले लोगों का सम्बन्ध शीतोष्ण जलवायु वाले ऐसे क्षेत्रों से था जो घास से आच्छादित विशाल मैदान थे। यह निष्कर्ष इस मत पर आधारित है कि भारोपीय वर्ग की अधिकांश भाषाओं में भेड़िया, भालू, घोड़े जैसे पशुओं और कं रज (बीच) तथा भोजवृक्षों के लिए समान शब्दावली है। प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर इस क्षेत्र की पहचान सामान्यतया आल्पस पर्वत के पूर्वी क्षेत्र यूराल पर्वत श्रेणी के दक्षिण में मध्य एशियाई इलाके के पास के स्टेप मैदानों (यूरेशिया) से की जाती है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर इस क्षेत्र से एशिया और यूरोप के विभिन्न भागों की ओर वहिर्गामी प्रवासन प्रक्रिया के चिह्न भी मिलते हैं। सर्वप्रथम जे० जी० रोड ने 1820 में ईरानी ग्रन्थ जेन्दा–अवेस्ता के आधार पर आर्यों को बैक्ट्रिया का मूल निवासी माना। 1859 में प्रसिद्ध जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने मध्य एशिया को आर्यों का आदि देश घोषित किया। प्रोफे सर सेलस तथा एडवर्ड मेयर ने भी एशिया को ही आदि देश स्वीकार किया है।ओल्डेन बर्ग एवं कीथ कम भी यही मत है। मध्य एशिया से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य एशिया माइनर में बोगजकोई नामक स्थान से लगभग 1400 ई० पू० का एक लेख मिला है जिसमें मित्र, इन्द्र, वरुण और नासत्य नामक वैदिक देवताओं का नाम लिखा हुआ है। डा० अविनाश चन्द्र ने सप्त सैन्धव प्रदेश को आर्यों का मूल निवास स्थान माना। गंगानाथ झा के अनुसार आर्यों का आदि देश भारतवर्ष का ब्रह्मर्षि देश था। ए० डी० कल्लू ने कश्मीर, डी० एस० त्रिदेव ने मुल्तान के देविका प्रदेश तथा डा० राजबली पाण्डेय ने मध्य प्रदेश को आर्यों का आदि–देश माना है।  दयानंद सरस्वती ने तिब्बत‘ को आर्यो का मूल निवास स्थान माना।  बाल गंगाधर तिलक के अनुसार आर्यों का आदि देश उत्तरी ध्रुव था। 

वैदिक आर्यों को भौगोलिक विस्तार  आर्य सर्वप्रथम, सप्त सैन्धव प्रदेश में आकर बसे थे। आर्यों का भौगोलिक विस्तार जिस क्षेत्र में था, उसमें अफगानिस्तान, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा तथा वर्तमान उत्तर प्रदेश (गंगा नदी तक) एवं यमुना नदी के पश्चिम के कु छ भाग सम्मिलित थे।   अफगानिस्तान की अनेक नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में है जिनमें प्रमुख हैं–कु भा (काबुल), सुवास्तु (स्वात), कुं भु (कु र्रम), गोमती (गोमाल)।  ऋग्वेद में आर्य निवास के लिए सर्वत्र सप्त सैन्धव शब्द का प्रयोग हुआ है। इस क्षेत्र की सातों नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है–सिन्धु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास), परुष्णी (रावी), असिक्नी (चिनाब), और वितस्ता (झेलम) ऋग्वेद में गंगा नदी का एक बार तथा यमुना नदी का तीन बार उल्लेख हुआ है। सरस्वती एवं दृष्द्धती नदियों के बीच का प्रदेश सबसे पुनीत समझा जाता था जिसे ब्रह्मावर्त कहा गया है। 

जातीय एवं अन्तर्जातीय युद्ध आर्यों के आपसी तथा यहाँ के मूल निवासी अनार्यों के साथ युद्धों के अनेक प्रमाण मिलते हैं।  यदु और तुर्वस ऋग्वैदिक काल में आर्यों के दो प्रधान जन थे। यदु का सम्बन्ध पशु या पर्श से था, तुर्वस ने पार्थिव नामक एक राजा के साथ युद्ध किया था। यदु और तुर्वस जन भारत में आने वाला नवागुन्तक दल था। भरत जन इनसे प्राचीन था। ।

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आर्य इन्द्र के उपासक थे और शायद दो दलों में विभक्त थे। एक दल में सुंजयः और भरत या त्रित्सु जन थे जिनका यशोगान भारद्वाज के पुरोहित परिवार ने किया है। दूसरे दल में यदु, तुर्वस, द्रयु, अनु और पुरु नामक पंचजन थे। 

वैदिक साहित्य   वैदिक साहित्य के अन्तर्गत चारों वेद–ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद–ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक एवं उपनिषदों का परिगणन किया जाता है। वेदों का संकलनकर्ता महर्षि कृ ष्ण द्वैपायन व्यास को माना जाता है। ‘वेद‘ शब्द संस्कृ त के विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘ज्ञान‘ प्राप्त करना या जानना।  वेदत्रयी के अन्तर्गत प्रथम तीनों वेद अर्थात् ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद आते हैं। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रुप से कण्ठस्थ कराने के कारण वेदों को श्रुति की संज्ञा दी गयी है। 

ऋग्वेद  ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बन्धित रचनाओं का संग्रह है। ऋग्वेद मानव जाति की प्राचीनतम रचना मानी जाती है। ऋग्वेद 10 मण्डलों में संगठित है। इसमें 2 से 7 तक के मण्डल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मण्डल बाद में जोड़े गये माने जाते हैं। इसमें कु ल 1028 सूक्त हैं। गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, भारद्वाज, अत्रि और वशिष्ठ आदि के नाम ऋग्वेद के मन्त्र रचयिताओं के रूप में मिलते हैं। मन्त्र रचयिताओं में स्त्रियों के भी नाम मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं–लोपामुद्रा, घोषा, शची, पौलोमी एवं कक्षावृती आदि। विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद की रचना पंजाब में हुई थी।  ऋग्वेद की रचना–काल के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने भिन्न–भिन्न मत प्रस्तुत किये हैं। मैक्समूलर 1200 ई० पू० से 1000 के बीच, जौकोबी–तृतीय सहस्राब्दी ई० पू०, बाल गंगाधर तिलक–6000 ई० पू० के लगभग, विण्टरनित्ज–2500–2000 11500 1000 के बीच की अवधि ऋग्वैदिक काल की प्रामाणिक रचना अवधि के रूप में स्वीकृ त है।  ऋग्वेद का पाठ करने वाले ब्राह्मण को होतृ कहा गया है। यज्ञ के समय यह ऋग्वेद की ऋचाओं का पाठ करता था।  ‘असतो मा सद्गमय‘ वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है |

यजुर्वेद  यजुः का अर्थ होता है यज्ञ। यजुर्वेद में अनेक प्रकार की यज्ञ विधियों का वर्णन किया गया है। इसे अध्वर्यवेद भी कहते हैं। यह वेद दो भाग में विभक्त है–(1) कृ ष्ण यजुर्वेद (2) शुक्ल यजुर्वेद, कृ ष्ण यजुर्वेद की चार शाखायें हैं–(1) काठक (2) कपिण्ठल (3) मैत्रायणी (4) तैत्तरीय। यजुर्वेद की पांचवी शाखा को वाजसनेयी कहा जाता है जिसे शुक्ल यजुर्वेद के अन्तर्गत रखा जाता है। यजुर्वेद कर्मकाण्ड प्रधान है। इसका पाठ करने वाले ब्राह्मणों को अध्वर्यु कहा गया है। सामवेद साम का अर्थ ‘गान‘ से है। यज्ञ के अवसर पर देवताओं का स्तुति करते हुए सामवेद की ऋचाओं का गान करने वाले ब्राह्मणों को उद्गातृ कहते थे।  सामवेद में कु ल 1810 ऋचायें हैं। इसमें से अधिकांश ऋग्वैदिक ऋचाओं की पुनरावृत्ति हैं । मात्र 78 ऋचायें नयी एवं मौलिक हैं | सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है-(1) कौथुम (2) राणायनीय (3) जैमिनीय।

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अथर्ववेद अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी। इसकी दो शाखायें हैं–(1) शौनक (2) पिप्लाद  अथर्ववेद 20 अध्यायों में संगठित है। इसमें 731 सूक्त एवं 6000 के लगभग मन्त्र हैं। इसमें रोग निवारण, राजभक्ति, विवाह, प्रणय–गीत, मारण, उच्चारण, मोहन आदि के मन्त्र, भूत–प्रेतों, अन्धविश्वासों का उल्लेख तथा नाना प्रकार की औषधियों का वर्णन है। अथर्ववेद में विभिन्न राज्यों का वर्णन प्राप्त होता है जिसमें कु रु प्रमुख है। इसमें परीक्षित को कु रुओं का राजा कहा गया है एवं कु रु देश की समृद्धि का वर्णन प्राप्त होता है। 

ब्राह्मण ग्रन्थ वैदिक संहिताओं के कर्मकाण्ड की व्याख्या के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई । इनका अधिकांश भाग गद्य में है। प्रत्येक वैदिक संहिता के लिए अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद से सम्बन्धित ब्राह्मण ग्रन्थ–ऐतरेय एवं कौषीतकी। यजुर्वेद से सम्बन्धित ब्राह्मण ग्रन्थ–तैत्तिरीय एवं शतपथ। सामवेद से सम्बन्धित ब्राह्मण ग्रन्थ-पंचविंश। अथर्ववेद से सम्बन्धित ब्राह्मण ग्रन्थ-गोपथ। ब्राह्मण ग्रन्थों से हमें परीक्षित के बाद तथा बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम प्राप्त होते हैं । शतपथ ब्राह्मण में गन्धार, शल्य, कै कय, कु रु, पांचाल, कोसल, विदेह आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं

आरण्यक  आरण्यकों में कर्मकाण्ड की अपेक्षा ज्ञान पक्ष को अधिक महत्व प्रदान किया गया है। वर्तमान में सात आरण्यक उपलब्ध हैं (1) ऐतरेय आरण्यक (2) तैत्तिरीय आरण्यक (3) शांखायन आरण्यक (4) मैत्रायणी आरण्यक (5) माध्यन्दिन आरण्यक (6) तल्वकार आरण्यक उपनिषद् उपनिषदों में प्राचीनतम दार्शनिक विचारों का संग्रह है। ये विशुद्ध रूप से ज्ञान-पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। सृष्टि के रचयिता ईश्वर, जीव आदि पर दार्शनिक विवेचन इन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अपनी सर्वश्रेष्ठ शिक्षा के रूप में उपनिषद हमें यह बताते हैं कि जीवन का उद्देश्य मनुष्य की आत्मा का विश्व की आत्मा, से मिलना है। मुख्य उपनिषद हैं-ईश, के न, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक, श्वेताश्वर, कौषीतकी आदि। भारत का प्रसिद्ध आदर्श राष्ट् रीय वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद से लिया गया है।

वेदों के ब्राह्मण, अरण्यक तथा उपनिषद (Brahmins of Vedas, Aranyak and Upanishad) वेद

ब्राह्मण

ऋग्वेद ऐतरेय ब्राह्मण कौतिकी ब्राह्मण

प्रवर्तक (उपवेद)

अरण्यक

उपनिषद

उपवेद

ऐतरेय कौतिकी

ऐतरेय उपनिषद कौतिकी

आयुर्वेद प्रजापति

छांदोग्य उपनिषद के नोपनिषद

गंधर्ववेद नारद

श्वेताश्वतरोपनिषद वृहदारण्यक उपनिषद, ई शो मै ठो

धनुर्वेद विश्वामित्र

पंचविश ब्राह्मण ताण्डय ब्राह्मण छांदोग्य सामवेद षटविश ब्राह्मण जैमिनीय जैमिनीय ब्राह्मण यजुर्वेद तैत्तिरीय ब्राह्मण शतपथ वृहदारण्यक तै

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ब्राह्मण अथर्ववेद गोपथ ब्राह्मण

तैतरीयारण्यक ईशोपनिषद्, मैत्रायणी उपनिषद, कठोपनिषद, तैतरीय उपनिषद –

मुंडकोपनिषद, प्रश्नोपनिषद, माण्डू क्योपनिषद

शिल्प वेद

विश्वकर्मा

सामाजिक स्थिति  ऋग्वैदिक काल में सामाजिक संगठन की न्यूनतम इकाई परिवार था। सामाजिक संरचना का आधार सगोत्रता थी । व्यक्ति की पहचान उसके गोत्र से होती थी। परिवार में कई पीढ़ियां एक साथ रहती थीं। नाना, नानी, दादा, दादी, नाती, पोते आदि सभी के | लिए नतृ शब्द का उल्लेख मिलता है।  परिवार पितृसत्तात्मक होता था। पिता के अधिकार असीमित होते थे। वह परिवार के सदस्यों को कठोर से कठोर दण्ड दे सकता था। ऋग्वेद में एक स्थान पर ऋज्रास्व का उल्लेख है जिसे उसके पिता ने अन्धा बना दिया था। ऋग्वेद में ही शुन:शेष का विवरण प्राप्त होता है जिसे उसके पिता ने बेच दिया था। | ऋग्वेद में परिवार के लिए कु ल का नहीं बल्कि गृह का प्रयोग हुआ है। | जीवन में स्थायित्व का पुट कम था। मवेशी, रथ, दास, घोड़े आदि के दान के उदाहरण तो प्राप्त होते हैं किन्तु भूमिदान के नहीं। अचल सम्पत्ति के रूप में भूमि एवं गृह अभी स्थान नहीं बना पाये थे । समाज काफी हद तक कबीलाई और समतावादी था। समाज में महिलाओं को सम्मानपूर्व स्थान प्राप्त था । स्त्रियों की शिक्षा की व्यवस्था थी। अपाला, लोपामुद्रा, विश्ववारा, घोषा आदि नारियों के मन्त्र द्रष्टा होकर ऋषिपद प्राप्त करने का उल्लेख प्राप्त होता है। पुत्र की भाँति पुत्री को भी उपनयन, शिक्षा एवं यज्ञादि का अधिकार था।  एक पवित्र संस्कार एवं प्रथा के रूप में ‘विवाह‘ की स्थापना हो चुकी थी। बहु विवाह यद्यपि विद्यमान था परन्तु एक पत्नीव्रत प्रथा का ही समाज में प्रचलन था। प्रेम एवं धन के लिए विवाह होने की बात ऋग्वेद से ज्ञात होती है । विवाह में कन्याओं को अपना मत रखने की छू ट थी। कभी–कभी कन्यायें लम्बी उम्र तक या आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं, इन्हें अमाजू: कहते थे।  ऋग्वेद में अन्तर्जातीय विवाहों पर प्रतिबन्ध नहीं था। वयस्क होने पर विवाह सम्पन्न होते थे।  विवाह विच्छेद सम्भव था। विधवा विवाह का भी प्रचलन था। कन्या की विदाई के समय उपहार एवं द्रव्य दिए जाते थे जिसे वहतु‘ कहते थे। स्त्रियाँ पुनर्विवाह कर सकती थीं।  ऋग्वेद में उल्लेख आया है कि वशिष्ठ उनके पुरोहित हुए और त्रित्सुओं ने उन्नति की। भरत लोगों के राजवंश का नाम त्रित्सु मालुम पड़ता है। जिसके सबसे प्रसिद्ध प्रतिनिधि दिवोदास और उसका पुत्र या पौत्र सुदास  ऋग्वेद महत्वपूर्ण नदी तथा क् रमश: सिन्धु एवं सरस्वती सर्वाधिक पवित्र नदी एक मात्र पर्वत मूजवन्त (हिमाचल) प्रमुख देवता इन्द्र यज्ञ में बलि यज्ञों में पशुओं के बलि का उल्लेख मिलता है। समाज पितृसत्तात्मक वर्ण व्यवस्था नहीं स्त्रियों की दशा बेहतर, यज्ञों में भाग लेने एवं शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। सामाजिक स्थिति विधवा विवाह, अन्तर्जातीय विवाह, पुनर्विवाह, नियोग, प्रथा का प्रचलन था। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।  वास अधिवास और नीवी जन आर्य लोग जनों में विभक्त थे जिसका मुखिया राजा होता था।  राजा जनता चुनती थी मुख पदाधिकारी पुरोहित, सेनानी सभा वृद्धजनों की छोटी चुनी हुई | मृत्युदण्ड प्रचलित था परन्तु अधिकतर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। अग्नि परीक्षा, जल परीक्षा, संतप्त पर परीक्षा के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं।  ऋग्वेद में जातीय युद्ध के अनेक उदाहरण प्राप्त होते है। एक युद्ध में सूजयों ने तुर्वशों और उनके मित्र वृचीवतों की सेनाओं को छिन्न–भिन्न कर दिया। दाशराज्ञ युद्ध दाशराज्ञ युद्ध में भरत जन के राजन सुदास ने दस राजाओं के एक संघ को पराजित किया था। यह युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे हुआ था।

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युद्ध का कारण यह था कि प्रारम्भ में विश्वामित्र भरत जन के पुरोहित थे। विश्वामित्र की ही प्रेरणा से भरतों ने पंजाब में विपासा और शतुद्री को जीता था। परंतु बाद में सुदास ने वशिष्ठ को अपना पुरोहित नियुक्त किया। विश्वामित्र ने दस राजाओं का एक संघ बनाया और सुदास के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया। इस युद्ध में पांच आर्य जातियों के कबीले थे  और पाँच आर्येतर जनों के । इसी युद्ध में विजय के पश्चात भरत जन, जिनके आधार पर इस देश का नाम भारत पड़ा, की प्रधानता स्थापित हुई। ऋग्वैदिक राजनीतिक अवस्था राजनीतिक संगठन  ऋग्वेद में अनेक राजनीतिक संगठनों का उल्लेख मिलता है यथा राष्ट् र, जन, विश एवं ग्राम। ऋग्वेद में यद्यपि राष्ट् र शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है, परन्तु ऐसा माना गया है कि भौगोलिक क्षेत्र विशेष पर आधारित स्थायी राज्यों का उदय अभी नहीं हुआ  था।  राष्ट् र में अनेक जन होते थे।जनों में पंचजन–अनु, द्रयु, यदु, तुर्वस एवं पुरु प्रसिद्ध थे। अन्य जन थे भारत, त्रित्सु, सुंजय, त्रिवि आदि।  जन सम्भवतः विश में विभक्त होते थे। विश 1(कैं टन या जिला) के प्रधान को विशाम्पति कहा गया है।  विश ग्रामों में विभक्त रहते थे। ग्राम का मुखिया ग्रामणी होता था। राजा ऋग्वेद में राजा के लिए राजन्, सम्राट, जनस्य गोप्ता आदि शब्दों का व्यवहार हुआ है। ऋग्वैदिक काल में सामान्यत: राजतन्त्र का प्रचलन था। राजा का पद दैवी नहीं माना जाता था। ऋग्वैदिक काल में राजा का पद आनुवंशिक होता था। परन्तु हमें समिति अथवा कबीलाई सभा द्वारा किए जाने वाले चुनावों के बारे में की सूचना मिलती है।  ऋग्वैदिक काल में राजन् एक प्रकार से कबीले का मुखिया होता था ।राजपद पर राजा विधिवत अभिषिक्त होता था।  राजा को जनस्य गोपा (कबीले का रक्षक) कहा गया है। वह गोधन की रक्षा करता था, युद्ध का नेतृत्व करता था तथा कबीले की ओर से देवताओं की आराधना करता था। | सभा, समिति एवं गण  ऋग्वेद में हमें सभा, समिति, विदथ और गण जैसे कबीलाई परिषदों के उल्लेख मिलते हैं। इन परिषदों में जनता के हितों, सैनिक अभियानों और धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में विचार–विमर्श होता था। सभा एवं समिति की कार्यवाही में स्त्रियाँ भी भाग लेती थीं। पदाधिकारी पुरोहित, सेनानी, स्पश (गुप्तचर) दैनिक कार्यों में राजा की सहायता करते थे। नियमित कर व्यवस्था की शुरुआत नहीं हुई थी। लोग स्वेच्छा से अपनी सम्पत्ति का एक भाग राजन् को उसकी सेवा के बदले में दे देते थे।इस भेंट को बलि कहते थे। कर वसूलने वाले किसी अधिकारी का नाम नहीं मिलता है। गोचर–भूमि के अधिकारी को व्राजपति कहा गया है। कु लप परिवार का मुखिया होता था। | ऋग्वैदिक काल में राजा नियमित सेना नहीं रखता था। युद्ध के अवसर पर सेनायें विभिन्न कबीलों से एकत्र कर ली जाती थी। युद्ध के अवसर पर जो सेना एकत्र की जाती थी उनमें व्रात, गण, ग्राम और शर्ध नामक विविध कबीलाई सैनिक सम्मिलित होते थे। ऋग्वैदिक प्रशासन मुख्यत: एक कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना प्रधान होती थी। नागरिक व्यवस्था अथवा प्रादेशिक प्रशासन जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं था, क्योंकि लोग विस्तार  कर अपना स्थान बदलते जा रहे थे। ऋग्वेद में न्यायाधीश का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। समाज में कई प्रकार के अपराध होते थे। गायों की चोरी आम बात थी । इसके अतिरिक्त लेन–देन के झगड़े भी होते थे। सामाजिक परम्पराओं का उल्लंघन करने पर दण्ड दिया जाता था। 

भौतिक जीवन  ऋग्वैदिक लोग मुख्यत: पशुपालक थे। वे स्थायी जीवन नहीं व्यतीत करते थे। पशु ही सम्पत्ति की वस्तु समझे जाते थे। गवेषण, गोषु, गव्य आदि शब्दों का प्रयोग युद्ध के लिए किया जाता था। जन–जीवन में युद्ध के वातावरण का बोलबाला था। लोग मिट्टी एवं घास फू स से बने मकानों में रहते थे। लोग लोहे से अपरिचित थे। 6/20

कृ ष्ण अयस शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख जेमिनी उपनिषद (उत्तर वैदिक काल) में मिलता है।  ऋग्वैदिक लोग कोर वाली कु ल्हाड़ियां, कांसे की कटारें और खड़ग का इस्तेमाल करते थे। तांबा राजस्थान की खेत्री खानों से प्राप्त किया जाता था। भारत में आर्यों की सफलता के कारण थे–घोड़े, रथ और ताँबे के बने कु छ हथियार । कृ षि कार्यों की जानकारी लोगों को थी। भूमि को सुनियोजित पद्धति का नियोजित संपत्ति का रूप नहीं दिया गया था। विभिन्न शिल्पों की जानकारी भी प्राप्त होती है। ऋग्वेद से बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार एवं कारीगर आदि शिल्पवर्ग की जानकारी प्राप्त होती है।  हरियाणा के भगवान पुरा में तेरह कमरों वाला एक मकान प्राप्त हुआ है, यहाँ तेरह कमरों वाला एक मिट्टी का घर प्रकाश में आया है। यहाँ मिली वस्तुओं की तिथि का निर्धारण 1600 ई० पू० से 1000 ई० पू० तक किया गया है। ऋग्वेदकालीन संस्कृ ति ग्राम–प्रधान थी। नगर स्थापना ऋग्वेद काल की विशेषता नहीं है।  नियोग प्रथा के प्रचलन के संके त भी ऋग्वेद से प्राप्त होते हैं जिसके अन्तर्गत पुत्र विहीन विधवा पुत्र प्राप्ति के निमित्त अपने देवर के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करती थी।  ऋग्वैदिक काल में बाल विवाह नहीं होते थे, प्राय: 16–17 वर्ष की आयु में विवाह होते थे। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। सती प्रथा का भी प्रचलन नहीं था। स्त्रियों को राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था। अन्त्येष्टि क्रिया पुत्रों द्वारा ही सम्पन्न की जाती थी, पुत्रियों द्वारा नहीं। स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार नहीं थे। पिता की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र होता था, पुत्री नहीं। पिता, पुत्र के अभाव में गोद लेने का अधिकारी था। 

वर्ण व्यवस्था एवं सामाजिक वर्गीकरण ऋग्वेदकालीन समाज प्रारम्भ में वर्ग विभेद से रहित था। जन के सभी सदस्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा समान थी। ऋग्वेद में वर्ण शब्द कहीं–कहीं रंग तथा कहीं–कहीं व्यवसाय के रूप में प्रयुक्त हुआ  प्रारम्भ में ऋग्वेद में तीनों वर्गों का उल्लेख प्राप्त होता है–ब्रह्म, क्षेत्र तथा विशः ब्रमेय यज्ञों को सम्पन्न करवाते थे, हानि से रक्षा करने वाले क्षत्र (क्षत्रिय) कहलाते थे। शेष जनता विश कहलाती थी। इन तीनों वर्गों में कोई कठोरता नहीं थी। एक ही परिवार के लोग ब्रह्म, क्षत्र या विश हो सकते थे।  ऋग्वैदिक काल में सामाजिक विभेद का सबसे बड़ा कारण था आर्यों का स्थानीय निवासियों पर विजय । आर्यों ने दासों और दस्युओं को जीतकर उन्हें गुलाम और शूद्र बना लिया। शूद्रों का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दशवें मण्डल (पुरुष सुक्त) में हुआ है। अत: यह प्रतीत होता है कि शूद्रों की उत्पत्ति ऋग्वैदिक काल के अंतिम चरण में हुई। डा० आर० एस० शर्मा का विचार है कि शूद्र वर्ग में आर्य एवं अनार्य दोनों ही वर्गों के लोग सम्मिलित थे। आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के फलस्वरूप समाज में उदित हुए। | श्रमिक वर्ग की ही सामान्य संज्ञा शूद्र हो गयी। | ऋग्वेद के दशवें मण्डल (पुरुष सूक्त) में वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त का वर्णन प्राप्त होता है। इसमें शूद्र शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख करते हुए कहा गया है कि विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, उसकी बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। परन्तु इस समय वर्गों में जटिलता नहीं आई थी तथा समाज के विभिन्न वर्ग या वर्ण या व्यवसाय पैतृक नहीं बने थे।  वर्ण व्यवस्था जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित थी। व्यवसाय परिवर्तन सम्भव था। एक ही परिवार के सदस्य विभिन्न प्रकार अथवा वर्ग के व्यवसाय करते थे। एक वैदिक ऋषि अंगिरस ने ऋग्वेद में कहा है, ‘मैं कवि हूँ। मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माँ अन्न पीसने वाली है। अत: वर्ण व्यवस्था पारिवारिक सदस्यों के बीच भी अन्त:परिवर्तनीय थी।  समाज में कोई भी विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग नहीं था।

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शूद्रों पर किसी तरह की अपात्रता नहीं लगाई गयी थी। उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध अन्य वर्गों की तरह सामान्य था। विभिन्न वर्गों के साथ सहभोज पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। अस्पृश्यता भी विद्यमान नहीं थी।  ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा विद्यमान थी। गायों, रथों, घोड़ों के साथ–साथ दास दासियों के दान देने के उदाहरण प्राप्त होते हैं। धनी वर्ग में सम्भवत: घरेलू दास प्रथा ऐश्वर्य के एक स्रोत के रूप में विद्यमान थी किन्तु आर्थिक उत्पादन में दास प्रथा के प्रयोग की प्रथा प्रचलित न थी। ऋग्वैदिक आर्य मांसाहारी एवं शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। भोजन में दूध, घी, दही, मधु, मांस आदि का प्रयोग होता था। नमक का उल्लेख ऋग्वेद में अप्राप्य है। पीने के लिए जल नदियों, निर्घरों (उत्स) तथा कृ त्रिम कू पों से प्राप्त किया जाता था। सोम भी एक पेय पदार्थ के रूप में प्रसिद्ध था।इस अह्लादक पेय की स्तुति में ऋग्वेद का नौवाँ मण्डल भरा पड़ा है। सोम वस्तुत: एक पौधे का रस था जो हिमालय के मूजवन्त नामक पर्वत पर मिलता था। इसका प्रयोग के वल धार्मिक उत्सवों पर होता था। सुरा भी पेय पदार्थ था परन्तु इसका पान वर्जित था। वस्त्र कपास, ऊन, रेशम एवं चमड़े के बनते थे। आर्य सिलाई से परिचित थे। गन्धार प्रदेश भेंड़ की ऊनों के लिए प्रसिद्ध था। पोशाक के तीन भाग थे–नीवी अर्थात् कमर के नीचे पहना जाने वाला वस्त्र, वास– अर्थात् कमर के ऊपर पहना जाने वाला वस्त्र, अधिवास या अत्क या द्रापि–अर्थात् ऊपर से धारण किया जाने वाला चादर या ओढ़नी। लोग स्वर्णाभूषणों का प्रयोग करते थे। स्त्री और पुरुष दोनों ही पगड़ी का प्रयोग करते थे। ऋग्वेद में नाई को वतृ कहा गया है। आमोद–प्रमोद 6 रथ दौड़, आखेट, युद्ध एवं नृत्य आर्यों के प्रिय मनोविनोद थे। जुआ भी खेला जाता था। वाद्य संगीत में वीणा, दुन्दुभी, करताल, आधार और मृदंग का प्रयोग किया जाता था। 

आर्थिक स्थिति  पशुपालन  पशुपालन ऋग्वैदिक काल में अपेक्षाकृ त सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यवसाय था, विशेषकर ऋग्वैदिक काल के प्रारम्भ में। इसके महत्व का पता इस तथ्य से चलता है कि गविष्टि (जिसका अर्थ है ‘गायों की खोज’) युद्धों का पर्याय माना जाता था। गाय को अष्टकर्णी भी कहा गया है। यमुना की तराई गोधन के लिए प्रसिद्ध थी। ऋग्वैदिक काल में गायों का महत्व सर्वाधिक था। गायें विनिमय का माध्यम थीं। पुत्री को दुहिता कहते थे–अर्थात् गाय दुहने वाली। घोड़ा भी अत्यन्त महत्वपूर्ण पशु होता था। ऋग्वेद में उल्लिखित पशुओं के नाम हैं–गाय, घोड़ा, बैल, भैंस, भेंड़, बकरी (अज), हाथी, ऊँ ट, कु त्ता, सुअर, गदहा। चारागाह (खिल्य) पर सामुदायिक नियन्त्रण रहता था। कृ षि  ऋग्वैदिक आर्यों को कृ षि की अच्छी जानकारी थी। वे बैलों से खींचे जाने वाले हलों से खेती करते थे परन्तु हलों के फाल लोहे के बने नहीं होते थे। | भूमिदान के उदाहरण नहीं प्राप्त होने से ऐसा माना जाता है कि भूमि पर निजी स्वामित्व की शुरुआत नहीं हुई थी। हलों में 6, 8 या 12 तक बैल जोड़े जाते थे। ऋग्वेद में कृ षि का उल्लेख 24 बार हुआ है। जोतने, बोने, हंसिया से फसल काटने, दावनी, फटकना, गट्ठा बनाना आदि क्रियाओं से लोग परिचित थे । कृ षि का सर्वाधिक वर्णन ऋग्वेद के चौथे मण्डल में आया है। जंगलों को साफ करने के लिए आर्यों ने अग्नि का प्रयोग किया। खाद का भी प्रयोग किया जाता था। नहरों से सिंचाई की जाती थी। 8/20

आर्यों को अनाज के एक ही किस्म की जानकारी थी, जिसे वे ‘यव‘ कहते थे, जिसका शाब्दिक अर्थ जौ समझा जाता है।  उद्योग-एवं शिल्प।  ऋग्वैदिक समाज में व्यवसाय आनुवांशिक नहीं हुए थे। पशुपालन एवं कृ षि के अतिरिक्त इस काल में अनेक प्रकार के शिल्प एवं उद्योगों का प्रचलन था। ऋग्वेद में उल्लिखित धातुओं में सर्वप्रमुख धातु अयस है। अवश्य यह कांसा या ताँबा रहा होगा। ऋग्वैदिक आर्यों को लोहे का ज्ञान नहीं था। चाँदी का भी प्रयोग संदिग्ध है। ऋग्वेद में जिन प्रमुख व्यवसायियों का उल्लेख प्राप्त होता है उनमें प्रमुख हैं –तक्षा (बढ़ई), धातु कर्मी | (धातु का कार्य करने वाले), स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे), कु म्भकार (कु लाल) आदि। बढ़ई सम्भवतः शिल्पियों का मुखिया होता था। बुनाई का कार्य मुख्यत: ऊन तक ही सीमित था। सिन्धु एवं गान्धार प्रदेश ऊन के लिए प्रसिद्ध थे। ऋग्वेद में कपास या रुई का उल्लेख नहीं प्राप्त होता । तसर शब्द का प्रयोग करघे के लिए हुआ है । वस्त्रों के ऊपर कढ़ाई का काम करने वाली औरतों को पेशस्कारी कहा गया  लोग धातुओं को गलाने, उन्हें पीटकर विविध वस्तुएँ बनाने का कार्य जानते थे।  वैद्य (भिषक), नर्तक–नर्तकी, नाई (वातृ) इत्यादि अन्य सामाजिक वर्ग थे।  व्यापार ऋग्वैदिक आर्य व्यापार में भी संलग्न रहते थे। व्यापार अधिकतर पणि लोगों के हाथ में था, जो अपनी कृ पणता के लिए प्रसिद्ध थे। प्रधानतः व्यापार वस्तु विनियम (Barter system) के माध्यम से होता था। पणि अत्यधिक ब्याज पर ऋण देते थे। उन्हें वेकनाट (सूदखोर) कहा गया है।  व्यापार की मुख्य वस्तुएँ कपड़े, तोशक, चादर और चमड़े की वस्तुएँ थीं। स्थल यातायात के प्रमुख साधन रथ और गाड़ी थे। रथ घोड़ों से और गाड़ी बैलों से खींचे जाते थे। अग्नि को पथ का निर्माता (पथिकृ त) कहा गया है। जंगल, जंगली जानवर और डाकु ओं (तस्कर स्तेन) से भरे रहते थे।  ऋग्वेद में समुद्र शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। लोग समुद्री व्यापार में संलग्न थे कि नहीं, यह एक विवादस्पद प्रश्न है। ऋग्वेद में एक स्थान पर भुज्यु की समुद्री यात्रा का वर्णन है जिसमें मार्ग में जलयान के नष्ट हो जाने पर आत्मरक्षा के लिए अश्विनी कु मारों से प्रार्थना की। अश्विनी कु मारों ने उसकी रक्षा के लिए सौ पतवारों वाला एक जहाज भेजा। विनिमय  गाय, मूल्य की प्रामाणिक इकाई थी। खरीद फरोख्त के अधिकतर सौदे प्रायः वस्तु–विनियम के रूप में होते थे। निष्क जो सोने का एक प्रकार का हार होता था, भी लेन–देन का साधन था। बाजार पर आधारित मुद्रा व्यवस्था का प्रचलन अभी नहीं हुआ था। 

ऋग्वैदिक धर्म  ऋग्वैदिक आर्यों के प्रधान देवता प्राकृ तिक शक्तियों के व्यक्तित्व में ही अपना उद्गम पाते थे। वैदिक देवता अधिकांशत: प्राकृ तिक शक्तियों के मानवीकृ त रूप हैं। धार्मिक विकास के तीनों रूप प्राप्त हैं–बहुदेववाद, एके श्वरवाद एवं एकात्मकवाद । ऋग्वैदिक देवताओं को तीन कोटियों में विभक्त किया जाता है। (1) स्वर्ग के देवता–द्यौस, वरुण, आय, मित्र, सूर्य सविता, पूषन, विष्णु, अदिति, उषा तथा अश्विन्।। (2) अन्तरिक्ष के देवता–इंद्र, रूद्र, मरुत्, वात्, पर्जन्य। (3) पृथ्वी के या पार्थिव देवता–अग्नि, सोम, पृथ्वी। ऋग्वेद का सर्वप्रमुख देवता इन्द्र है। इसे पुरन्दर कहा गया है। यह बादल, एवं वर्षा का देवता था। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति में 250 सूक्त हैं। दूसरा महत्व का देवता अग्नि है। यह मानव एवं देवताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाता था।

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तीसरा प्रमुख देवता वरुण था। यह जलनिधि का देवता माना जाता था। इसे ऋतस्य गोपा अर्थात् ऋत् का रक्षक कहा गया है। इसे प्राकृ तिक घटनाओं का संयोजक माना गया है तथा यह स्वीकार किया गया है कि विश्व में सब कु छ उसी की इच्छा से होता है |  सोम वनस्पति का देवता था। ऋग्वेद का नौवाँ मण्डल (पूरा) इसके सम्बन्धित है। मरुत् तूफान का प्रतिनिधित्व करते थे। सूर्य की स्तुति प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र में सावित्री देवता के रूप में की गयी है। पूषन, मार्गों, चरवाहों और भूले–भटके पशुओं का अभिभावक था है रूद्र एक सदाचार–दुराचार–निरपेक्ष देवता था।  उषस् और अदिति नामक देवियाँ उषाकाल का प्रतिनिधित्व करती थीं।  दर्शन का प्रारम्भ ऋग्वेद के दसवें मण्डल से होता है।  ऋग्वैदिक आर्य प्रवृत्तिमार्गी था। उसके जीवन में सन्यास और गृह त्याग का स्थान नहीं था। ऋग्वेद में मन्दिर अथवा मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है।   देवों की आराधना मुख्यत: स्तुतिपाठ एवं यज्ञाहुति से की जाती थी। यज्ञ में दूध, अन्न, घी, माँस तथा सोम की आहुतियाँ दी जाती थीं। यज्ञ एवं स्तुति सामूहिक रूप से होता था। यज्ञ एवं स्तुति अत्यन्त सरल तरीके से होते थे, इनमें जटिलता नहीं थी।  ऋग्वैदिक ऋषि आत्मवादी था। वह आत्मा में विश्वास करता था। पुनर्जन्म की भावना अभी तक विकसित नहीं हुई थी। ऋग्वेद में अमरता का उल्लेख है। ऋग्वैदिक लोग आध्यात्मिक उन्नति अथवा मोक्ष के लिए देवताओं की आराधना नहीं करते थे। वे इन देवताओं की अर्चना मुख्यतः संतति, पशु, अन्न, धन, स्वास्थ्य आदि के लिए ही करते थे। 

उत्तरवैदिक काल स्त्रोत  उत्तरवैदिक कालीन सभ्यता की जानकारी के स्रोत तीन वैदिक संहिताएँ—यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक ग्रन्थ एवं उपनिषद ग्रन्थ हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वेदांग वैदिक साहित्य के अन्तर्गत परिगणित नहीं होते हैं।

उत्तरवैदिक आर्यों का भौगोलिक विस्तार  उत्तरवैदिक काल में आर्यों की भौगोलिक सीमा का विस्तार गंगा के पूर्व में हुआ। शतपथ ब्राह्मण में आर्यों के भौगोलिक विस्तार की आख्यायिका के अनुसार-विदेथ माधव ने वैश्वानर अग्नि को मुँह में धारण किया। धृत का नाम लेते ही वह अग्नि पृथ्वी पर गिर गया तथा सब कु छ जलाता हुआ पूर्व की तरफ बढ़ा। पीछे-पीछे विदेथ माधव एवं उनका पुरोहित गौतम राहूगण चला। अकस्मात् वह सदानीरा (गंडक) नदी को नहीं जला पाया। सप्तसैंधव प्रदेश से आगे बढ़ते हुए आर्यों ने सम्पूर्ण गंगा घाटी पर प्रभुत्व जमा लिया। इस प्रक्रिया में कु रु एवं पांचाल ने अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त की। कु रु की राजधानी आसन्दीवत तथा पांचाल की कांपिल्य थी। कु रु लोगों ने सरस्वती और दृषद्वती के अग्रभाग (‘कु रुक्षेत्र,-और दिल्ली एवं मेरठ के जिलों) को अधिकार में कर लिया।’ पांचाल लोगों ने वर्तमान उत्तर प्रदेश के अधिकांश भागों (बरेली, बदायूँ और फर्रु खाबाद जिलों) पर अधिकार कर लिया। कु रु जाति कई छोटी-छोटी जातियों के मिलने से बनी थी, जिनमें पुरुओं और भरतों के भी दल थे। पांचाल जाति कृ षि जाति से निकली थी जिसका सुंजयों और तुर्वशों का सम्बन्ध था। कु रुवंश में कई प्रतापी राजाओं के नाम अथर्ववेद एवं विभिन्न उत्तरवैदिक कालीन ग्रन्थों में मिलते हैं। अथर्ववेद में प्राप्त एक स्तुति का नायक परीक्षित है। जिसे विश्वजनीन राजा कहा गया है इसका पुत्र जनमेजय था। पांचाल लोगों में भी प्रवाहण, जैवालि एवं ऋषि आरुणि-श्वेतके तु जैसे प्रतापी नरेशों के नाम मिलते हैं, ये उच्च कोटि के दार्शनिक थे। उत्तरवैदिक काल में कु रु, पन्चाल कोशल, काशी तथा विदेह प्रमुख राज्य थे। आर्य सभ्यता का विस्तार उत्तरवैदिक काल में विन्ध्य में दक्षिण में नहीं हो पाया था।

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राजनीतिक स्थिति  राज्य संस्था—कबीलाई तत्व अब कमजोर हो गये तथा अनेक छोटे–छोटे कबीले एक–दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे। उदाहरणार्थ, पूरु एवं भरत मिलकर कु रु और तुर्वस एवं क्रिवि मिलकर पांचाल कहलाए। ऋग्वेद में इस बात के संके त मिलते हैं कि राज्यों या जनपदों का आधार जाति या कबीला था परन्तु अब क्षेत्रीयता के तत्वों में वृद्धि हो रहा था। प्रारम्भ में प्रत्येक प्रदेश को वहाँ बसे हुए कबीले का नाम दिया गया। आरम्भ में पांचाल एक कबीले का नाम था परन्तु अब उत्तरवैदिक काल में यह एक (क्षेत्रगत) प्रदेश का नाम हो गया। तात्पर्य यह कि अब इस क्षेत्र पर चाहे जिस कबीले का प्रधान या चाहे जो भी राज्य करता, इसका नाम पांचाल ही रहता। विभिन्न प्रदेशों में आर्यों के स्थायी राज्य स्थापित हो गये। राष्ट् र शब्द, जो प्रदेश का सूचक है, पहली बार इसी काल में प्रकट होता है। उत्तरवैदिक काल में मध्य देश के राजा साधारणतः के वल राजा की उपाधि से ही सन्तुष्ट रहते थे। पूर्व के राजा सम्राट, दक्षिण के भोज पश्चिम के स्वरा, और उत्तरी जनपदों के शासक विराट कहलाते थे। उत्तरवैदिक काल के प्रमुख राज्यों में कु रु-पांचाल (दिल्ली-मेरठ और मथुरा के क्षेत्र) पर कु रु लोग हस्तिनापुर से शासन करते थे। गंगा-यमुना के संगम के पूर्व कोशल का राज्य स्थित था। कोसल के पूर्व में काशी राज्य था। विदेह नामक एक अन्य राज्य था जिसके राजा जनक कहलाते थे। गंगा के दक्षिणी भाग में विदेह के दक्षिण में मगध राज्य था। राज्य के आकार में वृद्धि के साथ ही साथ राजा के शक्ति और अधिकार में वृद्धि हुई। अब राजा अपनी सारी प्रजा का स्वतंत्र स्वामी होने का दावा करता था। शासन पद्धति राजतन्त्रात्मक थी। राजा का पदं वंशानुगत होता था। यद्यपि जनता द्वारा राजा के चुनाव के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। राजा अब के वल जन या कबीले का रक्षक या नेता न होकर एक विस्तृत भाग का एकछत्र शासक होता था। राज पद की उत्पत्ति के सिद्धान्त उत्तरवैदिक साहित्य में राज्य एवं राजा के प्रादुर्भाव के विषय में अनेक सिद्धान्त मिलते हैं–राजा के पद के जन्म के बारे में ऐतरेय ब्राह्मण से सर्वप्रथम जानकारी मिलती है। (1) सैनिक आवश्यकता का सिद्धान्त–ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख है कि एक बार देवासुर–संग्राम हुआ। बार–बार पराजित होने के पश्चात सब इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि राजाविहीन होने के कारण ही हमारी पराजय होती है। अतः उन्होंने सोम को अपना राजा बनाया और पुन: युद्ध किया। इस बार उनकी विजय हुई। अतः इससे ज्ञात होता है कि राजा का प्रादुर्भाव सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था। तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी इसी मत से सम्बन्धित एक उल्लेख प्राप्त होता है, इसमें यह कहा गया है कि समस्त देवताओं ने मिलकर इन्द्र को राजा बनाने का निश्चय किया, क्योंकि वह सबसे अधिक सबल और प्रतिभाशाली देवता था। | (2) समझौते का सिद्धान्त–शतपथ ब्राह्मण में एक उल्लेख के अनुसार जब कभी अनावृष्टि काल होता है तो सबल निर्बल का उत्पीड़न करते हैं। इस दुर्वह परिस्थिति को दूर करने के लिए समाज ने अपने सबसे सबल और सुयोग्य सदस्य को राजा बनाया था और समझौते के अनुसार अपने असीम अधिकारों को राजा के प्रति समर्पित कर दिया।  (3) दैवी सिद्धान्त–उत्तरवैदिक काल में राजा को दैव पद भी दिया जाने लगा था। राजा के शक्ति और अधिकार विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों ने राजा की शक्ति को बढ़ाया। कई तरह के लंबे और राजकीय यज्ञानुष्ठान प्रचलित हो गये। राजाओं का राज्याभिषेक होता था। राज्याभिषेक के समय राजा राजसूय यज्ञ करता था। यह यज्ञ सम्राट का पद प्राप्त करने के लिए किया जाता था, तथा इससे यह माना जाता था कि इन यज्ञों से राजाओं को दिव्य शक्ति प्राप्त होती है ।राजसूय यज्ञ में रलिन नामक अधिकारियों के घरों में देवताओं को. बलि दी जाती थी। है अश्वमेध यज्ञ तीन दिनों तक चलने वाला यज्ञ होता था। समझा जाता था कि अश्वमेध–अनुष्ठान से विजय और सम्प्रभुता की प्राप्ति होती है। अश्वमेध यज्ञ में घोड़ा प्रयुक्त होता था। वाजपेय यज्ञ में, जो सत्रह दिनों तक चलता था, राजा की अपने सगोत्रीय बन्धुओं के साथ रथ की दौड़ होती थी।  राजा देवता का प्रतीक समझा जाता था। अथर्ववेद में राजा परीक्षित को ‘मृत्युलोक का देवता‘ कहा गया है। राजा के प्रधानकार्य सैनिक और न्याय सम्बन्धी होते थे। वह अपनी प्रजा और कानूनों का रक्षक तथा शत्रुओं का संहारक था। राजा स्वयं दण्ड से मुक्त था परन्तु वह राजदण्ड का उपयोग करता था। सिद्धान्ततः राजा निरंकु श होता था परन्तु राज्य की स्वेच्छाचारिता कई प्रकार से मर्यादित रहती थी। उदाहरणार्थ

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(1) राजा के वरण में जनता की सहमति की उपेक्षा नहीं हो सकती थी। (2) अभिषेक के समय राज्य के स्वायत्त अधिकारों पर लगायी गयी मर्यादाओं का निर्वाह करना राजा का कर्तव्य होता था।  (3) राजा को राजकार्य के लिए मंत्रिपरिषद पर निर्भर रहना पड़ता था।  (4) सभा और समिति नामक दो संस्थायें राजा के निरंकु श होने पर रोक लगाती थीं।  (5) राजा की निरंकु शता पर सबसे बड़ा अंकु श धर्म का होता था। अथर्ववेद के कु छ सूक्तों से पता चलता है कि राजा जनता की भक्ति और समर्थन प्राप्त करने के लिए लालायित रहता था। कु छ मन्त्रों से पता चलता है कि अन्यायी राजाओं को प्रजा दण्ड दे सकती थी तथा उन्हें राज्य से बहिष्कृ त कर सकती थी। कु रुवंशीय परीक्षित जनमेजय तथा पांचाल वंश के राजाओं प्रवाहन, जैवालि अरुणि एवं श्वेतके तु के समृद्धि के बारे में जानकारी अथर्ववेद में मिलती है। राजा का निर्वाचन  अनेक वैदिक साक्ष्यों से हमें राजा के निर्वाचन की सूचना प्राप्त होती है। अथर्ववेद में एक स्थान पर राजा के निर्वाचन की सूचना प्राप्त होती है। राज्याभिषेक के अवसरों पर राजा रत्नियों के घर जाता था। शतपथ ब्राह्मण में रत्नियों की संख्या 11 दी गई है–(1) सेनानी (2) पुरोहित (3) युवराज (4) महिषी (5) सूत (6) ग्रामिणी (7) क्षत्ता (8) संग्रहीता (कोषाध्यक्ष) (9) भागद्ध (कर संग्रहकर्ता) (10) अक्षवाप (पासे के खेल में राजा का सहयोगी) (11) पालागल (राजा का मित्र और विदूषक)। राज्याभिषेक में 17 प्रकार के जलों से राजा का अभिषेक किया जाता था। प्रशासनिक संस्थायें उत्तरवैदिक काल में जन परिषदों, सभा, समिति, विदथ का महत्व कम हो गया। राजा की शक्ति बढ़ने के साथ ही साथ इनके अधिकारों में काफी गिरावट आयी।  विदथ पूर्णतया लुप्त हो गये थे। सभा–समिति का अस्तित्व था परन्तु या तो इनके पास कोई अधिकार शेष नहीं था या इन पर सम्पत्तिशाली एवं धनी लोगों का अधिकार हो गया था। स्त्रियाँ अब सभा समिति में भाग नहीं ले पाती थीं। पदाधिकारी  पुरोहित, सेनानी एवं ग्रामिणी के अलावा उत्तरवैदिक कालीन ग्रन्थों में हमें संग्रहितृ (कोषाध्यक्ष), भागदुध (कर संग्रह करने वाला), सूत (राजकीय चारण, कवि या रथ वाहक), क्षतु, अक्षवाप (जुए का निरीक्षक) गोविकर्तन (आखेट में राजा का साथी) पालागल जैसे कर्मचारियों का उल्लेख प्राप्त होता है।  सचिव नामक उपाधि का उल्लेख भी मिलता है, जो आगे चलकर मन्त्रियों के लिए प्रयुक्त हुई है।  उत्तरवैदिक काल के अन्त तक में बलि और शुल्क के रूप में नियमित रूप से कर देना लगभग अनिवार्य बनता जा रहा।  राजा न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था। अपराध सम्बन्धी मुकदमों में व्यक्तिगत प्रतिशोध का स्थान था। न्याय में दैवी न्याय का व्यवहार भी होता था। निम्न स्तर पर प्रशासन एवं न्यायकार्य ग्राम पंचायतों के जिम्मे था, जो स्थानीय झगड़ों का फै सला करती थी। 

सामाजिक स्थिति  उत्तरवैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था ही था, यद्यपि वर्ण व्यवस्था में कठोरता आने लगी थी। समाज में चार वर्ण–ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र थे। ब्राह्मण के लिए ऐहि, क्षत्रिय के लिए आगच्छ, वैश्य के लिए आद्रव तथा शूद्र के लिए आधव शब्द प्रयुक्त होते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों को द्विज कहा जाता था। ये उपनयन संस्कार के  अधिकारी थे।

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चौथा वर्ण (शूद्र) उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था और यहीं से शूद्रों को अपात्र या आधारहीन मानने की प्रक्रिया शुरू हो गई।  आर्थिक स्थिति  उत्तरवैदिक काल में कृ षि आर्यों का मुख्य पेशा हो गया। लोहे के उपकरणों के  प्रयोग से कृ षि क्षेत्र में क् रान्ति आ गई। यजुर्वेद में लोहे के लिए श्याम अयस एवं कृ ष्ण अयस शब्द का प्रयोग हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में कृ षि की चार क्रियाओं–जुताई, बुआई, कटाई और मड़ाई का उल्लेख हुआ है। पशुपालन गौण पेशा हो गया। अथर्ववेद में सिंचाई के साधन के रूप में वर्णाकू प एवं नहर (कु ल्या) का उल्लेख मिलता है। हल की नाली को सीता कहा जाता था। अथर्ववेद के विवरण के अनुसार सर्वप्रथम पृथ्वीवेन ने हल और कृ षि को जन्म दिया। इस काल की मुख्य फसल धान और गेहूँ हो गई। यजुर्वेद में ब्रीहि (धान), यव (जौ), माण (उड़द) मुद्ग (मूंग), गोधूम (गेहूँ), मसूर आदि अनाजों का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद में सर्वप्रथम नहरों का उल्लेख हुआ है। इस काल में हाथी को पालतू बनाए जाने के साक्ष्य प्राप्त होने लगते हैं। जिसके लिए हस्ति या वारण शब्द मिलता है। वृहदारण्यक उपनिषद् में श्रेष्ठिन शब्द तथा ऐतरेय ब्राह्मण में श्रेष्ठ्य शब्द से व्यापारियों की श्रेणी का अनुमान लगाया जाता है। तैत्तरीय संहिता में ऋण के लिए कु सीद शब्द मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में महाजनी प्रथा का पहली बार जिक् र हुआ है तथा सूदखोर को कु सीदिन कहा गया है। निष्क, शतमान, पाद, कृ ष्णल आदि माप की विभिन्न इकाइयाँ थीं। द्रोण अनाज मापने के लिए प्रयुक्त किए जाते थे। के उत्तरवैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृद्भाण्डों से परिचित थे—काला व लाल मृभाण्ड, काले पॉलिशदार मृद्भाण्ड, चित्रित धूसर मृद्भाण्ड और लाल मृद्भाण्ड। उत्तरवैदिक आर्यों को समुद्र का ज्ञान हो गया था। इस काल के साहित्य में पश्चिमी और पूर्वी दोनों प्रकार के समुद्रों का वर्णन है। वैदिक ग्रन्थों में समुद्र यात्रा की भी चर्चा है, जिससे वाणिज्य एवं व्यापार का संके त मिलता है। सिक्कों का अभी नियमित प्रचलन नहीं हुआ था। उत्तरवैदिक ग्रन्थों में कपास का उल्लेख नहीं हुआ है, बल्कि ऊनी (ऊन) शब्द का प्रयोग कई बार आया हैं। बुनाई का काम प्रायः स्त्रियाँ करती थीं। कढ़ाई करने वाली स्त्रियों को पेशस्करी कहा जाता था। तैतरीय अरण्यक में पहली बार नगर की चर्चा हुई हैं। उत्तरवैदिक काल के अन्त में हम के वल नगरों का आभास पाते हैं। हस्तिनापुर और कौशाम्बी प्रारम्भिक नगर थे, जिन्हें आद्य नगरीय स्थल (Proto–Urbon Site) कहा जा सकता है।  धार्मिक स्थिति  उत्तरवैदिक आर्यों के धार्मिक जीवन में मुख्यत: तीन परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं–देवताओं की महत्ता में परिवर्तन, अराधना की रीति में परिवर्तन तथा धार्मिक उद्देश्यों में परिवर्तन। * उत्तरवैदिक काल में इन्द्र के स्थान पर सृजन के देवता । प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला। रूद्र और विष्णु दो अन्य प्रमुख देवता इस काल के माने जाते हैं। वरुण मात्र जल के देवता माने जाने लगे, जबकि पूषन अब शूद्रों के देवता हो गए। इस काल में प्रत्येक वेद के अपने पुरोहित हो गए। ऋग्वेद का पुरोहित होता, सामवेद का उद्गाता, यजुर्वेद का अध्वर्यु एवं अथर्ववेद का ब्रह्मा कहलाता था। उत्तरवैदिक काल में अनेक प्रकार के यज्ञ प्रचलित थे, जिनमें सोमयज्ञ या अग्निष्टोम यज्ञ, अश्वमेघ यज्ञ, वाजपेय यज्ञ एवं राजसूय यज्ञ महत्त्वपूर्ण थे। मृत्यु की चर्चा सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण तथा मोक्ष की चर्चा सर्वप्रथम उपनिषद् में मिलती है। पुनर्जन्म की अवधारणा वृहदराण्यक उपनिषद् में मिलती है। निष्काम कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम ईशोपनिषद् में किया गया है।

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प्रमुख यज्ञ अग्निहोतृ यज्ञ पापों के क्षय और स्वर्ग की ओर ले जाने वाले नाव के रूप में वर्णित सोत्रामणि यज्ञ यज्ञ में पशु एवं सुरा की आहुति, पुरुषमेघ यज्ञ पुरुषों की बलि, सर्वाधिक 25 यूपों (यज्ञ स्तम्भ) का निर्माण, अश्वमेध यज्ञ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यज्ञ, राजा द्वारा साम्राज्य की सीमा में वृद्धि के लिए, सांडों तथा घोड़ों की बलि।। राजसूय यज्ञ राजा के राज्याभिषेक से सम्बन्धित वाजपेय यज्ञ राजा द्वारा अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए, रथदौड़ का आयोजन।

ऋगवेद में उल्लिखित शब्द (Words written in RigVeda) शब्द

संख्या

इन्द्र अग्नि वरुण जन विश पिता माता वर्ण ग्राम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र राष्ट्र समा समिति विदथ गंगा यमुना राजा सोम देवता कृ षि गण विष्णु रूद्र बृहस्पति पृथ्वी

250 बार 200 30 275 171 335 234 23 13 15 9 1 1 10 8 9 122 1 3 1 144 24 46 100 3 11 1

ऋग्वेद के मंडल और उनके रचयिता (Parts of Rigveda and their Writer) मंडल

रचयिता

द्वितीय मंडल तृतीय मंडल चतुर्थ मंडल पांचवा मंडल छठा मंडल

गृत्समद विश्वामित्र वामदेव आत्रि भारद्वाज 14/20

सातवां मंडल वशिष्ठ आठवां मंडल कणव व अंगीरा

वैदिक कालीन सूत्र साहित्य  कल्पसूत्र विधि एवं नियमों का प्रतिपादन श्रौतसूत्र यज्ञ से संबंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या | यज्ञ स्थल तथा अग्नि वेदी के निर्माण तथा माप से संबंधित नियम है इसमें भारतीय ज्यामिति का प्रारंभिक रूप दिखाई शुल्बसूत्र देता है | धर्मसूत्र सामाजिक-धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है | ग्रह सूत्र मनुष्य के लौकिक एवं पारलौकिक कर्तव्य |

वैदिक काल में होने वाले सोलह संस्कार (Sixteen Sanskar in Vedic Period) अन्नप्राशन संस्कार चूड़ाकर्म संस्कार कर्णभेद संस्कार विद्यारंभ संस्कार उपनयन संस्कार वेदारंभ संस्कार के शांत संस्कार गर्भाधान संस्कार पुंसवन संस्कार सीमानतोनयन संस्कार जातकर्म संस्कार नामकरण संस्कार निष्क् रमण संस्कार समावर्तन संस्कार विवाह संस्कार अंत्येष्टि संस्कार

इसमें  शिशु को छठे माह में अन्न खिलाया जाता है | शिशु के तीसरे से आठवें वर्ष के बीच कभी भी मुंडन कराया जाता था | रोगों से बचने हेतु आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता था | 5वे वर्ष में बच्चों को अक्षर ज्ञान कराया जाता था | इस संस्कार के पश्चात बालक द्विज हो जाता था | इस संस्कार के बाद बच्चे को संयमी जीवन व्यतीत करना पड़ता था | बच्चा इसके बाद  शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाता था | वेद अध्ययन करने के लिए किया जाने वाला संस्कार 16 वर्ष हो जाने पर प्रथम बार बाल कटाना | संतान उत्पन्न करने हेतु पुरुष एवं स्त्री द्वारा की जाने वाली क्रिया | प्राप्ति के लिए मंत्त्रोच्चारण गर्भवती स्त्री के गर्भ की रक्षा हेतु किए जाने वाला संस्कार | बच्चे के जन्म के पश्चात पिता अपने शिशु को ध्रत या मधु चटाता था बच्चे की दीर्घायु के लिए प्रार्थना की जाती थी | शिशु का नाम रखना | बच्चे के घर से पहली बार निकलने के अवसर पर किया जाता था | विद्याध्ययन समाप्त कर घर लौटने पर किया जाता था यह ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति का सूचक था | वर वधु के परिणय सूत्र में बंधने के समय किया जाने वाला संस्कार | निधन के बाद होने वाला संस्कार |

ऋग्वैदिक कालीन प्रमुख नदियां  15/20

प्राचीन नाम आधुनिक नाम कु भा सुवस्तु क् रूमु गोमती वितस्ता अस्किनी पुरूष्णी विपाशा शतुद्री सदानीरा दृषद्वती सुषोमा मरुदवृद्धा

काबुल स्वात कु र्रम गोमल झेलम चेनाव रावी व्यास सतलज गंडक घग्धर सोहन मरूबर्मन

वैदिक कालीन देवता (Vedic Period Gods) मरुत आंधी तूफान के देवता पर्जन्य वर्षा के देवता सरस्वती नदी देवी (बाद में विद्या की देवी) पूषन पशुओं के देवता (उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता) अरण्यानी जंगल की देवी यम मृत्यु के देवता मित्र शपथ एवं प्रतिज्ञा के देवता आश्विन चिकित्सा के देवता सूर्य जीवन देने वाला (भुवन चक्षु) त्वष्क्षा धातुओं के देवता आर्ष विवाह और संधि के देवता विवस्तान देवताओं जनक सोम वनस्पति के देवता

Quick Facts – वैदिक काल | Vedic Period 1. जिस काल में ऋग्वेद की रचना हुई, उसे किस काल के नाम से जाना जाता है?— ऋग्वेदिक काल 2. किस काल में ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वेदों की रचना हुई उसे क्या कहते हैं?— वैदिक काल 3. ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का आधार क्या था?— कार्य के आधार पर 4. भारत में आर्यों ने आकर किस सभ्यता की नींव डाली थी?— वैदिक सभ्यता की 5. भारत में आने वाले आर्य क्या कहलाते हैं?— इंडो आर्य 6. आर्यों का मुख्य निवास स्थान कहां माना जाता है?— आल्पस पर्वत के पूर्वी क्षेत्र और यूरेशिया 7. आर्य भारत में सबसे पहले कहाँ बसे थे?— सप्त सिन्धु प्रदेश में 8. आर्य कब भारत आये?— 1500 ई. पूर्व के आस-पास 9. आर्य अनार्यों को क्या कहते थे?— ‘दस्यु’ और ‘दास’ 10. आर्य के आहार क्या थे?— अन्न और मांस

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11. आरमिभक आर्यों का मुख्य पेशा क्या था?— पशुपालन और वमषि 12. आर्यों के समय की मुख्य पैदावार क्या थी?— धान, गेहूँ, जौ 13. आर्यों की भाषा क्या थी?— संस्कृ त 14. मूर्ति पूजा का आरम्भ कब से माना जाता है?— पूर्व आर्यकाल 15. आर्यों के प्रमुख देवता कौन थे?— इन्द्र 16. आर्य लोग युद्ध करते समय क्या बजाते थे?— दुन्दुभी 17. आर्य किसकी पूजा करते थे?— प्रावमत शक्तियों की ( वर्षा के देवता-इन्द्र, वायु के देवता-मरूत, प्रकाश के देवता-सूर्य ) 18. आर्य दार्शनिक क्या कहलाते थे?— ऋषि 19. आर्यों के समय किस पशु का सर्वाधिक महत्व था?— घोड़ा 20. आर्य किस नदी को ज्यादा महत्व देते थे?— सरस्वती नदी 21. भारत में आर्य लोग स्थायी रूप से सबसे पहले कहाँ आकर बसे?— पंजाब 22. आर्यों के मनोरंजन के साधन कौन-कौन से थे?— रथदौड़, घुड़दौड़, आखेट, संगीत, चौपड़, जुआ आदि 23. आर्यों ने किस धातु की खोज की ?— लोहा 24. आर्यों के समय समाज में कितने वर्ण थे?— चार-ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र 25. भारत में आर्य कहाँ से आये थे?— मध्य एशिया से 26. आर्यों के प्राचीन आदरणीय ग्रंथ कौन सा हैं?— वेद 27. आर्यों का सबसे प्रथम प्राचीन वेद कौन-सा है?— ऋग्वेद 28. किस ग्रंथ का संकलन ऋग्वेद पर आधारित हैं?— सामवेद 29. वेद कितने हैं?— चार-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद 30. ऋग्वेद के सूक्तों की रचना किस प्रदेश में हुई थी?— पंजाब प्रदेश 31. ऋग्वेद में कितने सूक्तों का संग्रह हैं?— 1017 सूक्तों का ( जिसमें 10 मंडल है ) 32. गायत्री मंत्र किस पुस्तक में मिलता है?— ऋग्वेद में 33. ऋग्वेद में सम्पत्ति का प्रमुख रूप क्या था?— गौधन 34. वेद से हमें कै सी जानकारी प्राप्त होती है?— ऋग्वेद से पूर्व वैदिक काल के सामाजिक, आर्थिक, एवं राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। सामवेद गायन प्रधान है। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियों और संस्कारों की चर्चा मिलती है तथा अथर्ववेद में तंत्र-मंत्र एवं जादूटोना का विवरण मिलता है 35. ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का आधार क्या था?— धन्धे के आधार पर 36. आर्यों के समूह को क्या कहा जाता है?— विश 37. ऋग्वैदिक आर्य कई ‘जनों’ में विभक्त थे, उनमें से सबसे प्रमुख कौन था?— पंचजन-अणु, द्रुष्यु, यदु, तुर्बस और पुरू 38. चार वर्णों का उल्लेख सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?— पुरुष सूक्त में 39. समाज में कितने आश्रम थे?— चार-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वनप्रस्थ, सन्यास 40. समाज में कै सा विवाह प्रथा प्रचलित था?— जातीय, अंतर्जातीय तथा विधवा विवाह 41. कौन-सी स्‍मृति प्राचीनतम है – मनुस्‍मृति 42. ‘आदि काव्‍य’ की संज्ञा किसे दी जाती है – रामायण 43. प्राचीनतम पुराण है – मत्‍स्‍य पुराण 44. ऋग्‍वेद में सबसे पवित्र नदी किसे माना गया है – सरस्‍वती 45. वैदिक समाज की आधारभूत इकाई थी – काल/कु टुम्‍ब 46. ऋग्‍वैदिक युग की प्राचीनतम संस्‍था कौन-सी थी – विदथ 47. ब्राम्‍हण ग्रंथो में सर्वाधिक प्राचीन कौन है – शतपथ ब्राम्‍हण

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48. ‘गोत्र’ व्‍यवस्‍था प्रचलन में कब आई – उत्‍तर-वैदिक काल 49. ‘मनुस्‍मृति’ मुख्‍यतया सम्‍बन्धित है – समाज व्‍यवस्‍था से 50. गायत्री मंत्र की रचना किसने की थी – विश्‍वामित्र ने 51. ‘अवेस्‍ता’ और ‘ऋग्‍वेद’ में समानता है। ‘अवेस्‍ता’ किस क्षेत्र से सम्‍बन्धित है – ईरान से 52. ऋग्‍वेद में कितनी ऋचाएँ हैं – 1028 53. किसका संकलन ऋग्‍वेद पर आधारित है – सामवेद 54. किस वेद में जादुई माया और वशीकरण (magical charms and spells) का वर्णन है – अथर्ववेद 55. ‘आर्य’ शब्‍द इंगित करता है – नृजाति समूह को 56. प्राचीनतम विवाह संस्‍कार का वर्णन करने वाला ‘विवाह सूक्‍त’ किसमें पाया जाता है – ऋग्‍वेद में 57. ऋग्‍वेद में ‘अघन्‍य’ (वध योग्‍य नहीं) शब्‍द का प्रयोग किसके लिए किया गया था – गाय 58. ऋग्‍वेद में किन नदियों का उल्‍लेख अफगानिस्‍तान के साथ आर्यों के सम्‍बन्‍ध का सूचक है – कु भा, क् रमु 59. आर्यों के आर्क टिक होम सिद्धान्‍त का पक्ष किसने लिया था – बी.जी.तिलक 60. ‘अथर्व’ का अर्थ है – पवित्र जादू

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वैदिक काल के 99 महत्वपूर्ण प्रश्न | Quiz | क्या आपको पता हैं ? यह भी देखें – Quickest Revision-  1. ऋग्वेद में ‘आर्य’ शब्द का ३६ बार उल्लेख है| 2. ऋग्वेद की अनेक बातें अवेस्ता से मिलाती है, जो ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ है| 3. सिन्धु नदी की ऋग्वेद में सर्वाधिक चर्चा की गई है| 4. ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा (पवित्र नदी) काहां गया है| 5. ऋग्वेद में गंगा की एक बार एवं यमुना की तीन बार चर्चा की गई है| 6. दसराज्ञ युध्द भारत वंश के राजा सुदास तथा एनी दस राजाओं के बीच परुष्णी नदी के तट पर हुआ था, जिसमे सुदास की विजय हुई थी| 7. ऋग्वेद में सभा की ८ बार, समिति की ९ बार तथा विद्थ की २२ बार चर्चा की गई है| 8. ऋग्वैदिक काल में राजा को जनस्य गोपा,विश्पति, गणपति एवं गोपति कहा जाता है| 9. ऋग्वैदिक कालीन प्रशासन में सबसे प्रमुख पुरोहित था| 10.  जनप्रशासन की सर्वोच्च ईकाई थी| 11. सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल में वर्णित पुरुष सूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है| 12. अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता को वैदिक रिचाओ को लिखने का श्री दिया जाता है |

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13. ऋग्वैदिक काल में बाल विवाह, तलाक, सतीप्रथा, पर्दा प्रथा का प्रचलन नही था ऋग्वैदिक काल में विधवा विवाह एवं नियोग प्रथा का प्रचलन था| 14. सोम नामक पदार्थ की चर्चा ऋग्वेद के नौंवे मण्डल में है| 15. ऋग्वैदिक आर्यों का मुख्य पेशा पशुचारण था| 16. ऋगवेद में मुद्रा के रूप में निष्क और शतमान की चर्चा मिलाती है | 17. ऋग्वेद में कृ षि का उल्लेख २४ बार हुआ | 18. ऋग्वैदिक आर्यों को पाँच ऋतुओ का ज्ञान था| 19. ऋग्वैदिक काल के सबसे महत्वपूर्ण देवता को ‘पुरन्दर’ कहा गया है| 20. ऋग्वैदिक काल के दूसरे महत्वपूर्ण देवता अग्नि देवताओं और मनुष्यों के बीच मध्यस्थ थे| 21. ऋग्वेद में वरुण देवता को नैतिक नियमो का संरक्षक बताया गया है| 22. ऋग्वैदिक धर्म कि दृष्टि मानवीय तथा इहलौकिक थी| 23. 800 ई.पू. के आस-पास गंगा यमुना दोआब में अतरंजीखेडा से पहली बार कृ षि से सम्बन्धित लौह उपकरण के साक्ष्य मिले है| 24. ऐतरेय ब्राह्मण में चारों वर्णों के कर्तव्यो का वर्णन मिलता है| 25. उत्तरवैदिक ग्रन्थों में श्याम अयस (लोहे) की चर्चा मिलती है| 26. सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में कृ षि की समस्त प्रक्रियाओं का वर्णन मिलता है सामवेद को भारतीय संगीतशास्त्र पर प्राचीनतम पुस्तक माना जाता है| 27. यजुर्वेद गद्य एवं पद्य में लिखित है| 28. अथर्ववेद में तन्त्र-मन्त्र का संकलन है| 29. गृह्य सूत्र में सोलह प्रकार के संस्कार तथा आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है| परीक्षा की दृष्टि से बेहद उपयोगी प्राचीन इतिहास के इस भाग में आप पाएंगे वैदिक काल से सम्बंधित सभी तथ्य तथा लगभग सभी सवालों के जवाब जो अभी तक किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में पूछे गए हैं , इस ऑडियो क्लिप मे आपको वैदिक काल में होने वाले क्रिया कलापों तथा रचे गए ग्रंथों के बारे में भी जानकारी मिलेगी

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जैन धर्म | तथ्य जो प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं ! ⋮ 14/7/2019

जैन धर्म (JAINISM)  जैन धर्म छठवीं शताब्दी में उदित हुए उन 62 नवीन धार्मिक संप्रदायों में से एक था। परंतु अंत में जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म ही प्रसिद्ध हुए। छठी शताब्दी ई०पू० में भारत में उदित हुए प्रमुख धार्मिक संप्रदाय निम्न थे –  1. जैन धर्म [(वर्धमान महावीर (वास्तविक संस्थापक)]  2. बौद्ध धर्म (गौतम बुद्ध) 3. आजीवक सम्प्रदाय (मक्खलि गोशाल) 4. अनिश्चयवाद (संजय वेट्टलिपुत्र) 5. भौतिकवाद (पकु ध कच्चायन) 6. यदृच्छवाद (आचार्य अजाति के शकम्बलीन) 7. घोर अक्रियावादी (पूरन कश्यप) 8. सनक संप्रदाय (द्वैताद्वैत) (निम्बार्क ) 9. रुद्र संप्रदाय (शुद्धाद्वैत) (विष्णुस्वामी वल्लभाचार्य) 10. ब्रह्म संप्रदाय (द्वैत) (आनंद तीर्थ) 11. वैष्णव सम्प्रदाय (विशिष्टाद्वैत) (रामानुज) 12. रामभक्त सम्प्रदाय (रामानंद) 13. परमार्थ सम्प्रदाय (रामदास) 14. श्री वैष्णव सम्प्रदाय (रामानुज) 15. बरकरी संप्रदाय (नामदेव) 

वर्धमान महावीर : एक संक्षिप्त परिचय जन्म–कुं डय़ाम (वैशाली) जन्म का वर्ष–540 ई०पू० पिता–सिद्धार्थ (ज्ञातृक क्षत्रिय कु ल) माता–त्रिशला (लिच्छवी शासक चेटक की बहन) पत्नी–यशोदा,  पुत्री–अनोज्जा प्रियदर्शिनी भाई–नंदि वर्धन,  गृहत्याग–30 वर्ष की आयु में ( भाई की अनुमति से)

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तपकाल–12 वर्ष तपस्थल–जम्बीग्राम (ऋजुपालिका नदी के किनारे) में एक साल वृक्ष कै वल्य–ज्ञान की प्राप्त 42 वर्ष की अवस्था में निर्वाण–468 ई०पू० में 72 वर्ष की आयु में पावा में धर्मोपदेश देने की अवधि–12 वर्ष 

जैन धर्म (JAINISM)  जैन धर्म के संस्थापक इसके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। जैन परंपरा में धर्मगुरुओं को तीर्थंकर कहा गया है तथा इनकी संख्या 24 बताई गई है। जैन शब्द जिन से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महावीर को ‘जिन’ की उपाधि मिली एवं इसी से ‘जैन धर्म नाम पड़ा एवं महावीर इस धर्म के वास्तविक संस्थापक कहलाये।  जैन धर्म को संगठित करने का श्रेय वर्धमान महावीर को जाता है। परंतु, जैन धर्म महावीर से पुराना है एवं उनसे पहले इस धर्म में 23 तीर्थंकर हो चुके थे। महावीर इस धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। इस धर्म के 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ एवं ‘24वें तीर्थंकर महावीर को छोड़कर शेष तीर्थंकरों के  विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हैं।  यजुर्वेद के अनुसार ऋषभदेव का जन्म इक्ष्वाकु वंश में हुआ।  जैनियों के 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का जन्म काशी में 850 ई०पू० में हुआ था। पाश्र्वनाथ के पिता अश्वसेन काशी के इक्ष्वाकू –वंशीय राजा थे। पाश्र्वनाथ ने 30 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया। पाश्र्वनाथ ने सम्मेत पर्वत (पारसनाथ पहाड़ी) पर समाधिस्थ होकर 84 दिनों तक घोर तपस्या की तथा कै वल्य (ज्ञान) प्राप्त किया। पाश्र्वनाथ ने सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रहका उपदेश दिया। पार्श्वनाथ के अनुयायी निग्रंथ कहलाये।  भद्रबाहु रचित कल्पसूत्र में वर्णित है कि पार्श्वनाथ का निधन आधुनिक झारखंड के हजारीबाग जिले में स्थित पारस नाथ नामक पहाड़ी के सम्मेत शिखर पर हुआ।  महावीर के उपदेशों की भाषा प्राकृ त (अर्द्धमगधी) थी।   महावीर के दामाद जामलि उनके पहले शिष्य बने।  नरेश दधिवाहन की पुत्री चम्पा जैन–भिक्षुणी बनने वाली पहली महिला थी। जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता तो है, परन्तु जिन सर्वोपरि है | स्यादवाद एवं अनेकांतवाद जैन धर्म के  ‘सप्तभंगी ज्ञान’ के अन्य नाम हैं। जैन धर्म के अनुयायी, कु छ प्रमुख शासक थे–उदयन, चंद्रगुप्त मौर्य, कलिंगराज खारवेल, अमोधवर्ष, राष्ट् रकू ट राजा, चंदेल शासक। जैन धर्म के आध्यात्मिक विचार सांख्य दर्शन से प्रेरित हैं | अपने उपदेशों के प्रचार के लिए महावीर ने जैन संघ की स्थापना की। महावीर के 11 प्रिय शिष्य थे जिन्हें गणघट कहते थे। इनमें 10 की मृत्यु उनके जीवनकाल में ही हो गई। महावीर का 11वाँ’ शिष्य आर्य सुधरमन था जो महावीर की मृत्यू के बाद जैन संध का प्रमुख बना एवं धर्म प्रचार किया | 10 वीं शताब्दी के मध्य में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में चामुंड (मैसूर के गंग वंश के मंत्री) ने गोमतेश्वर की मूर्ती का निर्माण कराया | चंदेल शासकों ने खजुराहो में जैन मंदिरों का निर्माण कराया | मथुरा मौर्य कला के पश्चात जैन धर्म का एक प्रसिद्द कें द्र था | 2/8

नयचंद्र सभी जैन तीर्थंकरों में संस्कृ त का सबसे बड़ा विद्वान था।  महावीर के निधन के लगभग 200 वर्षों के पश्चात मगध में एक भीषण अकाल पड़ा।  उपरोक्त अकाल के दौरान चंद्रगुप्त मौर्य मगध का राजा एवं भद्रबाहु जैन संप्रदाय का प्रमुख था। राजा चंद्रगुप्त एवं भद्रबाहु उपरोक्त अकाल के  दौरान अपने अनुयायियों के साथ कर्नाटक चले गये। जो जैन धर्मावलंबी मगध में ही रह गये उनकी जिम्मेदारी स्थूलभद्र पर दी गई। भद्रबाहु के अनुयायी जब दक्षिण भारत से लौटे तो उन्होंने निर्णय लिया की पूर्ण नग्नता‘ महावीर की शिक्षाओं का आवश्यक आधार होनी चाहिए। जबकि स्थूलभद्र के अनुयायियों ने श्वेत वस्त्र धारण करना आरंभ किया एवं श्वेतांबर कहलाये, जबकि भद्रबाहु के अनुयायी दिगंबर कहलाये भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र में जैन तीर्थंकरों की जीवनियों का संकलन है। महावीर स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति मल्ल राजा सृस्तिपाल के राजाप्रासाद में हुआ। 

जैन धर्म के त्रिरत्न  1. सम्यक श्रद्धा – सत्य में विश्वास 2. सम्यक ज्ञान – शंकाविहीन एवं वास्तविक ज्ञान 3. सम्यक आचरण – बाह्य जगत के प्रति उदासीनता

पंच महावृत  1. अहिंसा – न हिंसा करना और ना ही उसे प्रोत्साहित करना 2. सत्य – क् रोध, भय, लोभ पर विजय की प्राप्ति से “सत्य” नामक वृत पूरा होता है | 3. अस्तेय – चोरी ना करना (बिना आज्ञा के कोई वस्तु ना लेना) 4. अपरिग्रह – किसी भी वस्तु में आसक्ति (लगाव) नहीं रखना | 5. ब्रह्मचर्य – सभी प्रकार की वासनाओं का त्याग

जैन संगीतियाँ   प्रथम संगीति  कालक् रम–322–298 ई०पू०  स्थल–पाटलिपुत्र  अध्यक्ष–स्थूलभद्र  शासक–चंद्रगुप्त मौर्य  कार्य–प्रथम संगीति में 12 अंगों का प्रणयन किया गया।   द्वितीय संगीति  कालक् रम–512 ई०,  स्थल–वल्लभी (गुजरात में),  अध्यक्ष देवर्धि क्षमाश्रमण, 

जै

कार्य–द्वितीय जैन संगीति के दौरान जैन धर्मग्रंथों को अंतिम रूप से लिपिबद्ध एवं संकलित किया गया। 

र्थ

के

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जैन तीर्थकर एवं उनके प्रतीक (Jain Tirthankars and their symbols) प्रथम द्वितीय इक्कीसवें तेइसवें चौबीसवें

ऋषभदेव अजीत नाथ नेमिनाथ पार्शवनाथ महावीर

सांड हाथी शंख सांप सिंह

जैन धर्म से संबंधित पर्वत (Mountains related to Jainism) कै लाश पर्वत सम्मेद पर्वत वितुलांचल पर्वत माउंट आबू पर्वत शत्रुं जय पहाड़ी

ऋषभदेव का शरीर त्याग पार्शवनाथ का शरीर त्याग महावीर का प्रथम उपदेश दिलवाड़ा जैन मंदिर अनेक जैन मंदिर

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर 1 ऋषभदेव (आदिनाथ) 2 संभवनाथ 3 सुमितिनाथ 4 सुपार्शवनाथ 5 सुविधिनाथ 6 श्रेयांशनाथ 7 विमलनाथ 8 धर्मनाथ 9 कुं थुनाथ 10 मल्लीनाथ 11 नेमीनाथ 12 पार्शवनाथ

13 अजीत नाथ 14 अभिनंदन 15 पदम प्रभु 16 चंद्रप्रभु 17 शीतलनाथ 18 वासुमल 19 अनंतनाथ 20 शांतिनाथ 21 अरनाथ 22 मुनि सुब्रत 23 अरिष्टनेमि 24 महावीर स्वामी

श्वेतांबर एवं दिगंबर में अंतर श्वेतांबर

दिगंबर

1 मोक्ष की प्राप्ति के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक नहीं | मोक्ष के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक 2 इसी जीवन में स्त्रियां निर्वाण के अधिकारी स्त्रियों को निर्वाण संभव नहीं | 3 कै वल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी लोगों को भोजन की आवश्यकता | के वली प्राप्ति के बाद भोजन की आवश्यकता नहीं 4 श्वेतांबर मतानुसार महावीर विवाहित थे | दिगंबर मतानुसार महावीर अविवाहित है | 5 19वीं तीर्थकर स्त्री थी | 19वें तीर्थकर पुरुष थे | जैन धर्म ऑडियो नोट्स Audio Player

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1..महावीर ने अपना उपदेश किस भाषा में दिया ? – प्राकृ त (अर्द्धमागधी) 2. जैन धर्म …………को भी मानता था ? – पुनर्जन्म 3. महावीर के माता का नाम क्या था ? – त्रिशाला 4. महावीर के बचपन का नाम क्या था ? – वर्द्धमान 5. महावीर के पत्नी का नाम था ? – यशोदा 6. महावीर के पिता का क्या नाम था ? – सिद्धार्थ 7. अनोज्जा प्रियदर्शनी किसके पुत्री का नाम है ? – महावीर 8. महावीर के दामाद का नाम क्या था ? – जमाली 9. महावीर के बड़े भाई का नाम क्या था ? – नंदिवर्धन 10. महावीर की मृत्यु के बाद कौन जैन धर्म का प्रथम थेरा या मुख्य उपदेशक हुआ ? – सुधर्मन 11. जैन धर्म किसको प्रधान मानता था ? – कर्म 12. जैन धर्म के आध्यात्मिक विचार किससे प्रेरित है ? – सांख्य दर्शन 13. जैन धर्म का उदय का कारण क्या था ? – ब्राह्मणों के बढ़ते जटिल कर्मकाण्डों की प्रक्रिया के खिलाफ 14. जैन धर्म का उदय कब हुआ ? – 6ठी शताब्दी ई०पू० 15. जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थकर कौन थे ? – महावीर स्वामी 16. महावीर का जन्म कब और कहाँ हुआ था ? – 540 ई०पू० वैशाली के कु ण्डग्राम में 5/8

17. महावीर को किस नदी के तट पर ज्ञान की प्राप्ति हुई ? – ऋजुपालिका 18. महावीर के मुख्य शिष्य को क्या कहा जाता था ? – गणधर 19. महावीर के धार्मिक उपदेश का संकलन किस पुस्तक में है ? – पूर्व 20. श्वेताम्बर का अर्थ क्या थे ? – जो श्वेत वस्त्र धारण करते थे 21. दिगंबर का अर्थ क्या थे ? – जो पूर्णतः नग्न थे 22. महावीर को कितने वर्ष की अवस्था में ज्ञान की प्राप्ति हुई ? – 42 वर्ष 23. जैन धर्म का संस्थापक कौन थे ? – ऋषभदेव 24. जैन धर्म सर्वाधिक किस वर्गों के बीच फै ला था ? – व्यापारी वर्ग 25. महावीर के अनुयायी को किस रूप में जाना जाता है ? – निर्ग्रन्थ 26. दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार किसने किया था ? – भद्रबाहु 27. चन्द्रगुप्त मौर्य किससे प्रेरणा लेकर जैन धर्म को अपनाया ? – भद्रबाहु28. जैनियों का प्रसिद्ध मदिर का नाम क्या है ?

– दिलवाड़ा मंदिर 29. जैन साहित्य को क्या कहा जाता है ?

– आगम 30. महावीर के पहले अनुयायी कौन बने थे ?

– जामिल 31. जैन धर्म में कितने तीर्थकर हुए ?

– 24 32. महावीर ने अपने शिष्यों को कितने गणधरों में बंटा था ?

– 11 33. मोक्ष प्राप्ति के बाद महावीर ने किसको जैन संघ का प्रमुख बनाया था ?

– सुधर्मन 34. जैन धर्म के 23वें तीर्थकर कौन थे ?

– पाशर्वनाथ

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35. पाशर्वनाथ किस राजा के पुत्र थे ? – अश्वसेन 36. महावीर का देहांत कहाँ हुआ था ? – राजगृह (नालन्दा जिला) 37. दिलवाड़ा मंदिर कहाँ स्थित है ? – माउन्ट आबू38. प्रसिद्ध जैन-तीर्थस्थल का नाम क्या है और किस राज्य में स्थित है ?

– श्रवणवेलगोला, कर्नाटक 39. खजुराहो में जैन मंदिरों का निर्माण किसने करवाया था ?

– चंदेल शासकों ने 40. जैन मंदिर हाथी सिंह किस राज्य में स्थित है ?

– गुजरात 41. महावीर को जिस वृक्ष के निचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी उस वृक्ष का नाम क्या है ?

– साल 42. जैन धर्म को मानने वाले राजा कौन-कौन थे ?

– चन्द्रगुप्त मौर्य, कलिंग नरेश खारवेल, चंदेल शासक, वंद राजा एवं राजा अमोघवर्ष 43. प्रसिद्ध जैनी ‘जल-मंदिर’ बिहार राज्य के किस शहर में स्थित है ?

– पावापुरी 44. मथुरा कला का संबंध किस धर्म से है ?

– जैनधर्म 45. पाशर्वनाथ ने भिक्षुओं को किस रंग का वस्त्र पहनने को कहा ?

– सफ़े द 46. पाशर्वनाथ का प्रतिक चिन्ह क्या था ?

– सर्फ़ 47. जैन धर्म में किस पर सर्वाधिक जोर दिया गया है ?

– अहिंसा 48. महावीर के मृत्यु के बाद जैन धर्म कितने भागो में विभक्त हो गया ?

– दो (1. श्वेताम्बर 2. दिगंबर)49. महावीर की 72 वर्ष की अवस्था में कब देहांत हुआ ? – 468 ई०पू० 50. जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर एवं प्रवर्तक कौन थे ? – ऋषभदेव ये भी देखें – जैन और बौद्ध धर्म के 104 प्रश्न । Quiz । आपको पता हैं क्या ?

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बौद्ध धर्म का इतिहास, सम्पूर्ण कवरेज, वीडियो, ऑडियो एवं प्रश्न-उत्तर ⋮ 19/7/2019

बौद्ध धर्म महत्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएं जन्म-563 ई० में कपिलवस्तु में (नेपाल की तराई में स्थित) मृत्यु-483 ई० में कु शीनारा में (देवरिया उ० प्र०) ज्ञान प्राप्ति -बोध गया। प्रथम उपदेश-सारनाथ स्थित मृगदाव में

महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं के चिह्न या प्रतीक घटनाओं के चिह्न या प्रतीक  जन्म – कमल या सांड गर्भ में आना – हाथी समृद्धि – शेर गृहत्याग – अश्व ज्ञान – बोधिवृक्ष निर्वाण – पद चिह्न मृत्यु – स्तूप

महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी शब्दावली गृहत्याग – महाभिनिष्क् रमण ज्ञानप्राप्ति – सम्बोधि प्रथम उपदेश – धर्मचक् रप्रवर्तन मृत्यु – महापरिनिर्वाण संघ में प्रविष्ट होना – उपसम्पदा

गौतम बुद्ध की जीवनी बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध का जन्म नेपाल की तराई में अवस्थित कपिलवस्तु राज्य में स्थित लुम्बिनी वन में 563 ई० पू० में हुआ था। इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। कपिलवस्तु शाक्य गणराज्य की राजधानी थी तथा गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोधन यहाँ के राजा थे। जन्म के सातवें दिन गौतम बुद्ध की माता महामाया का देहान्त हो गया। इनका पालन पोषण इनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। गौतम के जन्म पर कालदेवल एवं ब्राह्मण कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक आगे चलकर चक् रवर्ती सम्राट या सन्यासी होगा। 16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह यशोधरा (कहीं-कहीं इनके अन्य नाम गोपा, बिम्ब, भद्रकच्छा मिलता है) से हो गया। कालान्तर में इनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया।

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सांसारिक दु:खों के प्रति चिंतनशील सिद्धार्थ को वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं लगा। गौतम सिद्धार्थ के मन में वैराग्य भाव को प्रबल करने वाली चार घटनायें अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। (i) नगर भ्रमण करते समय गौतम को सबसे पहले मार्ग में जर्जर शरीर वाला वृद्ध (ii) फिर रोगग्रस्त व्यक्ति तत्पश्चात (iii) मृतक और अन्त में (iv) एक वीतराग प्रसन्नचित सन्यासी के दर्शन हुए। इन दृश्यों ने उनके सांसारिक वितृष्णा के भाव को और मजबूत कर दिया।

ज्ञान की खोज में सिद्धार्थ गौतम उनतीस वर्ष की आयु में सिद्धार्थ गौतम ने ज्ञान प्राप्ति के लिए गृहत्याग कर दिया। गृहत्याग के पश्चात उन्होंने 7 दिन अनूपिय नामक बाग में बिताया तत्पश्चात वे राजगृह पहुँचे।। कालान्तर में वे आलार कालाम नामक तपस्वी के संसर्ग में आए। पुन: रामपुत्त नामक एक अन्य आचार्य के पास गए। परन्तु उन्हें संतुष्टि नहीं प्राप्त हुई। आगे बढ़ते हुए गौतम उरुवेला पहुँचे यहाँ उन्हें कौण्डिन्य आदि 5 ब्राह्मण मिले। इनके साथ कु छ समय तक रहे परन्तु इनका भी साथ इन्होंने छोड़ दिया। सात वर्ष तक जगह-जगह भटकने के पश्चात अन्त में गौतम सिद्धार्थ गया पहुँचे। यहाँ उन्होंने निरंजना नदी में स्नान करके एक पीपल के वृक्ष के नीचे समाधि लगाई। यहीं आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा पर गौतम को ज्ञान प्राप्त हुआ। इस समय इनकी उम्र 35 वर्ष थी। उस समय से वे बुद्ध कहलाए।

धर्मचक् रप्रवर्तन  गौतम बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया। इसे ही धम-चक् र-प्रवर्तन कहते हैं। यहीं सारनाथ में ही उन्होंने संघ की स्थापना भी की। बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश उरुवेला में छू टे हुए, जो इस समय गौतम बुद्ध से सारनाथ में मिले, पाँच ब्राह्मणों को दिया। यश नामक एक धनाढ्य श्रेष्ठी भी बौद्ध धर्म का अनुयायी बना। सारनाथ से गौतम काशी पहुँचे, वहाँ से राजगृह तथा कपिलवस्तु। गौतम बुद्ध लगातार चालीस साल तक घूमते रहे एवं उपदेश देते रहे। अपने जीवन के अंमित समय में पावा में बुद्ध ने चुन्द नामक सुनार के घर भोजन किया तथा उदर रोग से पीड़ित हुए। यहाँ से वे कु शीनगर (कसया गाँव, देवरिया जिला, पूर्वी उत्तर प्रदेश) आए जहाँ 80 वर्ष की आयु में 483 ई० पू० में उनका महापरिनिर्वाण हुआ।

महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य  (1) आनन्द-यह महात्मा बुद्ध के चचेरे भाई थे। (2) सारिपुत्र-यह वैदिक धर्म के अनुयायी ब्राह्मण थे तथा महात्मा बुद्ध के व्यक्तित्व एवं लोकोपकारी धर्म से प्रभावित होकर बौद्ध भिक्षु हो गये थे। (3) मौद्गल्यायन-ये काशी के विद्वान थे तथा सारिपुत्र के साथ ही बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए थे। (4) उपालि (5) सुनीति (6) देवदत्त-यह बुद्ध के चचेरे भाई थे। 2/9

(7) अनुरुद्ध-यह एक अति धनाढ्य व्यापारी का पुत्र था। (8) अनाथ पिण्डक-यह एक धनी व्यापारी था। इसने जेत कु मार से जेतवन खरीदकर बौद्ध संघ को समर्पित कर दिया था। बिम्बिसार और प्रसेनजित-ये क् रमशः मगध और कोशल के सम्राट थे। इन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अत्यधिक सहयोग दिया।

बौद्ध धर्म के सिद्धान्त  महात्मा बुद्ध एक व्यावहारिक धर्म सुधारक थे। उन्होंने भोग विलास और शारीरिक पीड़ा इन दोनों को ही चरम सीमा की वस्तुएँ कहकर उनकी निंदा की ओर उन्होंने मध्यम मार्ग का अनुसरण करने पर जोर दिया। बौद्ध धर्म का विशद ज्ञान हमें त्रिपिटकों से होता है जो पालि भाषा में लिखे गये हैं। चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म की आधारशिला उसके चार आर्य सत्य हैं (1) दुःख–बौद्ध धर्म दु:खवाद को लेकर चला। महात्मा बुद्ध का कहना था कि यह संसार दुःख से व्याप्त है। (2) दुःख समुदाय-दु:खों के उत्पन्न होने के  कारण हैं। इन कारणों को द:ख समुदाय के अन्तर्गत रखा गया है। सभी कारणों का मूल है तृष्णा। तृष्णा से आसक्ति तथा राग का जन्म होता है। रूप, शब्द, गंध, रस तथा मानसिक तर्क -वितर्क आसक्ति के कारण हैं। (3) दुःख निरोध-दु:ख निरोध अर्थात् दु:ख निवारण के लिए तृष्णा का उच्छेद या उन्मूलन आवश्यक है। रूप वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का निरोध ही दु:ख का निरोध है। (4) दुःख निरोध गामिनी-प्रतिपदा-इसे अष्टांगिक मार्ग भी कहते हैं। यह दु:ख निवारण का उपाय है। ये आठ मार्ग निम्नलिखित हैं  (1) सम्यक दृष्टि (2) सम्यक् संकल्प (3) सम्यक् कर्म (5) सम्यक् आजीव (6) सम्यक् वाणी (7) सम्यक् स्मृति (8) सम्यक् समाधि इन अष्टांगिक मार्गों के अनुशीलन से मनुष्य निर्वाण प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। दस शील निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिक जीवन पर बुद्ध ने अत्यधिक बल दिया, ये दस शील हैं (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (चोरी न करना) (4) धन संचय न करना (5) व्यभिचार न करना (6) असमय भोजन न करना (7) सुखप्रद बिस्तर पर न सोना (8) धन संचय न करना (9) स्त्रियों का संसर्ग न करना (10) मद्य का सेवन न करना। कर्म

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बौद्ध धर्म-कर्म प्रधान धर्म है। जो मनुष्य सम्यक्  कर्म करेगा वह निर्वाण का अधिकारी होगा। प्रयोजनवाद  महात्मा बुद्ध नितान्त प्रयोजनवादी थे। उन्होंने अपने को सांसारिक विषयों तक ही सीमित रखा। उन्होंने पुराने समय से चले आ रहे आत्मा और ब्रह्म सम्बन्धी वाद-विवाद में अपने को नहीं उलझाया। अनीश्वरवाद बौद्ध धर्म निरीश्वरवादी है वह सृष्टि कर्ता ईश्वर को नहीं स्वीकार करता है। बौद्ध धर्म वेद को प्रमाण वाक्य एवं देव वाक्य नहीं मानता है। अनात्मवाद बौद्ध धर्म में आत्मा की परिकल्पना नहीं है। अनात्मवाद के सिद्धान्त के अन्तर्गत यह मान्यता है कि व्यक्ति में जो आत्मा है वह उसके अवसान के  साथ ही समाप्त हो जाती है। आत्मा शाश्वत या चिरस्थायी नहीं है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता है । बौद्ध धर्म कर्म के फल में विश्वास करता है। अपने कर्मों के फल से ही मनुष्य अच्छा-बुरा जन्म पाता है। प्रतीत्य समुत्पाद इसे कारणता का सिद्धान्त भी कहते हैं। प्रतीत्य (इसके होने से) समुत्पाद (यह उत्पन्न होता है)। अर्थात् जगत में सभी वस्तुओं का अथवा कार्य का कारण है। बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। निर्वाण मनुष्य के जीवन का चरम लक्ष्य है निर्वाण प्राप्ति । निर्वाण से तात्पर्य है जीवन-मरण के चक् र से मुक्त हो जाना। बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जन्म से प्राप्त हो सकता है किन्तु महापरिनिर्वाण मृत्यु के पश्चात ही सम्भव है। बौद्ध संघ  बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों बुद्ध, धम्म और संघ में संघ का स्थान महत्वपूर्ण था। सारनाथ में मृगदाव में धर्म का उपदेश देने के पश्चात 5 शिष्यों के साथ बुद्ध ने संघ की स्थापना की। बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक आधार पर हुआ था। संघ में प्रविष्ट होने को उपसम्पदा कहा जाता था। भिक्षु लोग वर्षा काल को छोड़कर शेष समय धर्म का उपदेश देने के लिए भ्रमण करते रहते थे। संघ का द्वार सभी लोगों के लिए खुला था। जाति सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध नहीं थे। बाद में बुद्ध ने अल्पवयस्क,चोर, हत्यारों, ऋणी व्यक्तियों, राजा के सेवक, दास तथा रोगी व्यक्ति का संघ में प्रवेश वर्जित कर दिया। कठोर नियम का पालन करते हुए भिक्षु कासाय (गेरुआ) वस्त्र धारण करते थे। अपराधी भिक्षुओं को दण्ड देने का भी विधान था। संघ की कार्यवाही एक निश्चित विधान के आधार पर चलती थी। संघ की सभा में प्रस्ताव (नत्ति) का पाठ (अनुसावन) होता था। प्रस्ताव पर मतभेद होने की स्थिति में अलग अलग रंग की शलाका द्वारा लोग अपना मत पक्ष या विपक्ष में प्रस्तुत करते थे। सभा में बैठने की व्यवस्था करने वाला अधिकारी आसन प्रज्ञापक होता था। 4/9

सभा के वैध कार्रवाई के लिए न्यूनतम उपस्थिति संख्या (कोरम) 20 थी।

बौद्ध संगीतियाँ प्रथम बौद्ध संगीति स्थान – सप्तपर्ण बिहार पर्वत( राजगृह) समय – 483 ई० पू० शासनकाल – अजातशत्रु अध्यक्ष – महाकस्सप कार्य – बुद्ध की शिक्षाओं की सुत्तपिटक तथा विनय पिटक नामक पिटकों में अलग-अलग संकलन किया गया। द्वितीय बौद्ध संगीति स्थान – वैशाली समय – 383 ई० पू० शासनकाल – कालाशोक अध्यक्ष – साबकमीर कार्य – पूर्वी तथा पश्चिमी भिक्षुओं के  आपसी मतभेद के कारण संघ, का स्थविर एवं महासंघिक में विभाजन तृतीय बौद्ध संगीति स्थान – पाटलिपुत्र समय – 250 ई० पू० शासनकाल – अशोक अध्यक्ष – मोग्गलिपुत्त तिस्स । कार्य – अभिधम्मपिटक का संकलन एवं संघभेद को समाप्त करने के  लिए कठोर नियम चतुर्थ बौद्ध संगीति स्थान – कु ण्डलवन (कश्मीर) समय – प्रथम शताब्दी ई० शासनकाल – कनिष्क अध्यक्ष – वसुमित्र उपाध्यक्ष – अश्वघोष कार्य – ‘विभाषाशास्त्र’ नामक टीका का संस्कृ त में संकलन, बौद्ध संघ का हीनयान एवं महायान सम्प्रदायों में विभाजन

 बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय  प्रथमबौद्ध संगीति में रुढ़िवादियों की प्रधानता थी, इन्हें स्थविर (रुढ़िवादी) कहा गया। महासांघिक तथा थेरवाद  द्वितीय बौद्ध संगीति में भिक्षुओं के दो गुटों में तीव्र मतभेद उभर पड़े। एक पूर्वी गुट जिसमें वैशाली तथा मगध के भिक्षु थे और दूसरा था पश्चिमी गुट जिसमें कौशाम्बी, पाठण और अवन्ती के भिक्षु थे।

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पूर्वी गुट के लोग जिन्होंने अनुशासन के दस नियमों को स्वीकार कर लिया था महासांघिक या अचारियावाद कहलाये तथा पश्चिमी लोग थेरवाद कहलाये।। महासांघिक या थेरवाद हीनयान से ही सम्बन्धित थे। थेरवाद का महत्वपूर्ण सम्प्रदाय सर्वास्तिवादियों का था, जिसकी स्थापना राहुलभद्र ने की थी। शुरू में इसका कें द्र मथुरा में था, वहाँ से यह गांधार तथा उसके पश्चात कश्मीर पहुँचा।। महासांघिक समुदाय दूसरी परिषद के समय बना था। इसकी स्थापना महाकस्सप ने की थी। शुरू में यह वैशाली में स्थित था, उसके पश्चात यह उत्तर भारत में फै ला । बाद में यह आन्ध्र प्रदेश में फै ला जहाँ अमरावती और नागार्जुन कोंडा इसके प्रमुख के न्द्र थे। थेरवादियों के सिद्धान्त ग्रन्थ संस्कृ त में हैं, किन्तु महासंघकों के ग्रन्थ प्राकृ त में है। थेरवाद कालान्तर में महिशासकों एवं वज्जिपुत्तकों में विभाजित हो गया। महिशासकों के भी दो भाग हो गए- सर्वास्तिवादी एवं धर्मगुप्तिक। कात्यायनी नामक एक भिक्षु ने कश्मीर में सर्वास्तिवादियों के अभिधम्म का संग्रह किया एवं उसे आठ खण्डों में क् रमबद्ध किया। हीनयान एवं महायान कनिष्क के समय चतुर्थ बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म स्पष्टत: दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया : (1) हीनयान (2) महायान हीनयान हीनयान ऐसे लोग जो बौद्ध धर्म के प्राचीन सिद्धान्तों को ज्यों का त्यों बनाये रखना चाहते थे तथा परिवर्तन के विरोधी थे हीनयानी कहलाये। हीनयान में बुद्ध को एक महापुरुष माना गया। हीनयान एक व्यक्तिवादी धर्म था, इसका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। | हीनयान मूर्तिपूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं करता। हीनयान भिक्षु जीवन का हिमायती है। हीनयान का आदर्श है अर्हत पद को प्राप्त करना या निर्वाण प्राप्त करना। परन्तु इनका मत है कि निर्वाण के पश्चात पुनर्जन्म नहीं होता। (2) सौत्रान्तिक – यह सुत्त पिटक पर आधारित सम्प्रदाय है। इसमें ज्ञान के अनेक प्रमाण स्वीकार किये गये हैं। यह बाह्य वस्तु के साथसाथ चित्र की भी सत्ता स्वीकार करता है। ज्ञान के भिन्न-भिन्न प्रमाण होते हैं। महायान महायान सम्प्रदाय बुद्ध को देवता के रूप में स्वीकार करता है। महायान सिद्धान्तों के अनुसार बुद्ध मानव के दु:खत्राता के रूप में अवतार लेते रहे हैं। इनका अगला अवतार मैत्रेय के नाम से होगा। अतः इनकी तथा बोधिसत्वों की पूजा प्रारम्भ हो गयी। महायान सम्प्रदाय का प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ललित विस्तार’ है।

बोधिसत्व – निर्वाण प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति, जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दुःखों से छु टकारा दिलाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे, बोधिसत्व कहे गये। बोधिसत्व में करुणा तथा प्रज्ञा होती है। महायान में समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए परसेवा तथा परोपकार पर बल दिया गया। महायान मूर्तिपूजा तथा पुनर्जन्म में आस्था रखता है। महायान के सिद्धान्त सरल एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं यह मुख्यत: गृहस्थ धर्म है। महायान सम्प्रदाय के अन्तर्गत सम्प्रदाय  6/9

माध्यमिक (शून्यवाद)

इस मत का प्रवर्तन नागार्जुन ने किया था। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘माध्यमिककारिका’ है। यह मत सापेक्ष्यवाद भी कहलाता है। नागार्जुन, चन्द्रकीर्ति, शान्ति देव, आर्य देव, शान्ति रक्षित आदि इस सम्प्रदाय के प्रमुख भिक्षु थे। विज्ञानवाद (योगाचार) 

मैत्रेय या मैत्रेयनाथ ने इस सम्प्रदाय की स्थापना ईसा की तीसरी शताब्दी में की थी। इसका विकास असंग तथा वसुबन्धु ने किया था। यह मत चित्त या विज्ञान की ही एकमात्र सत्ता स्वीकार करता है जिससे इसे विज्ञानवाद कहा जाता है। चित्त या विज्ञान के अतिरिक्त संसार में किसी भी वस्तु को अस्तित्व नहीं है। बज्रयान

बज्रयान सम्प्रदाय का आविर्भाव हर्षोत्तर काल की बौद्ध धर्म की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। बौद्ध धर्म के इस सम्प्रदाय में स्त्रोतों, स्तवों, अनेक मुद्राओं अर्थात स्थितियों, मंडलों अर्थात रहस्यमय रेखांकृ तियों, क्रियाओं अर्थात अनुष्ठानों और संस्कारों तथा चर्याओं अर्थात ध्यान के अभ्यासों एवं व्रतों द्वारा इसे रहस्य का आवरण पहना दिया गया। जादू, टोना, झाड़-फू क, भूत-प्रेत और दानवों तथा देवताओं की पूजा ये सब बौद्ध धर्म के अंग बन गए।

बौद्ध धर्म की विशेषताएं और उसके प्रसार के कारण  बौद्ध धर्म ने ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया। यह वेद को प्रमाण वाक्य नहीं माना। अत: बौद्ध धर्म में दार्शनिक वाद-विवाद की कठोरता नहीं थी। इसमें वर्णभेद के लिए कोई स्थान नहीं था, इसलिए इसे निम्न जाति के लोगों का विशेष समर्थन मिला। स्त्रियों को भी संघ में स्थान मिला। अतः इससे बौद्ध धर्म का प्रचार होने में मदद मिली। बुद्ध के व्यक्तित्व एवं उनकी उपदेश पद्धति ने धर्मप्रचार में उन्हें बड़ी मदद दी। आम जनता की भाषा पालि ने भी बौद्ध धर्म के प्रसार में योग दिया। संघ के संगठित प्रयास से भी धर्म-प्रचार एवं प्रसार में सहयोग मिला। बौद्ध धर्म के ह्रास के कारण 

ईसा की बारहवीं सदी तक बौद्ध धर्म भारत में लुप्त हो चुका था। बारहवीं सदी तक यह धर्म बिहार और बंगाल में जीवित रहा, किन्तु उसके बाद यह देश से लुप्त हो गया। ब्राह्मण धर्म की जिन बुराइयों का बौद्ध धर्म ने विरोध किया था अंतत: यह उन्हीं से ग्रस्त हो गया। भिक्षु धीरे-धीरे आम जनता के जीवन से कट गए। इन्होंने पालि भाषा को त्याग दिया तथा संस्कृ त भाषा अपना लिया। धीरे-धीरे बौद्ध बिहार विलासिता के के न्द्र बन गए। ईसा की पहली सदी से बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा की शुरुआत हुई तथा उन्हें भक्तों, राजाओं से विपुल दान मिलने लगे। कालान्तर में बिहार ऐसे दुराचार के के न्द्र बन गए | जिनका बुद्ध ने विरोध किया था। मांस, मदिरा, मैथुन, तंत्र, यंत्र आदि का समर्थन करने वाले इस नए मत को वज्रयान कहा गया। बिहारों में स्त्रियों को रखे जाने के कारण उनका और नौतिक पतन हुआ। बिहारों में एकत्रित धन के कारण तुर्की हमलावर इन्हें ललचायी नजर से देखने लग गए तथा बौद्ध बिहार विशेष रूप से हमलों के शिकार हो गए। इस प्रकार बारहवीं सदी तक बौद्ध धर्म अपनी जन्म भूमि से लगभग लुप्तप्राय हो चला था।

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बौद्ध धर्म का महत्व और प्रभाव 

बौद्ध काल में कृ षि, व्यापार, उद्योग-धन्धों में उन्नति के कारण कु लीन लोगों के पास अपार धन एकत्रित हो गया था फलत: समाज में बड़ी सामाजिक एवं आर्थिक असमानताएं पैदा हो गयी। थीं। बौद्ध धर्म ने धन संग्रह न करने का उपदेश दिया बुद्ध ने कहा था कि किसानों को बीज और अन्य सुविधायें मिलनी चाहिए, व्यापारी को धन मिलना चाहिए तथा मजदूर को मजदूरी मिलनी चाहिए इससे बुराइयों को दूर करने में मदद मिलेगी। भिक्षुओं के लिए निर्धारित आचार संहिता ईसा पूर्व छठीं सदी में उत्तर-पूर्वी भारत में प्रकट हुए मुद्रा प्रचलन, निजी सम्पत्ति, और विलासिता के प्रति आंशिक विद्रोह का परिचायक है। बौद्ध धर्म ने स्त्रियों एवं शूद्रों के लिए अपने द्वार खुले रखे। बौद्ध धर्म में दीक्षित होने पर उन्हें हीनताओं से मुक्ति मिल गयी थी अहिंसा पर बल देने से गोधन की वृद्धि हुई। बौद्ध धर्म ने अपने लेखन से पालि भाषा को समृद्ध किया। बौद्ध धर्म के आधार ग्रन्थ त्रिपिटक पालि भाषा में है ये हैं (1) सुत्त पिटकबुद्ध के उपदेशों का संकलन (2) विनय पिटक-भिक्षु संघ के नियम (3) अभिधम्मपिटक–धम्म सम्बन्धी दार्शनिक विवेचन।। शैक्षिक गतिविधियों को भी बढ़ावा मिला, बिहार में नालन्दा तथा विक् रमशिला और गुजरात में वल्लभी प्रमुख विद्या के न्द्र थे। कला के विकास में बौद्ध धर्म ने अपना अमूल्य योगदान दिया। बुद्ध सम्भवतः पहले मानव थे जिनकी मूर्ति बनाकर पूजा की गयी। ईसा की पहली सदी से बुद्ध की मूर्ति बनाकर पूजा की जाने लगी। चैत्य, स्तूप इत्यादि कलात्मक गतिविधियों के प्रमुख आयाम रहे । गांधार कला में बौद्ध धर्म के न्द्रीय तत्व था। बौद्ध धर्म के प्रभाव में गुफा स्थापत्य की भी शुरुआत हुई।

बौद्ध धर्म से सम्बंधित प्रश्न उत्तर “बुद्ध” का शाब्दिक अर्थ क्या है? – जागृत एवं प्रबुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक कौन थे ? – गौतम बुद्ध गौतम बुद्ध का जन्म कब हुआ था ? – 563 ई०पू० गौतम बुद्ध के बचपन का नाम क्या था ? – सिद्धार्थ महात्मा बुद्ध की मृत्यु की घटना को बौद्ध धर्म में क्या कहा गया है ? – महापरिनिर्वाण प्रथम बौद्ध संगीति किसके शासन काल में हुआ था ? – अजातशत्रु तृतीय बौद्ध संगीति कहाँ हुआ था ? – पाटलिपुत्र महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश को किस भाषा में दिया ? – पाली बौद्धधर्म के त्रिरत्न कौन-कौन है ? – बुद्ध, धम्म और संघ बौद्ध धर्म में प्रविष्टि को क्या कहा जाता था ? – उपसम्पदा बुद्ध के अनुसार देवतागण भी किस सिद्धान्त के अंतर्गत आते है ? – कर्म के सिद्धान्त गौतम बुद्ध को किस रात्रि के दिन ज्ञान की प्राप्ति हुई ? – वैशाखी पूर्णिमा गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश कहाँ दिया था ? – वाराणसी के निकट सारनाथ उपदेश देने की इस घटना को क्या कहा जाता है ? – धर्मचक् रप्रवर्तन बुद्ध के अनुयायी कितने भागों में बंटे थे ? – दो (भिक्षुक और उपासक) बौद्ध धर्म को अपनाने वाली प्रथम महिला कौन थी ? – बुद्ध की माँ प्रजापति गौतमी भारत से बाहर बौद्ध धर्म को फै लाने का श्रेय किस राजा को जाता है ? – सम्राट अशोक बुद्ध की प्रथम मूर्ति कहाँ बना था ? – मथुरा कला बुद्ध के प्रथम दो अनुयायी कौन कौन थे ? – काल्लिक तपासु गौतम बुद्ध का जन्म स्थान का नाम क्या है ? – कपिलवस्तु के लुम्बिनी नामक स्थान किसे Light of Asia के नाम से जाना जाता है ? – महात्मा बुद्ध गौतम बुद्ध कितने वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर सत्य की खोज में निकाल पड़े ? – 29 वर्ष सिद्धार्थ के गृह त्याग की घटना को बौद्ध धर्म में क्या कहा जाता है ? – महाभिनिष्क् रमण 8/9

बुद्ध ने अपना प्रथम गुरु किसे बनाया था ? – आलारकलाम

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भागवत्, वैष्णव एवं शैव धर्म से परीक्षाओं में पूछे जाने वाले तथ्य ⋮ 29/7/2019

भागवत् धर्म  6ठी‘ शताबदी ई०पू० में ब्राह्मणवाद एवं कर्मकांडीय जाटिलता के विरोध में इस धर्म का उदय हुआ, इस धर्म ने ब्राह्मणवाद में भक्ति एवं पूजा का समावेश करवाया  प्रारंभ–‘महाभारत‘ के नारायण उपस्थान प्रसंग से, आरंभिक सिद्धांत–इस धर्म के आरंभिक सिद्धांत गीता में मिलते हैं। वासुदेव– महाकाव्य महाभारत ‘ भागवत् धर्म‘ को एक दिव्यधर्म के रूप में प्रतिष्ठापित करता है तथा विष्णु का उल्लेख ‘वासुदेव‘ के रूप में करता है। अवतार–भागवत् धर्म में विष्णु के अवतारों पुरुषावतार, गुणावतार एवं लीलावतार का उल्लेख है। इस धर्म को वैष्णव धर्म की आरंभिक अवस्था माना जाता है। 

वैष्णव धर्म (VAISHNAVISM) 

वैष्णव धर्म का विकास छठी शताब्दी ई०पू० में हुआ। इस धर्म का विकास भागवत धर्म से हुआ है।  वैष्णव धर्म की आरंभिक जानकारी छांदोग्य उपनिषद से मिलती है।  मथुरा के कृ ष्ण (जिनके पिता वसुदेव यादव वंश के वष्णि या सतवत् शाखा के प्रमुख थे) ने ‘वैष्णव धर्म‘ की स्थापना की। गुप्तकाल में वैष्णव धर्म लोकप्रियता की चरम सीमा पर पहुँचा। मेगास्थनीज रचित इंडिका से ज्ञात होता है कि मथुरा के लोग हेराकु लिज का विशेष आदर करते थे।  ‘हेराकु लिज‘ कृ ष्ण का यूनानी नाम है।  वैष्णव धर्म विष्णु–पूजा पर आधारित है तथा अवतारवाद में विश्वास करता है।  ब्राह्मण ग्रंथों में विष्णु के 39 अवतारों का उल्लेख है जिनमें 10अवतारों को वैष्णव धर्म में मान्यता दी गई है।  मतस्य पुराण में विष्णु के 10 अवतारों का उल्लेख इस प्रकार है–मतस्य, वामन, परशुराम, कच्छप, राम, कलि, वराह, कृ ष्ण, नृसिंह तथा बुद्ध।  विदिशा से प्राप्त ‘नगर–स्तंभ लेख‘ से ज्ञात होता है कि यूनानी राजदूत हेलियोडोरस कृ ष्ण का उपासक था। चंद्रगुप्त–II विक् रमादित्य तथा अन्य गुप्त सम्राटों ने परमभागवत् जैसी उपाधियाँ धारण की। चंद्रगुप्त–II तथा समुद्रगुप्त के सिक्कों पर विष्णु के वाहन गरुड़ का चित्र अंकित है।  गरुड़ मुद्रा का उदाहरण गाजीपुर जिले के भितरी नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।  गुप्तकालीन मुद्राओं पर वैष्णव धर्म के अन्य प्रतीक शंख, चक् र, गदा, पद्म तथा लक्ष्मी भी प्राप्त हुए हैं। गंगधर अभिलेख में विष्णु को मधुसूदन कहा गया है। चंद्रगुप्त विक् रमादित्य–II ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना की। स्कं द गुप्त के जूनागढ़ तथा बुद्धगुप्त के एरण अभिलेखों का आरंभ विष्णु–स्तुति से होता है।

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गुप्तकाल में वैष्णव धर्म से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण अवशेष देवगढ़ (झांसी) का दशावतार मंदिर है। दशावतार मंदिर में ही शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हुए नारायण विष्णु को दिखाया गया है। एक अध्ययन के अनुसार गुप्तकाल में वैष्णव धर्म भारत के प्रत्येक क्षेत्र में फै ला तथा दक्षिण–पूर्व एशिया, हिंद चीन, कम्बोडिया, मलाया एवं इंडोनेशिया तक इसका प्रचार हुआ। 

शैव धर्म (SHAIVISM) भगवान शिव से संबंधित धर्म को शैव धर्म एवं उनके अनुयाइयों को शैव कहा गया। लिंग पूजा का पहला पुरातात्विक साक्ष्य सिंधु सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त होता है। लिंग पूजा का पहला साहित्यिक साक्ष्य मतस्य पुराण से प्राप्त होता है।  शिव के लिए ऋग्वेद में रुद्र शब्द का प्रयोग किया गया है।  भव, भूपति, पशुपति एवं शर्व आदि शिव के नाम हैं जिनका उल्लेख अथर्ववेद‘ में किया गया है।  लिंगोपासना का स्पष्ट उल्लेख महाभारत के अनुशासन पर्व में भी है तथा उत्तर भारत में इस धर्म को गुप्त सम्राटों एवं दक्षिण भारत में पल्लव शासकों से विशेष संरक्षण प्राप्त हुआ। पाशुपत शैव–इस धर्म के अनुयायी शिव के पशुपति रूप की उपासना करते थे पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन संप्रदाय है। पाशुपत संप्रदाय की स्थापना लकु लीश ने की थी, जिसे भगवान शिव का ही एक अवतार माना गया है। पाशुपत संप्रदाय में भगवान शिव के 18 अवतारों को मान्यता दी गई है। पाशुपत संप्रदाय के अनुयायी पंचार्थिक कहलाते थे। पाशुपत संप्रदाय का प्रमुख सिद्धांतग्रंथ पाशुवत सूत्र है।  कापालिक शैव–इस संप्रदाय के अनुयायी भैरव के उपासक थे। भैरव को भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इस संप्रदाय का प्रमुख कें द्र श्री शैल नामक स्थान था। इस संप्रदाय में भैरव को सुरा एवं नरबलि का नैवेद्य चढ़ाने की परंपरा थी।

कालामुख शैव यह सम्प्रदाय भी ‘कापालिक संप्रदाय‘ की तरह आसुरी प्रवृत्ति का था। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को शिव पुराण में महाव्रतधर की संज्ञा दी गई है। इस सम्प्रदाय के  अनुयायी नर–कपाल में ही भोजन, जल एवं सुरापान करते थे। लिंगायत शैव–यह संप्रदाय दक्षिण भारत में प्रचलित था इस सम्प्रदाय को वीर शैव भी कहा गया है। लिंगायत शैव अनुयायियों को जंगम भी कहा जाता था। लिंगायत शैव के अनुयायी शिवलिंग की उपासना करते थे। इस संप्रदाय का प्रवर्तन अल्लभ प्रभु तथा उनके शिष्य बासव ने किया था। पेरिय पुराण के अनुसार दक्षिण भारत में नयनार संतों ने जिनकी संख्या 63 थी शैव स्रप्रदाय का प्रचार किया। खजुराहो स्थित कं दरिया महादेव का मंदिर जिसका निर्माण चंदेल राजाओं द्वारा किया गया था, इस धर्म का प्रमुख प्रतिष्ठान है। कै लाश नाथ मंदिर (एलोरा, निर्माता–राष्ट् रकू ट वंश), बृहदेश्वर मंदिर (तंजौर, निर्माता–राजाराज–1) आदि शैव धर्म के अन्य प्रसिद्ध प्रतिष्ठान हैं।  यदि दी गयी जानकारी में आप और कु छ जोड़ना चाहते हैं तो नीचे दिए गए नॉलेज बॉक्स में जाकर जानकारी लिख सकते हैं | 

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ईरानी एवं यूनानी आक् रमण | क्यों और कै से | परिणाम और प्रभाव ⋮ 30/7/2019

पश्चिमोत्तर भारत में ईरानी आक् रमण के समय भारत में विके न्द्रीकरण एवं राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त थी। राज्यों में परस्पर वैमनस्य एवं संघर्ष चल रहा था। जिस समय भारत में मगध के सम्राट अपने साम्राज्य के विस्तार में रत थे, उसी समय ईरान के ईखमनी शासक भी अपना राज्य विस्तार कर रहे थे। ईरान के शासकों ने पश्चिमी सीमा पर व्याप्त फू ट का लाभ उठाया एवं भारत पर आक् रमण कर दिया। ईरानी आक् रमण के बारे में हमें हीरोडोटस, स्ट् राबो तथा एरियन से सूचना प्राप्त होती है। इनके अलावा इखमानी शासकों के लेखों से भी सूचनायें प्राप्त होती हैं। भारत पर आक् रमण ईरानी शासक दारयवहु प्रथम (डेरियस प्रथम) 516 ई० पू० में उत्तर पश्चिम भारत में घुस आया एवं उसने पंजाब, सिन्धु नदी के पश्चिमी क्षेत्र और सिन्ध को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इस क्षेत्र को उसने फारस का 20वाँ प्रान्त या क्षत्रपी बनाया। फारस साम्राज्य में कु ल 28 क्षत्रपी थे। इस क्षेत्र से 360 टैलण्ट सोना भेंट में मिलता था जो फारस के सभी एशियायी प्रांतों से मिलने वाले कु ल राजस्व का एक तिहाई था। ईरानी शासकों ने भारतीय प्रजा को सेना में भी भर्ती किया।

ईरानी आक् रमण का प्रभाव  भारत और ईरान का संपर्क 200 सालों तक बना रहा। ईरानी लेखक भारत में लिपि का एक खास रूप आरमाइक लेकर आए जिससे बाद में खरोष्ठी लिपि का विकास हुआ। यह लिपि दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी।  ईरानी आक् रमण के फलस्वरूप व्यापार को बढ़ावा मिला। अब भारतीयों की वस्तुएँ सुदूर मिस्र और यूनान तक पहुँचने लगी। भारतीय कला पर भी ईरानियों के आक् रमण का प्रभाव पड़ा विशेषकर मौर्य कला पर।   अशोक कालीन स्मारक, विशेषकर घंटी के आकार के शीर्ष कु छ हद तक ईरानी प्रतिरूपों पर आधारित थे ऐसा माना जाता है। 

यूनानियों (सिकन्दर) का आक् रमण( 326 ई० पू० )  सिकन्दर के आक् रमण के समय भारत का पश्चिमोत्तर भाग राजनीतिक रूप से विश्रृंखल था। यह क्षेत्र अनेक स्वतंत्र राजतंत्रों और कबीलाई गणतंत्रों में बँटा हुआ था। राज्यों में पारस्परिक फू ट थी।  इस क्षेत्र के प्रमुख राज्य थे––पश्चिमी व पूर्वी गंधार, अभिसार, पुरु, ग्लौगनिकाय, कठ, सौभूति, शिवि, क्षुद्रक, मालव, अम्बष्ठ, मद्र आदि।  सिकन्दर के आक् रमण के समय मगध में नंद वंश का शासन था। | सिकन्दर को अपने भारतीय अभियान में यहाँ के  क्षेत्रीय राज्यों से भी सहयोग प्राप्त हुआ । इस क्षेत्र के दो प्रसिद्ध एवं शक्तिशाली राजा थे – (1) आम्भी जो तक्षशिला का राजा था (2) पोरस या पुरु जिसका राज्य झेलम एवं चिनाब नदियों के बीच स्थित था। सिकन्दर ने तक्षशिला के आम्भी को युद्ध में परास्त कर दिया। कालान्तर में आम्भी उसका सहयोगी बन गया।  1/2

राजा पोरस ने सिकन्दर के अपने राज्य पर आक् रमण करने पर उसका कड़ा प्रतिरोध किया। सिकन्दर पोरस की बहादुरी से अत्यधिक प्रभावित हुआ तथा उसका राज्य वापस कर दिया। 326 ई० पू० झेलम नदी के तट पर लड़े गये इस युद्ध को वितस्ता या ‘हाइडेस्पीज‘ के युद्ध के नाम से जाना जाता है। सिकन्दर ने ग्लौगनिकाय तथा कठ जातियों से भी युद्ध किया तथा उसकी सेना विजयी रही।  व्यास के पश्चिमी तट पर पहुँचकर सिकन्दर का विजय अभियान रुक गया तथा वह यूनान वापस लौटने की तैयारी करने लगा। वापस लौटते समय रास्ते में ई० पू० 323 में बेबीलोन में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी। विजित भारतीय प्रदेशों के शासन का भार सिकन्दर ने फिलिप को सौंपा।  सिकन्दर भारत में उन्नीस महीने (326–325 ई० पू०) तक रहा। उसने अधिकांश विजित राज्यों को उनके शासकों को लौटा दिया। उसने अपने अधिकार में किये हिस्सों को तीन भागों में बाँट दिया तथा उसे तीन गवर्नरों के अधीन कर दिया। सिकन्दर ने अनेक कई नगरों की स्थापना भी की थी। 

सिकन्दर के आक् रमण के  परिणाम  सिकन्दर के आक् रमण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिणाम था भारत और यूनान के मध्य विभिन्न क्षेत्रों में सीधे सम्पर्क की स्थापना उसने विभिन्न थल और समुद्री मार्गों का द्वार खोला।  सिकन्दर के इतिहासकारों ने मूल्यवान भौगोलिक विवरण छोड़े हैं।  सिकं दर के आक् रमण से पूर्व जो छोटे-मोटे भारतीय राज्य आपस में संघर्षरत थे, उनमें पहलीबार | एकता के लक्षण दिखे, फलस्वरूप भारत में एकीकरण की प्रक्रिया को बल मिला। सिकं दर के आक् रमण के बाद ही भारत में साम्राज्यवादी प्रक्रिया का विकास हुआ जिसका तात्कालिक उदाहरण मौर्य साम्राज्य था।  यूनानी प्रभाव के अन्तर्गत भारतीयों ने ‘ क्षत्रप प्रणाली’ (प्रशासन की) और सिक्के के निर्माण की कला सीखी, साथ ही भारतीयों ने यूनानियों की ज्योतिषविद्या और कला का भी सम्मान किया। यह भी पढ़ें – भागवत्, वैष्णव एवं शैव धर्म से परीक्षाओं में पूछे जाने वाले तथ्य पोरस कौन था ? Who was Porus in Hindi

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महाजनपद काल की सम्पूर्ण जानकारी ⋮ 2/9/2019

ई० पू० छठी शताब्दी में भारतीय राजनीति में एक नया परिवर्तन दृष्टिगत होता है। वह है-अनेक शक्तिशाली राज्यों का विकास। अधिशेष उत्पादन, नियमित कर व्यवस्था ने राज्य संस्था को मजबूत बनाने में योगदान दिया। सामरिक रूप से शक्तिशाली तत्वों को इस अधिशेष एवं लौह तकनीक पर आधारित उच्च श्रेणी के हथियारों से जन से जनपद एवं साम्राज्य बनने में काफी योगदान मिला।  सोलह महाजनपद – बुद्ध के समय में हमें सोलह महाजनपदों की सूची प्राप्त होती है। 

महाजनपद – राजधानी | Mahajanpad Aur Rajdahani 1. अंग 2. गांधार 3. कं बोज 4. अस्सक या अश्मक 5. वत्स 6. अवंती 7.शूरसेन 8. चेदि 9. मल्ल 10. कु रु 11. पांचाल 12. मत्स्य 13. वग्जि 14. काशी 15. कोशल 16. मगध

 चम्पा  तक्षशिला  हाटक  पोतन या पोटली  कौशाम्बी  उज्जैयिनी, महिष्मती  मथुरा  मती  कु शीनारा, पावा  इन्द्रप्रस्थ  कांपिल्य  विराट नगर  विदेह एवं मिथिला  वाराणसी  श्रावस्ती/अयोध्या  गिरिव्रज (राजगृह)

अधिकतर राज्य विन्ध्य के उत्तर में, उत्तरी और पूर्वी भारत में, उत्तर पश्चिमी सीमा से बिहार तक फै ले हुए थे। (1) अंग–यह सबसे पूर्व में स्थित जनपद था, इसके अन्तर्गत आधुनिक मुंगेर और भागलपुर जनपद सम्मिलित थे। इसकी राजधानी चम्पा थी। चम्पा नदी अंग को मगध से अलग करती थी। अन्ततोगत्वा मगध ने इसे अपने राज्य में मिला लिया था।  (2) मगध–इसमें आधुनिक पटना तथा गया जिलों और शाहाबाद जिले के हिस्सों का समावेश होता था। मगध अंग और वत्स राज्यों के बीच स्थित था।  (3)काशी–इसकी राजधानी वाराणसी थी।आरंभ में काशी सबसे शक्तिशाली था। परन्तु बाद में इसने कोसल की शक्ति के समने आत्मसमर्पण कर दिया। कालान्तर में काशी को अजातशत्रु ने मगध में मिला लिया।

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(4)कोसल(अवध)–इसकी राजधानी श्रावस्ती थी। इसके अन्तर्गत पूर्वी उत्तर–प्रदेश का समावेश होता था। कोसल की एक महत्वपूर्ण नगरी अयोध्या थी जिसका सम्बन्ध राम के जीवन से जोड़ा जाता है। कोसल को सरयू नदी दो भागों में बाँटती थी–उत्तरी कोसल जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। दक्षिणी कोसल की राजधानी कु शावती थी। यहाँका राजा बुद्ध का समकालीन प्रसेनजित था। (5) वजि (उत्तरी बिहार)–मगध के उत्तर में स्थित यह राज्य आठ कु लों के संयोग से बना था और इनमें तीन कु ल प्रमुख थे–विदेह, वज्जि एवं लिल्छवि। (6) मल्ल (गोरखपुर और देवरिया के जिले)–इसके दो भाग थे। एक की राजधानी कु शीनारा थी और दूसरे की पावा थी। कु शीनारा में | गौतमबुद्ध की मृत्यु हुई थी। कु शीनारा की पहचान देवरिया जिले के कसया नामक स्थान से की गयी है। | (7)चेदि (यमुना और नर्मदा के बीच)–यह यमुना नदी के किनारे स्थित था। यह कु रु महाजनपद ही आधुनिक बुन्देलखण्ड का इलाका था। (8)वत्स(इलाहाबाद का क्षेत्र)–इसकी राजधानी कौशाम्बी थी। संस्कृ त साहित्य में प्रसिद्ध उदयन जो बुद्ध का समकालीन माना जाता है, इसी जनपद से संबन्धित था। वत्स लोग वही कु रुजन थे जो हस्तिनापुर के उत्तरवैदिक काल के अन्त में बाढ़ से बह जाने पर उसे छोड़कर प्रयाग के समीप कौशाम्बी में आकर बसे थे।  (9) कु रु (थानेश्वर, दिल्ली और मेरठ के जिले)–इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी। (10)पांचाल (बरेली, बदायूँ और फर्रु खाबाद के जिले)–इसके दो भाग थे–उत्तरी पांचाल तथा दक्षिणी पांचाल। उत्तरी पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र और दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। उत्तरवैदिक काल की तरह कु रु एवं पांचाल प्रदेशों का अब महत्व नहीं रह गया था। (11) मत्स्य (जयपुर)–इसकी राजधानी विराट नगर थी, विराट नगर की स्थापना विराट नामक व्यक्ति ने की थी। (12) शूरसेन (मथुरा)–मथुरा शूरसेन राज्य की राजधानी थी। यहाँ का शासक अवंतिपुत्र महात्मा बुद्ध का अनुयायी था। (13)अश्मक (गोदावरीपर)–इसकी राजधानी पोतना थी। यहाँ के शासक इक्ष्वाकु वंश के थे।  (14)अवन्ति (मालवा में)–आधुनिक मालवा व मध्य प्रदेश के कु छ भाग मिलकर अवंति जनपद का निर्माण करते थे। प्राचीन काल में अवंति के दो भाग थे (1) उत्तरी अवंति–जिसकी राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिणी अवन्ति जिसकी राजधानी महिष्मती थी।चण्ड प्रद्योत यहाँ का एक शक्तिशाली राजा था। मगध सम्राट शिशुनाग ने अवंति को जीतकर अपने राज्य में मिला दिया। (15) गांधार (पेशावर और रावलपिंडी के जिले)–इसकी राजधानी तक्षशिला थी जो प्राचीन काल में विद्या एवं व्यापार का प्रसिद्ध के न्द्र थी। छठी शताब्दी ई० पू० में गंधार में पुष्कर सारिन राज्य करता था। इसने मगध नरेश बिम्बिसार को अपना एक राजदूत तथा एक पत्र भेजा था। (16) कं बोज :(दक्षिण–पश्चिम कश्मीर तथा अफगानिस्तान का भाग)–यह आधुनिक काल के राजौरी एवं हजारा जिलों में स्थित था। 

मगध साम्राज्य की स्थापना और विस्तार  महाजनपदों के प्रमुख शासक (Chief Rulers of Mahajanapadas)

महाजनपद प्रमुख शासक मगध अवन्ति काशी कोसल अंग चेदी वत्स

बिंबिसार, अज्ञात शत्रु, शिशुनाग चंडप्रद्योत बानर, अश्वसेन प्रसेनजित ब्रहमदत्त उपचार उदयन को 2/6

कु रु मत्स्य शूरसेन गंधार

कोरव्य विराट अवन्तिपुत्र चंद्र्वर्मन, सुदक्षिण

छठी शताब्दी ई० पू० के उत्तरार्द्ध में चार राज्य अत्यधिक शक्तिशाली थे–काशी, कोसल, मगध और वज्जि संघ। लगभग सौ साल तक ये अपने राजनीतिक प्रभुत्व के लिए लड़ते रहे । अन्ततोगत्वा मगध को विजय मिली एवं यह उत्तर भारत में राजनीतिक गतिविधियों का के न्द्रिय स्थल हो गया। 

हर्यक वंश बिम्बिसार (541-492 ई० पू०) हर्यक वंश का सबसे प्रतापी राजा था–श्रेणिक या बिम्बिसार। यह बुद्ध का समकालीन था तथा महावंश के अनुसार यह 15 वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा था। बिम्बिसार ने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। इसने कोसल देश के राजा प्रसेनजित की बहन से विवाह किया तथा दहेज में उसे काशी का प्रान्त मिला। इसने लिच्छवि सरदार चेटक की पुत्री चेल्हना से विवाह किया था । मद्र देश के राजा की पुत्री इसकी दूसरी रानी थी। बिम्बिसार ने अवंति के राजा प्रद्योत की चिकित्सा के लिए अपने निजी चिकित्सक जीवक को उज्जैन भेजा था जिससे प्रद्योत की मैत्री उसे प्राप्त हो गयी। अंग ही एकमात्र ऐसा महाजनपद था जो बिम्बिसार के आक् रमण का शिकार हुआ। बिम्बिसार ने अंग के राजा ब्रह्मदत्त का बध करके अंग को अपने राज्य में मिला लिया। बिम्बिसार के समय मगध की राजधानी गिरिव्रज थी जो पाँच पहाड़ियों से घिरी थी। अनुश्रुति के अनुसार बिम्बिसार की उसके पुत्र अजातशत्रु द्वारा हत्या कर दी गयी। अजातशत्रु : (492-460 ई० पू०) यह बिम्बिसार के पश्चात मगध की गद्दी पर बैठा। इसका एक नाम कू णिक भी था। ० बिम्बिसार की मृत्यु के शोक में उसकी रानी, जो कोसलराज प्रसेनजित की बहन थी, के मर जाने पर नाराज होकर प्रसेनजित ने काशी प्रान्त पुन: वापस ले लिया। काशी के प्रश्न पर अजातशत्रु एवं प्रसेनजित में युद्ध छिड़ गया। कोसल की हार हुई परन्तु दोनों में सन्धि हो गयी। काशी पर पुन: मगध का अधिकार हो गया एवं कोसल की राजकु मारी की शादी अजातशत्रु के साथ हो गयी। अजातशत्रु का वज्जिसंघ के साथ भी युद्ध हुआ। अजातशत्रु ने अपने एक ब्राह्मण मन्त्री वस्सकारको वज्जिसंघ में फू ट डालने के लिए भेजा। वस्सकार सफल हुआ और अजातशत्रु ने वज्जिसंघ को पराजित कर दिया। अजातशत्रु के समय राजगृह में लगभग 483 ई० पू० में बौद्धों की प्रथम बौद्ध संगीति हुई।

उदयिन (460-444ई० पू०) अजातशत्रु के पश्चात उदयिन सिंहासन पर बैठा। इसके समय में गंगा एवं सोन के संगम पर पाटलिपुत्र (या कु सुमपुर) की स्थापना हुई।   उदयिन के पश्चात क् रमशः अनिरुद्ध, मुण्ड तथा दर्शक सिंहासन पर बैठे। 

शिशुनाग वंश  शिशुनाग  3/6

इसने अपने शासक वंश की स्थापना की। यह प्रारम्भ में हर्यक वंश के अन्तिम नरेश नागदासक का मंत्री था। नागदासक के नागरिकों द्वारा निर्वासित कर दिए जाने के पश्चात यह मगध का राजा अभिषिक्त हुआ। शिशुनाग ने अवन्ति (राजधानी उज्जैन) को परास्त कर दिया तथा अवन्ती मगध साम्राज्य का एक अंग बन गया। शिशुनाग ने वत्स तथा कोसल राज्यों को भी परास्त किया।  कालाशोक यह शिशुनाग का उत्तराधिकारी था। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के सौ वर्षों बाद कालाशोक के काल में वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ 

नंद वंश  कालाशोक के कमजोर उत्तराधिकारियों को हराकर शासन सत्ता नंद वंश ने हथिया ली। यह वंश निम्नकु लोत्पन्न था। नंद वंश की स्थापना महानंदिन ने की। महापद्मनंद ने शीघ्र ही इसका वध कर दिया। पुराणों में महापद्मनंद को सर्वक्षत्रांतक कहा गया है। इसने कलिंग को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। एक बड़ा राज्य स्थापित करके इसने एकच्छत्र एवं एकराट का पद धारण किया था ।महापद्मनंद के  आठ पुत्र थे। धनानंद नंदवंश का अन्तिम राजा था। इसके काल में सिकन्दर ने पश्चिमोत्तर भारत पर आक् रमण कर दिया परन्तु मगध की सीमा इस आक् रमण से अछू ती रही। इसी धनानंद को मारकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध का राजसिंहासन हस्तगत कर लिया था । 

प्रशासन  राजतंत्रों का प्रशासन राजा को सर्वोच्च राजकीय पद प्राप्त था तथा उसे शारीरिक एवं संपत्ति सम्बन्धी विशेष सुरक्षा प्राप्त थी। वह सर्वशक्तिशाली होता था। राजपद प्रायः वंशानुगत होता था। परन्तु चुने हुए राजाओं के उल्लेख भी अपवाद स्वरूप प्राप्त होते हैं। राजपद निरंकु श था परन्तु अनियंत्रित नहीं था। जातक कथाओं से पता चलता है कि अत्याचारी राजाओं और मुख्य पुरोहितों को जनता निष्कासित कर देती थी। राजा मन्त्रियों की सहायता भी लेते थे। मगध के राजा अजातशत्रु के मन्त्री वस्सकार तथा कोसल में दीर्घाचार्य सफल मंत्री थे। मन्त्री अधिकतर ब्राह्मणों से चुने जाते सभा और समिति जैसी जनसंस्था लुप्त हो गयी थी। उनका स्थान वर्ण और जाति समूहों ने ले लिया।सभाएँ इस काल में अभी गणतन्त्रों में जीवित थीं। राजतन्त्रों में इस काल में हम परिषद नाम की एक छोटी संस्था के बारे में सुनते हैं। इस परिषद में के वल ब्राह्मण होते थे। महामात्र नामक उच्च अधिकारियों के एक वर्ग का उदय इस काल में प्रशासन सम्बन्धी विकास की सबसे मुख्य विशेषता है। अमात्यों में से कई प्रकार के कर्मचारी नियुक्त होते थे-यथा-सर्वार्थक, न्यायकर्ता (व्यावहारिक), रज्जुग्राहक (भूमि सम्बन्धी माप करने वाले), द्रोणमापक (उपज में हिस्से की माप करने वाले) आदि। ग्राम का प्रशासन ग्रामिणी के हाथों में था जिसे अब ग्राम प्रधान, ग्राम भोजक, ग्रामिणी या ग्रामिका इत्यादि नामों से जाना जाता था। ग्राम प्रधानों का अत्यधिक महत्व था एवं उनका राजाओं के साथ सीधा सम्बन्ध था। ग्राम में कानून व्यवस्था बनाये रखना एवं अपने ग्राम से कर वसूलना उनका मुख्य कार्य था। राजा स्थायी सेना रखते थे। सेना साधारणतया चार भागों में विभाजित होती थी-पदाति, अश्वारोही, रथ और हाथी। कर सम्बन्धी व्यवस्था सुदृढ़ आधार पर स्थापित थी। योद्धा और पुरोहित करों के भुगतान से मुक्त थे। 4/6

करों का बोझ मुख्यतः किसानों पर था। वैदिक काल में स्वैच्छिक रूप से प्राप्त होने वाला बलि इस काल में अनिवार्य कर बन गया। कर संग्रह करने वाले अधिकारियों में सबसे प्रधान ग्राम भोजक था। उपज का छठां भाग कर के रूप में लिया जाता था। इसके अतिरिक्त राजकीय करों में दुग्ध धन’ जो राजा के पुत्र के जन्म के अवसर पर दिया जाता था तथा व्यापारियों से प्राप्त किये गए चुंगी का भी उल्लेख किया जा सकता है। करों के अतिरिक्त लोगों को बेगार करने के लिए भी बाध्य किया जाता था। गणतन्त्रों का प्रशासन  षोडस महाजनपदों के अतिरिक्त हमें इस काल के गणराज्यों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। प्रमुख गणराज्य थे-शाक्य (जिनकी राजधानी कपिलवस्तु थी), लिच्छवि संघ, मल्ल आदि। गणराज्यों में सरदार या राजा को दैवी अधिकार नहीं होते थे तथा उनका चुनाव होता था। गणतन्त्रों में वंशगत राजा नहीं बल्कि सभाओं के प्रति उत्तरदायी अनेक व्यक्ति कार्य करते थे। प्रत्येक गणराज्य की अपनी परिषद या सभा होती थी। राजधानी में के न्द्रीय परिषद के अलावा राज्य में प्रमुख स्थानों पर स्थानीय परिषदें भी होती थीं। शासन का कार्य एक या कई सरदारों के हाथों में दिया जाता था। उन्हें राजन् ‘गणराजन्’, या ‘संघमुख्य’ कहते थे। राजन् उपाधि का कभी-कभी राज्य के सभी प्रधान व्यक्तियों के लिए प्रयोग होता था।  लिच्छवियों में हम 7707 राजाओं के होने की बात सुनते हैं। एक बौद्ध ग्रन्थ के साक्ष्य के अनुसार लोग बारी-बारी से राज्य करते थे। राजन् के अतिरिक्त अन्य दूसरे अधिकारी भी थे जिन्हें उपराजन्, सेनापति भाण्डागारिक आदि नामों से जाना जाता था।

“राजतंत्र एवं गणतन्त्र के प्रशासन में मुख्य अन्तर यह था कि राजतन्त्र में एक ही व्यक्ति का नेतृत्व रहता था जबकि गणराज्यों में स्वल्पजन

संत्तात्मक सभाओं के नेतृत्व में प्रशासनिक कार्य होते थे।” महाजनपद काल के 38 महत्वपूर्ण प्रश्न । Quiz

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मौर्योत्तर काल की सम्पूर्ण जानकारी ⋮ 20/9/2020

मौर्योत्तर काल (POST-MAURYA PERIOD)  187 ई०पू० से 240A.D तक के काल में भारत की राजनीतिक एकता खण्डित रही तथा यह काल मौर्योत्तर काल के नाम से जाना गया।  इस काल में मगध सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में ब्राह्मण साम्राज्यों (शुंग, कण्व, सातवाहन एवं वाकाटक) का उदय हुआ तथा विदेशी आक् रमण हुए।  इस काल में सशक्त कें द्रीय सत्ता के अभाव में क्षेत्रीय रोजा स्वतंत्र होने लगे, जिनमें कलिंग का राजा खारवेल प्रमुख था।

ब्राह्मण साम्राज्य (BRAHMIN EMPIRE) शुंग वंश (Sunga Dynasty) ई०पू० 189 में पुष्यमित्र शुंग ने मगध पर शुंग वंश के शासन की स्थापना की एवं ई०पू० 149 में मरने से पूर्व 36 वर्षों तक शासन किया।  पुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ का सेनापति था तथा उसने उसकी हत्या कर शासन पर कब्जा किया।  कालीदास के मालविकाग्निमित्रम में पुष्यमित्र शुंग को ‘कश्यप गोत्र’ का ब्राह्मण माना गया है। इतिहासकार तारानाथ तथा पाणिनि ने भी उसके ब्राह्मण होने की पुष्टि की है।  पाटलिपुत्र से दूर होने के कारण मगध के एक प्रांत अवन्ती पर नियंत्रण करने में कठिनाई के कारण पुष्यमित्र शुंग ने विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।  पुष्यमित्र शुंग ने एक सैन्य-क् रांति द्वारा सत्ता हथियाने के समय तथा अपने अंतिम दिनों में (कु ल दो) अश्वमेध यज्ञ किये।  अश्वमेध घोड़े को सिंधु नदी के तट पर यवनों द्वारा पकड़ लिये जाने के कारण पुष्यमित्र के नाती बसुमित्र के नेतृत्व में शुंग सेना ने यूनानियों को परास्त कर दिया।  पुष्यमित्र शुंग ने साम्राज्य-विस्तार के तहत विदर्भ (शासक-यज्ञसेन) को जीत लिया।  कालीदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में विदर्भ की राजकु मारी मालविका एवं अग्निमित्र (पुष्यमित्र का पुत्र) के प्रेम-संबंध एवं शुंगों द्वारा ‘विदर्भ की जीत’ का विवरण दिया गया है।  बौद्ध साहित्य दिव्यदान में पुष्यमित्र को बौद्धों पर अत्याचार करने वाला बताया गया है। पुष्यमित्र शुंग ने भारहुत एवं सांची के स्तूपों का पुनर्निर्माण कराया।  शुंग वंश का अंतिम शासक देवभूति था, जिसकी हत्या 73 ई०पू० में उसके ब्राह्मण मंत्री वासुदेव ने कर दी तथा इसी के साथ इस वंश का शासन समाप्त हो गया।  शुंगकाल में भागवत् सम्प्रदाय का पुनरुत्थान हुआ। इस काल में हिन्दुओं के देवमंडल में वासुदेव कृ ष्ण की प्रधानता स्थापित हुई।  इस काल में ब्राह्मण धर्म ‘भागवत धर्म’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसी काल में ‘पतञ्जलि’ ने ‘पाणिनि’ के अष्टध्यायी पर टीका ग्रंथ महाभाष्य लिखी।  वैदिक धर्मशास्त्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मृति-ग्रंथ मनुस्मृति की रचना इसी काल में हुई। विदिशा के शिल्पियों ने इसी काल में साँचीस्तूप के द्वारों का निर्माण किया।  1/7

भाजा के विहार, बोध गया की वेष्टिनी तथा बेसनगर में गरुड़ध्वज स्तंभ आदि शुंग-कालीन कला के उत्कृ ष्ट नमूने हैं। 

कण्व वंश (Kanav Dynasty)  इस वंश की स्थापना वासुवेद ने 73 ई०पू० में की।  इस वंश का शासन मात्र 45 वर्ष रहा, जिसमें 4 शासकों ने राज्य किया।  इस वंश का तीसरा शासक नारायण कण्व एक अयोग्य एवं निर्बल शासक था।  इसके कार्यकाल में मगध साम्राज्य का विस्तार मात्र बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कु छ इलाकों तक रह गया।  कण्व वंश ने ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना में भारी योगदान दिया।  27 ई०पू० में इस वंश के अंतिम शासक सुशर्मा की हत्या कर उसके सेनापति सिमुक ने इस वंश के शासन का अंत कर दिया। 

सातवाहन वंश  दक्कन में महाराष्ट् र एवं आंध्रप्रदेश के अधिकांश भागों को मिलाकर ई०पू० 27 में सिमुक ने सातवाहन वंश के शासन की स्थापना की।  यह राज्य अत्यंत शक्तिशाली था तथा इसे आंध्र भी कहा जाता है। ।  इस राज्य की राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक आंध्र प्रदेश के औरंगाबाद जिले में) थी।  इस वंश के संस्थापक सिमुक ने 12 ई० तक राज किया।  गौतमीपुत्र शतकर्णि, वशिष्ठ पुत्र पुलवामी एवं यज्ञ श्री शतकर्णि आदि इस वंश के प्रमुख प्रसिद्ध शासक हुए। गौतमीपुत्र शातकर्णि को पश्चिम का स्वामी’ कहा गया है।  गौतमीपुत्र ने दो अश्वमेध एवं एक राजसूय यज्ञ किये।  गौतमीपुत्र शातकर्णि ने अपने शासनकाल के ’18वें’ वर्ष में नासिक में एक गुफा तपस्वियों को प्रदान की।  गौतमीपुत्र शतकर्णि ने अपने शासन के 24वें वर्ष में ब्राह्मणों को भूमि-अनुदान देने की प्रथा आरंभ की।  सातवाहन समाज मातृसत्तात्मक था तथा उनकी भाषा प्राकृ त एवं लिपि ब्राह्मी थी।  प्रसिद्ध साहित्यकार हाल एवं गुणाढ्य इसी काल में थे।  हाल ने गाथा सप्तशतक एवं गुणाढ्य ने बृहत्कथा जैसे ग्रंथों की रचना की।  सातवाहन शासकों ने सीसा, चाँदी, ताँबा एवं पोटीन के सिक्के चलाये।  कार्ले का चैत्य, अजंता-एलोरा गुफाओं का निर्माण एवं अमरावती कला का विकास कला के क्षेत्र में सातवहानों के उल्लेखनीय योगदान हैं। गौतमीपुत्र शतकर्णि की माता गौतमी वलश्री के नासिक अभिलेख में यह उल्लिखित है कि उसके पुत्र के घोड़े ‘तीन समुद्रों का पानी पीते थे। ‘ गुनाढ्य रचित ‘बृहत्कथा’ से बाद में संस्कृ त भाषा में कथा सरितसागर एवं कथाकोष नामक प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना हुई। 

वाकाटक वंश  सातवाहनों के पतन एवं 6ठी’ शताबदी के मध्य में चालुक्यों के उदय होने तक दक्कन में वाकाटक ही मुख्य शक्ति थे।  वाकाटक शक्ति के संस्थापक विंध्यशक्ति के पूर्वजों एवं उनके उद्गम स्थान के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।  विंध्यशक्ति को विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण माना जाता है। वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अंत में प्रारंभ हुआ एवं पाँचवीं शताब्दी के अंत तक चला।  पुराणों के अनुसार विंध्यशक्ति के पुत्र प्रवरसेन ने ‘अश्वमेध यज्ञ’ किया एवं उसके कार्यकाल में वाकाटक साम्राज्य बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तृत था।  वाकाटक शासक साहित्य एवं कला के प्रेमी थे, प्रवरसेन ने एक प्रसिद्ध कृ ति सेतुबंध की रचना की। हिन्द-यूनानी सिक्के यूनानियों से संपर्क होने से पूर्व भारतीय आहत मुदाएँ (Punch marked coins) प्रयोग में लाते थे। उनपर कोई मुद्रालेख नहीं होता था ! यवनों द्वारा ऐसे सिक्के प्रचलित किये गये जिनपर एक ओर राजाओं की आकृ ति और दूसरी और किसी देवता की मूर्ति

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या कु छ अन्य चिह्न उत्कीर्ण थे। इस पद्धति को भारतीय शासकों ने भी अपनाया। भारत में सोने के सिक्के जारी करने वाले प्रथम शासक वंश हिंद-यूनानी थे।

विदेशी आक् रमण  हिन्द यूनानी (indo-greek) सिकं दर ने अपने पीछे एक विशाल साम्राज्य छोड़ा, जिसमें मैसेडोनिया, सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफगानिस्तान एवं पश्चिमोत्तर भारत के कु छ प्रदेश शामिल थे ! इस साम्राज्य का काफी बड़ा भाग सेल्युकस के अधीन रहा।  ई०पू० 250 में बैक्ट्रिया के गवर्नर डियोडोटस एवं पार्थिया के गवर्नर औरेक्सस ने अपने-आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया।  डियोडोटस के वंश के एक शासक डेमेट्रियस-D ने ई०पू० 183 में मौर्योत्तर काल का प्रथम यूनानी आक् रमण किया।  डेमेट्रियस ने पंजाब का एक बड़ा हिस्सा जीत लिया एवं साकल को अपनी राजधानी बनायी। किं तु डेमेट्रियस जिस वक्त भारत में व्यस्त था, स्वयं बैक्ट्रिया में यूक् रेटाड्स के नेतृत्व में विद्रोह हो गया एवं उसे बैक्ट्रिया से हाथ धोना पड़ा। उसका शासन पूर्वी पंजाब एवं सिंघ पर ही रहा गया।  यूक् रेटाइड्स भी भारत की ओर बढ़ा और कु छ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। इस प्रकार भारत में यवन साम्राज्य’ अब दो कु लों डेमेट्रियस एवं यूक् रेटाइड्स के वंशों में बंट गया।  सबसे प्रसिद्ध यवन शासक मिनान्डर (ई०पू० 160-120) था, जो बौद्ध साहित्य में मिलिन्द के नाम से प्रसिद्ध है।  पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी के उल्लेखानुसार मिनांडर के सिक्के भड़ौंच के बाजारों में खूब प्रचलित थे।  इसके अलावा काबुल से मथुरा बुंदेलखंड तक से मिनांडर के सिक्के प्राप्त हुए हैं।  बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपान्हो के अनुसार मिनान्डर ने भिक्षु नागसेन से बौद्ध धर्म में दीक्षा ली। मिनांडर की राजधानी साकल शिक्षा का प्रसिद्ध कें द्र थी और वैभव एवं ऐश्वर्य में पाटलिपुत्र से समानता रखती थी।  यूनानियों के शासन का अंत सीथियनों (शकों) द्वारा किया गया। ।  गार्गी संहिता के अनुसार ‘ज्योतिष’ के क्षेत्र में भारत यूनान का ऋणी है।  भारतीयों ने यूनानियों से ही कै लेंडर प्राप्त किया।  तक्षशिला के यवन राजा एण्टियालकिडास के राजदूत हेलियोडोरस ने (जो कि भागवत् धर्म का अनुयायी था) देवों के देव वसुदेव (विष्णु के अवतार ‘कृ ष्ण’) का बेसनगर (विदिशा) में एक गरुड़ध्वज स्थापित किया।  हिन्द-यूनानियों ने उत्तर-पश्चिम में यूनान की प्राचीन कला हेलिनिस्टिक आर्ट का खूब प्रचलन किया। भारत की गंधार-कला शैली पर उपरोक्त की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।

हिन्द-पार्थियन (Indo-Parthian) ई०पू० पहली शती के अंत में ‘पार्थियन’ नामों वाले कु छ शासक पश्चिमोत्तर भारत पर राज कर रहे थे। इन्हें भारतीय स्रोतों में पहलव कहा गया है। पहलव शक्ति का वास्तविक संस्थापक मिथेडेट्स-1 था जो कि यूक् रेटाइड्स का समकालीन था।  भारत में पहला पार्थियन शासक माउस (Maues) था, जिसने ई०पू० 90 से ई०पू० 70 तक राज किया। इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासकं गोंडोफर्निस (गुन्दफर्न) था जिसने 20-41 ई० के दौरान शासन किया। 65 ई० के हजारा जिले के पंजतर अभिलेख एवं 79 ई० के तक्षशिला अभिलेख के अनुसार कु षाणों ने भारत में हिन्द-पार्थियन शासन का अंत किया। 

शक (Shakas) शकों का मूल निवास-स्थान मध्य एशिया की सरदारिया नदी का तट था।  ई०पू० 165 में शकों का कबीला ‘उत्तर-पश्चिम चीन’ में निवास करने बाले एक अन्य कबीले यू-ची द्वारा अपने मूल स्थान से खदेड़ दिया गया।  शकों ने इसके बाद बैक्टिया. पार्थिया आदि पर आक् रमण किया। शक आगे बढ़े एवं ‘हिंद-पार्थियन’ से उनका संघर्ष हुआ।  भारत में शक शासक स्वयं को क्षत्रप कहते थे।  3/7

शक शासक भारत में दो शाखाओं उत्तरी क्षत्रप (तक्षशिला एवं मथुरा) तथा पश्चिमी क्षत्रप (नासिक एवं उज्जैन) में बंटे थे।  उज्जैन के एक स्थानीय राजा द्वारा शकों को 58 ई०पू० में पराजित कर खदेड़ दिया गया तथा उसके द्वारा विक् रमादित्य की उपाधि धारण की गई।  उपर्युक्त के पश्चात भारतीय इतिहास में ‘विक् रमादित्य’ एक लोकप्रिय उपाधि हो गई एवं कम से कम 14 शासकों ने यह उपाधि धारण की।  उज्जैन के शक क्षत्रपों में चष्टन सर्वाधिक प्रसिद्ध है।  ‘विक् रमादित्य द्वारा शकों पर विजय की स्मृति में 57 ई०पू० में विक् रम संवत् चलाया गया। शक वंश का सबसे प्रतापी शासक रूद्रदामन (130-150 ई०) था। रुद्रदामन के सिक्कों एवं जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने महाक्षत्रप की उपाधि धारण की थी।  रूद्रदामन ने कठियावाड़ की सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया।  चौथी शताब्दी ई० के अंत में गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त-II विक् रमादित्य ने मालवा एवं काठियावाड़ को जीतकर शकों की सत्ता समाप्त कर दी।  भारत की जनसंख्या में उपलब्ध “सिथी-द्रविड़ अंश” शकों एवं भारतीयों के मिश्रण का ही परिणाम है तथा समाज में शक-द्वीपीय ब्राह्मणों की एक शाखा पायी जाती है।  रूद्र दामन संस्कृ त भाषा और अलंकार शास्त्र का प्रकांड पंडित था, उसने संस्कृ त भाषा के पहले नाटक की रचना कराई। 

कु षाण (Kushanas) द्वितीय शताब्दी ई०पू० में चीन के सीमांत प्रदेशों में रहने वाली यू-ची जनजाति को एक अन्य बर्बर जनजाति हूण ने खदेड़ दिया।  यू-ची ने मध्य एशिया में शरण ली। कु छ समय पश्चात यू-ची का 5 शाखाओं में विभाजन हो गया। इन्हीं शाखाओं में एक का नाम कु षाण था।  कालांतर में कु षाणों ने यू-ची की शेष शाखाओं पर विजय प्राप्त कर ली। कु जुल कडफिसस कु षाण वंश का प्रथम शासक था।  उसने अफगानिस्तान और तक्षशिला के आस-पास के भू-भागों पर कु षाण साम्राज्य की सुदृढ़ नींव डाली।  भारत के आंतरिक भाग में कु षाण साम्राज्य को संगठित करने का श्रेय इस वंश के अगले शासक विम कडफिसस को प्राप्त है।  उसने कश्मीर, पंजाब एवं सिंध आदि राज्यों पर अधिकार जमाया। इस वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक कनिष्क था जो 78 ई० में गद्दी पर बैठा।  कनिष्क ने 78 ई० में शक संवत् का प्रतिपादन किया। वर्तमान में भी भारत सरकार द्वारा इसे ही प्रयोग में लाया जाता है।  कनिष्क ने अपने राज्य का विस्तार मगध तक किया।  कनिष्क के साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश सम्मिलित थे।  कनिष्क ने कश्मीर को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा एक नये नगर कनिष्कपुर की स्थापना की।  कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध चीन के शासक के साथ हुआ एवं अंतत: वह मध्य एशिया में काश्गर, यारकं द एवं खोतन आदि प्रदेशों पर अधिकार करने में सफल रहा। कनिष्क ने पुरुषापुर (पेशावर) को अपनी राजधानी बनाया। मथुरा कनिष्क की द्वितीय राजधानी थी।  कनिष्क की प्रारंभिक मुद्राओं पर यूनानी देवता हेलियोज (सूर्य) तथा भया (चंद्रमा) के चित्र अंकित हैं। वह बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था।  कनिष्क ने अपने राजकवि एवं बौद्ध विद्वान अश्वघोष (जिसे वह पाटलिपुत्र से लाया था) से बौद्ध धर्म में दीक्षा ली।  कनिष्क ने अपने शासन काल में कश्मीर के कुं डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन करवाया।  तिब्बती लेखक तारानाथ के अनुसार चतुर्थ बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म के 18 संप्रदायों के विवादों का निपटारा हुआ।  कनिष्क की राजसभा में वसुमित्र एवं अश्वघोष आदि बौद्ध दार्शनिक थे।  नागार्जुन जैसे प्रकांड पंडित एवं राज चिकित्सक चरक भी कनिष्क की राजसभा के रत्न थे।  मंथर जैसा बुद्धिमान राजनीतिज्ञ कनिष्क का मंत्री एवं अजेसिलास (यूनानी) उसका इंजिनियर था।  कु षाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव था।  कु षाण वंश ने भारतीय इतिहास में स्वर्ण की सर्वाधिक शुद्धता वाले सिक्के चलाये।  कनिष्क ने तक्षशिला के पास सिरसुख नामक एक नये नगर की स्थापना की।

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कलिंग राज खारवेल (Kalinga King Kharvell) प्राचीन भारत में गंजाम एवं पुरी जिले, कटक के कु छ हिस्से तथा उत्तर-पश्चिम के कु छ प्रदेशों में कलिंग का राज्य विस्तृत था। कभीकभी दक्षिण के तेलुगु भाषी क्षेत्र भी इसमें शामिल हो जाते थे।  अशोक के निधन के तुरंत बाद यह राज्य स्वतंत्र हो गया एवं चेदी वंशीय ब्राह्मणों का शासन कायम हुआ।  चेदी वंश का सर्वाधिक विख्यात शासक खारवेल था। राजा खारवेल के संबंध में जानकारी उदयगिरि (भुवनेश्वर के समीप) पहाड़ी में स्थित हाथीगुम्फा अभिलेख से होती है।  राजा खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था तथा उसे भिक्षुराज भी कहा गया है।

मौर्योत्तरकालीन कला-संस्कृ ति  बौद्ध-ग्रंथ महावस्तु के अनुसार राजगृह में 36 प्रकार के शिल्पी रहते थे। मिलिन्द पान्हो में जिन 75 व्यवसायों का विवरण दिया गया है, उनमें से 60 शिल्प से संबंधित हैं।  इस काल में कु षाणों ने गंधार कला-शैली का विकास किया।  इस काल में मथुरा मूर्तिनिर्माण कला का कें द्र था।  ह्वेनसांग ने कनिष्क के 178 विहारों तथा स्तूपों का वर्णन किया है।  ई०पू० पहली शताब्दी के अंत में मथुरा में जैनियों ने एक विशेष कला-शैली को जन्म दिया जो मथुरा कला के नाम से विकसित हुआ।  ई०पू० दूसरी शताब्दी में दक्कन में अमरावती कला का विकास हुआ। मौर्योत्तरकालीन चित्रकला के उदाहरण अजंता की गुफा संख्या 9 एवं 10 में मिलते हैं।  अजंता की गुफा संख्या-9 में 16 उपासकों को स्तूप की ओर बढ़ते हुए दिखाया गया है।  गुफा संख्या-10 में जातक कथाएँ अंकित हैं।

कु षाणकालीन साहित्य  अश्वघोष ने बुद्ध-चरित् (संस्कृ त भाषा में) तथा सूत्रालंकार की रचना की।  बुद्ध चरित् को बौद्धधर्म का महाकाव्य माना जाता है।  इस काल में अश्वघोष द्वारा रचित काव्य-ग्रंथ सौन्दरानंद अत्यधिक प्रसिद्ध है। इसमें 18 सर्ग हैं।  अश्वघोष ने 9 अंकों वाले प्रसिद्ध नाटक सारिपुत्र प्रकरण की रचना की। कनिष्क के काल के एक और प्रसिद्ध विद्वान नागार्जुन ने शून्यवाद का प्रतिपादन किया। नागार्जुन के शून्यवाद ने शंकराचार्य के मायावाद को प्रभावित किया।  नागार्जुन ने अपने ग्रंथ ‘माध्यमिक-सूत्र’ में सृष्टि सिद्धांत (Theory of Relativity) को प्रस्तुत किया। नागार्जुन को भारतीय आइंस्टीन कहा गया।  वसुमित्र (कनिष्क की राजसभा का एक और प्रसिद्ध विद्वान) ने बौद्ध धर्म के त्रिपिटक पर महाविभाषसूत्र नामक टीका लिखी।  महाविभाषसूत्र को बौद्ध धर्म का विश्वकोष माना जाता है।  कनिष्क के राजवैद्य ‘चरक’ ने चरक-संहिता (आयुर्वेदिक ग्रंथ) की रचना की।

Audio सुनें मौर्योत्तर कालीन प्रमुख अभिलेख  शिनकोट अभिलेख मिनांडर तख्तेवही अभिलेख गोंडफर्निस पंजतर अभिलेख कु षाण जूनागढ़ अभिलेख रुद्रदामन नानाघाट अभिलेख नागिनका ले

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नासिक अभिलेख गौतमी बलश्री अयोध्या अभिलेख धनदेव बेसनगर अभिलेख हेलियोडोरस

मौर्योत्तर कालीन प्रमुख रचनाएं चरक सहिंता चरक महाभाष्य पतंजलि नाट्यशास्त्र भरत कामसूत्र वात्स्यायन गाथासप्तशती हाल स्वप्नवासवदत्ता भास बुद्ध चरित्र सौंदरनंद अश्वघोष मृच्छकटिकम् शूद्रक मिलिंदपन्हो नागसेन

गांधार कला एवं मथुरा कला में अंतर गांधार कला मथुरा कला गहरे नीले एवं काले पत्थर का प्रयोग लाल पत्थर का प्रयोग संरक्षक शक एवं कु षाण संरक्षक कु षाण यथार्थवादी आदर्शवादी मुख्यतः बुद्ध की मूर्तियां बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण धर्म से संबंधित मूर्तियां गांधार तथा मथुरा कला शैली Audio Notes

मौर्योत्तर कालीन प्रमुख बंदरगाह  सोपारा भड़ौच देवल पोलूरा टेमाटाइल्स चौल (समिल्ला) नौरा (मंगलौर) टिंडीस मुजरिस कोल्वी (कोरकई) पुहार (कावेरीपट्टनम) मागपट्टनम कमारा मसूलीपट्टनम कौन्डोक साइला निट्रिग

पश्चिमी तट गुजरात सिंध उड़ीसा तट निचली गंगा घाटी के रल तट के रल तट के रल तट के रल तट तमिल तट तमिल तट तमिल तट तमिल तट आंध्र तट आंध्र तट आंध्र तट आंध्र तट

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मूर्ति एवं मंदिर निर्माण की विभिन्न शैलियां ⋮ 15/3/2018

मूर्ति निर्माण कला की विभिन्न शैलियां गांधार कला दरबार का प्रभाव (कु षाण, शक) सामूहिक चेतना पत्थर का प्रयोग (नीला, धूसर) धर्म का प्रभाव (बौद्ध धर्म) धर्मनिरपेक्ष प्रभाव नहीं था

मथुरा कला कु षाण सामूहिक चेतना लाल पर सफे द चित्तियां बौद्ध, जैन, ब्राह्मण प्रभाव था राजा महल महत्वपूर्ण व्यक्ति विदेशी प्रभाव

विदेशी प्रभाव क्षेत्रीय स्वरूप (गांधार, पेशावर, जलालाबाद, शाहजी मथुरा व समीपवर्ती क्षेत्र की ड्योढ़ी, शक् र देवड़ी) सुद्दढ़ व सुडौल कें द्र बिंदु शारीरिक बनावट, मांसपेशियों को स्पष्ट रूप आकार,आध्यात्मिक देना, घुंगराले बाल, पारदर्शी पोशाक अभिव्यक्ति

अमरावती कला सातवाहन (इक्ष्वाकु ) सामूहिक चेतना सफे द संगमरमर बौद्ध प्रभाव था विदेशी प्रभाव अमरावती, नागार्जुनकोंडा घन्टसाल, गोली शारीरिक सौंदर्य पर बल, काम विषयक अभिव्यक्ति

मंदिर निर्माण की विभिन्न शैलियां  नागर शैली एकल मंदिर गर्भगृह आयताकार गर्भगृह अलंकृ त नहीं छत सपाट,कु छ गोलाकार या लघु आकार के शिखर वाला गोपुरम अनुपस्थिति समय 300 ईसवी क्षेत्र उत्तर भारत

द्रविड़ शैली मंदिरों का समूह गर्भगृह अलंकृ त गर्भगृह अलंकृ त पिरामिड नुमा शिखर जिसे विमान कहा जाता था गोपुरम उपस्थिति 550 ईसवी दक्षिण भारत

बेसर शैली द्रविड़ शैली की संरचना एवं नागर शैली का अलंकरण – 550 ईसवी दक्कन

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गुप्त काल | सम्पूर्ण जानकारी ⋮ 21/9/2020

गुप्त काल (GUPTA PERIOD)  पुराणों के अनुसार गुप्तों का उदय प्रयाग और साके त के बीच संभवतः कौशांबी में हुआ था।  गुप्त राजवंश की स्थापना लगभग तीसरी शताब्दी में हुई, श्री गुप्त इस वंश का संस्थापक था।  श्री गुप्त का शासन संभवतः 240-280 ई० के दौरान रहा। प्रभावती गुप्त (चंद्र गुप्त-I की पुत्री) के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में श्रीगुप्त को गुप्तवंश का आदिराज कहा गया है। श्रीगुप्त के उत्तराधिकारी घटोत्कच गुप्त ने संभवतः 280 ई० से 320 ई० तक शासन किया।  प्रभावती गुप्त के दो अभिलेखों में घटोत्कच गुप्त को ‘प्रथम गुप्त राजा’ कहा गया है। इस वंश का तीसरा एवं प्रथम महान शासक चंद्र गुप्त-I था जो 320 ई० में शासक बना।  चंद्रगुप्त-I ने ‘लिच्छवी राजकु मारी’ कु मारदेवी से विवाह किया। कु मारदेवी को राज्याधिकारिणी शासिका होने के कारण महादेवी कहा गया।  चंद्रगुप्त-I ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। माना जाता है कि 20 दिसंबर 318ई० अथवा 26 फरवरी 320 ई० से चंद्रगुप्त-I ने गुप्त संवत् की शुरूआत की।  वायु-पुराण के अनुसार चंद्रगुप्त-I का शासन अनुगंगा प्रयाग, साके त एवं मगध पर था।  हरिषेण के प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, एरण अभिलेख एवं रिथपुर दान-शासन अभिलेख आदि से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त-I ने अपने सबसे योग्य पुत्र ‘समुद्रगुप्त’ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। डॉ० आर० सी० मजूमदार के अनुसार समुद्रगुप्त के सिंहासनारोहण की तिथि 340 एवं 350 ई० के बीच रखी जा सकती है।  समुद्रगुप्त एक महान विजेता था, उसने आर्यावर्त (उत्तरी भारत) के 9 तथा दक्षिणापथ के 12 नरेशों को हराकर प्राचीन भारत में दूसरे अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। समुद्रगुप्त इतिहास में एशियन नेपोलियन एवं सौ युद्धों के नायक (Heroof Hundred Battles) के नाम से विख्यात है।  प्रभावती गुप्त के पूना प्लेट अभिलेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने एक से अधिक अश्वमेध यज्ञ किये। अश्वमेध यज्ञ में दान देने के लिए समुद्रगुप्त ने जो सोने के सिक्के ढलवाये उनपर अश्वमेध पराक् रम शब्द उत्कीर्ण हैं।  समुद्रगुप्त के स्वर्ण-सिक्कों पर उसका वीणा बजाते हुए एक चित्र अंकित है, इससे उसके संगीत प्रेमी होने का संके त मिलता है।  सिंघलद्वीप का शासक मेघवर्ण समुद्रगुप्त का समकालीन था, उसने बोध गया में एक बौद्ध-विहार के निर्माण की इजाजत मांगी।  समुद्रगुप्त ने मेघवर्ण को अनुमति दे दी एवं बोध गया में महाबोधि संघाराम नामक एक बौद्ध-विहार निर्मित हुआ।  समुद्रगुप्त के गरूदमंगक (गरूड़ की मूर्ति से अंकित मुद्रा) से मालूम होता है कि वह गरूड़वाहन विष्णु का भक्त था।  समुद्रगुप्त को कविराज कहा गया है तथा उसने विक् रमंक की उपाधि धारण की थी।  समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण था। उसने ‘इलाहाबाद प्रशस्ति अभिलेख’ की रचना की।  नाट्यदर्पण (रामचंद्र गुणचन्द्र), मुद्राराक्षस एवं देवीचंद्रगुप्तम (विशाखदत) हर्षचरित (बाणभट्ट), काव्य मीमांसा (राजशेखर) एवं राष्ट् रकू ट अमोघवर्ष के शक संवत् 795 के संजान ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त-II से पूर्व एक और गुप्त शासक रामागुप्त हुआ था जो समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी बना।  गुप्त सम्वत् 61 के मथुरा स्तंभ अभिलेख में कहा गया है कि गुप्त संवत् 61 वर्ष या 380 ई० चंद्रगुप्त-II के शासनकाल का 5वाँ वर्ष था।  उपरोक्त तथ्य के आधार पर चंद्रगुप्त-II के सिंहासनारोहण की तिथि 375 ई० निर्धारित की जाती है। 

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चंद्रगुप्त-II की अंतिम ज्ञात तिथि सांची अभिलेख में गुप्त संवत् ’93 उल्लिखित है, यह वर्ष 412-13 ई० है।  गुप्त संवत् ’96 यथा 415 ई० के बिलसाड अभिलेख के अनुसार उस समय कु मार गुप्त-I का राज्य था।  उपरोक्त तथ्य के आधार पर चंद्रगुप्त-II के निधन की तिथि 414ई० निर्धारित की जाती है।  सम्राट बनने के पश्चात चंद्रगुप्त-II ने विक् रमादित्य की उपाधि धारण की।  चंद्रगुप्त-II ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन से किया।  गुप्त काल में ही भारत से गणतंत्रों का अस्तित्व समाप्त हो गया।  चन्द्रगुप्त-II ने अवन्ति के अंतिम शक क्षत्रप का नाश किया।  चन्द्रगुप्त-II का साम्राज्य पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में नर्मदा नदी तक समस्त उत्तर भारत में फै ला हुआ था।  चन्द्रगुप्त-II ने भी अश्वमेध यज्ञ किया तथा महाराजाधिराज, श्रीविक् रम एवं शकारि आदि उपाधि धारण की  चन्द्रगुप्त-II विष्णु का उपासक था, जिनका वाहन गरूड़ गुप्त साम्राज्य का राजचिन्ह था।  गुप्त सम्राट परम भागवत् कहलाते हैं।  चंद्रगुप्त-II एक धर्म-सहिष्णु शासक था।  चंद्रगुप्त-II के काल में चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान भारत आया।  चंद्रगुप्त-II द्वारा शकों पर विजय के उपलक्ष्य में चाँदी के सिक्के चलाए गये।  चंद्रगुप्त-II का उत्तराधिकारी कु मारगुप्त-I (414-454 ई०) था। कु मारगुप्त-I ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की। कु मारगुप्त-I के बाद उसका पुत्र स्कं धगुप्त (455-467 ई०) उत्तराधिकारी बना।  स्कं धगुप्त ने वीरता और साहस के साथ हूणों के आक् रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा की।  स्कं धगुप्त द्वारा पर्णदत्त को सौराष्ट् र का गवर्नर नियुक्त किया।  स्कं धगप्त ने गिरिनार पर्वत पर स्थित सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण कराया।  अंतिम गुप्त शासक भानुगुप्त था।

गुप्तकालीन संस्कृ ति प्रशासन (Administration) इस युग की शासन-पद्धति के विषय में फाहियान के विवरण, अभिलेख एवं सिक्के , विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, कालीदास ग्रंथावली एवं कामंदकीय नीतिसार आदि स्रोतों से जानकारी मिलती है।  शासन के समस्त विभागों की अंतिम शक्ति राजा के हाथों में निहित थी। सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र युवराज होता था जो शासन में राजा की मदद करता था।  युवराजों को प्रांतपति भी बनाया जाता था। शासन में राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद थी।  एक ही मंत्री कई विभागों का प्रधान भी होता था। संमुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण एक साथ संधिविग्रहिक, कु मारामात्य एवं महादण्डनायक जैसे तीन पदों को संभालता था।  राजा स्वयं मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता करता था।  गुप्तकाल में पुरोहित को मंत्रिपरिषद में स्थान नहीं दिया गया। साम्राज्य के विभिन्न पदों पर नियुक्त राजपरिवार के सदस्यों को कमारमात्य कहा जाता था।  अधिकारियों को नकद वेतन के साथ-साथ भूमि अनुदान देने की भी प्रथा थी।  सैन्य विभाग का गुप्त-प्रशासन में सर्वाधिक महत्व था।  सम्राट ही सेनाध्यक्ष होता था। वृद्ध सम्राट के सेना की अध्यक्षता युवराज करता था।  गुप्तकाल में पुलिस की समुचित व्यवस्था थी एवं इसके साधारण कर्मचारियों को चाट एवं भाट कहा जाता था। पहरेदार को रक्षिन् कहा जाता था।  गुप्तचर विभाग काफी दक्ष था एवं इसके कर्मचारी दूत कहलाते थे।  नारद स्मृति के अनुसार गुप्तकाल में 4 प्रकार के न्यायालय पाये जाते थे1. कु ल न्यायालय, 2. श्रेणी न्यायालय, 3. गुण न्यायालय एवं 4. राजकीय न्यायालय।  शिल्प संघों के न्यायालय शिल्पियों एवं कारीगरों के विवादों का निपटारा किया करते थे। शासन की सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य को कई भुक्तियों (प्रांतों) में बाँटा गया था। 2/7

राजस्व प्रशासन 6 गुप्त लेखों से ज्ञात होता है इस काल में 18 प्रकार के ‘कर’ प्रचलन में थे, परंतु उनके नाम वर्तमान में ज्ञात नहीं हैं।  तत्कालीन साहित्य में आय के कई साधनों का विवरण है भू-राजस्व-भाग, उपरिकर (उद्रंगकर): कु ल उपज का 1/6 हिस्सा लिया जाता था। अन्य कर-भोग, भूतोवात, प्रत्याय एवं विष्टि आदि। चुंगी-नगरों तथा गाँवों में बाहर से आने. वाले माल पर चुंगी लगती थी। शुल्क व्यापारियों एवं शिल्पियों से लिया जाने वाला कर।

गुप्तकालीन कें द्रीय नौकरशाही  गुप्तकालीन कें द्रीय नौकरशाही के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। परंतु कु छ प्रमुख कर्मचारियों के पदों का जिक् र अवश्य मिलता है। गुप्त शासकों ने किसी नयी व्यवस्था को जन्म नहीं दिया, बल्कि पुरानी व्यवस्था को ही आवश्यक परिवर्तनों के साथ लागू किया !

महासेनापति युद्ध क्षेत्र का सैन्य संचालक महारणभंडागारिक सेना के लिए आवश्यक सामग्री का प्रबंधकर्ता महाबलाधिकृ त सेना, छावनी एवं व्यूहरचना विभाग का प्रधान महादंडपाशिक पुलिस विभाग का प्रधान महादंडनायक युद्ध एवं न्याय संबंधी कार्य करता था चाट साधारण सैनिक चमू सेना की छोटी टुकड़ी महासंधिविग्रहिका इस पद को धारण करने वाले का कार्य एक राजदूत का था। विनयस्थितिस्थापक यह शांति एवं धर्मनीति का प्रमुख अधिकारी था भंडागाराधिकृ त राजकीय कोष का प्रधान महाअक्षपटलिक अभिलेख विभाग का प्रधान सर्वाध्यक्ष कें द्रीय सचिवालय की देखरेख करने वाला महाप्रतिहार राजप्रासाद का मुख्य रक्षक ध्रुवाधिकरण राज्य के कर वसूली विभाग का प्रमुख गोल्मिक जंगलों से राजस्व प्राप्त करने वाला पदाधिकारी गोप ग्रामों की देखभाल करने वाला कारणिक राजिस्ट्रार, लेखक या लिपिक पुस्तपाल महाक्षपटलिक का सहायक अग्रहारिक दान विभाग का प्रधान महापीलुपति गजसेना का अध्यक्ष महाश्वपति अश्वसेना का अध्यक्ष गुप्त काल में राज्य को देश अथवा राष्ट् र कहा जाता था।  गुप्त काल में प्रांतों की संख्या मुख्य रूप से ‘8’ थी।  गुप्तकाल में ‘भुक्ति’ का प्रधान प्रांतपति, उपरिक, महाराज अथवा गोप्ता कहलाता था।  उपरोक्त सभी राज्यपालों की तरह प्रांतों में कें द्रीय शासन का प्रतिनिधित्व करते थे।  भुक्ति के अंतर्गत कई विषय (जिले) हुआ करते थे।  विषय का शासक विषयपति होता था। वह तन्नियुक्तक भी कहलाता था।  विषयपति की नियुक्ति प्रांतपति करता था, कें द्रीय शासन से उसका कोई संबंध नहीं था। विषयपति की सहायता के लिए स्थानीय समिति रहती थी।  इसमें नगर श्रेष्ठी (नगर का प्रमुख), सार्थवाह (व्यापारियों का प्रमुख), प्रथम कु लिक शिल्पी-संघ का प्रमुख), प्रथम कायस्थ (प्रधान लिपिक) सदस्य होते थे। नगर प्रशासन का प्रमुख द्वांगिक कहलाता था।  नगर प्रशासन में नगरपति एवं पुरपाल नामक अन्य पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। इसका प्रमुख ग्रामपति या महत्तर होता था।  दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख से ‘ग्राम पंचायतों’ के अस्तित्व की जानकारी भी मिलती है।  3/7

ग्रामों के आय-व्यय का लेखा-जोखा तलवारक नामक पदाधिकारी रखता था।

समाज एवं अर्थव्यवस्था गुप्त कालीन समाज परंपरागत रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार वर्गों में विभाजित था।  गुप्तकाल में स्त्रियों की दशा श्रेष्ठ नहीं थी। उन्हें संपत्ति के अधिकार से अलग कर दिया गया था।  गुप्तकाल में बाल-विवाह के प्रथा को बढ़ावा मिला।  510 ई० के भानुगुप्त के एरण अभिलेख से सती प्रथा का पहला प्रमाण प्राप्त होता है, यह तिथि गुप्तकाल की है।  गुप्तकाल में वेश्याओं को गणिका एवं वृद्ध वेश्याओं को कु ट्टनी कहते थे।  याज्ञवल्क्य स्मृति में सर्वप्रथम कायस्थ शब्द उपयोगिता के आधार पर भमि के प्रकार का उल्लेख मिलता है। जाति के रूप में ‘कायस्थ’ का उल्लेख सर्वप्रथम ओशनम स्मृति में मिलता है।  गुप्तकालीन ‘कृ षि’ का विस्तृत वर्णन वृहत्संहिता एवं अमरकोष में मिलता है।

क्षेत्र भूमि कृ षि योग्य भूमि वास्तु भूमि निवास योग्य भूमि चारागाह भूमि पशुओं के चारा के योग्य भूमि खिल्य ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी। अग्रहत गुप्तकाल में जंगली भूमि को  अग्रहत’ कहते थे। कृ षि से संबंधित कार्यों को देखने की जिम्मेदारी महाअक्षपटलिक एवं कारणिक पर थी। । इस काल में सिंचाई के लिए रहत या घटीयंत्र का प्रयोग होता था। गुप्त काल में कृ षकों को कु ल ऊपज का 1/6 हिस्सा ‘कर’ के रूप में देना पड़ता था।  दशपुर, बनारस, मथुरा और कामरूप कपड़ा उत्पादन के बड़े कें द्र थे।  वृहत्संहिता में कम से कम 22 रत्नों का उल्लेख है।  रत्नों को परखने की कला इस काल में अत्यंत विकसित थी।  वात्स्यायन के कामसूत्र में इस कला को 64 कलाओं में शामिल किया गया है।  जहाज-निर्माण भी इस काल में एक बड़ा उद्योग था। इससे व्यापार में सहायता मिलती थी। गुप्तकाल में व्यापार अत्यंत उन्नत स्थिति में था

श्रेणियाँ (GUILDS)  पेशावर, भड़ौंच, उज्जैयनी, बनारस, प्रयाग, मथुरा, व्यापारियों के निगम एवं शिल्पियों की श्रेणियाँ पूर्ववत् कार्य कर रही थीं।  ये संस्थाएँ बैंकों की तरह भी कार्य करती थी। इन संस्थाओं का प्रबंध छोटी-छोटी समितियों द्वारा होता था जिनमें 4 से 5 तक सदस्य होते थे। पाटलिपुत्र, वैशाली एवं ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख व्यापारिक कें द्र थे।  इस काल में जल एवं स्थल मार्ग द्वारा मिस्र, फारस, रोम, यूनान, लंका, बर्मा. समात्रा. तिब्बत. चीन एवं पश्चिम एशिया से व्यापार होता था।  गुप्तकाल में वैष्णव-भागवत् धर्म की खूब उन्नति हुई।  गुप्तकाल में अनेक वैष्णव मंदिरों का निर्माण हुआ  गुप्तकाल में वैष्णव धर्म संबंधी सबसे महत्वपूर्ण अवशेष देवगढ़ (झांसी) के दशावतार मंदिर से प्राप्त हुए हैं।  शैव, बौद्ध एवं जैन धर्मों को भी इस काल में प्रोत्साहन मिला।  स्थान विष्णु के 10 अवतारों में वराह एवं कृ ष्ण की पूजा का प्रचलन इस काल में विशेष रूप से हुआ।  यह कहा जा सकता है कि गुप्त-युग के आते-आते सनातन धर्म का रूप पूर्णतया निश्चित हो गया।

गुप्त कालीन प्रसिद्ध मंदिर 4/7

दशावतार मंदिर देवगढ़ (झांसी) विष्णु मंदिर तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) शिव मंदिर खोह (नागौद, मध्य प्रदेश) पार्वती मंदिर नयना कु ठार (मध्य प्रदेश) भीतरगाँव मंदिर भीतरगाँव (कानपुर) शिव मंदिर भूमरा (नागौद, मध्य प्रदेश)

शिक्षा एवं साहित्य  इस काल में कालीदास, शूद्रक, विशाखदत, भारवि, भोट्ट, भास, विष्णु शर्मा आदि जैसे कई साहित्यकार हुए। पुराणों के वर्तमान स्वरूप का विकास गुप्तकाल में ही हुआ।  रामायण एवं महाभारत की अंतिम रचना भी गुप्तकाल में ही हुई।  याज्ञवल्यक्य, नारद, कात्यायन एवं बृहस्पति स्मृतियों की रचना भी गुप्तकाल में ही हुई। गुप्तकाल की तुलना पेरीक्लीज युग (एथेंस के इतिहास में) तथा एलिजाबेथ युग (अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में) से की जाती है।  गुप्त काल की प्रसिद्ध साहित्यिक रचानाएँ इस प्रकार हैं-

मृच्छकटिकम शूद्रक  मुद्राराक्षस, देवी चंद्रगुप्तम विशाख दत्त  किरातर्जुनीयम भारवि रावण वधः भट्टि स्वप्नवासवदतम्, चारुदत्त, भास उरुभंग, कर्णभा, पंचरात्रि

कु मार संभवम्,अभिज्ञान शाकुं तलम्,

कालीदास विक् रमोर्वशीयम, मालविकाग्निमित्रम,

मेघदूत, ऋतुसंहार पंचतंत्र विष्णु शर्मा अभिधर्म कोष वसुबन्धु प्राण समुच्चय दिङ्नाग सांख्यकारिका ईश्वर कृ ष्ण दशपदार्थशास्त्र चन्द्र अमर कोष अमर सिंह न्यास जितेन्द्र बुद्धि शिशुपाल वध माघ

कला (Arts) गुप्त युग में मूर्तिकला ने अपने-आप को गंधार शैली से मुक्त कर लिया।  तत्कालीन मूर्तिकला का सबसे भव्य नमूना है सारनाथ से प्राप्त धर्मचक् र प्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति।  उपरोक्त के अतिरिक्त बिहार के भागलपुर से मिली बुद्ध की ताम्रमूर्ति एवं मथुरा से मिली बुद्ध की खड़ी मूर्ति विशेष हैं।  गुप्तकाल में हरेक शिक्षित एवं सुसंस्कृ त व्यक्ति चित्रकला में दिलचस्पी रखता था।  अजन्ता की गुफाओं के भित्तिचित्र उस युग के कलाकारों की अद्भुत प्रतिभा का परिचय देते हैं। अजंता शैली के अन्य चित्र मालवा के बाध नामक स्थान से भी प्राप्त हुए हैं। 

अजंता चित्रकारी अजंता में 29′ गुफाएँ निर्मित हुईं जिनमें अब सिर्फ ‘6’ का अस्तित्व बचा है।

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बची हुई गुफाओं में गुफा संख्या-16, 17 ही गुप्तकालीन हैं ! गुफा संख्या-16 में उत्कीर्ण मरणासन्न राज-कु मारी का चित्र विशेष रूप से प्रशंसनीय है। गुफा संख्या 17 का चित्र चित्रशाला के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें बुद्ध की जीवनी से संबंधित चित्र उत्कीर्ण हैं

विज्ञान (Science) गणित के क्षेत्र में नवीन सिद्धांतों का विकास हुआ तथा प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट ने दशमलव पद्धति का आविष्कार किया।  आर्यभट्ट ने पहली बार बताया कि पृथ्वी गोल है एवं अपनी धुरी पर घूमती है तथा पृथ्वी एवं चंद्रमा की स्थिति के कारण ग्रहण लगता है।  आर्यभट्ट ने सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ की रचना की जो नक्षत्र विज्ञान से संबंधित थी, यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, उन्होंने गणित के ग्रंथ आर्यभट्टेयी की रचना की।  ब्रह्मगुप्त इस काल के प्रसिद्ध गणितज्ञ थे। उन्होंने ब्रह्म सिद्धांत नामक ग्रंथ की रचना की।  ब्रह्मगुप्त ने खगोलीय समस्याओं के लिए बीजगणित का प्रयोग करना आरंभ किया।  वराहमिहिर गुप्तकाल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथों वृहत् संहिता एवं पंचसिद्धांतिका की रचना की।  वृहत्संहिता में नक्षत्र विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, प्राकृ तिक इतिहास एवं भौतिक भूगोल से संबंधित विषयों का वर्णन दिया हुआ है।  आर्यभट्ट के ग्रंथ पर भास्कर-ने इसी काल में टीका लिखी जो महाभास्कर्य,लघुभास्कर्य एवं भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। चिकित्सा क्षेत्र में आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांग संग्रह की रचना बाग्भट्ट ने गुप्तकाल में ही की।  आयुर्वेद के एक अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ नवनीतकम् की रचना भी इसी काल में हुई।  पाल्काप्य नामक पशु चिकित्सक ने ‘हाथियों’ के रोगों से संबंधित चिकित्सा हेतु हस्त्यायुर्वेद नामक ग्रंथ की रचना की।  प्रसिद्ध चिकित्सक धन्वंतरि चंद्रगुप्त-II के दरबार में था।  नागार्जुन इस काल का एक प्रसिद्ध चिकित्सक था, उसने रस चिकित्सा नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की।  इस काल में औषधि निर्माण के कार्य में तेजी आई।  नागार्जुन ने इस काल में सिद्ध किया कि सोना, चाँदी, लोहा, तांबा आदि खनिज धातुओं में रोग निवारण की शक्ति विद्यमान है।  धातु विज्ञान की इस युग में अत्यधिक तरक्की हुई।  लगभग 1.5 हजार वर्ष पूर्व निर्मित दिल्ली में एक लौह-स्तंभ में अभी तक जंग नहीं लगा है, जो तत्कालीन धातुकर्म विज्ञान के काफी विकसित होने का संके त है।  इस प्रकार भौतिक एवं सांस्कृ तिक श्रेष्ठता के कारण गुप्त युग को प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग (Golden Age) कहा गया है।

Audio Notes चन्द्रगुप्त, समुद्रगुप्त चंद्रगुप्त विक् रमादित्य कु मारगुप्त स्कन्दगुप्त गुप्त काल प्रशासनिक व्यवस्था गुप्तकालीन समाज एवं अर्थव्यवस्था गुप्तकालीन धर्म, कला, साहित्य एवं विज्ञान गुप्त काल के 77 सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न | Quiz

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मौर्य साम्राज्य की सम्पूर्ण जानकारी ⋮ 19/9/2020

मौर्य कौन थे ? स्पूनर के अनुसार मौर्य पारसिक थे क्योंकि अनेक मौर्यकालीन प्रथाएं पार्थिक प्रथाओं से मिलती-जुलती हैं | ब्राह्मण साहित्य, विष्णु पुराण, मुद्राराक्षस, कथासरित्सागर, बृहत्कथा मंजरी के अनुसार मौर्य शूद्र थे | बौद्ध परंपराओं के अनुसार मौर्य क्षत्रिय थे तथा गोरखपुर क्षेत्र के निवासी थे |  ग्रीक लेखक जस्टिन तथा जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त निम्न जाति का था | महावंश टीका के अनुसार वह क्षत्रिय था | चाणक्य के अर्थशास्त्र में एक स्थान पर लिखा है कि वह शूद्र नंद वंश का विनाश करना चाहता था, अतः वह स्वयं क्षुद्र को शासक नहीं बना सकता था अतः वह मोरेय नामक क्षत्रिय था |

मौर्य वंश के इतिहास के स्रोत कौटिल्य का अर्थशास्त्र विशाखदत्त मुद्राराक्षस अभिलेख ब्राह्मण साहित्य जैन साहित्य बौद्ध साहित्य कलावशेष यूनानी लेखकों के वृतांत

मौर्य वंश का इतिहास मौर्य राजवंश (३२२-१८५ ईसा पूर्व) प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था। यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरु हुआ। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज के पटना शहर के पास) थी। चक् रवर्ती सम्राट अशोक के राज्य में मौर्य वंश का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ।

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image from Wikipedia मौर्य वंश का शासन भारत में 137 वर्षों (321-187) तक रहा। इन वर्षों में कई शासक हए, जिनमें निम्न तीन सम्राटों का शासनकाल उल्लेखनीय रहा  चंद्रगुप्त मौर्य-ई०पू० 321-300  बिंदुसार-ई०पू० 300-273 अशोक-ई०पू० 269-236

अन्य शासक कु णाल – 232-228 ईसा पूर्व (4 वर्ष) दशरथ –228-224 ईसा पूर्व (4 वर्ष) सम्प्रति – 224-215 ईसा पूर्व (9 वर्ष) शालिसुक –215-202 ईसा पूर्व (13 वर्ष) देववर्मन– 202-195 ईसा पूर्व (7 वर्ष) शतधन्वन् – 195-187 ईसा पूर्व (8 वर्ष) बृहद्रथ 187-185 ईसा पूर्व (2 वर्ष)

चन्द्रगुप्त मौर्य

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चन्द्रगुप्त मौर्य को साम्राज्य की स्थापना करने में आचार्य विष्णु गुप्त यानी चाणक्य का पूरा सहयोग मिला,  चंद्रगुप्त का जन्म ईसा पूर्व 345 में शाक्यों के पिप्पलिवन गणराज्य की मोरिय शाखा में हुआ था | चंद्र अंतिम शासक धनानंद का विनाश करने के बाद ईसा पूर्व 321 में मगध का सम्राट बना यूनानी लेखक जस्टिनियन एवं प्लुटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त ने 6 लाख की सेना लेकर समस्त भारत पर आक् रमण किया यूनानी साहित्य में चंद्रगुप्त को साइंड्रोकोटस कहा गया है | चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत में कर्नाटक तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया मालवा एवं सौरास्ट् र चंद्रगुप्त के साम्राज्य के हिस्से थे  उपर्युक्त तथ्य रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है इसके अनुसार चंद्रगुप्त ने उसे पुष्यगुप्त नामक व्यक्ति को सूबेदार बनाया था और वहां सिंचाई के लिए सुदर्शन झील का निर्माण कराया था  ईसा पूर्व 305 में चंद्रगुप्त की भिड़ंत सिकं दर के सेनापति सैल्यूकस जिसमें चन्द्रगुप्त विजयी रहा ! ई०पू० 305 में चंद्रगुप्त की भिड़त सिकं दर इस पुस्तक में निरंकु श राज्य (Autocracy) का के एक सेनापति सेल्युकस निकोटर से हुई विवरण विस्तार से तथा लिच्छवी जैसे गणतंत्रों जिसमें चंद्रगुप्त की सेना विजयी रही। (Republics) का संक्षेप में दिया गया है। सेल्यूकस ने संधि कर ली और अपनी बेटी कार्नेलिया (कहीं कहीं हेलेन भी नाम मिलता है) की शादी चन्द्रगुप्त के साथ कर दी और साथ में 500 हाथी भी दिये ! दोनों ही पक्षों ने दूतों का विनिमय भी किया। इसी के तहत सेल्युकस ने मेगास्थनीज को दूत बनाकर चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। ।  मेगास्थनीज काफी दिनों तक पाटलिपुत्र में रहा तथा उसने अपना आँखों देखा विवरण अपनी पुस्तक इंडिका में लिखा।  सेल्युकस एवं चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का विवरण एप्पियस नामक यूनानी व्यक्ति ने किया है। चन्द्रगुप्त ने बाद में जैन धर्म स्वीकार कर लिया तथा भद्रबाहु से इस धर्म में दीक्षा ली। 

चंद्रगुप्त मौर्य की विजय पंजाब विजय मगध विजय मलयके तु के विद्रोह का दमन सेल्यूकस पर विजय पश्चिमी भारत पर विजय दक्षिण भारत की विजय

साम्राज्य विस्तार

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चंद्रगुप्त मौर्य ने एक विस्तृत राज्य की स्थापना की थी | उसने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर पश्चिम में हिंदुकु श पर्वत तथा पश्चिम में अरब सागर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया पाटलिपुत्र उसकी राजधानी थी

चंद्रगुप्त मौर्य के अंतिम दिन बौद्ध साहित्य के अनुसार मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया |  जैन साहित्य के अनुसार अपने जीवन के अंतिम दिनों में चंद्रगुप्त मौर्य ने राजकाज अपने पुत्र को सौंप दिया और जैन धर्म स्वीकार कर जैन भिक्षु भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गया सन्यासियों का जीवन व्यतीत करते हुए चन्द्रगुप्त मौर्य ने ई०पू० 300 में अनशन व्रत करके कर्नाटक के श्रवणवेलगोला में अपने शरीर का त्याग कर दिया। 

बिन्दुसार

ई०पू० 300 में बिंदुसार मगध की गद्दी पर बैठा। यूनानी इतिहासकारों ने बिंदुसार को अपनी रचनाओं में अमित्रोके ट्स की संज्ञा दी है, जिसका अर्थ होता है शत्रु का विनाशक।  बिंदुसार आजीवक धर्म को मानता था।  बिंदुसार के लिए वायुपुराण में भद्रसार नामक शब्द का प्रयोग किया गया है। बिंदुसार को जैनग्रंथों में सिंहसेन की संज्ञा दी गई है।  तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ के अनुसार चाणक्य ने बिंदुसार की, 16 नगरों के सामंतों एवं राजाओं का नाश करने के लिए पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रों के बीच मौजूद प्रदेश को जीतने में, सहायता की।  बिंदुसार के शासनकाल में तक्षशिला में विद्रोह हुआ। उसका पुत्र एवं तक्षशिला का सूबेदार सुसीम विद्रोह को दबाने में असफल रहा।  सुसीम के असफल रहने के पश्चात् उज्जैन के तत्कालीन सूबेदार अशोक को तक्षशिला का विद्रोह दबाने के लिए भेजा गया। उसने सफलतापूर्वक विद्रोह को दबा दिया। अपने उल्लेख में एथिनियस ने जानकारी दी कि बिन्दुसार ने सीरिया के शासक एप्तियोकस से मदिरा (शराब), सूखे अंजीर और एक दार्शनिक भेजने का आग्रह किया था !

अशोक

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बिंदुसार की मृत्यु के 4 वर्ष बाद ई०पू० 269 में अशोक मगध की गद्दी पर बैठा।  अशोक की तुलना डेविड एवं सोलमान (इस्रायल) तथा मार्क स ओरलियस एवं शार्लमा (रोम) जैसे विश्व के महान सम्राटों से की जाती है।  दिव्यदान के अनुसार अशोक की माता का नाम जनपदकल्याणी था। कहीं-कहीं उसका नाम सुभद्रांगी भी आता है। अशोक का सौतेला भाई सुशीम एवं सहोदर भाई विगताशोक था।  तक्षशिला का विद्रोह सफलतापूर्वक दबाने के कारण बिंदुसार ने अशोक को युवराज का पद प्रदान किया। सम्राट बनने से पूर्व अशोक उज्जैन का सूबेदार था।  सिंहासनारूढ़ होते समय अशोक ने ‘देवानामप्रिय’ तथा ‘प्रियदर्शी’ जैसी उपाधियाँ धारण की।  पुराणों में अशोक को अशोकवर्द्धन कहा गया है। अशोक के 13वें शिलालेख से हमें ज्ञात होता है अशोक ने अपने शासन के ‘9वें’ वर्ष में कलिंग पर आक् रमण किया एवं राजधानी तोसाली में अपना एक सूबेदार नियुक्त किया।  कलिंग युद्ध में 2.5 लाख व्यक्ति मारे गये एवं इतने ही घायल हुए।  कलिंग युद्ध ने अशोक का हृदय परिवर्तन कर दिया तथा चौथे शिलालेख के अनुसार भेरीघोष के स्थान पर उसने धम्मघोष करने की घोषणा की।  अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया एवं उपगुप्त नामक आचार्य से इसकी दीक्षा ली।  अशोक ने बाराबर की पहाड़ियों में आजीवकों के लिए चार गुफाओं कर्ज, चोपार, सुदामा तथा विश्व-झोंपड़ी आदि का निर्माण कराया।  बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को अशोक द्वारा श्रीलंका भेजा गया। अशोक ने अपने द्वारा किये गये मात्र दो आक् रमणों में पहला आक् रमण कश्मीर पर किया।  कश्मीर के ऐतिहासिक ग्रंथ राजतरंगिणी में अशोक को मौर्य देश का प्रथम सम्राट बताया गया है। प्रथम कलिंग शिला अभिलेख के अनुसार अशोक सीमांत जातियों के प्रति नरम रुख रखता था।  13वें शिलालेख के अनुसार अशोक ने यवन शासकों एंटियोकस-II (सीरिया), टॉलेमी-II (मिस्र), ऐंटिगोनस गोनाटस (मकदूनिया), मरास (साइरिन) एवं एलेक्जेंडर से मित्रतापूर्ण संबंध कायम किये एवं उनके दरबार में अपने दूत भेजे।  इसी प्रकार दक्षिण भारत में अशोक के दूत धर्म के प्रचार के लिए चोल, पांड्य, सतियपुत्र, के रलपुत्र एवं ताम्रपोर्ण आदि राज्यों में भी गये। अशोक ने बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित किया तथा एक धर्म विभाग की स्थापना की।

अशोक के चौदह वृहद शिलालेख  पहला पशुबलि की निंदा दूसरा मनुष्य एवं पशुओं दोनों की चिकित्सा व्यवस्था का उल्लेख, चोल, पांडय, सतियपुत्र एवं के रल पुत्र की चर्चा | तीसरा राजकीय अधिकारीयों (युक्तियुक्त और प्रादेशिक) को हर 5वे वर्ष द्वारा करने का आदेश | 5/12

चौथा भेरीघोष की जगह धम्म घोष की घोषणा | पांचवाँ धम्म महामात्रों की नियुक्ति के विषय में जानकारी | छठा धम्म महामात्र किसी भी समय राजा के पास सूचना ला सकता है, प्रतिवेदक की चर्चा | सांतवाँ सभी संप्रदायों के लिए सहिष्णुता की बात | आठवाँ सम्राट की धर्म यात्रा का उल्लेख, बोधिवृक्ष के भ्रमण का उल्लेख | नौवाँ विभिन्न प्रकार के समारोहों की निंदा | दसवाँ ख्याति एवं गौरव की निंदा तथा धम्म नीति की श्रेष्ठता पर बल | ग्यारहवाँ धम्म नीति की व्याख्या | बारहवाँ सर्वधर्म समभाव एवं स्त्री महामात्र की चर्चा | तेरहवाँ कलिंग के युद्ध का वर्णन, पड़ोसी राज्यों का वर्णन, अपराध करने वाले आटविक जातियों का उल्लेख | चौदहवाँ इसमें अशोक द्वारा जनता को धार्मिक जीवन जीने की प्रेरणा दी गयी है ! अशोक का कौशांबी अभिलेख रानी अभिलेख भी कहलाता है।  अशोक का सबसे छोटा ‘स्तंभ-लेख’ रुमिन्देयी से प्राप्त हुआ है।  अशोक के 12वें शिलालेख से जानकारी होती है कि उसने महिला महामात्रों की भी नियुक्ति की। अशोक के 7 स्तंभ-लेखों का संकलन बाह्मी लिपि में किया गया है।  अशोक का प्रयाग स्तंभ-लेख पहले कौशांबी में स्थित था। बाद में अकबर ने इसे ‘इलाबाद के किले में स्थापित करवाया।  अशोक का दिल्ली-टोपरास्तंभ लेख टोपरा से दिल्ली लाने वाला शासक फिरोज तुगलक था।  अशोक के दिल्ली-मेरठ स्तंभ लेख की खोज 1750 ई० में टीफे न्थलर द्वारा की गई तथा फिरोज तुगलक द्वारा इसे दिल्ली लाया गया। चंपारण (बिहार) में स्थित रामपुरवा स्तंभ लेख 1872 ई० में कार्लायल द्वारा खोजा गया।  चंपारण में ही लौरिया-अरेराज एवं लौरिया-नन्दनगढ़ स्तंभ लेख भी प्राप्त हुए हैं।  लौरिया-नंदनगढ़ स्तंभ पर मोर का चित्र बना हुआ है।  शार-ए-कु न्हा (कं धार) से प्राप्त अशोक के अभिलेख ग्रीक एवं अरामाइक भाषाओं में उत्कीर्ण हैं। मेगास्थनीज द्वारा लिखी गयी पुस्तक इंडिका में मौर्यकालीन समाज को साथ जातियों में बंटा हुआ बताया गया है वो हैं – दार्शनिक, किसान, सैनिक, ग्वाले, शिल्पी, दंडनायक, और पार्षद वर्ण-व्यवस्था तत्कालीन समाज में भी प्रचलित थी। समाज में शिल्पियों (चाहे वह किसी भी जाति का हो) का स्थान महत्वपूर्ण एवं आदरणीय था। । इस काल में तक्षशिला, उज्जैन एवं वाराणसी शिक्षा के प्रमुख कें द्र थे। तकनीकी शिक्षा आमतौर पर श्रेणियों (गिल्डों) के माध्यम से दी जाती थी। मौर्यकालीन समाज में वैदिक धर्म ही प्रमुख धर्म था। मौर्यकाल में जैन एवं बौद्ध धर्मों का भी पर्याप्त विकास हुआ। मेगास्थनीज, स्ट् रैबो, एरियन आदि विद्वानों के अनुसार मौर्य काल में समस्त भूमि राजा की थी। सरकारी भूमि को सीता कहा जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तीन प्रकार की भूमि-कृ ष्ट भूमि (जूती हुई), उत्कृ ष्ट भूमि (बिना जुती हुई) एवं स्थल भूमि (ऊँ ची भूमि) थी। मौर्यकाल में नि:शुल्क श्रम एवं बेगार किये| जाने का उल्लेख है। इसे विष्टि कहा जाता था। बलि एक प्रकार का धार्मिक कर था जब कि भूराजस्व में राजा के हिस्से को भाग कहा जाता था। भू-राजस्व की दर कु ल उपज का 1/6 हिस्से से 1/8 हिस्से तक थी। भू-स्वामी को क्षेत्रक एवं काश्तकार को उपवास कहा जाता था। मौर्यकाल में सिंचाई के समुचित प्रबंध को सेतुबंध कहा जाता था। सिंचित भूमि में कु ल उपज का 1/2 हिस्सा भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। हिरण्य एक प्रकार का कर था जो अनाज के रूप में न लेकर नकद के रूप लिया जाता था। मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था कृ षि के अतिरिक्त पशुपालन एवं व्यापार पर टिकी थी। इन तीनों को अर्थशास्त्र में सम्मिलित रूप से वार्ता कहा गया है।

अर्थशास्त्र में वर्णित अध्यक्ष  6/12

1 पण्याध्यक्ष 2 सुराध्यक्ष 3 सूनाध्यक्ष 4 गणिकाध्यक्ष 5 सीताध्यक्ष 6 अकराध्यक्ष 7 कोस्टगाराध्यक्ष 8 कु प्याध्यक्ष 9 आयुधगाराध्यक्ष 10 शुल्काध्यक्ष 11 सूत्राध्यक्ष 12 लोहाध्यक्ष 13 लक्षणाध्यक्ष 14 गो – अध्यक्ष

वाणिज्य विभाग का अध्यक्ष आबकारी विभाग का अध्यक्ष बूचड़खाने का अध्यक्ष गणिकाओं का अध्यक्ष राजकीय कृ षि विभाग का अध्यक्ष खान विभाग का अध्यक्ष कोस्टगार का अध्यक्ष वनों का अध्यक्ष आयुधगार का अध्यक्ष व्यापार कर वसूलने वालों का अध्यक्ष कताई बुनाई विभाग का अध्यक्ष धातु विभाग का अध्यक्ष छापेखाने का अध्यक्ष, राज्य में मुद्रा जारी करने का प्रमुख अधिकारी पशुधन विभाग का अध्यक्ष चरागाहों का अध्यक्ष | इसके अन्य कार्य कु ओं का निर्माण, जलाशय का निर्माण जंगल से गुजरने वाले 15 विविताध्यक्ष लोगों की रक्षा आदि थी 16 मुद्राध्यक्ष पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष 17 नवाध्यक्ष जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष 18 पतनाध्यक्ष बंदरगाहों का अध्यक्ष 19 संस्थाध्यक्ष व्यापारिक मार्गो का अध्यक्ष 20 देवताध्यक्ष धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष 21 पौताध्यक्ष माप तोल का अध्यक्ष 22 मानाध्यक्ष दूरी और समय से संबंधित साधनों को नियंत्रित करने वाला अध्यक्ष 23 अश्वाध्यक्ष घोड़ों का अध्यक्ष 24 हस्त्याध्यक्ष हाथियों का अध्यक्ष 25 सुवर्णाध्यक्ष सोने का अध्यक्ष 26 अक्षपातलाध्यक्ष महालेखाकार मौर्यकाल में वनों को ‘हस्ति वन’ एवं ‘द्रव्य वन’ में विभाजित किया गया था। हस्ति वनों में ‘हाथी’ पाये जाते थे एवं द्रव्य वनों में लकड़ी, लोहा एवं ताँबा पाये जाते थे। जंगलों पर राज्य का अधिकार था ! विनिर्मित वस्तुओं को पण्याध्यक्ष के नियंत्रण में बाजारों में बेचा जाता था। मौर्यकाल में मुख्य व्यवसाय जूलाहों का था, जो रूई, रेशम, सन, ऊन आदि से विभिन्न कपड़े तैयार करते थे। मौर्य काल में बंगदेश में श्वेत एवं चिकना वस्त्र, पुण्ड्रदेश (आधुनिक प०बंगाल के उत्तरी हिस्से का एक इलाका) में काले व मणि की तरह चिकने वस्त्रों का निर्माण होता था। इस काल में सुवर्णकु ड्य देश के बने हुए सन के कपड़े बहुत उत्तम होते थे तथा बंगाल का मलमल भी अत्यंत प्रसिद्ध था। अर्थशास्त्र में ‘चीन पट्ट’ के उल्लेख से ज्ञात होता है कि रेशम का चीन से आयात होता था। मेगास्थनीज के इंडिका को अनुसार राज्य की ओर से खानों को चलाने के लिए अकराध्यक्ष की नियुक्ति की गई थी। देश में सोना, चांदी, तांबा, लाहा तथा जस्ता भी काफी मात्रा में उपलब्ध थे। मौर्यकाल में जल मार्गीय व्यापार के लिए 8 प्रकार की नौकाओं के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं जिनमें द्रवहण (समुद्री व्यापारी जहाज), संयात (समुद्री व्यापारी जहाज) एवं क्षुद्रका (नदियों में चलने वाली नौकाएँ) प्रमुख थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से तत्कालीन मुद्रा-पद्धति की जानकारी मिलती है. मुद्रा-पद्धति का संचालन करने के लिए एक पृथक अमात्य होता था जिसे लक्षणाध्यक्ष कहते थे। टकसाल का प्रधान अधिकारी सौवर्णिक कहलाता था। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के सिक्कों का उल्लेख है-कोशप्रवेश्य (राजकीय क् रयविक् रय हेतु प्रामाणिक सिक्के ), व्यावहारिक (सामान्य लेन-देन में प्रयुक्त सिक्के )। चाँदी के सिक्कों को पण या रूप्य अथवा रूप कहा जाता था। ताँबे के सिक्कों को तामरूप या भाषक कहा जाता था। ताँबे के भाषक के भाग तौर पर अर्द्धभाषक् ककिणी (1/2 भाषक) एवं अर्द्धककिणी (1/2 ककिणी) आदि भी प्रचलन में थे।

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सुवर्ण-यह एक सोने का सिक्का था, जिसका वजन 5/2 तोला होता था। कोई भी व्यक्ति धातु ले जाकर सौवर्णिक से सिक्के बनवा सकता था। प्रत्येक सिक्के की बनाई 1ककिणी ली जाती थी। सिक्के बनवाने में 185% ब्याज रूपिका एवं परीक्षण के रूप में देना पड़ता था। समुद्र के जल से नमक बनाने का व्यवसाय लवणाध्यक्ष के नेतृत्व में संचालित होता था। समुद्रों से मोती अथवा रत्न निकालने का कार्य भी खन्याध्यक्ष के नेतृतव में होता था। चिकित्सा कार्य करने वालों को भिषज् (साधारण वैद्य), गर्भ-व्याधि संस्था (गर्भ का वैद्य) सूतिका (संतात्नोपत्ति विभाग का चिकित्सा) तथा जंगली विद (विष-चिकित्सक) कहा जाता था। राज्य द्वारा उन्नत शराब व्यवसाय के लिए पृथक विभाग की स्थापना की गई थी जिसका प्रमुख सुराध्यक्ष होता था। शराब बेचने वाले को शौण्डिक कहा जाता था। अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करने वाले विभाग का प्रमुख आयुधागाराध्यक्ष होता था। इस काल में वेश्यावृति का व्यवसाय भी प्रचलन में था एवं यह व्यवसाय अपनाने वाली महिलाएँ रूपजीवा कहलाती थीं। मौर्यकाल में पाटलिपुत्र, तक्षशिला उज्जैन, कौशांबी, वाराणसी एवं तोशाली आदि प्रमुख व्यापारिक कें द्र थे। भारत के समुद्र तटों पर अनेक बंदरगाह थे जहाँ से लंका, सुमात्रा, जावा, बर्मा, मिस्र, सीरिया, यूनान, रोम एवं फारस से विदेश व्यापार होते थे। व्यापार संघों को श्रेणी एवं इसके प्रमुख को श्रेणिक कहा जाता था। श्रेणियाँ प्रायः अपने शिल्पियों के लिए बैंक का कार्य करती थी। श्रेणियों द्वारा दिये गये ऋण पर ब्याज की निम्न दरें थीं साधारण ऋण पर-15%, समुद्री यात्राओं के लिए दिये गये ऋण पर-60%। मेगास्थनीज की इंडिका से ज्ञात होता है कि मौर्यकाल में मार्ग-निर्माण एवं देख-रेख के लिए एक पदधिकारी होता था जिसे एग्रोनोमोई (Agronomoi) कहा जाता था। मौर्य काल में पण्य वस्तुओं (निर्मित वस्तुओं) के मूल्य पर उसका ‘5वाँ’ भाग चुंगी के रूप में लिया जाता था। मौर्यकाल में चुंगी का ‘5वाँ’ भाग व्यापार कर के रूप में लिया जाता था। मौर्यकाल में देशी वस्तुओं पर 4% एवं आयातित वस्तुओं पर 10% बिक् रीकर (Sale Tax) भी लिया जाता था। मौर्यकाल में दो प्रधान स्थल मार्ग थे-पाटलिपुत्र-वाराणसी-उत्तरापथ मार्ग तथा पाटलिपुत्र से वाराणसी, उज्जैन होते हुए पश्चिमी तट के बंदरगाहों तक दूसरा प्रमुख मार्ग जाता था।

मौर्य प्रशासन

चंद्रगुप्त मौर्य एक महान विजेता ही नहीं एक कु शल प्रशासक भी था। उसने अपने समस्त साम्राज्य को एक अति कें द्रीयकृ त (highly centralised) नौकरशाही के सूत्र में बाँधा। मौर्य प्रशासन के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं मेगास्थनीज की इंडिका से महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। मौर्यकाल में राजा प्रधान सेनापति, प्रधान न्यायाधीश तथा प्रधान दण्डाधिकारी होता था। 8/12

राजा अपने मंत्रियों की सहायता से शासन करता था, परंतु वह मंत्रियों की बात मानने को बाध्य नहीं था। इतने बड़े साम्राज्य का संचालन करने के लिए अर्थशास्त्र में एक मंत्रिमंडल के गठन की सलाह दी गई है। मंत्रिमंडल का गठन सचिव या अमात्यों को मिलाकर होता था जिसे दो भागों में विभक्त किया गया था- मंत्रिसभा-इसे ‘मंत्रिन्’ भी कहा जाता था मंत्रिसभा की सदस्य संख्या 3 या 4 होती थी। मंत्रिसभा को आंतरिक मंत्रिमंडल कहा जा सकता है। मंत्रिसभा के सदस्यों को अशोक के अभिलेखों में महामात्र कहा गया है। गयोडोरस एवं अर्थशास्त्र के अनुसार मंत्रिसभा के सदस्य राज्य के सर्वोच्च अधिकारी होते थे तथा सर्वाधिक वेतन (48000 पण) प्राप्त करते थे। मंत्रि-सभा के अलावा एक मंत्रिपरिषद् भी होती थी, इसमें अधिक सदस्य होते थे इसमें 12 से लेकर 20 तक मंत्री सदस्य होते थे। मंत्रिपरिषद् के सदस्यों का कार्य के वल सलाह देना था, उसको मानना न मानना राजा के ऊपर निर्भर था। अर्थशास्त्र के अनुसार मंत्रिपरिषद् के सदस्यों को 12000 पण् वेतन मिलता था। । शासन में सुविधा के लिए कें द्रीय शासन को कई भागों में विभक्त किया गया था, प्रत्येक विभाग तीर्थ कहलाता था !

अर्थशास्त्र में उल्लेखित चौदह तीर्थ प्रधानमंत्री पुरोहित प्रमुख धर्माधिकारी होते थे | चंद्रगुप्त मौर्य के समय में यह दोनों विभाग कौटिल्य के अधीन थे | 1 और बिंदुसार के समय में विष्णुगुप्त कु छ समय तक उसका प्रधानमंत्री था उसके बाद खल्लाटक को पुरोहित प्रधानमंत्री बनाया गया | अशोक का प्रधानमंत्री राधागुप्त था | 2 समाहर्ता राजस्व विभाग का प्रधान अधिकारी | 3 सन्निधाता राजकीय कोषाध्यक्ष | 4 सेनापति युद्ध विभाग का मंत्री | 5 युवराज राजा का उत्तराधिकारी | 6 प्रदेष्टा फौजदारी (कं टक शोधन) न्यायालय के न्यायाधीश | 7 नायक सेना का संचालक अर्थात सेना का नेतृत्व | 8 कर्मांतिक देश के उद्योग धंधों का प्रधान निरीक्षक | 9 व्यवहारिक दीवानी (धर्मस्थीय) न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश | मंत्री 10 मंत्री परिषद का अध्यक्ष | परिषदाध्यक्ष 11 दंडपाल सेना की सामग्रियों को जुटाने वाला प्रधान अधिकारी | 12 अंतपाल सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक | 13 दुर्गापाल देश के भीतरी दुर्गों का प्रबंधक | 14 नागरक नगर का प्रमुख अधिकारी | राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने वाला तथा राज्य की आज्ञाओं को लिपिबद्ध करने वाला प्रधान 15 प्रशास्ता अधिकारी | 16 दौबारिक राजमहलों की देखरेख करने वाला प्रधान अधिकारी | 17 अंतवरशिक सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रधान अधिकारी | 18 आटविक वन विभाग का प्रधान अधिकारी | उपर्युक्त 18 अमात्यों के अलावा युक्त (खोई हुई संपति के प्राप्त होने पर उसकी रक्षा करने वाला), प्रतिवेदिक (सम्राट को प्रतिदिन की सूचना देनेवाला), ब्रजभूमिक (गौशाला का निरीक्षक) एवं एग्रोनोमोई जैसे कें द्रीय पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है। चंद्रगुप्त मौर्य ने कानून-व्यवस्था बनाये रखने हेतु पुलिस का गठन किया तथा इसे साधारण पुलिस एवं गुप्तचर (गूढ़ पुरुषं) में बाँटा। प्रकट पुलिस के सिपाहियों को रक्षिन कहा जाता था। गुप्तचर सेवा को भी दो भागों में बाँटा गया था जहां संस्थान वर्ग के गुप्तचर एक स्थान पर टिककर वहाँ के गतिविधियों की सूचना राजा को देते थे वहीं संचारण वर्ग के गुप्तचर एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करके विभिन्न स्थानों की सूचना राजा को देते थे। महिलाओं को भी गुप्तचर के रूप में नियुक्त किया जाता था। प्लिनी के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में 6 लाख पैदल सैनिक, 30 हजार घुड़सवार, 9 हजार हाथी तथा 8000 रथ थे। उसने एक जल-सेना का गठन भी किया था।

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इंडिका के अनुसार संपूर्ण सेना के प्रबंधन हेतु एक 30 सदस्यीय समिति होती थी। सेना का प्रबंध 6 भागों में विभक्त था तथा प्रत्येक विभाग की समिति में अध्यक्ष सहित 5 सदस्य होते थे-प्रथम समिति (जल सेना का प्रबंध करती थी), द्वितीय समिति (सेना को हर प्रकार की सामग्री तथा रसद भेजने का प्रबंध करती थी), तृतीय समिति (पैदल सेना का प्रबंध करती थी), चतुर्थ समिति (अश्वरोहियों का प्रबंध देखती थी), पाँचवीं समिति (हाथियों की सेना का प्रबंध देखती थी), छठी समिति (रथ सेना का प्रबंध देखती थी)। सेना के साथ एक चिकित्सा-विभाग होता था जो घायल सैनिकों का इलाज करता था। राजा सर्वोच्च न्यायाधीश एवं उसका न्यायालय उच्चत्तम न्यायालय होता था।

 अशोक का धर्म (धम्म) भब्रू में उत्कीर्ण शिलालेख से यह स्पष्ट जानकारी मिलती है कि अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। इसमें बिल्कु ल स्पष्ट रूप से अशोक द्वारा बुद्ध, धम्म एवं संघ में आस्था प्रकट करने का प्रमाण मिलता है अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए एक आचार-संहिता का प्रतिपादन किया, इसे ही अभिलेखों में धम्म कहा गया। धम्म की परिभाषा राहुलोवाद सूक्त से ली गई है। अशोक के 7वें’ स्तंभ लेख में धम्म के सिद्धांतों का उल्लेख है। अशोक के ‘8वें’ शिलालेख के अनुसार प्राचीन विहार-यात्रा का स्थान धम्म-यात्रा ने ले लिया। धम्म-यात्राओं का मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणों, स्थाविरों आदि का दर्शन करना एवं प्रजा से धार्मिक बातचीत करना था। अशोक ने अपने शासन के ’12वें’ वर्ष में राजुका, प्रदेशका एवं युक्त जैसे पदाधिकारियों को धर्म-प्रचार के कार्यों में लगाया। अशोक के ‘8वें’ शिलालेख के अनुसार अपने शासन के 13वें’ वर्ष उसने धम्म-महामात्रों की नियुक्ति धर्म-प्रचार के उद्देश्य से की। अशोक के तृतीय शिलालेख से ज्ञात होता है। कि उसके साम्राज्य में युक्त, राजुका एवं प्रदेश का प्रत्येक 5 वर्ष पर धर्मानुशासन के लिए सर्वत्र भ्रमण पर निकलें। अशोक द्वारा भेजे गए बौद्ध मिशन

धर्म प्रचारक  प्रचार का क्षेत्र  महेंद्र और संघमित्र  श्रीलंका  मज़्झंतिक कश्मीर – गांधार  सोन / उत्तरा  सुवर्ण भूमि  महाधर्म रक्षित महाराष्ट्र महादेव मैसूर महारक्षित  यवनराज रक्षित उत्तरी किनार धर्मरक्षित पश्चिमी भारत अर्थशास्त्र से दो प्रकार के न्यायालयों धर्मास्थिय एवं कं टकशोधन के प्रचलन में होने की जानकारी मिलती है धर्मास्थिय न्यायालय में तीन धर्मास्थ (कानूनवेत्ता) एवं तीन अमात्य होते थे। धर्मास्थिय न्यायालय में दीवानी मामलों (विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि) को निपटाया जाता था। कं टकशोधन न्यायालय में तीन प्रदेष्टा एवं तीन अमात्य होते थे। कं टकशोधन न्यायालय में फौजदारी मामले निपटाये जाते थे। अशोक के काल में राजुका (एक कें द्रीय पदाधिकारी) ‘जनपदीय न्यायालय‘ का न्यायाधीश होता था। मौर्यकालीन प्रांत दो प्रकार के थे-स्वायत्त प्रांत एवं मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत प्रत्यक्ष रूप से आने वाले प्रांत। मौर्यकाल में प्रांतों को चक् र कहा जाता था। प्रान्तों का शासन वाइसरायों के हाथ में था, अशोक के अभिलेखों में इन्हें कु मार अथवा आर्यपुत्र कहा गया है कें द्रीय शासन की ही तरह राज्यों में भी मंत्रिपरिषद होती थी ! रोमिला थापर ने बौद्ध ग्रंथ दिव्यदान के कु छ भाग से ये निष्कर्ष निकाला कि प्रांतीय मंत्रिपरिषद सीधे राजा के संपर्क में रहती थी ! साम्राज्य के अंतर्गत जो स्वायत्त प्रांत थे उनमें शासक के रूप में स्थानीय राजाओं की मान्यता थी, स्थानीय राजाओं पर अंतपालों द्वारा नज़र रखी जाती थी ! अशोक के धम्म महामात्र इन स्वायत्त राज्य के शासकों पर.राज्य-क्षेत्र में धर्म-प्रचार के माध्यम से नियंत्रण रखते थे। प्रांतों को विषय अथवा आधार (जिलों) में बाँटा गया था जो संभवतः विषयपति के अधीन होते थे। जिले का शासक स्थानिक होता था जो कि समाहर्ता के अधीन कार्य करता था। 10/12

स्थानिक के अधीन गोप होते थे जो 10 गाँवों पर शासन करते थे। प्रदेष्ट् रा भी शासन में समाहर्ता की मदद करता था। ग्राम शासन की सबसे छोटी ईकाई थी। ग्राम का शासक ग्रामिक (मुखिया) कहलाता था। प्रत्येक ग्राम में सम्राट का एक ‘भृत्य’ कर तथा लगान वसूलने के लिए होता था। इसे ‘ग्राम भृत्तक’ कहते थे। यह पद अवैतनिक था तथा ग्रामवासी ही उसका चुनाव करते थे। मेगास्थनीज के अनुसार पाटलिपुत्र का म्युनिसिपल शासन एक 30 सदस्यीय परिषद देखती थी। उपरोक्त परिषद 6 समितियों में बंटी हुई थी, जिसमें 5-5 सदस्य होते थे

शिल्प कला समिति

औद्योगिक कलाओं के निरीक्षण हेतु गठित यह समिति कलाकारों, कारीगरों एवं श्रमिकों के परिश्रमिक एवं सुरक्षा की व्यवस्था देखती थी।  वैदेशिक समिति के ऊपर विदेशियों की निगरानी, उनके आवागमन, उनके निवास स्थान एवं उनकी वैदेशिक समिति चिकित्सा तथा सुरक्षा का प्रबंध करना। जनसंख्या जन्म-मरण का लेखा-जोखा, कराधान एवं जनसंख्या में वृद्धि एवं कमी मापने के लिए जन्म-मरण का समिति रजिस्ट्रेशन करवाना इस समिति का प्रमुख कार्य था।  वाणिज्य यह समिति व्यापारियों एवं वणिकों के निरीक्षण एवं नियंत्रण के लिए गठित की गई थी।  व्यवसाय समिति वस्तु निरीक्षक वस्तुओं के उत्पादन तथा उद्योगपतियों द्वारा औद्योगिक उत्पादन में किये जा रहे मिलावट का निरीक्षण समिति करना इस समिति का मुख्य उद्देश्य है। कर समिति यह समिति बिक् री की वस्तुओं पर कर वसूलती थी।

मौर्य कला

महल मेगास्थनीज, एरियन एवं स्ट् रैबो ने पाटलिपुत्र के राजप्रासाद का वर्णन किया है चंद्रगुप्त मौर्य ने मूलत: नगर एवं प्रासाद का निर्माण करवाया। डॉ० स्पूनर ने बुलंदीबाग एवं कु म्हरार (पटना में स्थित) लकड़ी के विशाल भवनों के अवशेषों का पता लगाया। डॉ स्पूनर ने एक ऐसे विशाल सभागार का पता कु म्हरार में लगाया है जो पत्थर के 80 खंभों पर टिका हुआ है।

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ये खंभे पत्थरों को काटकर बनाये गये थे जिनकी गोलाई ऊपर की ओर कम होती गयी थी। ऐसा एक पूरा का पूरा खंभा कु म्हरार में उपलब्ध हुआ है। मौर्यकला में ईरानी कला-शैली का मिश्रण भी संभावित है।

स्तूप स्तूप एक प्रकार की समाधि होती थी बौद्ध साहित्य के अनुसार अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया जिनमें साँची, सारनाथ एवं भारहुत के स्तूप अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। 16 फु ट ऊँ चा, 6 फु ट चौड़ा प्रदक्षिणा-पथ एवं 120 फु ट व्यास के गोलार्द्ध वाला साँची का स्तूप मौर्यकालीन कला का एक उत्कृ ष्ट नमूना है।

गुफाएँ मौर्य काल में भिक्षुओं के चातुर्मास में विश्राम करने के लिए गुफाएँ निर्मित की गई थीं ! अशोक एवं उसके नाती दशरथ द्वारा बनवायी गई बराबर एवं नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं। बराबर पहाड़ियों में सबसे महत्वपूर्ण एवं सबसे बाद की गुफा लोमष मुनि की है। बराबर पहाड़ी गुफाओं का निर्माण अशोक ने अपने शासन के 12वें वर्ष से लेकर 19वें वर्ष के बीच में किया। नागार्जुनी गुफाओं का निर्माण दशरथ ने करवाया।

स्तम्भ अशोक के स्तंभों का भारतीय कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है ! अशोक ने संभवत: 30 या 40 स्तंभों का निर्माण कराया।सभी स्तंभों में लौरिया-नंदनगढ़, रामपुरवा तथा सारनाथ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। सारनाथ का ‘सिंह-मूर्ति’-स्तंभ विशेष महत्वपूर्ण है। क्योंकि इसका शीर्ष वर्तमान में भारत का राजचिह्न है। Quiz – मौर्य साम्राज्य के 83 बेहतरीन प्रश्न । क्या आपको पता हैं ?

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हूण कौन थे ? ⋮ 24/9/2020

हूण लोग मंगोल प्रजाति के खानाबदोश जंगलियों के एक समूह थे। यह युद्धप्रिय एवं बर्बर जाति आरंभ में चीन के पड़ोस में निवास करती थी।  छठी शताब्दी ई० के अंत में हूण एक विशाल साम्राज्य पर शासन करते थे जिसकी राजधानी बल्ख में थी। फारस पर हूणों का आधिपत्य हो जाने से उनके लिये भारत का दरवाजा खुला।  हूणों का भारत पर पहला आक् रमण गुप्त सम्राट कु मार गुप्त के काल में हुआ।  कु मार गुप्त के पुत्र स्कं धगुप्त ने हूणों के आक् रमण को विफल कर दिया।  स्कं धगुप्त के निधन के पश्चात् हूणों ने तोरमान के नतृत्व में आक् रमण किया एवं पश्चिमोत्तर भारत में अपनी सत्ता कायम की।  तोरमान का उल्लेख राजतरंगिणी एवं अन्य भारतीय अभिलेखों में हुआ है, उसने संभवतः कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, मालवा एवं उत्तरप्रदेश के कु छ हिस्से पर शासन किया।  तोरमाण के पुत्र मिहिर कु ल के विषय में ग्वालियर से प्राप्त एक अभिलेख से जानकारी मिलती है।  ह्वेनसांग के अनुसार मिहिर कु ल की राजधानी शाकल (स्यालकोट) थी।  मिहिरकु ल बौद्ध धर्म के प्रति अत्यंत प्रतिक्रियाशील था, उसने खोज-खोजकर बौद्धों की हत्या की एवं उनके स्तूपों एवं विहारों को नष्ट किया।  मिहिरकु ल भारत में एक हुण शासक था। ये तोरामन का पुत्र था। तोरामन भारत में हुण शासन का संस्थापक था। मिहिरकु ल ५१० ई. में गद्दी पर बैठा। हूणों की बर्बरता ने उत्तरी भारत के शासकों में नवीन स्फू र्ति डाल दी थी। मंदसोर (मध्यभारत) के यशोधर्मन्‌के लेख से ज्ञात होता है कि मिहिरकु ल ने इस भारतीय सम्राट, का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। मिहिरकु ल ने उसका पीछा किया पर वह स्वयं पकड़ा गया। उसका वध न कर, उसे मुक्त कर दिया गया। मिहिरकु ल की अनुपस्थिति में उसके छोटे भाई ने राज्य पर अधिकार कर लिया अत: कश्मीर में मिहिरकु ल ने शरण ली। यहाँ के शासक का वध कर वह सिंहासन पर बैठ गया। मथुरा में बौद्व, जैन और हिन्दू धर्मो के मंदिर, स्तूप, संघाराम और चैत्य थे। इन धार्मिक संस्थानों में मूर्तियों और कला कृ तियाँ और हस्तलिखित ग्रंथ थे। इन बहुमूल्य सांस्कृ तिक भंडार को बर्बर हूणों ने नष्ट किया। 530 ई० के कु छ पहले मालवा के शासक यशोधर्मन ने मिहिर कु ल को पराजित कर दिया, इसके साथ ही भारत में हूणों का उपद्रव समाप्त हो गया। (मालवा के राजा यशोधर्मन और मगध के राजा बालादित्य ने हूणों के विरुद्ध एक संघ बनाया था और भारत के शेष राजाओं के साथ मिलकर मिहिरकु ल को परास्त किया था।) मालवा के शासक ‘यशोधर्मन’ के विषय में मंदसौर से प्राप्त दो स्तंभ-अभिलेखों से जानकारी मिलती है। हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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पुष्यभूति वंश | हर्षवर्धन ⋮ 25/9/2020

पुष्यभूति वंश गुप्त वंश के पतन के पश्चात् पुष्यभूति ने थानेश्वर में एक नवीन राजवंश की स्थापना की जिसे ‘पुष्यभूति वंश’ कहा गया।  पुष्यभूति शिव का उपासक था।  हर्षवर्द्धन (इस राजवंश का सबसे प्रतापी शासक) के लेखों में उसके के वल चार पूर्वजों नरवर्द्धन, राज्यवर्द्धन, आदित्यवर्द्धन एवं प्रभाकरवर्द्धन का उल्लेख मिलता है। थानेश्वर राज्य के 3 आरंभिक शासक मामूली सरदार थे।  चौथे शासक प्रभाकरवर्द्धन को इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक माना जाता है। प्रथम तीन शासकों ने मात्र महाराज की उपाधि धारण की जबकि ‘प्रभाकरवर्द्धन’ ने परमभट्टारक एवं महाराजाधिराज आदि उपाधियाँ धारण की।  प्रभाकरवर्द्धन ने अपनी पुत्री राजश्री का परिणय ग्रहवर्मन से किया जो मौखरी वंश का था।  देवगुप्त (मालवा नरेश) एवं शशांक (गौड़ का शासक) ने मिलकर ग्रहवर्मन की हत्या कर दी।  प्रभाकरवर्द्धन के उत्तराधिकारी राज्यवर्द्धन की भी शशांक ने हत्या कर दी। 

हर्षवर्धन 606 ई० में 16 वर्ष की आयु में हर्षवर्द्धन राजगद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठने के साथ ही हर्षवर्धन के सामने दो बड़ी चुनौतियां थीं – अपनी बहन राज्यश्री को ढूँढना तथा अपने भाई तथा बहनोई की हत्या का बदला लेना सबसे पहले उसने अपनी बहन को अपने एक बौद्ध भिक्षु मित्र दिवाकर मित्र जिसका नाम था उसकी मदद से ढूंढ निकाला वह उस वक्त सती होने जा रही थी ! इसके पश्चात उसने शशांक से बदला लेने निकला, इसकी खबर लगते ही शशांक भाग निकला परंतु हर्ष ने उसे बंगाल में हराया तथा बंगाल पर आधिपत्य कर लिया हर्ष के विजय अभियान को रोका बादामी के चालुक्यों में से एक पुलके शियन द्वितीय ने, इसने हर्ष को नर्मदा नदी के किनारे पर हराया आरंभ में हर्षवर्द्धन की राजधानी थानेश्वर थी, बाद में उसने इसे कन्नौज स्थानांतरित कर दिया। हर्षचरित् की रचना हर्ष के दरबारी कवि वाणभट्ट ने की। हर्षवर्द्धन स्वयं एक बड़ा साहित्यकार था तथा उसने रत्नावली, नागानंद एवं प्रियदर्शिका जैसी प्रसिद्ध नाट्य-ग्रंथों की रचना की। वह शैव धर्म का उपासक था।  हर्षवर्द्धन के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर आया। ह्वेनसांग को यात्री सम्राट एवं नीति का पंडित कहा गया है।  हर्षवर्द्धन को एक अन्य नाम शिलादित्य से भी जाना जाता है। हर्षवर्द्धन उत्तरी भारत का अंतिम महान हिंदू सम्राट था, उसने परमभट्टारक की उपाधि धारण की।  ऐहियोल प्रशस्ति के अनुसार 630 ई० में हर्ष को ताप्ती नदी के किनारे बदामी के चालुक्य वंशीय शासक पुलके शिन-II ने पराजित किया। 

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हर्ष काफी धार्मिक प्रवृत्ति का था एवं प्रतिदिन 500 ब्राह्मणों एवं 1000 बौद्ध भिक्षुओं को भोजन कराता था।  हर्ष द्वारा 643 ई० में कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन किया गया।  प्रयाग में आयोजित सभा को मोक्षपरिषद् कहा गया।  हर्षवर्द्धन काल में अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नकद वेतन के बदले भू-खण्ड देने की प्रथा जोरों पर थी इस कारण इस युग में सामंतवाद अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया।  हर्षवर्द्धन काल में सामंतवाद के अत्यधिक प्रचलन के कारण गुप्तकाल के मुकाबले प्रशासन अधिक विकें द्रित हो गया।  हर्ष-काल में राजस्व के स्रोत के संदर्भ में तीन प्रकार के करों भाग, हिरण्य एवं बलि का  भी उल्लेख मिलता है। । ‘भाग’ एक भूमिकर था जो कु ल उपज का 1/6 हिस्सा वसूला जाता था।  ‘हिरण्य’ नकद के रूप में वसूला जाने वाला कर था। ‘बाली’ एक प्रकार का उपहार कर था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में करीब 500 हाथी, 2000 घुड़सवार एवं 5 हजार पैदल सैनिक थे। हर्षवर्द्धन ने 641 ई० में अपना एक दूत चीनी सम्राट के दरबार में भेजा तथा चीनी सम्राट ने भी अपना एक दूतमंडल हर्ष के दरबार में भेजा। हर्षवर्द्धन की मृत्यु 647 ई० में हुई।

Audio सुनें हर्ष प्रशासन के प्रमुख पदाधिकारी कु मार अमात्य उच्च प्रशासकीय पदाधिकारी  दीर्घध्वज राजकीय संदेशवाहक  सर्वगत गुप्तचर विभाग का सदस्य  बलाधिकृ त सेनापति  महासंधिविग्रहधिकृ त युद्ध/संधि से संबंधित एक उच्चाधिकारी  मीमांसक न्यायाधीश  महाप्रतिहार राज-प्रासाद का रक्षक  चाट/भट वैतनिक/अवैतनिक सैनिक उपरिक/महाराज प्रांतीय गवर्नर  अक्षपटलिक लिपिक पूर्णिक लिपिका हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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दक्षिण भारत का इतिहास ⋮ 27/9/2020

उपलब्ध संसाधन संके त करते हैं कि दक्षिण भारत, मुख्यत: तमिलनाडु एवं के रल में प्रथम सहस्त्राब्दी में महापाषाणयुगीन लोग रहते थे।  दक्षिण भारत की महापाषाणयुगीन संस्कृ ति मुख्यतः अपनी शवाधान प्रथा के लिए जानी जाती है।  इन शवाधानों का बड़े पत्थरों से कोई संबंध न होते हुए भी इन्हें महापाषाण (Megalith) कहा जाता है।  दक्षिण भारत के आरंभिक इतिहास में तीन राजवंशों चोल, चेर एवं पांड्य का उल्लेख मिलता है। प्रारंभिक-मध्ययुगीन काल में यह क्षेत्र चोलमंडलम् कहलाया। आरंभ में चोल राज्य की राजधानी उरैयुर (तिरुचिरापल्ली) में स्थित थी। बाद में चोल राज्य की राजधानी को पुहार में स्थानांतरित कर दिया गया।  पुहार कालांतर में कावेरीपट्टम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।  चोल वंश में प्राचीन काल में सर्वाधिक प्रतापी राजा करिक्काल हुआ। उसके पास एक शक्तिशाली नौसेना थी।  करिक्काल के नाम पर इतिहास में दो महान उपलब्धियाँ दर्ज हैं उसने चेर एवं पांड्य राजाओं की सम्मिलित सेना को परास्त किया और उसने पड़ोसी देश श्रीलंका पर आक् रमण किया एवं उन्हें परास्त किया।  करिक्काल के निधन के बाद चोलवंश पतनोन्मुख हो गया एवं 9वीं शताब्दी ई० तक महज एक छोटे राजवंश के रूप में अस्तित्व में रहा।   पांड्य राज्य मुख्य रूप से तमिलनाडु के तिरुनेवेली, रामनद एवं मदुरै के आधुनिक जिलों में विस्तृत था।  पांड्य राज्य की राजधानी मदुरै में थी। पांड्य राजवंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक दुनजेरियन था।  उसने चोल एवं चेर की संयुक्त सेना को मदुरै में हराया।  अनुमानित है कि नेदुनजेरियन का शासन 210 ई० के इर्द-गिर्द था।  नेदुनजेरियन के शासनकाल में मदुरै एवं कोरकै व्यापार एवं वाणिज्य के बड़े कें द्र थे। चेर वंश का राज्य पांड्यों के राज्य के पश्चिम एवं उत्तर में स्थित था।  चेरों को के रलपुत्र भी कहा गया है।  चेर परंपरा के अनुसार उनका सबसे महान शासक सेनगुटुवन था।  उसने चोल एवं पांड्य शासकों को अपने अधीन किया था। 

पल्लव वंश (Pallav Dynesty) पल्लवों का इतिहास आध्र-सातवाहन के पतनावशेषों पर आरंभ होता है। कृ ष्णा नदी के दक्षिण के प्रदेश पर पल्लवों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली। पल्लव राजाओं के प्राकृ त एवं संस्कृ त में अनेक दानपत्र उपलब्ध हुए हैं।  पल्लव शक्ति का वास्तविक संस्थापक सिंह विष्णु (575-600 ई० लगभग) था।  सिंह विष्णु वैष्णव धर्म का अनुयायी था। | पल्लव वंश के प्रमुख शासक सिंह विष्णु की राजधानी कांचीपूरम् थी।  किरातार्जुनीयम् के रचनाकार भारवि सिंह विष्णु के दरबारी थे। पल्लव वंश का अंतिम शासक अपराजित (879-897 ई०) था। नरसिंह वर्मन-I ने महाबलिपुरम् के एकाश्मक स्थ का निर्माण कराया। 1/8

नरसिंह वर्मन-I ने वातापिकोंडा की उपाधि धारण की। मतविलास प्रहसन की रचना पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन-I ने की। 

महेन्द्र वर्मन-I 606 ई० से 630 ई० तक नरसिंह वर्मन-I 630 ई० से 668 ई० तक महेन्द्र वर्मन-II 668 ई० से 670 ई० तक परमेश्वर वर्मन-I 670 ई० से 695 ई० तक नरसिंह वर्मन-II 695 ई० से 722 ई० तक नंदि वर्मन-II 731 ई० से 795 ई० तक दंपत वर्मन-I 795 ई० से 844 ई० तक काँची के कै लाशनाथ मंदिर का निर्माण नरसिंह वर्मन-II ने करवाया।  नरसिंह वर्मन-I के दरबार में दशकु मारचरितम् नामक प्रसिद्ध रचना का रचनाकार दंडी रहता था।  नंदिवर्मन ने काँची के मुक्तेश्वर मंदिर एवं बैकुं ठ पेरूमाल का निर्माण कराया।  प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरूमङग अलवर नंदिवर्मन के समकालीन थे।  पल्लव कला का भारतीय इतिहास में विशेष योगदान है  पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन-I द्वारा अपनाई गई गुहा शैली के दर्शन एकाम्बरनाथ एवं सित्तनवासल मंदिरों में होते हैं।  माम्मलपुरम के 5 मंदिर नरसिंह वर्मन-1 द्वारा अपनाई गई माम्मल शैली के हैं। कै लाशनाथ मंदिर (काँची) का निर्माण राजसिंह शैली में हुई। 

राष्ट्रकू ट वंश (RashtrakutDynasty) राष्ट् रकू ट वंश की स्थापना दन्तिदुर्गा ने 752 ई० में की।  राष्ट् रकू ट वंश की राजधानी शोलापुर के निकट म्यान्खेड (मालाखेड) में थी। ऐलोरा के प्रसिद्ध गुहा मंदिर (कै लाश मंदिर) का निर्माण इस वंश के कृ ष्णा-I ने करवाया। कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध ग्रंथ कविराजमार्ग का रचनाकार राष्ट् रकू ट सम्राट अमोघवर्ष ‘जैन धर्म’ का अनुयायी था।  आदिपुराण के रचयिता जिनसेन, गणितसार संग्रह के रचयिता महावीराचार्य तथा अमोघवृत्ति के लेखक सक्तायन अमोघवर्ष के दरबारी थे ! अमोघवर्ष ने अपने जीवन का अंत तुंगभद्रा नदी में जल समाधि लेकर किया। ऐलोरा की गुफाएँ  ऐलोरा में 34 शैलचित्र गफाएँ हैं जिनका निर्माण राष्ट् रकू ट शासकों ने किया इसमें 1 से 12 तक बौद्धों की गुफा है।  गुफा संख्या 13 से 29 हिंदुओं से संबंधित है।  गुफा संख्या 30 से 34 जैनियों से संबंधित है।  अरब निवासी अल मसूदी भारत की यात्रा पर राष्ट् रकू ट सम्राट इंद्र-III के शासन काल में आया। अल मसूदी ने तत्कालीन राष्ट् रकू ट सम्राट को भारत के शासकों में सर्वश्रेष्ठ बताया।  कल्याणी के चालुक्य नरेश तैलप-II ने कर्क को 973 ई० में हराकर इस वंश के शासन का अंत कर दिया।

चालुक्य वंश (CHALUKYADYNASTY)  दक्षिण भारत में छठी’ से ‘8वीं शताब्दी तथा 10वीं से 12वीं शताब्दी तक चालुक्य वंश सबसे शक्तिशाली वंश था।  चालुक्यों की उत्पत्ति के संबंध कोई ठोस जानकारी नहीं है। उन्हें कन्नड़ क्षत्रिय माना जाता है। चालुक्यों की तीन शाखाएँ थीं-बादामी के चालुक्य, कल्याणी के चालुक्य एवं वेंगी के चालुक्य।

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बादामी के चालुक्य (Chalukyas of Badami) बादामी के चालुक्य वातापी के चालुक्य भी कहलाते हैं।  इस वंश का संस्थापक जयसिंह था।  बादामी के चालुक्यों को ‘पूर्वकालीन’ पश्चिमी चालुक्य (Early Western Chalukyas) भी कहते हैं।  बादामी के चालुक्यों ने लगभग 200 वर्षों (6ठी’ शताब्दी के मध्य से 8वीं शताब्दी के मध्य तक) तक दक्षिणापथ के एक विस्तृत साम्राज्य पर राज किया।  पुलके शिन-I इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण राजा हुआ, उसने 535 से 566 ई० के बीच कई यज्ञ किये।  पुलके शिन-I के काल में बादामी चालुक्यों की राजधानी बनी।  इस वंश के सबसे प्रतापी राजा पुलके शिन-IIने सम्राट हर्षवर्द्धन को हराकर परमेश्वर की उपाधि धारण की।  जिनेन्द्र के मेगुती मंदिर का निर्माण पुलके शन-II ने करवाया।  अजंता की एक गुफा में फारसी-दूतमंडल का स्वागत करते हुए जिस शासक का चित्र उत्कीर्ण है वह पुलके शिन-II है। ।  इस वंश के शासक विक् रमादित्य-II की पत्नी लोकमहादेवी ने पट्टदकल में विरुपाक्षमहादे मंदिर का निर्माण करवाया।

कल्याणी के चालुक्य (Chalukyas of Kalyani) इस वंश की स्थापना तैलप-II द्वारा की गई। उसने म्यानखेड को अपनी राजधानी बनाया।  राष्ट् रकू टों की शक्ति का उन्मूलन कर, चालुक्यों की शक्ति को पुनर्जीवित करने का श्रेय कल्याणी के चालुक्यों को है।  कल्याणी इनकी राजधानी थी।  कल्याणी के चालुक्यों का संबंध बादामी के चालुक्यों से नहीं था।  चालुक्यों की इस शाखा को ‘उत्तर-कालीन पश्चिमी चालुक्य (Later Western Chalukyas)’ भी कहा जाता है।  विक् रमादित्य-IV इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था।  विक् रमादित्य-VI के दरबार को विल्हण एवं विज्ञानेश्वर जैसे साहित्यकार सुशोभित करते थे।  हिंदू विधि ग्रंथ मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य स्मृति पर टीका) की रचना विज्ञानेश्वर द्वारा हुई।  विक् रमादित्य-VI के जीवन पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ विक् रमांकदेव चरित् की रचना ‘विल्हण’ ने की।  इस वंश का अंतिम शासक सोमेश्वर-IV था। उसे देवगिरि के ‘यादव राजा’ होयसल नरेश वीर वल्लाल ने 1190 ई० में हरा दिया तथा यह वंश समाप्त हो गया। 

वेंगी के चालुक्य (Chalukyas of Vengi) वेंगी के चालुक्यों को पूर्वी चालुक्य (Eastern Chalukyas)’ भी कहा जाता है।  वेंगी के चालुक्य वंश की स्थापना विष्णुवर्द्धन ने 615 ई० में की।  इस वंश के शासकों की राजधानियाँ क् रमशः पिष्टपुर, वेंगी एवं राजमुंदरी थी।  विजयादित्य-III इस वंश का सबसे प्रतापी राजा हुआ। पंडरंग उसका सेनापति था। 

यादव वंश (Yadav Dynasty) यादव लोग स्वयं को कृ ष्ण का वंशज (यदुवंशी) कहते थे। वे चालुक्यों के सामंत थे।  भिल्लभ-IV (यादव वंश) ने सोमेश्वर चालुक्य को परास्त कर कृ ष्णा नदी के उत्तर में संपूर्ण चालुक्य राज्य पर अधिकार कर लिया तथा देवगिरि (दौलताबाद) को अपनी राजधानी बनाया।  यादव वंश में सर्वाधिक प्रतापी राजा सिंहण (1210-47 ई०) हुआ।  सिंहण की सभा में संगीत रत्नाकर के लेखक सारंधर एवं प्रसिद्ध ज्योतिष चंगदेव रहता था।  टिक्कम द्वारा मलिक काफू र (अलाउद्दीन खिलजी का सैनिक जनरल) के समक्ष आत्मसमर्पण करने के साथ इस राजवंश का पतन हो गया। 

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काकतीय वंश (Kaktiya Dynasty) काकतीय वंश की स्थापना बीटा-I ने नलगोंडा (हैदराबाद) में एक छोटे से राज्य के रूप में की।  इस राज्य की राजधानी अमकोण्ड थी।  काकतीय वंश में सर्वाधिक शक्तिशाली शासक गणपति था।  गणपति की पुत्री रुद्रमा ने रुद्रदेव महाराज के नाम से 35 वर्षों तक शासन किया।  गणपति द्वारा इस राज्य की राजधानी वारंगल स्थानांतरित कर दी गई।  प्रताप रुद्र (1295-1323 ई०) इस वंश का अंतिम शासक था।

कोंकण के शिलाहार (Silahars of Konkan) शिलाहारों का राजकु ल संभवतः क्षत्रिय था एवं उनकी तीन शाखाएँ थी।  इनकी प्राचीनतम शाखा ने 8वीं शताब्दी ई० से 11वीं शताब्दी के आरंभ तक शासन किया।  उपरोक्त शाखा की राजधानी गोआ थी।  शिलाहारों की दूसरी शाखा ने लगभग साढ़े चार सदियों तक उत्तरी-कोंकण पर राज किया।  दूसरी शाखा का शासन क्षेत्र थाना एवं रत्नागिरि के जिले तथा सूरत के कु छ हिस्सों में फै ला हुआ था।  इस राजवंश की तीसरी शाखा 11वीं शताब्दी में कोल्हापुर में प्रतिष्ठित हुई।  सतारा एवं बेलगाँव जिलों पर भी इनका शासन था।  इस वंश का प्रतापी राजा विजयादित्य ने बिज्जल को अंतिम चालुक्य नरेश नृपति के विरुद्ध सहायता प्रदान की।  इस कु ल का सबसे प्रतापी राजा भोज था। उसने संभवतः 1175 ई० से 1210 ई० तक शासन किया।  भोज के बाद यादव शासक सिंहण ने शिलाहारों का राज्य यादव राज्य में मिला लिया।

होयसल वंश (Hoyshal Dynasty) होयसल वंश का ’12वीं शताब्दी में मैसूर में प्रादुर्भाव हुआ।  होयसल वंशीय स्वयं को चंद्रवंशी क्षत्रिय कहते थे।  इस वंश का संस्थापक विष्णु वर्मन था।  इस वंश के शासक विष्णुवर्मन-II ने द्वारसमुद्र नामक नगर की स्थापना की तथा इसे अपनी राजधानी बनाया।  विष्णु वर्मन ने वेलूर स्थित चेन्ना के शव मंदिर का निर्माण 1117 ई० में किया।  इस वंश का अंतिम शासक बीर बल्लाल-III था जिसे उलाउद्दीन खिलजी के एक सैनिक जनरल मलिक काफू र ने परास्त कर दिया।  इस काल का सर्वश्रेष्ठ मंदिर द्वार-समुद्र का होयसलेश्वर मंदिर है।  उपरोक्त मंदिर को भास्कर-कला का अजायबघर भी कहा जाता है। 

कदंब वंश (Kadamb Dynasty) कदंब वंश की स्थापना आंध्र-सातवाहन के पतनावशेष पर हुई। ये पल्लवों के सामंत थे।  इस वंश का मूल निवास स्थान पश्चिमी घाट में कनारा में था।  तेलगुंडा के एक लेख से ज्ञात होता है कि मयूर शर्मन नामक एक ब्राह्मण ने स्वतंत्र कदंब वशीय राज्य की स्थापना की।  इस राज्य की राजधानी वनवासी थी।  इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक काकु तस्थ वर्मन था।  13वीं शताब्दी के समाप्ति के समय में अलाउद्दीन खिलजी ने इस राज्य को मुस्लिम राज्य में मिला लिया।

गंग वंश (Ganga Dynasty) गंगों का राज्य मैसूर रियासत के अधिकतर भाग पर फै ला हुआ था। 

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गंगों के कारण उपरोक्त इलाके को गंगावाड़ी कहा जाता था।  चौथी शताब्दी ई० में इसकी नींव,दिदिग एवं माधव-I ने डाली।  माधव-I ने दत्तक सूत्र पर एक टीका लिखी।  पहले इनकी राजधानी कु लुवल में थी, परंतु ‘5वीं शताब्दी में इस वंश के शासक हरिवर्मन ने इसे वहाँ से स्थानांतरित कर मैसूर जिले में तलकाड में स्थापित किया।  राष्ट् रकू टों ने कालांतर में इस राज्य पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर दी।

संगम युग संगम शब्द का अर्थ है संघ, परिषद, गोष्ठी तथा इससे तात्पर्य तमिल कवियों के सम्मेलन से है ! इन परिषदों का संघठन पाण्ड्य राजाओं के संरक्षण में किया गया था ! भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर जो कृ ष्णा नदी के दक्षिण में है, तीन राज्यों में बंटा हुआ था – चोल, चेर और पाण्ड्य ! अशोक के द्वितीय शिलालेख में चोल, पाण्ड्य, के रलपुटरा एवं सतीयपुत्र का जिक् र मिलता है, जो कि साम्राज्य की सीमा पर बसते थे !

संगम अध्यक्ष संरक्षक एवं संख्या स्थान सदस्यों की संख्या प्रथम अगस्त्य ऋषि पाण्ड्य (89) मदुरै 549 द्वितीय तोलकाप्पियर पाण्ड्य (59) कपटपुरम 49 तृतीय नक्कीरर पाण्ड्य (49) उत्तरी मदुरै 49 आठवीं सदी ई. में तीन संगमों का वर्णन मिलता है। पाण्ड्य राजाओं द्वारा इन संगमों को शाही संरक्षण प्रदान किया गया। तमिल किं वदन्तियों के अनुसार, प्राचीन दक्षिण भारत में तीन संगमों (तमिल कवियों का समागम) का आयोजन किया गया था, जिसे ‘मुच्चंगम’ कहा जाता था। तीन संगम ये थे- प्रमुख संगम, मध्य संगम और अंतिम संगम । इतिहासकार तीसरे संगम काल को ही ‘संगम काल’ कहते हैं और पहले दो संगमों को ‘पौराणिक’ मानते हैं। माना जाता है कि प्रथम संगम मदुरै में आयोजित किया गया था। इस संगम में देवता और महान संत सम्मिलित हुए थे। किन्तु इस संगम का कोई साहित्यिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। द्वितीय संगम कपाटपुरम् में आयोजित किया गया था, और इस संगम का ‘तोलकाप्पियम्’ नामक एकमात्र ग्रंथ उपलब्ध है जो तमिल व्याकरण ग्रन्थ है। तृतीय संगम भी मदुरै में हुआ था। इस संगम के अधिकांश ग्रंथ नष्ट हो गए थे। इनमें से कु छ सामग्री समूह ग्रंथों या महाकाव्यों के रूप में उपलब्ध है।

चोल वंश (CholaDynasty) चोलों का क् रमबद्ध इतिहास नौंवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। इसी काल में विजयालय ने पल्लवों के ध्वंसावशेष पर चोल राज्य की स्थापना की।  तब से 13वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में इस वंश का प्रभुत्व रहा। ।  चोल साम्राज्य की राजधानी तंजावुर (तंजौर) थी। आदित्य-I ने चोलों का स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।  चोलवंश के प्रमुख शासक

विजयालय आदित्य 1 परान्तक I राजाराज I जे

850 से 880 ई० 880 से 907 ई० 907 से 955 ई० 985 से 1014 ई० से

ई 5/8

राजेन्द्र 1 1012 से 1042 ई० राजाधिराज I 1042 से 1052 ई० कु लोतुंग 1 1070 से 1118 ई० विक् रम चोल I 1120 से 1135 ई० कु लोतुंग II 1135 से 1150 ई० राजाराज II 1150 से 1173 ई० चोल नरेश परान्तक-I को तक्कोलम के युद्ध में राष्ट् रकू ट नरेश कृ ष्णा -III ने पराजित किया। चोल राजा राजाराज-ने श्रीलंका के कु छ प्रदेशों को, जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा उसका, नाम मुम्ड़िचोलमंड्लम रखा तथा पोलनरुवा को, इसकी राजधानी बनाया। राजाराज- शैव धर्म का अनुयायी था तथा उसने तंजौर में राजराजेश्वर का शिव मंदिर बनवाया। इसे, बृहदेश्वर मंदिर भी कहते हैं।  चोल साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार राजेन्द्र चोल-I के काल में हआ।  राजेन्द्र-ने बंगाल के पालवंशीय शासक महिपाल को पराजित करने के बाद गंगैकोंडाचोल की उपाधि धारण की।  राजेन्द्र चोल ने नवीन राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम् के निकट चोलगंगम नामक विशाल तालाब का निर्माण कराया।  चोल वंश का अंतिम राजा राजेन्द्र-III था।  इस वंश के शासक विक् रम चोल ने अभाव एवं अकालग्रस्त जनता से चिदम्बरम मंदिर के विस्तार हेतु कर वसूले।  इस वंश के कु लोतुंग-II द्वारा चिदंबरम् मंदिर में स्थित गोविन्दराज (विष्णु) की मूर्ति समुद्र में फें कवा दी गई।  बाद में वैष्णव आचार्य रामानुज ने उपर्युक्त मूर्ति का पुनरुद्धार कर उसे तिरुपति मंदिर में प्रतिष्ठापित करवाया।  अधिकतर चोल शासक शैव धर्म के उपासक थे परंतु वैष्णव धर्म बौद्ध धर्म तथा जैन धर्मों का भी सम्मानजनक स्थान था।  प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य जीवक चिंतामणि की रचना चोल काल में ही 10वीं शताब्दी में हुई। इसके प्रणेता तिरुत्क्क देवर नामक जैन पंडित थे।  एक अन्य जैन लेखक तोलोमोक्ति ने शूलमणि नामक ग्रंथ की रचना की।  चोल शासक कु लोतुंग-III के शासन काल में प्रसिद्ध कवि कं बन हुए, जिन्होंने प्रसिद्ध तमिल रामायण रामावतारम् की रचना की। 11वीं शताब्दी में विख्यात बौद्ध विद्वान बुद्धमित्र ने रसोलियम नामक व्याकरण ग्रंथ की रचना की।  काव्य के क्षेत्र में पुगलेन्दि का नाम नहीं भुलाया जा सकता, उन्होंने नलवेम्ब नामक महान काव्य की रचना की।

चोल प्रशासन (CHOLA ADMINISTRATION]  राजा को परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् थी परंतु, राजा मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य नहीं था। चोल काल में साम्राज्य को 6 प्रांतों में बाँटा गया था।  चोलकालीन प्रांतों को मंडलम् कहा जाता था जिसका प्रशासक वायसराय होता था। मंडलम को कई कोट्टम (कमिश्नरियाँ) में तथा कोट्टमों को कई बलनाडु (जिलों) में बाँटा गया था। चोल कालीन ग्राम समूह नाडु कहलाते थे, एवं यही चोल प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी।  ‘नाडु’ की स्थानीय सभा को नाटू र एवं नगर की स्थानीय सभा को नगरतार कहा जाता था। चोल साम्राज्य में भूमि-कर कु ल उपज का ⅓ भाग हुआ करता था। चोलों के पास एक शक्तिशाली जल सेना थी। 

स्थानीय स्वशासन स्थानीय स्वशासन चोल शासन प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषता थी। स्थानीय स्वशासन की इकाईयों के सदस्य वयस्क होते थे 

उर सभा या ग्रामसभा बरियम

सर्वसाधारण लोगों की सभा सार्वजनिक कल्याण के लिए तालाबों एवं बागीचों के निर्माण हेतु गाँव की भूमि का अधिग्रहण करना ‘उर’ का प्रमुख कार्य था। ब्राह्मणों की संस्था थी  सभा की 30 सदस्यीय कार्य संचालन समिति के

यों

र्षि 6/8

सम्बत्सर बरियम उद्यान समिति तड़ाग समिति नगरम्

बरियम के 12 ज्ञानी व्यक्तियों की वार्षिक समिति बरियम के 12 सदस्यों की एक समिति वरियम के 6 सदस्यों की एक समिति व्यापारियों की सभा।

Audio Notes संगम काल गुप्तोत्तर काल

चेर राज्य के रल पुत्र के नाम से भी चर्चित यह राज्य आधुनिक कोंकण, मालाबार का तटीय क्षेत्र उत्तरी त्रावणकोर एवं  कोच्चि तक  विस्तृत था शेर राजवंश का प्रतीक धनुष था उदयन जेरल  इस वंश का प्रथम शासक था कहा जाता है कि उसने महाभारत के युद्ध में भाग लेने वाले वीरों को भोजन करवाया था उदयन जेरल ने एक बड़ी पाकशाला बनवाई थी  सेनगुट्टुवन को लालची भी कहा जाता था जिसने उत्तर दिशा में चढ़ाई की और गंगा को पार किया इसका यशोगान परणर कवि ने किया है यह कौमार्य की देवी उपासना संबन्धित पत्तिनी संप्रदाय का संस्थापक था ! अदिग ईमान नामक चेर शासक को दक्षिण में गन्ने की खेती प्रारम्भ करने का श्रेय दिया जाता है ! नेडून जेरल आदान ने मरन्दे को अपनी राजधानी बनाया, उसने इमयवरम्बन की उपाधि धारण की, जिसका अर्थ होता है हिमालय तक सीमा वाला

पाण्ड्य राज्य पाण्ड्य राज्य के दीपों की सुदूर दक्षिण और दक्षिण पूर्वी भाग में था !  मदुरै इनकी राजधानी थी !  इनका प्रतीक चिन्ह कार्प (एक प्रकार की मछली) था ! मैगास्थनीज ने पाण्ड्य राज्य का उल्लेख माबर नाम से किया है, यह राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था ! यहाँ स्त्रियॉं का शासन था ! पाण्ड्य शासक नेडियों ने पहरुली नामक नदी को अस्तित्व प्रदान किया तथा समुद्र पूजा भी शुरू कराई, पाण्ड्य शासकों में सबसे विध्यात नेडुंजेलियान था, उसकी प्रसिद्धि तलाइयालंगानाम के युद्ध में विजय के परिणामस्वरूप हुई, पट्टुपटु में नेडुजेलियान के जीवन का विवरण मिलता है नेदुंजेलियन ने रोमन सम्राट ऑगस्टस के दरबार में अपना दूत भेजा था ! संगम कालीन कवियों नक्कीरर, कल्लड़नार एवं मागुड़ीमारोदन को संरक्षण प्रदान किया ! हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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सीमावर्ती राजवंशों का इतिहास ⋮ 29/9/2020

पाल वंश (Pal Dynasty) खलीमपुर ताम्र-पत्र अभिलेख से ज्ञात होता है कि 750 ई० में बंगाल की जनता ने अराजकता से त्रस्त होकर स्वयं गोपाल को अपना राजा चुना।  गोपाल (750-80 ई०) पाल वंश का प्रथम शासक था।  इस वंश की राजधानी मुंगेर थी।  गोपाल बौद्ध धर्म को मानता था, उसने ओदंतपुरी विश्वविद्यालय की स्थापना की। धर्मपाल, देवपाल, महिपाल एवं नयपाल आदि इस वंश के अन्य प्रमुख शासक थे।  पाल वंश में सबसे महान शासक धर्मपाल था, उसने विक् रमशिला विश्वविद्यालय स्थापित किया।  वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। ओदन्तपुरी के प्रसिद्ध बौद्धमठ का निर्माण देवपाल ने कराया। देवपाल ने जावा के शैलेन्द्र वंशीय शासक बालपुत्र देव को नालंदा में एक बौद्ध-विहार बनाने के लिए पाँच गाँव दान में दिये।  बंगाल में पाल शासकों ने लगभग 400 वर्षों तक राज किया।  संध्याकर नंदी इस काल के प्रमुख विद्वान थे, उन्होंने प्रसिद्ध काव्यग्रंथ रामचरित् की रचना की। 

सेन वंश (Sen Dynasty) सेन वंश का संस्थापक सामंतसेन था।  सेनवंशीय राज्य का उदय पाल वंश के पतनावशेषों पर हुआ।  सेनवंशीय राज्य की राजधानी नादिया (लखनौती) थी।  इस वंश में विजयसेन, बल्लाल सेन एवं लक्ष्मण सेन आदि प्रमुख शासक हुए।  इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक विजयसेन था, जो शैव धर्म का अनुयायी था।  दानसागर एवं अदभुसागर की रचना सेन शासक बल्लालसेन ने की थी।  लक्ष्मणसेन की राज्यसभा जयदेव (गीत गोविंद के रचयिता), द्योयी (पवन दूत के लेखक), हलायुद्ध (ब्राह्मण सर्वस्व के लेखक) आदि विभूतियों से सुशोभित होती थी।  विजयसेन ने देवपाड़ा में प्रद्युम्नेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। ।  सेनवंश भारतीय इतिहास में पहला वंश है जिसने अपने अभिलेख हिन्दी भाषा में उत्कीर्ण करवाये। लक्ष्मण सेन इस वंश का अंतिम एवं बंगाल का अंतिम हिन्दू शासक था। 

कश्मीर के राजवंश (Dynasties of Kashmir) कश्मीर पर क् रमानुसार शासन करने वाले वंश थे-कार्कोट वंश, उत्पल वंश एवं लोहार वंश। कश्मीर में कार्कोट वंश की स्थापना ‘7वीं शताब्दी में दुर्लभवर्द्धन ने की।  इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक ललितादित्य मुक्तापीड था।  ललितादित्य ने कश्मीर के प्रसिद्ध मार्तंड मंदिर का निर्माण कराया। 

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कार्कोट वंश के पश्चात अवन्ति वर्मन ने उत्पल वंश की स्थापना की।  उसने अवन्तिपुर नामक नगर की स्थापना की।  कश्मीर में उत्पल वंश के बाद लोहार वंशा की स्थापना संग्रामराज ने की। लोहार वंश का शासक हर्ष एक विद्वान कवि एवं कई भाषाओं का जाता था।  प्रसिद्ध कवि कल्हण उसी के दरबार में रहता था।  लोहार वंश का अंतिम शासक जयसिंह (1128 ई० 1155 ई०) था।  कल्हण की राजतरंगिणी में आरंभ से जयसिंह के काल तक का विवरण उल्लिखित है। 

वर्मन वंश (Varman Dynasty) चौथी शताब्दी के मध्य में कामरूप (असम) में वर्मन वंश की स्थापना हुई।  इस राज्य की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर थी।  इस वंश को प्रतिष्ठित करने वाला शासक भास्कर वर्मन था।  वह हर्षवर्द्धन का समकालीन था एवं दोनों में मित्रता थी।  कालांतर में कामरूप के राज्य को पाल-साम्राज्य में मिला लिया गया। हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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राजपूतों के वंश (Dynasties of Rajputs) ⋮ 29/9/2020

ऐसा माना जाता है कि राजपूत शब्द एक जाति या वर्ण-विशेष के लिए इस देश में मुसलमानों के आने के बाद प्रचलित हुआ। ‘राजपूत’ या ‘रजपूत’ शब्द संस्कृ त के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है। प्राचीन ग्रंथ कु मारपाल चरित् एवं वर्ण रत्नाकर आदि में राजपूतों के 36 कु लों की सूची मिलती है।  राजतरंगिणी में भी राजपूतों के 36 कु लों का विवरण दिया गया है। राजपूतों की उत्पत्ति के प्रश्न के संबंध में चर्चा के मुख्य के न्द्र में गुर्जरप्रतिहार रहे हैं।

गुर्जर-प्रतिहार वंश (Gurjar-Pratihar Dynasty) इस वंश की स्थापना नागभट्ट-1 ने 730 ई० में की।  नागभट्ट-I ने अरबों को सिंध से आगे नहीं बढ़ने दिया। नागभट्ट-I ने भड़ौंच एवं मालवा पर अधिकार कर लिया तथा गुजरात से ग्वालियर तक अपना राज कायम किया। इस वंश के शासक वत्सराज (778-805 ई०) ने कन्नौज नरेश इंद्रायुद्ध एवं पाल नरेश धर्मपाल को पराजित किया।  इस वंश के शासक नागभट्ट-II को राष्ट् रकू ट सम्राट गोविंद-III ने हराया था।  नागभट्ट-II ने बंगाल के शासक धर्मपाल को मुंगेर (बिहार) में हराया एवं वहाँ तक अपने शासन क्षेत्र का विस्तार किया।  इस वंश का सबसे अधिक प्रभावी शासक मिहिरभोज था। उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाई।  मिहिरभोज वैष्णव धर्म का अनुयायी था एवं उसने ‘विष्णु’ के सम्मान में आदिवाराह की उपाधि धारण की। अरब यात्री सुलेमान के अनुसार मिहिरभोज अरबों का स्वाभाविक शत्रु था।  संस्कृ त के प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर इस वंश के शासक महेन्द्रपाल के गुरु थे।  प्रतिहार वंश का अंतिम शासक राज्यपाल था। राजशेखर की प्रसिद्ध रचनाएँ कबीर मंजरी, काव्य मीमांसा, विठ्ठलशाला भंजिका, बाल रामायण, भुवन-कोष, हरविलास

गहड़वाल वंश (Gahdhwaal Dynasty) चन्द्रदेव गहरवार नामक एक व्यक्ति ने 1080-85 ई० के दौरान कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा इस वंश का शासन स्थापित किया।  गहड़वाल अनुश्रुतियों में इन्हें ययाति का वंशज कहा गया है। ।  चन्द्रदेव ने स्वयं को महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया।  चन्द्रदेव के राज्य में आधुनिक उत्तर-प्रदेश की लगभग समस्त भूमि शामिल थी तथा उसके राज्य की पूर्वी सीमा गया तक विस्तृत थी।   इस वंश का सबसे अधिक प्रभावशाली शासक गोविंदचंद था।  उसके विद्वान मंत्री लक्ष्मीधर ने कृ त्यकल्पतरु नामक ग्रंथ लिखा था।  इस वंश का अंतिम शासक जयचंद था, जिसकी पुत्री संयोगिता का अपहरण  पृथ्वीराज-III (चौहान वंश) ने किया था।  1/3

मुहम्मद गोरी ने 1194 ई० में चंदावर के युद्ध में जयचंद को मारकर इस वंश के शासन का अंत कर दिया। 

चौहान या चाहमान वंश (Chouhan Dynasty) इस वंश का उदय शाकं भरी (सांभर-अजमेर के आस-पास) में हुआ।  इस वंश का सर्वप्रथम लेख विक् रम संवत् 1030-973 ई० का दुर्लभ हर्ष लेख है जिसमें इस वंश के गूवक-I तक वंशावली दी गई है।  बिजौलिया शिलालेख के अनुसार इस वंश की स्थापना वासुदेव ने की।  चाहमानों की शक्ति का विशेष विकास अर्णोराज के पुत्र चतुर्भुज विग्रहराज बीसलदेव (1153-64 ई०) के काल में हुआ।  विग्रराज-IV ने प्रसिद्ध नाटक हरिके लि की रचना की।  विग्रहराज-IV के राजकवि सोमदेव ने प्रसिद्ध नाटक ललितविग्रहराज की रचना की। इस वंश का अंतिम एवं सबसे प्रसिद्ध शासक सोमेश्वर का पुत्र पृथ्वीराज-III (इतिहास में पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध) था।  पृथ्वीराज-III (1179-1193 ई०) के राजकवि चंदवरदायी ने प्रसिद्ध ग्रंथ पृथ्वीराज रासो की रचना की। 1193 ई० में मुहम्मद गोरी ने तराइन की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज-III को हराकर इस वंश के शासन का अंत कर दिया। 

परमार वंश (Parmar Dynasty) ’10वीं शताब्दी के आरंभ में जब प्रतिहारों का आधिपत्य मालवा पर से समाप्त हो गया तो वहाँ परमार शक्ति का उदय हुआ।  इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक श्रीहर्ष था।  इस वंश की स्थापना उपेन्द्रराज ने की तथा धारानगरी को अपनी राजधानी बनाया।  वास्तव में मालवा में परमारों की शक्ति का उत्कर्ष वाक्पति मुंज (972-94ई०) के काल में हुआ।  मुंज की सबसे बड़ी सफलता थी कल्याणी के चालुक्य राजा तैलप को हराना। भोज (1000-1055 ई०) इस वंश का सबसे लोकप्रसिद्ध राजा हुआ।  भोज ने अनेक भारतीय राजाओं को हराया। कहा जा है कि बिहार के पश्चिम में स्थित आराह के आस-पास का क्षेत्र ‘भोज’ के आधिपत्य के कारण भोजपुर कहलाता है।  राजा भोज कविराज की उपाधि से विभूषित था। उसने चिकित्सा, गणित एवं व्याकरण पर कई ग्रंथ लिखे।  राजधानी धारानगरी में भोज ने एक सरस्वती मंदिर का निर्माण कराया।  चितौड़ के त्रिभुवन नारायण मंदिर का निर्माण राजा भोज’ ने ही करवाया।  परमार वंश के बाद मालवा पर तोमर वंश का शासन हुआ, इस वंश के अनंगपाल तोमर ने ’11वीं सदी के मध्य में दिल्ली नगर की स्थापना की।  तोमर वंश के बाद चाहमान वंश का एवं 1297 ई० में अलाउद्दीन खिलजी का मालवा पर शासन हुआ।

चंदेल वंश (Chandel Dynasty) आधुनिक बुंदेलखंड की धरती पर प्रतिहार साम्राज्य के पतनावशेष पर चंदेल वंश का उदय हुआ।  खजुराहो इस वंश की राजधानी थी।  इस वंश की स्थापना 831 ई० में नन्नुक ने की थी। इस वंश की राजधानी पूर्व में कालिंजर (महोबा) में थी जिसे इस वंश के शासक धंग ने खजुराहो स्थानांतरित करवाया।  नन्नुक के पौत्रों जयसिंह एवं जेजा के कारण चंदेलों के राज्य क्षेत्र का नाम जेजाकभुक्ति पड़ा। शासक हर्षदेव (905-925 ई०) के समय से चंदेलों की शक्ति में वृद्धि हुई।  हर्षदेव के पुत्र यशोवर्मन को इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक होने का श्रेय प्राप्त है, उसने स्वयं को प्रतिहार साम्राज्य से स्वतंत्र किया था।  विश्वनाथ, जिन्ननाथ एवं वैद्यनाथ मंदिरों का निर्माण इस वंश के शासक धंग ने करवाया।  यशोवर्मन ने खजुराहो में एक विष्णु मंदिर की स्थापना की। इस वंश के शासक विद्याधर ने महमूद गजनी का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया।  चंदेल शासक कीर्तिवर्मन द्वारा महोबा के समीप कीर्तिसागर नामक एक जलाशय का निर्माण कराया गया।  2/3

कीर्तिमर्वन के दरबारी कवि कृ ष्ण मिश्र ने प्रबोध चंद्रोदय नामक प्रसिद्ध कृ ति की रचना की।  चंदेल शासक परमर्दिदेव के दरबार में आल्हा-उदल नामक दो वीर सेनानायक भाई रहते थे। इस वंश के अंतिम शासक परमादेव के शासनकाल में 1202 ई० में इस क्षेत्र को कु तुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। 

सोलंकी वंश गुजरात के चालुक्य (Sholanki Dynasty) इस वंश की स्थापना मूलराज-I (लगभग 942-95 ई०) ने की।  मूलराज-I ने अन्हिलवाड़ा को अपनी राजधानी बनाई एवं गुजरात के एक बड़े क्षेत्र पर अपना शासन कायम किया।  मूलराज-शैवधर्म का अनुयायी था।  सोलंकी शासक भीम-I के काल में महमूद गजनी ने सोमनाथ मंदिर को लूटा।  भीम-I के सामंत बिमल ने माउंट आबू पर्वत पर प्रसिद्ध दिलवाड़ा जैन मंदिर निर्मित कराया। इस वंश का पहला शक्तिशाली शासक जयसिंह सिद्धराज था जिसके दरबार में प्रसिद्ध जैन विद्वान हेमचंद्र सूरी रहता था।  जयसिंह सिद्धराज ने सिद्धपुर में रूद्रमहाकाल मंदिर का निर्माण कराया।  जयसिंह सिद्धराज ने आबू पर्वत पर अपने सातों पूर्वजों की गजारोही मूर्तियाँ स्थापित की। इस वंश का अंतिम शासक भीम-II था। 

चेदि वंश कलचूरि (Chedi Dynasty) कोक्कल नामक एक व्यक्ति ने इस वंश की स्थापना की तथा त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया।  इस वंश के एक शक्तिशाली शासक गांगेयदेव ने विक् रमादित्य की उपाधि धारण की।  इस वंश के सबसे महान शासक कर्णदेव ने कलिंग पर विजय प्राप्त करके त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि धारण की।  प्रसिद्ध साहित्यकार राजशेखर कलचूरियों के दरबार के रत्न थे।

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त्रिपक्षीय संघर्ष ⋮ 29/9/2020

हर्षवर्द्धन की मृत्यु के बाद भारत में तीन प्रमुख शक्तियों पाल, प्रतिहार एवं राष्ट् रकू ट वंशों का उदय हुआ, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में लंबे समय तक शासन किया।  कन्नौज पर प्रभुत्व के सवाल पर उपरोक्त तीनों राजवंशों के बीच ‘8वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में एक ‘त्रिपक्षीय संघर्ष’ आरंभ हुआ जो 200 वर्षों तक चला।  कन्नौज गंगा व्यापार मार्ग पर स्थित था और रेशम मार्ग से जुड़ा था। इससे कन्नौज रणनीतिक और व्यावसायिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण बन गया था। कन्नौज उत्तर भारत में हर्षवर्धन के साम्राज्य की तत्कालीन राजधानी भी थी। यशोवर्मन ने कन्नौज में 730 ईस्वी के आसपास साम्राज्य स्थापित किया। वह वज्रायुध, इंद्रायुध और चक् रायुध नाम के तीन राजाओं का अनुगामी बना जिन्होंने कन्नौज पर 8वीं सदी के अंत से 9वीं शताब्दी के पहली तिमाही तक राज किया था। दुर्भाग्य से, ये शासक कमजोर साबित हुए और कन्नौज की विशाल आर्थिक और सामरिक क्षमता का लाभ लेने के लिए कन्नौज के शासक, भीनमल (राजस्थान) के गुर्जर-प्रतिहार, बंगाल के पाल और बिहार तथा मान्यखेत (कर्नाटक) के राष्ट् रकू ट एक दूसरे के खिलाफ युद्ध करते रहे। इस संघर्ष में भाग लेने वाले पहले शासकों में वत्सराज (प्रतिहार वंश), ध्रुव (राष्ट् रकू ट वंश) एवं धर्मपाल (पाल वंश) थे। यह संघर्ष प्रतिहार शासक द्वारा बंगाल-विजय करने एवं राष्ट् रकू ट शासक से धिरने की घटनाओं के साथ आरंभ हुआ।  अंतत: इस संघर्ष में प्रतिहार वंश विजयी रहा। प्रतिहारों की ओर से मिहिरभोज, राष्ट् रकू टों की ओर से कृ ष्णा-III एवं पालों की ओर से नारायण पाल त्रिपक्षीय संघर्ष के अंतिम चरण में शामिल हुए।  प्रतिहार नरेश मिहिरभोज ने कृ ष्णा-III एवं नारायणपाल को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा उसे अपनी राजधानी बनाया। अधिक जानकारी के लिए Audio Notes सुनें – हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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प्राचीन काल का इतिहास [रिवीज़न नोट्स] Audio Included ⋮ 16/3/2015

प्राचीन इतिहास को जानने के स्त्रोत PART 1 अशोक के अभिलेखों को 8 वर्गो में विभक्त किया गया है अशोक के अधिकांश अभिलेख ‘ब्राह्मी’ लिपि में उत्कीर्ण है भारत में हिंदी,पंजाबी,गुजराती,मराठी,तमिल,तेलगु,एवं कन्नड आदि भाषाओं का विकास ‘ब्राह्मी’ लिपि से हुआ है ब्राह्मी लिपि को सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई0 में पढने में सफलता प्राप्त की शक शासक रुद्रामन ने सर्वप्रथम शुध्द संस्कृ त भाषा में अभिलेख खुदवाये रुद्रामन के अभिलेख गिरिनार व जूनागढ से प्राप्त हुए है जिन से दूसरी शताब्दी ई0 के पश्चिमोत्तर भारत के राजनीतिक एवं सामजिक स्थिति का ज्ञान होता है बामियान स्थित गौतम बुध्द की प्रतिमा से भारत के बाहर बौध्द धर्म के प्रसार की जानकारी प्राप्त होती है सिक्कों के अध्धयन को ‘न्यूमेस्मैटिक्स’ या मुद्राशास्त्र कहा जाता है कानिष्क के सिक्कों से पता चलता है कि वह बौध्द धर्म का अनुयायी था चंद्रगुप्त 2 ने शकों पर जीत प्राप्त करने की खुशी में चाँदी के सिक्के चलाए सर्वाधिक शुध्द स्वर्ण मुद्राएँ कु षाणों ने तथा सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएँ गुप्तों ने चलाई स्तूप की प्रथम चर्चा ऋग्वेद में मिलती है बौध्द विहार तथा स्तूपों का निर्माण 4-5 वीं शताब्दी के बाद हुआ मंदिर निर्माण की नागर,वेसर व द्रविड शैलियाँ प्रचलित थी मंदिरों का निर्माण गुप्त काल के बाद हुआ पटना के कु म्राहार से चंद्रगुप्त मौर्य के राजप्रसाद के अवशेष प्राप्त हुए है कम्बोडिया के अंगकोरवाट मंदिर तथा जावा के बोरोबुदुर मंदिर से भारतीय संस्कृ ति के साउथ एशिया मे प्रसार के प्रमाण मिलते हैं

प्रागेतिहासिक काल

पशुपालन का प्रारम्भिक प्रमाण मध्य पाशण काल् मे मध्य प्रदेश के आदमगद तथा राजस्थन के बागोर से मिलता है  मानव द्वारा प्रयुक्त सर्वप्रथम अनाज जौ था आगे सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास के सभी प्रमुख तथ्य जाने जिसमे शामिल हैं

सिंघु घाटी सभ्यता वैदिक संस्कृ ति जैन धर्म, बोद्ध धर्म, आदि मगध का उत्कर्श 1/3

पूर्व मौर्य काल सिकं दर का आक् रमण 1. मौर्य साम्रज्य का शासनकाल 321 ई0 पू0 से 184 ई0 पू0 तक चला 2. मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था 3. 322 ई0 पू0 में चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की सहायता से नन्द वंश के अंतिम शासक धनानंन्द की हत्या करके मौर्य साम्राज्य की स्थापना की 4. यूनानी साहित्य में चन्द्र्गुप्त मौर्य को सैंड्रोकोट्स कहा गया है 5. 305 ई0 पू0 में चन्द्रगुप्त का संघर्ष सिकं दर के सेनापति सेल्युकस निकोटर से हुई जिसमें चंद्रगुप्त की विजय हुई 6. चंद्रगुप्त के शासनकाल में मेगस्थनीज दरबार में आया और पाँच वर्षो तक पाटिलपुत्र रहा 7. मेगस्थनीज ने इन्डिका की रचना की जिसमें मौर्य साम्राज्य की दशा का वर्णन है 8. चंद्रगुप्त मौर्य ने सौराष्ट् र,मालवा,अवन्ति के साथ सुदूर साउथ भारत को मगध राज्य में मिलाया 9. चंद्रगुप्त ने बाद में जैन धर्म स्वीकार किया व भद्रबाहु से जैन धर्म को स्वीकार किया 10. चंद्रगुप्त मौर्य ने ई0 पू0 300 में अनशन व्रत करके कर्नाटक के श्रवणगोला में अपने शरीर का त्याग किया 11. 300 ई0 पू0 में बिंदुसार मगध की गद्दी पर बैठा 12. यूनानी इतिहासकारों ने बिंदुसार को अपनी रचनाओं में अमित्रोके ट्स की संज्ञा दी है जिसका अर्थ होता है शत्रु का विनाशक 13. वायु पुराण में बिंदुसार को भद्रसार तथा जैन ग्रंथों में सिंहसेन कहा गया है 14. बिंदुसार के शासन काल में तच्शिला में दो विद्रोह हुए पहले विद्रोह को उसके पुत्र सुसीम ने दबाया व दूसरे को अशोक ने दबाया 15. बिंदुसार की मृत्यु 273 ई0 पू0 हुई 16. बिंदुसार की मृत्यु के 4 वर्ष बाद ई0 पू0 269 में अशोक मगध की गद्दी पर बैठा 17. सिंहसनारुढ होते समय अशोक ने ‘देवनामप्रिय’ तथा प्रियदर्शी’ जैसी उपाधि धारण की 18. अशोक की माता का नाम सुभ्रद्रांगी था और वह चम्पा (अंग)की राजकु मारी थी 19. अशोक ने कश्मीर तथा खेतान पर अधिकार किया कश्मीर में अशोक ने श्रीनगर की स्थापना की 20. राज्यभिषेक के 8वें वर्ष 261ई0 पू0 में अशोक ने कलिंग पर आक् रमण किया 21. कलिंग के हाथी गुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस समय कलिंग पर नंदराज नाम का कोई राजा राज्य कर रहा था 22. कलिंग युध्द में व्यापक हिंसा के बाद अशोक ने बौध्द धर्म अपनाया 23. अशोक ने बौध्द धर्म का प्रचार-प्रसार किया उसने अपने पुत्र महेंद्र व पुत्री संघमित्रा को बौध्द धर्म के प्रचार के लिये श्रीलंका भेजा 24. अशोक ने 10 वें वर्ष में बोधगया व 20 वें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की 25. अशोक ने ‘धम्म’ को नैतिकता से जोडा इसके प्रचार प्रसार के लिये उसने शिलालेखों को उत्कीर्ण कराया 26. अशोक के शिलालेख ब्राही,ग्रीक,अरमाइक तथा खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण है तथा स्तम्भ लेख प्राकृ त भाषा में है 27. सर्वप्रथम 1750 ई0 में टील पैंथर ने अशोक की लिपि का पता लगाया 28. 1837 ई0 मे जेम्स प्रिंसेप ने अशोक के अभिलेखों को पढने में सफलता प्राप्त की 29. अशोक के बाद कु णाल गद्दी पर बैठा वृहद्रथ अंतिम मौर्य शासक बना 30. पुष्यमित्र शुंग ने वृहद्रथ की हत्या करके शुंग वंश की नींव रखी 31. पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण था व उस ने भागवत धर्म की स्थापना की 32. पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेघ यज्ञ किये 33. शुंग वंश का अंतिम शासक देवभूति था जिसकी हत्या 73 ई0 पू0 में उसके ब्राह्मण मंत्री वासुदेव ने की थी 34. कण्व वंश की स्थापना वासुदेव ने 73 ई0 पू0 में की थी 35. इस वंश का शासन मात्र 45 वर्ष रहा जिसमें 4 शसकों ने राज्य किया 36. सातवाहन वंश की सिमुक ने की गौतमीपुत्र शतकर्णी इस वंश का शक्तिशाली शासक था 37. गौतमीपुत्र शतकर्णी ने कार्ले का चैत्य मंदिर ,अजंता-एलोरा की गुफओं व अमरावती कला का विकास कराया 38. सातवाहन वंश मातृसत्तामक था तथा उनकी भाषा प्राकृ त व लिपि ब्राह्मी थी 39. सातवाहन शासकों ने सीसा,चाँदी,ताँबा व पोटीन के सिक्के चलाये 40. डेमेट्रियस-प्रथम ने ई0 पू0 183 में मौर्योत्तर काल में पहला यूनानी आक् रमण किया 2/3

41. भारत में सोने के सिक्के जारी करने वाला पहला शासक वंश हिंद यूनानी था 42. सबसे प्रसिध्द यवन शासक मिनांडर था जो बौध्द साहित्य में मिलिंद के नाम से प्रसिध्द है 43. शक वंश का सबसे प्रतापी शासक रुद्रामन था 44. विक् रमादित्य ने शकों पर जीत की स्मृति में 57 ई0 पू0 में विक् रम संवत चलाया 45. गोन्दोफर्निस पल्लवों का पहला शासक था इसके शासन काल में सेंट थॉमस ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने भारत आया 46. कु जुल कडफिसेस ने 15 ई0 में कु षाण वंश की स्थापना की उसका उत्तराधिकारी विम कडफिसेस था 47. कु षाण वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक कनिष्क था जो 78 ई0 मे गद्दी पर बैठा 48. कनिष्क ने पुरुषपुर को अपनी राजधानी बनाया तथा राज्यारोहण के वर्ष से शक संवत प्रारम्भ किया 49. चरक ‘चरक सहिंत’ के रचनाकार चरक को चिकित्साशस्त्र का जनक कहा जाता है इस ग्रंथ में रोग निवारण की औषिधियों का वर्णन मिलता है 50. गुप्त वंश के शासन का प्रारम्भ श्रीगुप्त द्वारा किया गया किं तु इस वंश का वास्तविक शासक चंद्र्गुप्त ही था 51. चंद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की 52. चंद्र्गुप्त के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना जो कि एक उच्च कोटि का कवि था 53. चंद्र्गुप्त2 के शासन काल में चीनी यात्री फाह्रान भारत यात्रा पर आया 54. कु मारगुप्त के शासन काल में नालान्दा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई इसे ऑक्सफोर्ड ऑफ महायान कहा जाता है 55. गुप्त युग में विभिन्न कलाओं मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला, संगीत, तथा नाट्य कला का अत्यधिक विकास हुआ

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(56 Facts PDF) प्राचीन इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ⋮ 20/5/2019

ऐतिहासिक स्त्रोत | प्रागेतिहासिक संस्कृ तियां | सिन्धु घाटी सभ्यता

Indian History Notes in Hindi – For UPSC, SSC, Railway and all other competitive Examinations 1. सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिन्सेप को अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता मिली। 2. भारत से बाहर सर्वाधिक प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के बोगजकोई नामक स्थान से लगभग 1400 ई.पू. के मिले हैं, जिसमें इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम मिलते हैं। 3. सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्यूमिस्मेटिक्स) कहा जाता है। 4. सर्वप्रथम हिन्द-यूनानियों ने ही स्वर्ण मुद्राएँ जारी कीं। | सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्राएँ कु षाणों ने तथा सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएँ गुप्तों ने जारी कीं।। 5. चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद) को सम्मिलित रूप से संहिता कहा जाता है। 6. ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ तथा यजुर्वेद में यज्ञों के नियम तथा विधि-विधानों का संकलन है। 7. सामवेद में यज्ञों के अवसर पर गाए जाने वाले मन्त्रों का संग्रह तथा अथर्ववेद में धर्म, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, तन्त्र-मन्त्र, जादू टोना  जैसे अनेक विषयों का वर्णन है। 8. उपनिषदों में अध्यात्म तथा दर्शन के गूढ़ रहस्यों का विवेचन हुआ है। वेदों का अन्तिम भाग होने के कारण इसे वेदान्त भी कहा जाता है। 9. सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ पालि भाषा में लिखित त्रिपिटक हैं। ये – हैं-सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटका 10. जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, इनकी रचना प्राकृ त भाषा में हुई है। 11. हेरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता है, जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक हिस्टोरिका’ है। 12. अज्ञात लेखक की रचना ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ में भारतीय बन्दरगाहों तथा वाणिज्यिक गतिविधियों का विवरण मिलता है। 1/3

13. फाह्यान की प्रसिद्ध रचना ‘फोक्यो-की’ अथवा ‘ए रिकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट कण्ट् रीज’ है। 14. द्वेनसाँग के यात्रा वृत्तान्त, सी-यू-की अथवा एस्से ऑन वेस्टर्न वर्ल्ड है। 15. अलबरूनी की रचना ‘तहकीके हिन्द’ में गुप्तोत्तर कालीन समाज का विविधतापूर्ण विवरण मिलता है। 16. पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आदिमानव का कोई जीवाश्म नहीं मिला है | 17. पशुपालन का प्रारम्भिक साक्ष्य मध्य पाषण काल काल में मध्य प्रदेश के आदमगढ़ तथा राजस्थान के बागोर से प्राप्त होता है | 18. भीमबेटका से चित्रकारी के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होते हैं | 19. मेहरगढ़ से कृ षि का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होता है | 20. मानव द्वारा प्रयुक्त सर्वप्रथम अनाज जौ था | 21. नवपाषाण कालीन स्थल बुर्झोम से गर्त निवास तथा कब्रों में मालिक के साथ पालतू कु त्ते दफनाये जाने का साक्ष्य मिलता है | 22. पिक्लीहल (कर्नाटक) से राख के ढेर एवं निवास स्थल दोनों मिले हैं 23. ताम्र पाषण काल के लोग गेंहू, धान और दाल की खेती करते थे, जो नवादाटोली (महाराष्ट् र) से प्राप्त हुए हैं | 24. चित्रित मृदभाँड़ो का प्रयोग सर्वप्रथम ताम्रपाशानिक लोगों ने ही किया | 25. अहाड का प्राचीन नाम ताम्ब्वती था यहाँ के लोग पत्थर के बने घरों में रहा करते थे | 26. सर्वप्रथम 1921 ई. में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अध्यक्ष जॉन 27. मार्शल के निर्देशन में हड़प्पा स्थल का ज्ञान हुआ। हड़प्पा की खोज 1921 ई. में दयाराम साहनी ने की थी। 28. सिन्धु घाटी सभ्यता का समूचा क्षेत्र त्रिभुजाकार है, जिसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किमी है। 29. हड़प्पा से कब्रिस्तान R-37 प्राप्त हुआ है। 30. हड़प्पा से काँसे का इक्का एवं दर्पण तथा सर्वाधिक अभिलेख युक्त मुहरें प्राप्त हुई हैं। 31. मोहनजोदड़ो का अर्थ होता है मृतकों का टीला। 32. काँसे की नग्न नर्तकी तथा दाढ़ी वाले साधु की मूर्ति मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है | 33. कालीबंगा का अर्थ काले रंग की चूड़ियाँ हैं। | 34. कालीबंगा से भूकम्प के प्राचीनतम साक्ष्य, ऊँ ट की हड्डियाँ तथा शल्य चिकित्सा के साक्ष्य भी प्राप्त हुए है। | 35. चन्हूदड़ो से मनके बनाने का कारखाना, बिल्ली का पीछा करता हुआ कु त्ता तथा सौन्दर्य प्रसाधनों में प्रयुक्त लिपिस्टिक का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। 36. चन्हूदड़ो एकमात्र पुरास्थल है जहाँ से वक् राकार ईंटें मिली हैं। 37. लोथल से गोदीवाड़ा (डॉकयार्ड) के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। 38. लोथल से स्त्री-पुरुष शवाधान (युग्म शवाधान) के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। 39. बनावली से अच्छे किस्म का जौ, ताँबे का वाणाग्र तथा पक्की मिट्टी के बने हल की आकृ ति का खिलौना प्राप्त हुआ है। | 40. सुरकोटडा से घोड़े की अस्थियाँ तथा एक विशेष प्रकार की कब्र प्राप्त हुई है | 41. रंगपुर से धान की भूसी का ढेर प्राप्त हुआ है। | 42. सुत्कागेण्डोर का दुर्ग एक प्राकृ तिक चट्टान पर बसाया गया था। | 43. सिन्ध से बाहर सिर्फ कालीबंगा की मुहर पर बाघ का चित्र मिलता है। 44. सर्वाधिक संख्या में मुहरें मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई हैं, जो मुख्यतः चौकोर हैं। 45. लोथल का अर्थ मुर्दो का नगर है। / 46. मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल विशाल स्नानागार है। | 47. सिन्धु सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत अन्नागार है। 48. सिन्धु सभ्यता के लोग सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का उपयोग करते थे। 49. लोथल से धान एवं बाजरे की खेती के अवशेष मिले हैं। 50. चावल की खेती का प्रमाण लोथल एवं रंगपुर से प्राप्त हुआ है। 51. सबसे पहले कपास पैदा करने का श्रेय सिन्धु सभ्यता के लोगों को दिया जाता है। 52. घोड़े के अस्तित्व के संके त मोहनजोदड़ो, लोथल, राणाघुण्डई एवं सुरकोटदा से प्राप्त हुए हैं। 53. कू बड़ वाला साँड़ सिन्धु घाटी सभ्यता का सबसे प्रिय पशु था। 54. मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर पशुपति शिव की आकृ ति से गैंडा, भैंसा, हाथी, बाघ एवं हिरण की उपस्थिति के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। 55. भारत में चाँदी सर्वप्रथम सिन्धु सभ्यता में पाई गई है।

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56. सैन्धवकालीन लोगों ने लेखन कला का आविष्कार किया था Download हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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पोरस कौन था ? ⋮ 19/6/2018

राजा पोरस (राजा पुरू भी) पोरवा राजवंश के वशंज थे, जिनका साम्राज्य पंजाब में झेलम और चिनाब नदियों तक (ग्रीक में ह्यिदस्प्स और असिस्नस) और उपनिवेश ह्यीपसिस तक फै ला हुआ था। इनका क्षेत्र हाइडस्पेश (झेलम) और एसीसेंस (चिनाब) के बीच था जो कि अब पंजाब का क्षेत्र है। पोरस ने हाइडस्पेश की लड़ाई में अलेक्जेंडर ग्रेट के साथ लड़ाई की। पुरुवंशी महान सम्राट पोरस का साम्राज्य विशालकाय था। महाराजा पोरस सिन्ध-पंजाब सहित एक बहुत बड़े भू-भाग के स्वामी थे। पोरस का साम्राज्य जेहलम (झेलम) और चिनाब नदियों के बीच स्थित था। पोरस अपनी बहादुरी के लिए विख्यात था। उसने उन सभी के समर्थन से अपने साम्राज्य का निर्माण किया था जिन्होंने खुखरायनों(खोखरों) पर उसके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया था। इतिहासकार मानते हैं‍कि पुरु को अपनी वीरता और हस्तिसेना पर विश्वास था लेकिन उसने सिकं दर को झेलम नदी पार करने से नहीं रोका और यही उसकी भूल थी। जब सिकं दर ने आक् रमण किया तो उसका गांधार-तक्षशिला के राजा आम्भी ने स्वागत किया और आम्भी ने सिकं दर की गुप्त रूप से सहायता की। आम्भी राजा पोरस को अपना दुश्मन समझता था। सिकं दर ने पोरस के पास एक संदेश भिजवाया जिसमें उसने पोरस से सिकं दर के समक्ष समर्पण करने की बात लिखी थी, लेकिन पोरस ने तब सिकं दर की अधीनता स्वीकार नहीं। भारतीयों के पास विदेशी को मार भगाने की हर नागरिक के हठ, शक्तिशाली गजसेना के अलावा कु छ अनदेखे हथियार भी थे जैसे सातफु टा भाला जिससे एक ही सैनिक कई-कई शत्रु सैनिकों और घोड़े सहित घुड़सवार सैनिकों भी मार गिरा सकता था। इस युद्ध में पहले दिन ही सिकं दर की सेना को जमकर टक्कर मिली। सिकं दर की सेना के कई वीर सैनिक हताहत हुए। यवनी सरदारों के भयाक् रांत होने के बावजूद सिकं दर अपने हठ पर अड़ा रहा और अपनी विशिष्ट अंगरक्षक एवं अंत: प्रतिरक्षा टुकड़ी को लेकर वो बीच युद्ध क्षेत्र में घुस गया। कोई भी भारतीय सेनापति हाथियों पर होने के कारण उन तक कोई खतरा नहीं हो सकता था, राजा की तो बात बहुत दूर है। राजा पुरु के भाई अमर ने सिकं दर के घोड़े बुकिफाइलस (संस्कृ त-भवकपाली) को अपने भाले से मार डाला और सिकं दर को जमीन पर गिरा दिया। ऐसा यूनानी सेना ने अपने सारे युद्धकाल में कभी होते हुए नहीं देखा था। सिकं दर जमीन परगिरा तो सामने राजा पुरु तलवार लिए सामने खड़ा था। सिकं दर बस पलभर का मेहमान था कि तभी राजा पुरु ठिठक गया। यह डर नहीं था, शायद यह आर्य राजा का क्षात्र धर्म था, बहरहाल तभी सिकं दर के अंगरक्षक उसे तेजी से वहां से भगा ले गए। [विदेशी आक् रमण] ईरानी एवं यूनानी आक् रमण | क्यों और कै से | परिणाम और प्रभाव हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें ! हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें ! 

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क्या राखीगढ़ी था हड्प्पा सभ्यता का प्रारम्भिक स्थल ? ⋮ 6/12/2017

डक्कन कॉलेज पुणे के खोदाई व पुरातत्त्व विशेषज्ञ प्रोफे सर वसंत शिंदे और हरियाणा के पुरातत्त्व विभाग द्वारा किए गए अब तक के शोध और खोदाई के अनुसार लगभग 5500 हेक्टेअर में फै ली यह राजधानी ईसा से लगभग 3300 वर्ष पूर्व मौजूद थी। इन प्रमाणों के आधार पर यह तो तय हो ही गया है कि राखीगढ़ी की स्थापना उससे भी सैकड़ों वर्ष पूर्व हो चुकी थी। प्रोफे सर शिंदे के अनुसार खोदाई के मध्य पाए गए नरकं कालों से लिए गए डीएनए नमूनों का अध्ययन जारी है और अब अंतरराष्ट् रीय स्तर पर राखीगढ़ी के अवशेषों का विश्लेषण किया जा रहा है। अब तक यही माना जाता रहा है कि इस समय पाकिस्तान में स्थित हड़प्पा और मुअनजोदड़ो ही सिंधुकालीन सभ्यता के मुख्य नगर थे। इस गांव में खोदाई और शोध का काम रुक-रुक कर चल रहा है। हिसार का यह गांव दिल्ली से एक सौ पचास किलोमीटर की दूरी पर है। पहली बार यहां 1963 में खोदाई हुई थी और तब इसे सिंधु-सरस्वती सभ्यता का सबसे बड़ा नगर माना गया। उस समय के शोधार्थियों ने सप्रमाण घोषणाएं की थीं कि यहां दफ्न नगर, कभी मुअनजोदड़ो और हड़प्पा से भी बड़ा रहा होगा। विलुप्त सरस्वती नदी के किनारों पर ही स्थित था यह शहर। पुरातत्त्वविदों का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता का प्रारंभ इसी राखीगढ़ी से माना जा सकता है। 1997 में यहां से, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग को जो कु छ भी उत्खनन के मध्य मिला, उससे पहला तथ्य यह उभरा कि ‘राखीगढ़ी’ शहर लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की परिधि में फै ला हुआ था। यहां से जो भी पुराने अवशेष मिले उनकी उम्र पांच हजार वर्ष से भी अधिक है। राखीगढ़ी में कु ल नौ टीले हैं। उनका नामकरण, शोध की सूक्ष्मता के मद्देन जर आरजीआर से आरजीआर-9 तक किया गया है। आरजीआर-5 का उत्खनन बताता है कि इस क्षेत्र में सर्वाधिक घनी आबादी थी। वैसे भी इस समय यहां पर आबादी घनी है इसलिए आरजीआर-5 में ज्यादा उत्खनन संभव नहीं है। लेकिन आरजीआर-4 के कु छ भागों में उत्खनन संभव है। 2014 में राखीगढ़ी की खोदाई से प्राप्त वस्तुओं की ‘रेडियो-कार्बन डेटिंग’ के अनुसार इन अवशेषों का संबंध हड़प्पा-पूर्व और प्रौढ़हड़प्पा काल के अलावा उससे भी हजारों वर्ष पूर्व की सभ्यता से भी है। आरजीआर-6 से प्राप्त अवशेष इस सभ्यता को लगभग 6500 वर्ष पूर्व तक ले जाते हैं। अब सभी शोध विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि राखीगढ़, भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान का आकार और आबादी की दृष्टि सबसे बड़ा शहर था। इस क्षेत्र में विकास की तीन-तीन परतें मिलीं हैं। लेकिन अभी भी इस क्षेत्र का विस्तृत उत्खनन बकाया है। प्राप्त विवरणों के अनुसार इस समुचित रूप से नियोजित शहर की सभी सड़कें 1.92 मीटर चौड़ी थीं। यह चौड़ाई काली बंगा की सड़कों से भी ज्यादा है। कु छ चारदीवारियों के मध्य कु छ गड्ढे भी मिले हैं, जो संभवत: किन्हीं धार्मिक आस्थाओं से जुड़ी बलि-प्रथा के लिए प्रयुक्त होते थे। एक ऐसा बर्तन भी मिला है, जो सोने और चांदी की परतों से ढका है। इसी स्थल पर एक ‘फाउंड्री’ के भी चिह्न मिले हैं, जहां संभवत: सोना ढाला जाता होगा। इसके अलावा टैराकोटा से बनी असंख्य प्रतिमाएं तांबे के बर्तन और कु छ प्रतिमाएं और एक ‘फर्नेस’ के अवशेष भी मिले हैं। एक श्मशान-गृह के अवशेष भी मिले हैं, जहां 8 कं काल भी पाए गए हैं। उन कं कालों का सिर उत्तर दिशा की ओर था। उनके साथ कु छ बर्तनों के अवशेष भी हैं। शायद यह उन लोगों की कब्रगाह थी, जो मुर्दों को दफ्नाते थे। अप्रैल 2015 में आरजीआर-7 की खोदाई के मध्य चार नर कं काल भी मिले। इनमें से तीन की पहचान पुरुष और एक की स्त्री के रूप में की जा सकी है। इनके पास से भी कु छ बर्तन और कु छ खाद्य-अवशेष मिले। इस सारी खोदाई के मध्य नवीनतम टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया गया ताकि संभव हो तो इन अवशेषों का डीएनए टैस्ट भी हो सके । इससे यह भी पता चल पाएगा कि लगभग 4500 वर्ष पहले हड़प्पन लोगों की शारीरिक संरचना कै सी थी। राखीगढ़ी में ‘हाकड़ा वेयर’ नाम से चिह्नित ऐसे अवशेष भी मिले हैं, जिनका निर्माण काल सिंधु घाटी सभ्यता और सूख चुकी सरस्वती नदी घाटी के काल से मेल खाता है। इस क्षेत्र में आठ ऐसी समाधियां और कब्रें भी मिली हैं, जिनका निर्माण काल लगभग पांच हजार 1/4

वर्ष पूर्व तक तो ले ही जाता है। एक कं काल तो लकड़ी के भुरभुरे हो चुके ताबूत में मिला। कु छ विशिष्ट समाधियों और कब्रों पर छतरियां बनाने की प्रथा भी थी। फिलहाल, राखीगढ़ी में कु छ समय से उत्खनन बंद है, क्योंकि इस क्षेत्र में राजकीय अनुदानों का दुरुपयोग संबंधी आरोपों की जांच इन दिनों सीबीआई कर रही है। मई 2012 में ‘ग्लोबल हैरिटेज फं ड’ ने इसे, एशिया के दस ऐसे ‘विरासत-स्थलों’ की सूची में शामिल किया है, जिनके नष्ट हो जाने का खतरा है। एक अखबार की विशेष रिपोर्ट के अनुसार इस क्षेत्र में कु छ ग्रामीणों और कु छ पुरातत्त्वतस्करों ने अवैध रूप से कु छ क्षेत्रों में खोदाई की थी और यहां से कु छ दुर्लभ अवशेष अंतरराष्ट् रीय बाजार में भी बेचे गए हैं। आसपास के कु छ क्षेत्रों में नए निजी निर्माण भी देखे जा सकते हैं। वैसे, 1997 से लेकर अब तक सर्दियों के मौसम में तीन बार अधिकृ त रूप में भी खुदाइयां हो चुकी हैं और जो कु छ भी मिला है, वह सिंधु-सरस्वती सभ्यता की एक खुली और विस्तृत दृष्टि से देखने पर विवश करता है।

राखीगढ़ी का पुरातात्त्विक महत्त्व विशिष्ट है। इस समय यह क्षेत्र पूरे विश्व के पुरातत्त्व-विशेषज्ञों की दिलचस्पी और जिज्ञासा का कें द्र है। यहां बहुत से काम बकाया हैं, जो अवशेष मिले हैं, उनका समुचित अध्ययन अभी शेष है। उत्खनन का काम अब भी अधूरा है।

‘उस पार’ की स्थापत्य कला भारतीय स्थापत्य कला के इतिहास का अध्ययन हमें सैंधव सभ्यता से जोड़ता है। मुअनजोदड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष गवाही देते हैं कि ये दोनों सभ्यताएं लगभग समकालीन थीं। मुअनजोदड़ो, पाकिस्तान सिंध प्रदेश के जिला लरकाना में स्थित है और हड़प्पा जिला मौंटगुमरी (जिला साहीवाल) में रावी के किनारे स्थित है। अवशेष बताते हैं कि ये दोनों सभ्यताएं ईरान के एलाम क्षेत्र और इराक के दजला-फरात की घाटी में बसे नगरो-ं सुमेरी, कीश, ऊर बाबुल और असूरी तक फै ली हुई थीं। इन सारे अवशेषों में एकरूपता है। विकास के क्षेत्र के साथ-साथ इनका स्वरूप भी बदलता रहा। अध्ययन में एक तथ्य यह भी उभरता है कि इस काल की सभ्यता मातृसत्तात्मक थी। वैसे भी उस काल के महातृरूपेण देवी की पूजा की ओर विशेष रुझान इसी व्यवस्था का संके त देते हैं। वैसे सिंधु सभ्यता के विषय में प्राप्त जानकारी का इतिहास भी बेहद रोचक है। पिछली सदी में एक प्रख्यात भारतीय पुरातत्त्व विशेषज्ञ राखालदास वंद्योपाध्याय को सबसे पहले कु षाण कालीन स्तूप और बौद्ध अवशेष मिले थे। उन्हीं अवशेषों के नीचे सोया था एक विशाल नगर। वंद्योपाध्याय से पूर्व एक युवा पुरातत्त्व विशेषज्ञ ननिगोपाल मजूमदार ने उत्खनन का जोखिम उठाया था, मगर उसकी खोदाई के मध्य ही बलोच डाकु ओं के एक दल ने उसे गोली मार दी। वैसे भी उत्खनन का इतिहास बताता है कि इन दोनों प्राचीन सम्यताओं के साथ तोड़फोड़, लूटमार और छेड़छाड़ करने के आरोपी दूसरी तीसरी सदी के बौद्ध भिक्षु भी थे और उस काल के वे पंजाबी ग्रामीण व ब्रिटिश इंजीनियर भी दोषी थे, जिन्होंने पुराने गड़े खजानों की तलाश में अवशेषों से छेड़छाड़ की। मगर जो भी अब तक मिला है वह बताता है कि अविभाजित भारत के उस भाग में लगभग चार हजार वर्ष पूर्व भी सभ्यता एवं निर्माण कलाएं, पूर्णतया विकसित थीं। मुअनजोदड़ो के भग्नावशेषों से प्राप्त उत्तरकालीन मुहरों का ईसा से लगभग छाई हजार वर्ष पुराना काल इसी तथ्य की पुष्टि करता है। हड़प्पा की खोदाई में एक कोण के आकार का शृंगारदान उन शृंगारदानों की तरह का है जो इस खोदाई में राजाओं की कब्रों पर भी मौजूद पाए गए। इसी क् रम में (वर्तमान) पाकिस्तान में अनेक ऐसे हिंदू मंदिरों के अवशेष मौजूद हैं जो उस काल की सभ्यता, संस्कृ ति और आध्यात्मिक आचरण की गवाही देते हैं।

गांधार कला वास्तव में ग्रीक भारतीय कलाशैली का विकसित स्वरूप गांधार शैली कहलाता है। यह शैली अफगानिस्तान और पश्चिमी पंजाब के बीच गांधार क्षेत्र में ही फली-फू ली थी। इस शैली के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवशेष अफगानिस्तान के जलालाबाद, हड्डा और बामियान क्षेत्रों के अलावा स्वात घाटी, पेशावर (पुष्कलावती) और तक्षशिला सरीखे क्षेत्रों से भारी मात्रा में मिले हैं। इस काल की मूर्तिकला का अध्ययन करना हो तो वर्तमान भारत में शायद अधिक सामग्री प्राप्त भी नहीं है। लाहौर और पेशावर के संग्रहालयों में यह सामग्री मौजूद है, मगर इसका महत्त्वपूर्ण भाग सिर्फ ब्रिटिश संग्रहालय में ही उपलब्ध है। वैसे अफगानिस्तान 2/4

क्षेत्र के अनेक महत्त्वपूर्ण अवशेष पेरिस के संग्रहालय ‘मूजी गीर्मे’ में भी बिखरे पड़े हैं। इसी कलात्मकता के दर्शन मुझे 1988 में कटासराज की यात्रा के मध्य हुए। यहीं पर नियुक्त एक उपायुक्त (जो कि स्वयं भारतीय दर्शन और पुरातत्त्व के छात्र रहे थे) ने अनौपचारिक बातचीत में बताया था कि भारतीय व्याकरण के सूत्रधार पाणिनि का जन्म यूसफजई इलाके में स्थित लाहूर नामक गांव में हुआ था। यूसफजई का पूरा क्षेत्र गांधार का मध्य भाग माना जाता है। इस क्षेत्र में कनिष्क ने कु छ अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्माण कलाकार थे। इनमें पेशावर का विशाल स्तूप भी शामिल था। इस स्तूप का उल्लेख चीनी यात्री फाह्यान और हुएत्सांग ने भी किया है। फाह्यान के अनुसार यह स्तूप 638 फु ट ऊं चा था और दंड व छत्र के अलावा इसकी अठारह मंजिलें थीं जबकि आधार में भी पांच स्तर थे। उन्हीं से प्राप्त विवरणों के अनुसार उसी इलाके में एक ‘शाहजी की ढेरी’ जहां पुरातत्त्व विभाग की ओर से खोदाई भी की गई थी। यहां भी एक विशाल स्तूप का आधार मिला है, जिसकी परिधि 186 फु ट है। इसी स्तूप के गर्भ में एक अस्थिपेटी मिली थी, जो प्राप्त विवरणों के अनुसार कनिष्क के काल की था। लगभग आठ फु ट ऊं ची इस पेटी के ऊपर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। इसके ऊपरी भाग में ही बुद्ध की प्रभामंडलधारी स्वर्ण प्रतिमा है। दोनों ओर बोद्धिसत्व प्रणाम की मुद्रा में बैठे हैं। साथ ही एक अभिलेख है जिसमें कनिष्क और अगिशल का नाम खुदा है। अगिशल के बारे में बताया यही जाता है कि वह एक ग्रीक सुनार था। जातक कथाओं में दिए गए वर्णन के अनुसार तक्षशिला में भी बुद्ध के समय एक विशाल विश्वविद्यालय था। वहां की खोदाई में शकपार्थव, हिंदू-ग्रीक, मौर्य-शुंग और कु षाण युग की इमारतें व मूर्तियां मिली हैं। इन मूर्तियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें मूर्तिकारों ने मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग, पूरे सूक्ष्म विवरणों के साथ छेनी और हथौड़ी से गढ़े। कहीं भी किसी मूर्ति की पीठ पर या नीचे कलाकारों ने अपनी कला का सृजन वर्ष या अपना नाम देने का प्रयास भी नहीं किया। मुअनजोदड़ो और हड़प्पा की खोदाई से प्राप्त कु छ मूर्तियां तो अद्भुत हैं। दो मूर्तियों का जिक् र अक्सर कलाविदों और शोधार्थियों ने किया है। एक मूर्ति नर्तक की है, दूसरी नर्तकी की मूर्ति है। दोनों मूर्तियों में मुद्राएं गतिशील दिखती हैं। एक लय ताल मौजूद है। मूर्तियां कई कोणों से क्षत विक्षत हैं, मगर जो भी अंग, बांहें, पांव, ग्रीवा, जांघें बची हैं, उनमें भांव भंगिमा, मुद्रा व लय ताल पूरी तरह मौजूद हैं। मुअनजोदड़ो के संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि बलूचिस्तान (क्वेटा, कु ल्ली व नंदना) और सिंध के अम्री क्षेत्रों की खुदाइयों से स्पष्ट हुआ है कि ईसा से लगभग चार शताब्दी पूर्व इस क्षेत्र में कु छ ऐसी जातियां आर्इं, जिनकी सभ्यता ईराक से जुड़ी थी। खेतीबाड़ी और पशुपालन के अलावा चक् राकार बर्तनों और कलाकृ तियों के चित्रण और मातृदेवी आदि के विभिन्न स्वरूप भी उसी काल से मिलते रहे हैं। समूची खोदाइयां यह प्रमाणित करती हैं कि मुअनजोदड़ो और हड़प्पा सैंधव सभ्यता के दो प्रमुख नगर थे।

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7 ऐसे युद्ध जिन्होंने भारत का इतिहास बदल दिया ⋮ 14/11/2016

भारत में प्राचीन काल से आज तक अनेकों युद्ध लड़े गए लेकिन कु छ युद्ध ऐसे भी हुए जिन्होंने भारत के इतिहास को बदल कर रख दिया।  चलिये जानें ऐसे 7 युद्धों के बारे में जिन्होंने भारत का इतिहास बदल कर रख दिया

1. कलिंग का युद्ध (261 ईसा पूर्व) कलिंग की और से 60000 सिपाही की सेना लड़ाई के मैदान में थी, तथा मौर्य सेना में 1 लाख से अधिक सिपाही थे। इस युद्ध में महा-नरसंहार हुआ, लगभग समस्त कलिंग सेना मारी गयी और मौर्य सेना को भी विजय की भारी कीमत चुकानी पड़ी। युद्ध की विभीषिका देख कर सम्राट अशोक के ह्रदय-परिवर्तन के बाद बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और भविष्य में युद्ध नहीं करने की प्रतिज्ञा भी की। परिणाम   भारत के सबसे शक्तिशाली सम्राट के बौद्ध धर्म ग्रहण कर अहिंसा के पथ पर चले जाने का प्रभाव भारत के इतिहास पर हमेशा के लिये रह गया। बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ता गया और फिर एक समय संसार के सबसे आक् रामक साम्राज्य के अधिकाँश राजा अहिंसा पथ पर चल पड़े। परिणामस्वरूप सैन्य बल में कम होते हुए भी विदेशी हमलावर अपनी आक् रमक रणनीति के बल पर यहां के राजाओं को परास्त करने में सफल रहे।

2. तराइन की दूसरी लड़ाई (1192) सन 1191 तक भारत मुख्य रूप से हिन्दू राजपूत राजाओं के अनेक साम्राज्यों में बंटा हुआ था। इससे पहले कु छ पश्चिमी हमलावर यहाँ आये जरूर लेकिन वो भारत के पश्चिमी भू-भाग तक लूट-पाट करने तक सीमित रहे और वापस लौट गए। सन 1191 में पहली बार अफगानिस्तान के गौर प्रान्त के मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक् रमण किया। उसका मुकाबला दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में स्थित तराइन के के मैदान में राजा पृथ्वीराज चौहान से हुआ। गौरी की हार हुई लेकिन अगले वर्ष वह फिर और अधिक तैयारी और सेना के साथ वापस लौटा। सन 1192 के इस तराइन के युद्ध में अपनी आक् रामक घुड़सेना और रणनीति से उसने चौहान की भारी-भरकम सेना को हरा दिया। पृथ्वीराज चौहान इस लड़ाई में मारा गया। इस युद्ध के बाद भारत में राजपूत राजाओं के राज का धीरे-धीरे अंत हो गया। परिणाम  भारत के इतिहास पर इस युद्ध से ज्यादा राजनीतिक-सामाजिक प्रभाव किसी और युद्ध का नहीं पड़ा। भारत में इस्लामिक शासन की शुरुआत इसी युद्ध से मानी जा सकती है। 3. पानीपत का युद्ध (1526) 1/4

उस समय दिल्ली पर लोदी सल्तनत के इब्राहिम लोदी का राज था। दिल्ली के पास स्थित पानीपत में काबुल के शासक बाबर और इब्राहिम लोदी की सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। लोदी की सेना संख्या में अधिक और ज्यादा शक्तिशाली थी किन्तु उस समय के सामरिक हथियारों से कहीं उन्नत हथियार – अपनी 24 तोपों – के दम पर बाबर ने लोदी की सेना को हरा दिया और इस लड़ाई में इब्राहिम लोदी की मौत हुई। इस प्रकार संसार के सबसे शक्तिशाली और लम्बे समय तक चलने वाले साम्राज्यों में से एक – मुग़ल शासन – की भारत में स्थापना हुई। परिणाम मुग़ल शासन ने भारत के राजनीतिक, आर्थिक एवं सामजिक इतिहास को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया। आज जो भारत, विशेषकर उत्तर भारत, का ताना – बाना है, उसकी नींव मुग़ल शासन की स्थापना के साथ ही रख दी गई थी।

4. प्लासी का युद्ध (1757) उस समय भारत में फ् रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच व्यापारिक और भविष्य के सामरिक आधिपत्य को लेकर संघर्ष चल रहा था। सिराज-उद -दौला फ् रांसीसियों के समर्थन में था। सन 1756 में उसने अंग्रेजों के कलकत्ता स्थित व्यापार कें द्र पर हमला कर वहां मौजूद ब्रिटिश फ़ौज का नर-संहार कर दिया था। प्लासी की लड़ाई में में मीर जाफर ने सिराजुद्दौला से गद्दारी कर ब्रिटिश फौजों का साथ दिया। इस लड़ाई के बाद कु छ समय बंगाल की कमान मीरजाफ़र के हाथ रही किन्तु जल्दी ही उन्होंने वहां का शासन अपने हाथ में लेकर खुद ही बंगाल में राज करना आरम्भ कर दिया। परिणाम  प्लासी की लड़ाई ने भारत में अंग्रेजों के पांव मजबूती से जमा दिए। लार्ड क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कं पनी की सेना ने नवाब सिराजुद्दौला की सेना को प्लासी की लड़ाई में पूरी तरह से तहस-नहस कर के बंगाल में ब्रिटिश शासन स्थापित कर दिया। यहाँ से कमाई हुई दौलत के बल उन्होंने अपनी सेना को और मजबूत किया और धीरे धीरे पूरे भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना कर डाली। 5. कोहिमा का युद्ध (1944)   कोहिमा भारत में बर्मा की सीमा के निकट नागालैंड में स्थित है। कोहिमा का यह युद्ध इतिहास में “पूरब के स्टालिनग्राद‘ के नाम से प्रसिद्ध है। बर्मा पर जापानियों का आधिपत्य था जिन्होंने भारत में आधिपत्य की महत्वाकांक्षी योजना बनाई ताकि यहाँ सम्पदा का इस्तेमाल युद्ध में किया जा सके और अंग्रेजों की ताकत को कमजोर किया जा सके क्यूंकि अंग्रेज भी उस समय सेना और संसाधनों के लिए भारत पर ही निर्भर थे। परिणाम यहां पर मिली पराजय द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान जापानी फौजों को मिलने वाली सबसे महत्वपूर्ण शिकस्त थी जिसने भारतीय उपमहाद्वीप और संभवतया सारे संसार में जापानियों को बढ़ने से रोक दिया। इस भयानक युद्ध में जापानियों की हार हुई और भारत का इतिहास नए सिरे से लिखते-लिखते रह गया। यदि भारत या इसके बड़े भू-भाग पर जापानी अपना कब्ज़ा ज़माने में कामयाब हो जाते तो यह मित्र देशों के लिए बड़ा सामरिक नुक्सान होता। साथ ही भारत का इतिहास भी हमेशा के लिए बदल जाता क्यूंकि संभव है कि मात्र तीन वर्ष बाद भारत को मिलने वाली स्वतंत्रता जापानी शासन के तले संभव न हो पाती। 6. तालीकोटा की लड़ाई

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तालीकोटा की लड़ाई 26 जनवरी 1565 ईस्वी को दक्कन की सल्तनतों और विजयनगर साम्राज्य के बीच लड़ा गया था विजयनगर साम्राज्य की यह लडाई राक्षस-टंगडी नामक गावं के नजदीक लड़ी गयी थी. इस युद्ध में विजय नगर साम्राज्य को हार का सामना करना पड़ा. तालीकोटा की लड़ाई के समय, सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य का शासक था. लेकिन वह एक कठपुतली शासक था. वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय द्वारा प्रयोग किया जाता था. सदाशिव राय नें दक्कन की इन सल्तनतों के बीच अंतर पैदा करके उन्हें पूरी तरह से कु चलने की कोशिश की थी. हालाकि बाद में इन सल्तनतों को विजयनगर के इस मंसूबे के बारे में पता चल गया था और उन्होंने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण किया. और विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था. दक्कन की सल्तनतों ने विजयनगर की राजधानी में प्रवेश करके उनको बुरी तरह से लूटा और सब कु छ नष्ट कर दिया.

परिणाम तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् दक्षिण भारतीय राजनीति में विजयनगर राज्य की प्रमुखता समाप्त हो गयी. मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में के लादी के नायकों नें विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की. यद्यपि दक्कन की इन सल्तनतों नें विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दुसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक् रमण के शिकार हुए. 7. करनाल का युद्ध  करनाल का युद्ध 24 फ़रवरी, 1739 ई. को नादिरशाह और मुहम्मदशाह के मध्य लड़ा गया नादिरशाह के आक् रमण से भयभीत होकर मुहम्मदशाह 80 हज़ार सेना लेकर ‘निज़ामुलमुल्क’, ‘कमरुद्दीन’ तथा ‘ख़ान-ए-दौराँ’ के साथ आक् रमणकारी का मुकाबला करने के लिए चल पड़ा था। शीघ्र ही अवध का नवाब सआदत ख़ाँ भी उससे आ मिला। करनाल युद्ध तीन घण्टे तक चला था।

परिणाम इस युद्ध में ख़ान-ए-दौराँ युद्ध में लड़ते हुए मारा गया, जबकि सआदत ख़ाँ बन्दी बना लिया गया। सम्राट मुहम्मदशाह, निज़ामुलमुल्क की इस सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और उसे ‘मीर बख़्शी’ के पद पर नियुक्त कर दिया सआदत ख़ाँ ने मीर बख़्शी के इस पद से वंचित रहने के कारण नादिरशाह को धन का लालच देकर दिल्ली पर आक् रमण करने को कहा। नादिरशाह ने दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया, तथा वह 20 मार्च, 1739 को दिल्ली पहुँचा। दिल्ली में नादिरशाह के नाम का ‘खुतबा’ पढ़ा गया तथा सिक्के जारी किए गए। नादिरशाह दिल्ली में 57 दिन तक रहा और वापस जाते समय वह अपार धन के साथ ‘तख़्त-ए-ताऊस’ तथा कोहिनूर हीरा भी ले गया

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